बुधवार, 21 नवंबर 2018

हिन्दू धर्म
-शाकिर

        अक्सर ही कुछ शरारती किस्म के लोग हिन्दू धर्म के अनुयाईयों से एक सवाल करते हैं। वह यह कि हिन्दू धर्म का प्रवर्तक या संस्थापक कौन है? बौद्ध धर्म के गौतम बुद्ध, जैन धर्म के महावीर जैन और सिख धर्म के गुरू नानक की तरह क्या हिन्दू धर्म का कोई प्रवर्तक है? और है तो वह कौन है?

        शरारत भरा यह सवाल असल में हिन्दू धर्म की एक खासियत को दिखाता है। हिन्दू धर्म किसी एक खास समय पर, किसी खास व्यक्ति या खास किताब के साथ शुरू नहीं हुआ। यहां तक कि इसका नाम भी इसका अपना दिया हुआ नहीं है। हिन्दू धर्म सुदूर अतीत में आर्य कबीलों के कबीलाई अनुष्ठानों के साथ शुरू हुआ जो निरंतर बदलते हुए मध्य काल में सनातनी हिन्दू धर्म के रूप में जड़ हो गया। आज जिसे हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है वह यही मध्यकालीन सामंती हिन्दू धर्म है।

        आर्य जब भारत में आये तो वे दुनिया भर के सभी आदिम समाजों की तरह कबीलाई लोग थे। उनका मुख्य पेशा पशुपालन था। ये कबीले अपेक्षाकृत विकसित अवस्था में थे और पुरुष प्रधान हो चुके थे। इन आर्य कबीलों के भारत आने का क्रम सैकड़ों साल तक चलता रहा और वे क्रमशः पूरब की ओर बढ़ते गये।

        धार्मिक अनुष्ठान के तौर पर आर्य लोग हवन-यज्ञ करते थे। यज्ञ किसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए किये जाते थे। इन यज्ञों में किसी देवता का आह्वान किया जाता था जो यज्ञ करने के लक्ष्य को पूरा करता था। देवता का आह्वान मंत्रों के रूप में होता था। समय के साथ ये मंत्र संग्रहीत किये गये और इनसे आर्यो के प्रसिद्ध वेदों का निर्माण हुआ। परंपरा के अनुसार आर्यों के चार वेद हैं: ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।

        वेद ऋचाओं के संग्रह हैं। एक ऋचा में कई श्लोक होते हैं। हर ऋचा किसी देवता को समर्पित होती है और निश्चित यज्ञ में उस देवता का आह्वान करने के लिए ऋचा का उच्चारण किया जाता था। कालान्तर में हिन्दू धर्म और दर्शन में यज्ञ और ऋचाओं के मतलब को लेकर काफी विवाद पैदा हुए। पूर्व मीमान्सा के अनुयाईयों ने तो यहां तक घोषित कर दिया कि ऋचाओं में प्रयुक्त देवता का नाम शब्द मात्र है तथा यज्ञ और ऋचा का उच्चारण अपने आप ही परिणाम पैदा कर देते हैं।

        आर्य कबीलों के इस काल में अभी भगवान या ईश्वर कहीं नहीं था। थे तो बस देवता (कुछ देवियां भी)। ये अक्सर किसी प्राकृतिक शक्ति के प्रतीक थे। सूर्य, अग्नि इत्यादि तो सीधे-सीधे प्राकृतिक शक्ति ही थे। यदि वरुण, मरूत पुराने देवता थे तो बाद में इंद्र सबसे प्रमुख देवता के रूप में उभरे। यह महत्वपूर्ण है कि वेदों में ब्रह्मा का जिक्र तो है पर विष्णु का बस चलते-चलते। शंकर का जिक्र सबसे बाद के अथर्ववेद में आता है जिसे परंपरा में बहुत नीचे माना जाता है।

        बहुत सारे आदिम कबीलाई समाजों की तरह आर्यों में भी बलि का चलन था। यज्ञों में बलि दी जाती थी। गायों-घोड़ों के साथ खास मौकों पर इंसानों की बलि का भी चलन था। समय के साथ यज्ञों में बलि का चलन बढ़ता गया।

