आरक्षण, आरक्षण विरोधी आंदोलन और संघ परिवार
-भुवन
देश में एस.सी., एस.टी. व ओ.बी.सी. के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान है। एस.सी. के लिए 14 प्रतिशत (15 प्रतिशत), एस.टी. के लिए 7 प्रतिशत (7.5 प्रतिशत) व ओ.बी.सी. के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। ओ.बी.सी. के तहत लंबे वक्त से आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ी जातियां हैं। जहां एस.सी. व एस.टी. का प्रावधान व इसके तहत आरक्षण का प्रावधान 1947 के बाद कुछ सालों के दौरान किये गए थे। वहीं ओ.बी.सी. के तहत प्रावधान 90 में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के रूप में हुआ था। मंडल कमीशन जनता पार्टी की सरकार के द्वारा गठित किया गया था।
मंडल कमीशन की सिफारिशों के हिसाब से जब 90 में ओ.बी.सी. के तहत 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया तब इसका देश के भीतर सवर्ण समुदाय के युवाओं द्वारा जबरदस्त विरोध हुआ था। तब से अब तक इन लगभग तीन दशकों में आरक्षण की मांग, आरक्षण का विरोध या इसे कमजोर करने के अलग-अलग आंदोलन हुए हैं।
अब जब से मोदी सरकार सत्ता में आयी है उसके बाद से अलग-अलग वक्त पर आरक्षण के खिलाफ संघ परिवार की आवाज भी किंतु-परंतु के साथ जोर पकड़ती रही है। घोर जातिवादी विचार से ग्रसित संघ परिवार आरक्षण के विरोध में ‘आर्थिक आधार पर आरक्षण’ का तर्क उछालता है। इनके ही काल में जब एक ओर दलितों-आदिवासियों पर गौरक्षा आदि के नाम पर हमले बढे़ हैं तो वहीं दूसरी ओर से एससी-एसटी एक्ट में फेरबदल कर कमजोर करने का काम भी न्यायालय के माध्यम से किया गया। इसके विरोध में देश भर में प्रदर्शन हुए तो अंततः चुनावी दबाव में मोदी सरकार को पुरानी स्थिति बहाल करनी पड़ी। मोदी, भाजपा व संघ परिवार के चलते सवर्ण जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त सवर्ण लोगों को लगता था कि एससी-एसटी एक्ट खत्म हो जाएगा और जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था भी खत्म हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस दौर में भी इसी प्रतिक्रिया में सवर्ण जातिवादी मानसिकता से ग्रसित सवर्णों ने राजस्थान से लेकर उत्तराखंड तक में आरक्षण विरोधी प्रदर्शन किए। ‘आर्थिक आधार पर आरक्षण’ का तर्क सवर्ण समुदाय के लोगों का अपनी आर्थिक, सामाजिक स्थिति के चलते पैदा होने वाला तर्क है। एक दशक पहले ‘यूथ फाॅर इक्वैलिटी’ नाम का बैनर भी इसी समुदाय के युवाओं द्वारा खड़ा किया गया था। जाति आधारित आरक्षण का विरोध करते हुए यह ‘आर्थिक आधार पर आरक्षण’ की वकालत करता था। ‘आर्थिक आधार पर आरक्षण’ का तर्क प्रस्तुत करने वालों को उस तथ्य से कोई मतलब नहीं कि यह आबादी सैकड़ों-हजारों साल से आर्थिक सामाजिक तौर पर हाशिये पर धकेल दी गई थी। इन्हीं के शोषण-उत्पीड़न के दम पर तब का ‘‘स्वर्ग“ रचा गया।
इसीलिए भारतीय शासकों ने सामाजिक न्याय के तर्क के तहत आरक्षण के प्रावधान के जरिये सामाजिक तौर पर बराबरी पर लाने के लिए अपने हिसाब से सहूलियत भरा रास्ता अपनाया था। संविधान में छुआछूत के खात्मे के प्रावधान किए गए। हालांकि यह सामाजिक गैरबराबरी को खत्म करने का, जातिवाद को खत्म करने का केवल सुधारवादी रास्ता था। यह सामाजिक बराबरी लाने का पूंजीवादी क्रांतिकारी रास्ता नहीं था।
आरक्षण के विरोध के अलावा आरक्षण की मांग को लेकर भी उन समुदायों द्वारा बड़े आंदोलन किये हैं जो एक दौर में प्रभावशाली व सम्पन्न माने जाते रहे हैं। महाराष्ट्र का मराठा आंदोलन, गुजरात का पाटीदार आंदोलन, राजस्थान का गुर्जर आंदोलन साथ ही हिंदी भाषी बेल्ट में जाट आंदोलन इसी ढंग के आंदोलन हैं। जाट आंदोलन जहां आरक्षण हासिल करने के लिए खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की मांग करता रहा है वहीं गुर्जर आंदोलन अपने को ओबीसी से अनुसूचित जन जाति में शामिल करने की मांग करता है। सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से आरक्षण 50 प्रतिशत से ऊपर नहीं हो सकता लेकिन इसके बावजूद विशिष्ट स्थिति का तर्क देकर हरियाणा में 70 प्रतिशत तो तमिलनाडु में यह 64 प्रतिशत है।
ये आन्दोलन जो आरक्षण के विरोध में होते हैं या फिर जो आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत करते हैं या फिर वे जो खुद को अनुसूचित जनजाति में व अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की मांग करते हैं इन सभी का एक मकसद है या कहा जाय कि इसकी सिर्फ एक वजह है; वह है सरकारी नौकरी हासिल करना।
