‘‘मी टू’’
हस्तियों के चेहरे से नकाब उतारता सनसनीखेज अभियान
-मनीषा
पिछले महीनों में ‘मी टू’ के तहत कई फिल्मी हस्तियों, नेताओं और व्यवस्था के उच्च पदों पर आसीन लोगों पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे। फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर, आलोक नाथ, फिल्म निर्देशक साजिद खान, बीसीसीआई के सीईओ आदि इनमें प्रमुख नाम हैं। वही भाजपा के नेता और विदेश राज्य मंत्री एम.जे.अकबर पर 20 से ज्यादा महिला पत्रकारों ने यौन शोषण का आरोप लगाया। अभी यह सिलसिला जारी है और इसमें नये नाम जुड़कर और अधिक लोगों के बेपर्दा होने की संभावना है।
यौन शोषण के आरोप लगने के बाद सभी आरोपियों ने अपने को पाक-साफ बताया। आरोपियों के समर्थन में आये लोग उनसे दो कदम आगे निकल गये। इन समर्थकों ने न सिर्फ आरोपियों का बचाव किया बल्कि यौन शोषण का आरोप लगाने वाली महिलाओं पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिये।
एम.जे.अकबर पर आरोप लगने के बाद लंबे समय तक उनकी पार्टी भाजपा मौन रही। 56 इंची सीने वाले, मन की बात करने वाले और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलंद करने वाले मोदी अपने मंत्री पर लगे आरोपों पर खामोश रहे। बहुत बाद में जाकर ही अमित शाह ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए इस मामले में लीपा-पोती करने की कोशिश की। चहुंओर से हो रही थू-थू के कारण मोदी सरकार को एम.जे.अकबर को कैबिनेट से हटाने को बाध्य होना पड़ा।
बेशर्मी और गुरूर की हद देखिये कि एम.जे.अकबर ने पीड़िता प्रिया रमानी व अन्य के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने के लिए 97 वकील नियुक्त किये हैं। अब यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एम.जे.अकबर के मातहत इन्टर्नशिप करने वाली महिला पत्रकारों के संग उन्होंने कैसा सलूक किया होगा। अकबर का केस लड़ने वाली लाॅ फर्म करंजावाला एंड कंपनी के मुखिया पर भी यौन उत्पीड़न के आरोप लग चुके हैं।
‘मी टू’ के जरिये हमारे समाज के असली चरित्र पर पड़ा पर्दा हट गया। महिलाओं को यौन वस्तु के रूप में देखने का नजरिया व्यवस्था के सभी अंगों में व्याप्त है। अपने पद का दुरुपयोग करते हुए अपने मातहत काम करने वाली स्त्रियों का यौन उत्पीड़न करने में ये जरा भी नहीं हिचकते। पूंजीवादी व्यवस्था के पूरे शरीर में महिला हिंसा का संक्रमित रक्त संचरित हो रहा है। पूंजीवादी संस्थाओं की भव्यता व चकाचैंध के पीछे इतना अंधेरा व्याप्त है कि कुछ भी आसानी से नहीं दिखता। फिल्मों की ग्लैमरस दुनिया महिलाओं के उत्पीड़न और अपमान से भरी पड़ी है। पूंजीवाद के भीतर जैसे मजदूर, किसान व अन्य मेहनतकश दोयम दर्जे, उत्पीड़न व मातहती का जीवन जीने को अभिशप्त हैं ठीक वैसे ही महिलाओं के लिए भी सत्य है। सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष पर बैठे पुरुषों द्वारा मजबूर व मातहत महिलाओं का यौन शोषण आम बात है। पूंजीवादी व्यवस्था में समानता और स्वतंत्रता का क्या हस्र होता है यह भी ‘मी टू’ अभियान के जरिये जगजाहिर हो चुका है।
‘मी टू’ अभियान के जरिये अपने साथ हुयी यौन उत्पीड़न की घटनाओं को उजागर करने वाली महिलाएं; वो महिलाएं हैं जो; आज व्यवस्था के किसी मुकाम पर हैं। जो अपनी बातें कह सकती हैं और दुनिया उनको सुन भी रही है। अगर पूंजीवादी व्यवस्था में ऐसी महिलाएं भी यौन उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं तो सोचो मजदूर-मेहनतकश-दलित व गरीब छात्राओं के साथ कैसा व्यवहार होता होगा? मेहनतकश महिलाओं-छात्राओं के साथ रोज ही जघन्य अपराध होते हैं लेकिन न तो पुलिस उनकी सुनती है और न ही कोई और। बहुत दिन नहीं हुए हैं जब