        पशुपालक कबीलाई आर्यों में सबसे मूल्यवान जन्तु गाय और घोड़े थे। गाय दूध और मांस दोनों के लिए मूल्यवान थी। आर्य कबीलों की लड़ाईयों में अक्सर गाय ही विवाद का विषय होती थी। 

        आर्य कबीलों के इस युग में मंदिरों, मूर्तियों, व्रत-त्यौहार, पूजा-पाठ और तीर्थ स्थलों इत्यादि का अभी कहीं अता-पता नहीं था। हवन-यज्ञ, बलि और देवताओं का आर्य कबीलाई धर्म अभी बहुत सीधा-सादा था।

        लेकिन समय के साथ इसमें परिवर्तन हुआ। समय के साथ आर्य कबीलाई समाज बिखरने लगा। वर्ग और वर्ण पैदा होने लगे। इसके साथ आर्यों का स्थानीय कबीलाई लोगों के साथ मिश्रण होेने लगा। इससे नये देवी-देवता सामने आये। शंकर ऐसे ही देवता थे जिनका मूल गैर-आर्य था।

        जब आर्य कबीलों के टूटने से वर्गीय समाज पैदा हुआ तो उसकी धार्मिक मूल्य मान्यताएं भी बदलीं। देवी-देवता बने रहे पर उन्होंने नया रूप ग्रहण करना शुरू किया। इंद्र देवताओं के राजा थे पर अब देवताओं से ऊपर ईश्वर की कल्पना शुरू हुई। दार्शनिक तौर पर ब्रह्म का सिद्धान्त भी सामने आया। ईश्वर की कल्पना के साथ ताल-मेल बैठाने के लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश की तिकड़ी का आविष्कार किया गया। पर अभी भी विष्णु के अवतार के तौर पर राम और कृष्ण का कहीं अता-पता नहीं था।

        एक ओर वर्ग-विभाजित आर्य समाज के धार्मिक विश्वासों में यह परिवर्तन हो रहा था तो दूसरी और यह भी दिख रहा था कि ये परिवर्तन तेजी से बदलते समाज की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे थे। समाज अब पशुपालक से खेतिहर बना गया था और व्यापार भी होने लगा था। इस खेतिहर समाज की अपनी जरूरतें थीं। जिनमें से एक थी खेती लायक जानवरों की रक्षा। यज्ञों की बलि प्रथा इसके विपरीत थी। भौतिक जरूरत के साथ नये समाज की अपनी आत्मिक जरूरते थीं-खासकर वर्गीय समाज की लूट-मार से पैदा हुआ आत्मिक कष्ट।

        नये समाज की इन्हीं जरूरतों को पूरा करने के लिए कई सम्प्रदाय उठ खड़े  हुए। इन्होंने आर्यो के हवन-यज्ञ और बलि से अलग नया रास्ता तलाशने का प्रयास किया। अंत में इनमें से दो सम्प्रदाय बढ़े धर्मों के रूप में सामने आये- बौद्ध और जैन। दोनों ने ही अहिंसा पर प्रमुखता से जोर दिया। इसके बाद कई शताब्दियों तक इनके बीच समाज में प्रभुत्व के लिए संघर्ष चलता रहा। खासकर बौद्ध धर्म तेजी से आगे बढ़ा और करीब एक हजार साल तक भारत में शक्तिशाली बना रहा।

        बौद्ध और जैन धर्म ने आर्यो के धर्म को गहरे से प्रभावित किया। बलि प्रथा धीमे-धीमे गायब हो गई। देवताओं को समर्पित यज्ञ भी धीमे-धीमे पृष्ठभूमि में चले गये। इसके बदले नये देवी-देवताओं की पूजा-पाठ का चलन शुरू हुआ। बौद्धों और जैनियों की मूर्तियों और मंदिरों की देखा-देखी अब राम, कृष्ण, शंकर इत्यादि की मूर्तियां और मंदिर बनने लगे। प्रमुख वैदिक देवता यथा इंद्र, अग्नि, सूर्य, वरूण, मरूत इत्यादि विस्मृत होने लगे और उनका स्थान शंकर तथा विष्णु के अवतारों राम और कृष्ण ने ले लिया। यह सब ईसा के आगे-पीछे की कुछ शताब्दियों में हुआ।