राज्य या केंद्र सरकार के स्तर पर सरकारी, सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरी हासिल करने में आरक्षण विरोधियों को ऐसा लगता है कि आरक्षण का प्रावधान उनकी नौकरी में एक बाधा है। ये आरक्षण ही है जिसने उनकी जिंदगी को तबाह-बर्बाद कर दिया है। ऐसा उन्हें नौकरी न मिलने के चलते हो रहा है। चूंकि ये खुद भी पूंजीवाद के चलते होने वाले अमीरी-गरीबी के ध्रुवीकरण की जद में थे, जिससे इनकी भी आर्थिक स्थिति बदहाल हुई है; तो इनका स्वाभाविक तर्क होता है कि आरक्षण ‘आर्थिक आधार पर’ हो। ये इस बात को देखने की जद्दोजहद नहीं करते कि कुल आबादी में अभी भी सवर्ण समुदाय अपने कम हिस्से के बावजूद सरकारी नौकरियों में उनकी कुल भागीदारी ज्यादा है। ऊपरी पदों पर उन्हीं का वर्चस्व है। न्याय पालिका से लेकर कार्यपालिका में हर जगह सवर्ण समुदाय का ही वर्चस्व है। यही नहीं सरकारी नौकरियों में आरक्षित पदों पर भी एससी/ एसटी व ओ.बी.सी. से उम्मीदवार न मिल पाने की स्थिति में या न मिल पाने का तर्क देकर सवर्ण समुदाय से ही बैकलाॅग के तहत भी भर्ती कर दी जाती है।
मध्य प्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के काल में बड़ी मात्रा में बैकलाॅग की भर्तियां सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों से भर दी गई थी। इस पर हंगामा भी हुआ। कार्यवाही का आश्वासन भी दिया गया लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई।
केंद्र सरकार द्वारा (यूपीए के काल में) 20 सदस्यों की एक कमेटी गठित की गई ताकि बैकलाॅग पदों का आंकलन किया जा सके। तब यह पता लगा था कि 64 हजार से ज्यादा पद बैकलाॅग हैं। इस मामले में राज्यों के स्तर पर स्थिति और ज्यादा गंभीर है।
जाट, पाटीदार व मराठा लोगों के जो आंदोलन आरक्षण के संदर्भ में हुए हैं वह कुल मिलाकर यह दिखाते हैं कि इनका अधिकांश हिस्सा कृषि से जुड़ा रहा है। पूंजीवाद में आम तौर पर ही कृषि उपेक्षित होती है व उद्योग द्वारा कृषि का दोहन होता है। इसके चलते कृषि संकटग्रस्त रहती है। इसमें लगातार ध्रुवीकरण होता जाता है। देश के भीतर यही स्थिति है। 90 के बाद नई आर्थिक नीतियों ने इस तबाही-बर्बादी को और ज्यादा बढ़ाया है। इसके नतीजे के रूप में कृषि में लगी आबादी का आकार भी सिकुड़ता चला जाता है। इन स्थितियों में सरकारी नौकरी सुरक्षा प्रदान करती है। उसके लिए आकर्षण होता है। वहीं से फिर सरकारी नौकरी हेतु आरक्षण के लिए संघर्ष का रास्ता तैयार होता है।
आरक्षण के इस सवाल पर कोई भी इस ओर ध्यान ही नहीं देता या नहीं देना चाहता कि जब सरकारी नौकरियों की तादाद ही बहुत कम है तब उनमें बेरोजगारी तो बने ही रहनी थी। यहां स्थिति ‘एक अनार सौ बीमार’ से भी कई गुना बुरी हो गई है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या करोड़ों है जबकि सरकारी नौकरियों की संख्या कुछ लाख से ज्यादा नहीं निकल सकती है।
कोई इस बात पर सर खपाने के लिए तैयार नहीं कि जब सरकार ‘निजीकरण’ का नारा बुलंद कर रही हो, ‘ठेकाकरण’ का नारा बुलन्द कर रही हो तब इस ‘सुरक्षित रोजगार’ का क्या होगा। आज हर राज्य में, केंद्र सरकार के तहत आने वाले सरकारी व सार्वजनिक उपक्रमों में हर जगह ‘संविदा’ पर भर्तियां हो रही हैं। जिसमें मामूली सी तनख्वाह पर लोगों को रख लिया जाता है। देर-सबेर सरकारी नौकरियां सरकार की नीति के चलते लगभग खत्म हो जाएंगी। यही नहीं ‘आशा वर्कर’, ‘आंगनबाड़ी कार्यकत्री’, ‘भोजन माता’ ये ऐसे लाखों कामगार लोग हैं जिनके मसले पर सरकार संविधान की खुलेआम धज्जियां उड़ाती है। ‘समान काम-समान वेतन’ तो दूर की बात सरकार इन्हें ‘न्यूनतम वेतनमान’ भी नहीं देती।
वैसे भी पूंजीवाद की आम गति ही ऐसी है कि यह बेरोजगारी को पैदा करती, बढ़ाती व काम पर लगी आबादी को भी उसके काम-धंधे से महरूम कर बेरोजगार आबादी का संचय करती जाती है। इसलिए यदि आरक्षण पूरा खत्म हो तब भी या फिर आरक्षण 100 प्रतिशत हो तब भी बेरोजगारी बने रहनी है। यह आरक्षण के दायरे में आने वाले लोगों के लिए भी सत्य है व इस दायरे में न आने वाले लोगों के सम्बंध में भी। यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण नहीं है। इसी प्रकार भारतीय आर्मी में भी जाति आधारित आरक्षण नहीं है।
इसीलिए देर-सबेर आरक्षण के संदर्भ में होने वाले इन आंदोलनों को उस दिशा में बढ़ना ही होगा जहां यह सारी बेरोजगार आबादी के लिए सम्मानजनक रोजगार के लिए सड़कों पर संघर्ष में बदल जाये।
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