आदिवासी महिला सोनी सोरी के साथ न सिर्फ यौन उत्पीड़न हुआ बल्कि उसके गुप्तांगों में पत्थर भरने का अमानवीय कृत्य अंजाम दिया गया। और यह सब जनता की रक्षक पुलिस द्वारा अंजाम दिया गया। ऐसे पुलिस अफसर को पुरुस्कार देकर सम्मानित किया गया। दूसरा उदाहरण उन्नाव का है जहां भाजपा के विधायक पर रेप का आरोप लगा। पीड़ित लड़की की किसी ने नहीं सुनी। थक-हार कर जब वह आत्मदाह करने को मजबूर हुयी तो समाज सक्रिय हुआ और पीड़िता के पक्ष में आ खड़ा हुआ। इस दौरान पीड़िता के पिता को झूठे मुकदमे में फंसाकर जेल में उनकी हत्या कर दी गयी। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिससे यह साबित होता है कि व्यवस्था, सरकारों, पुलिस-प्रशासन का रुख पीड़ित मेहनतकश महिलाओं-छात्राओं संग जरा भी मानवीय नहीं होता। इस पर शासक पूंजीपति वर्ग की महिलाएं भी मौन रहती हैं।
अगर मेहनतकश महिलाएं और गरीब छात्राएं अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न पर ‘मी टू’ कर भी दें तो न तो पूंजीवादी मीडिया उन्हें तवज्जो देगा और न ही शासक वर्ग। अपने वर्गीय हितों की रक्षा करते हुए; वे व्यवस्था और उसके उत्पीड़नकारी चरित्र को छिपाने में; हर जोर लगा देते हैं। पूंजीवादी मीडिया टीआरपी और मुनाफे के लिए वही खबर बेचता है जिसमें सनसनी हो। संवेदनशील मामले को भी वह सनसनीखेज और ‘मसालेदार’ बनाने में जरा भी शर्म महसूस नहीं करता। इसी कारण पूंजीवादी मीडिया नामी-गिरामी पीड़ित महिला और नामी-गिरामी पीड़क की ‘मसालेदार’ खबर को प्रचारित करता है।
‘मी टू’ अभियान ने पूंजीवादी व्यवस्था की सड़ांध को और उजागर करने का कुछ काम किया है। शासक पूंजीपति वर्ग के पुरुष अपने वर्ग की महिलाओं तक को नहीं बख्स रहे हैं तो शेष महिलाओं-छात्राओं संग उनका क्या रुख होगा यह अपने आप ही जाहिर है। फर्क सिर्फ इतना है कि अपने वर्ग की पीड़ित महिलाओं संग पूरी व्यवस्था खड़ी है।
‘मी टू’ का यह अभिजात्य अभियान महिलाओं के उत्पीड़न की मूल जमीन को नहीं तलाशता है। यह महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के वास्तविक कारणों पर भी चोट नहीं करता है। यह मानकर चलता है कि पूंजीवादी व्यववस्था आम तौर पर ठीक है, इसमें बस कुछ कमियां हैं। ‘मी टू’ के जरिये इन समस्याओं को चिन्हित कर हल किया जा सकता है। महिलाओं के साथ होने वाले सभी तरह के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए पूंजीवादी समाज को बदलना पड़ेगा। इसकी जरूरत भी ‘मी टू’ अभियान महसूस नहीं करता है। अधिक से अधिक पूंजीवादी व्यवस्था में कुछ दिखावटी सुधार हो सकते हैं।
स्कूल-कालेज, घर-परिवार, आफिस-कार्यस्थल, फैक्टरी, सभी जगह महिलाएं यौन दुव्यर्वहार का शिकार होती हैं। अपनी पीड़ा की शिकायत या अपनी सुरक्षा के विषय को जब वे व्यवस्था के विभिन्न अंगों के पास ले जाती हैं तो उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। थाने में बैठे भक्षक भी उनकी आबरू को तार-तार करने में जरा भी नहीं हिचकते। न्यायालय, संसद, विधानसभा जैसी संस्थाएं उनको न्याय व सुरक्षा देने में असमर्थ हैं। पूरी ही व्यवस्था महिला उत्पीड़न का कारण हैै।
इस सब के बाद भी ‘मी टू’ अभियान पूंजीवादी व्यवस्था के कई गणमान्यों के मुंह से नकाब नोंच रहा है। उसके पतन और सड़ांध को उजागर किया है। पूंजीवादी व्यवस्था से पीड़ित सभी वर्ग-तबकों, महिलाओं-छात्राओं को अपने कदम आगे बढ़ाते हुए व्यवस्था परिवर्तन की ओर बढ़ना होगा। पूंजीवाद के बरक्स समाजवाद का विकल्प पेश करना होगा। इन्हीं संघर्षों के दौरान और बाद में महिलाओं के सम्मान, बराबरी और सुरक्षा के मूल्योें व साधनों का निर्माण हो सकेगा।
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