        आर्यों के धर्म में आये इस परिवर्तन को जायज ठहराने के लिए पुराण कथाओं का जन्म हुआ। पुराणों में एक से एक कहानियां गढ़कर नये देवताओं को स्थापित किया गया। यह इस हद तक हुआ कि ऋगवेद का सर्वप्रमुख देवता इंद्र पुराणों का व्यभिचारी इंद्र बन गया। ईश्वर की नयी धारणा के अनुरूप स्वर्ग, नरक इत्यादि की कल्पना की गई और वेदों के पुराने देवताओं के साथ इस सब का कोई संबंध कायम किया गया। नये वर्ग विभाजित समाज में जब स्थानीय कबीलों को समाहित किया गया तो उनके देवी-देवताओं को भी समाहित किया गया। इसके लिए पुराणों में कहानियां गढ़ी गईं। अक्सर कबीलों की मातृ देवियों को शंकर की पत्नी पार्वती का रूप घोषित कर दिया गया। शंकर के प्राचीन गैर-आर्य मूल को देखते हुए यह ज्यादा आसान भी था।

        इसी समय रामायण और महाभारत की कथाओं का उद्भव हुआ। इन्होंने पुराण कथाओं के साथ मिलकर नये धार्मिक विश्वासों को स्थापित करने में काफी मदद की। महाभारत पांच-छः शताब्दियों में तीन संस्करणों से गुजरकर काफी बड़ा महाकाव्य बन गया। इसमें कृष्ण और गीता का प्रवेश तीसरे संस्करण में हुआ-गुप्त वंश के काल में। लेकिन गीता को मान्यता और भी बाद में मिलनी शुरू हुई।

        हिन्दू धर्म अंततः जिस सनातनी  हिन्दू धर्म के रूप में मध्य काल में अस्तित्व में आया वह पांचवी-छठी सदी में दक्षिण भारत में पनपा। दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के रूप में हिन्दू धर्म में भक्ति का उदय हुआ। इस भक्ति का  सामंतकालीन समाज से सीधा संबंध था। धरती पर राजा के प्रति पूर्ण समर्पण तथा परलोक में ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। ईश्वर के प्रति इस पूर्ण समर्पण का उपनिषदों के ब्रह्म के साथ ताल-मेल बैठाया गया और उपनिषदों का वेदान्त दर्शन इस भक्तिमय हिन्दू धर्म का आधारभूत दर्शन बन गया। शंकर या आदि शंकराचार्य ने न केवल अद्वैत वेदान्त का दर्शन प्रस्तुत किया बल्कि मोक्ष के लिए चार धामों की स्थापना भी की (उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में श्रृंगेरि, पश्चिम में द्वारका और पूरब में पुरी)। 

        दसवीं सदी तक आते-आते यह हिन्दू धर्म अजीबो-गरीब विश्वासों और अनुष्ठानों का पुलिन्दा बन गया था। इसमें ब्रह्म भी था और ईश्वर भी। इसमें ईश्वर के अवतार भी थे और भांति-भांति के देवी-देवता भी। देवी-देवताओं के अपने परिवार और अपने झगड़े थे। इसमें पूजा-पाठ था और व्रत-त्यौहार भी। इसमें तीर्थ यात्राएं थीं और पुरोहितों को दान-दक्षिणा भी। इसमें मूर्तियां और मंदिर भी थे और हवन-यज्ञ भी। इसमें वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण-महाभारत सब थे। इसमें कबीलाई युग के विश्वास भी थे और सामंती जमाने के भी। इसमें तंत्र-मंत्र भी थे और टोना-टोटका भी। कुल मिलाकर इसमें अंधविश्वास और पोंगापंथ का बोलबाला था।

        भांति-भांति के अनुष्ठानों और विश्वासों से भरा हुआ यह हिन्दू धर्म एक ओर सामाजिक तौर पर वर्ण और जाति व्यवस्था पर टिका हुआ था तो दूसरी ओर दार्शनिक तौर पर वेदान्त पर। एक ओर वर्ण और जाति व्यवस्था की क्रूर सच्चाईयां थीं तो दूसरी ओर ब्रहम और माया की दार्शनिक उड़ान। इन सबको कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त से आपस में जोड़ा गया। आत्मा कर्म से संबद्ध होकर ब्रह्म से अलग हो जाती है और जन्म-मृत्यु के चक्कर में फंस जाती हैै। इस चक्र से मुक्ति ही मानव जीवन का लक्ष्य है। ज्ञानी लोगों को यह मुक्ति ब्रह्म, आत्मा, माया इत्यादि के वास्तविक ज्ञान से मिलती है तो आम लोगों को भक्ति और चारों धाम की यात्रा से। अन्य तीर्थ स्थलों की यात्रा भी इसमें सहायक है, खासकर पापों को धोने के लिए।

        मध्यकालीन हिन्दू धर्म (हिन्दू नाम विदेशियों ने दिया था जो सिन्धु नदी से पूरब के लोगों को इस नाम से पुकारते थे) वाला समाज वर्णों और जातियों में विभाजित समाज था। यह धीमे-धीमे लम्बे समय में अस्तित्व में आया था और इस दौरान इस सामाजिक संरचना को जायज ठहराने के लिए अनेक सिद्धान्त गढे़ गये थे। ऋगवेद के पुरुष सूक्त से लेकर मनुस्मृति तक इनकी भरमार थी। इनकी मूल बात यह थी कि वर्ण-जाति व्यवस्था दैवीय व्यवस्था है। मनुष्य अपने पिछले जन्म के कर्म के कारण किसी खास वर्ण-जाति में पैदा होता है। उसकी अपनी नियति है जिसे वह बदल नहीं सकता। अपने लिए नियत कत्र्तव्यों को सही तरह से निभा कर ही वह अगले जन्म में कोई उम्मीद कर सकता है। बाकी उसकी किस्मत। इस सबका ब्रह्म, आत्मा, माया के वेदान्त दर्शन के साथ भांति-भांति की पुराण कथाओं के द्वारा तारतम्य बैठाया गया। आम हिन्दू जन अपना धर्म या तो पंरपरा से ग्रहण करते थे या फिर रामायण, महाभारत या पुराण कथाओं के द्वारा। धार्मिक-दार्शनिक किताबें केवल थोड़े से ब्राह्मणों की चीजें थी। कहा जाता है कि अंग्रेजों के भारत आने के समय ब्राह्मणों में भी अधिकांश अनपढ़ बन चुके थे।

        यह देख लेना कोई मुश्किल नहीं है कि यह मध्य कालीन सामंती हिन्दू धर्म शोषक वर्गों के लिए बहुत काम का था। इसके द्वारा बहुत कम हिंसा से भी समाज पर शासन किया जा सकता था। पिछले जन्मों का फल, नियति या किस्मत मानने के बाद विद्रोह की गुंजाइश कम बचती थी।

        हालांकि इस्लाम धर्म अपने जन्म के सौ साल के भीतर ही भारत आ पहुंचा था, पर यह परिधि पर ही रहा। इसका देश में बड़े पैमाने पर प्रसार मुस्लिम शासकों के साथ ही हुआ। अपेक्षाकृत बराबरी और सीधे-सरल अनुष्ठानों वाले इस्लाम ने पोंगापंथ और अंध-विश्वास से भरे उस हिन्दू समाज में काफी हलचल पैदा की जो वर्ग और जाति की जड़ व कठोर गैर-बराबरी पर आधारित था। इससे पीड़ित बहुत सारे लोग इस्लाम अपनाने लगे। कुछ संख्या उनकी भी थी जिन्होंने भय या लालच से यह किया।

        खासकर इस्लाम की सूफी परंपरा ने आम हिन्दू समाज पर काफी असर डाला। जिसे भक्ति आन्दोलन कहा जाता है उसकी पृष्ठभूमि में सूफी इस्लाम भी था। इस भक्ति आन्दोलन ने समाज के निचले हिस्सों में काफी हलचल पैदा की। यह इस कदर था कि इसने एक नये धर्म को ही पैदा कर दिया-सिख धर्म को।

        लेकिन तब भी यह कहना होगा कि भक्ति आंदोलन मध्यकालीन सनातनी हिन्दू धर्म को सुधारने में नाकामयाब रहा। समय के साथ विभिन्न भक्ति धाराएं हिन्दुओं की खास जातियां बन कर रह गई या बेहद संकीर्ण संप्रदाय। सिख धर्म व्यापक जन तक पहुंचने में कामयाब हुआ पर वह स्वयं वर्ण-जाति से ग्रस्त हो गया। हिन्दुओं के पोंगापंथ से लड़ने वाले गुरूनानक के अनुुयाई अंत में एक किताब की ही पूजा करने लगे।

        मध्यकालीन सामंती सनातनी हिन्दू धर्म में परिवर्तन तब शुरू हुआ जब यहां अंग्रेजों ने राज कायम किया और उनके कारण यहां पूंजीवाद का प्रवेश हुआ। पंूजीवाद के प्रवेश ने जन्मजात पेशा आधारित वर्ण-जाति व्यवस्था की जड़ खोद दी। इसी के साथ अंग्रेजी शिक्षा और इसाई मिशनरियों के काम ने भी हिन्दू धर्म को हिलाया।

        इन सबका परिणाम इस रूप में सामने आया कि उन्नीसवीं सदी में हिन्दू धर्म में सुधार के भांति-भांति के आंदोलन सामने आये। इसमें एक ओर पश्चिमी शिक्षा की ओर झुके हुए ब्रह्म समाज किस्म के आंदोलन थे तो दूसरी ओर पुनरुत्थानवादी आर्य समाज किस्म के। बीसवीं सदी में भी दोनों किस्म की धाराएं चलती रहीं।

        आज देश में मौजूद हिन्दू धर्म मध्यकालीन सामंती हिन्दू धर्म का वह बदला हुआ रूप है जो देश में पूंजीवाद के विकास, पश्चिमी शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तथा उन्नीसवीं व बीसवीं सदी के सुधार आंदोलनों की बदौलत अस्तित्व में आया है। इसीलिए इसमें इतनी ज्यादा खिचड़ी विद्यमान है। संघ परिवार इसी खिचड़ी धर्म को एक खास सांचे में ढालकर अपने ‘हिन्दू राष्ट्र’ की परियोजना को परवान चढ़ाना चाहता है।

        हिन्दू धर्म मध्यकाल की शुरुआत से ही एक खिचड़ी धर्म रहा है। इसमें विश्वासों-अंधविश्वासों की भरमार रही है। इसमें पोंगापंथ का बोलबाला रहा है। दर्शन की ऊंची उड़ान और झाड़-फूंक इसमें साथ-साथ चलते रहे हैं। किसी निश्चित धार्मिक किताब या नियमों-कानूनों की अनुपस्थिति में इसमें पुराणों की कथायें गढ़-गढ़कर परस्पर विरोधी बातों-विश्वासों में तालमेल बैठाने का प्रयास किया जाता रहा है। समाज की अपेक्षाकृत जड़ता की अवस्था में ही यह प्रयास पहले सफल हो पाता था। आज वह जड़ता समाप्त हो जाने के कारण अब परस्पर बातों-विश्वासों का ताल-मेल बैठाना मुश्किल हो गया है। ऊपर से पूंजीवाद और ज्ञान-विज्ञान के प्रसार ने परंपरागत विश्वासों को अप्रभावी बना दिया है। इसका एक परिणाम भांति-भांति के बाबाओं के फलने-फूलने में हुआ है तो दूसरा संघ परिवार के ‘हिन्दुत्व’ में जो हिन्दुओं को एक खास सांचे में ढालना चाहता है।

        खूब फलते-फूलते बाबा और संघ परिवार दोनों ही आज हिंदुओं की भौतिक और आत्मिक कठिनाईयों का अपने लिए इस्तेमाल कर रहे हैं- पहला अपने कारोबार के लिए तो दूसरा अपनी राजनीतिक परियोजना के लिए। दोनों ही आज किसी हद तक सफल हैं। दोनों के ही चंगुल से व्यापक हिन्दू जनता को बाहर खींचने का एक ही रास्ता है- उनकी भौतिक और आत्मिक समस्याओं के वास्तविक समाधान के लिए उसे समाज परिवर्तन के इंकलाब में खींचना। केवल पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे का इंकलाब ही उस उत्साह और उर्जा का संचार कर सकता है। जो जन-जन को सदियों पुराने विश्वास-अंधविश्वास से बाहर खींचकर उसे अपने पैरों पर खड़ा कर दे।    

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