बुधवार, 21 नवंबर 2018

सोवियत संघ में समाजवादी शिक्षा
-चंदन

        शिक्षा को किसी समाज के सभ्य या असभ्य होने का आधार माना जाता है। यही बात व्यक्ति पर भी लागू होती है। शिक्षा की बात करने पर अक्सर ही ‘व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास वाली शिक्षा’ की चर्चा होती है। इस सर्वांगीण विकास वाली शिक्षा से क्या आशय होता है? यह शिक्षा किस प्रकार उपलब्ध करायी जा सकती है? ऐसी शिक्षा के लिए संस्थान कैसे होंगे? नीति कैसी होगी? इन सब सवालों का ही जवाब है समाजवादी शिक्षा। इसका सर्वप्रथम उदाहरण था सोवियत संघ।

        अक्टूबर 1917 की समाजवादी क्रांति से पूर्व शिक्षा का प्रसार रूस में बहुत सीमित था। जार कालीन रूस में शिक्षित लोगों(9 से 49 वर्ष के बीच) का प्रतिशत 28.4 था। विभिन्न राष्ट्र जो रूस के भीतर जारशाही से उत्पीड़ित थे वहां तो शिक्षा का स्तर निम्नतर या शून्य के ज्यादा करीब था। किरगिज में 0.6 प्रतिशत, तुर्कमेन में 0.7 प्रतिशत, उज्वेक में 1.6 प्रतिशत तथा कजाक में 2 प्रतिशत साक्षरता दर थी। कई उत्पीड़ित राष्ट्रों में तो लिखने की विधि (लिपि) ही नहीं थी। इन परिस्थितियों में सर्वांगीण विकास वाली शिक्षा का बीड़ा उठाया जा सकता था? समाजवाद व साम्यवाद के  उच्च आदर्शों पर खड़ी सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का जवाब था- हां। इस ‘हां’ को जाहिर करने वाली  तालिका-1 देखें।



        सोवियत संघ में शिक्षा को केवल किताबी ज्ञान से जोड़कर नहीं देखा जाता था। शिक्षा के साधनों और शिक्षण तरीकों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। नये सिलेबस, पाठ्यक्रम तथा किताबों को तैयार किया गया। सामान्य स्कूली शिक्षा ज्यादा से ज्यादा दैनिंदिन जीवन से जोड़ी गयी। छात्रों को श्रम व सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने वाली शिक्षा दी गयी। 

       शिक्षा को न सिर्फ स्कूलों से बल्कि जीवन की मूलभूत जरूरतों से भी जोड़ा गया। सर्वप्रथम शिक्षा के विकास के लिए महिलाओं के बराबरी एवं बेहतर स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझा गया। शिक्षा के लिए बुनियादी सिद्धांत कुछ इस प्रकार थे-

1- प्रत्येक नागरिक को शिक्षा का अधिकार होगा। नस्ल, राष्ट्र, लिंग, धार्मिक नजरिये, पैसे या सामाजिक हैसियत के भेदभाव के बिना। 

2- प्रत्येक बच्चे के लिए शिक्षा अनिवार्य होगी।

3- सभी शिक्षण संस्थान राजकीय और सामाजिक प्रकृति के होंगे।

4- छात्रों को शिक्षा माध्यम की भाषा चुनने का अधिकार होगा। मातृभाषा या सोवियत संघ की कोई भी भाषा। 

5- हर स्तर पर ट्यूशन फीस मुफ्त होगी। राज्य द्वारा कुछ छात्रों को पूर्ण सहयोग तथा छात्रों के लिए छात्रवृत्ति (भत्ते) का प्रावधान होगा।

6- एक समान शिक्षा की व्यवस्था होगी। छात्रों को निम्न स्तर से उच्च स्तर तक निरंतर योग्य बनाया जायेगा तथा शिक्षा के विभिन्न स्तरों के बीच निरंतरता होगी।

7- साम्यवादी शिक्षा को सम्मिलित किया जाए।

8- स्कूल, परिवार तथा सामुदायिक सहयोग से युवाओं को शिक्षा दी जायेगी। 

9- शिक्षा में साम्यवाद के निर्माण तथा नौजवान पीढ़ी के उत्थान के लिए अनुकूल रोज-ब-रोज के आधार पर नैतिक मूल्यों को दिया जायेगा।

10- शिक्षा विज्ञान पर आधारित होगी। विज्ञान, तकनीक व संस्कृति की उपलब्धियों को निरंतर आगे बढ़ाया जायेगा।

11- शिक्षा सह शिक्षा पर आधारित होगी। 

12- धर्मनिरपेक्ष शिक्षा होगी। शिक्षा में धर्म के किसी भी प्रकार के प्रभाव की इजाजत नहीं होगी। 

        समाजवाद पूर्व के सभी वर्गीय समाजों में शिक्षा केवल अभिजात वर्ग को ही प्राप्त थी। इसका कारण यह था कि शिक्षा या ज्ञान की आम मेहनतकश जनता तक पहुंच से शासक वर्ग डरता था। वह डरता था कि शोषण के शासन का अंत न हो जाए। अतः जब शिक्षा देना मजबूरी ही बन गया तो उसने शिक्षा के क्रांतिकारी प्रगतिशील तत्व को खत्म करने की हरचंद कोशिश की। 

        समाजवाद ने शिक्षा को मानवमुक्ति व समाजवाद के लक्ष्य के लिए महत्वपूर्ण औजार माना और बनाया। अतः सर्वप्रथम उसने सबको शिक्षा का अधिकार दिया। इस अधिकार के आगे आने वाली बाधाओं को दूर किया। दोहरी शिक्षा; उच्च वर्ग व निम्न वर्ग के बीच शिक्षा का अंतर; मातृभाषा में शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, सह शिक्षा (छात्र-छात्रायें साथ), शिक्षा का निशुल्क राजकीय स्वरूप, आदि शिक्षा मेें ऐसे ही कुछ महान प्रयोग थे। दूसरी तरफ धर्म को शिक्षा से दूर कर विज्ञान पर आधारित किया। शिक्षा से नये मानव के निर्माण के लिए व्यक्तिवाद की जगह सामूहिकता, स्व की जगह समाज को स्थापित करते हुए साम्यवादी आदर्शाें को शिक्षा का हिस्सा बनाया। 

        शिक्षा को उत्पादन श्रम से जोड़ने के लिए पालिटेक्निक शिक्षा की शुरुआत की गयी। शिक्षा को उद्योग व उद्योग को शिक्षा से जोड़ा गया। छात्र साथ ही साथ मजदूर भी थे तो मजदूर साथ ही साथ छात्र भी थे। मजदूरों व प्रौढ़ों के लिए सांध्यकालीन शिक्षा की व्यवस्था की गयी। छात्रों के बीच सामूहिकता एवं उच्च मानवीय आदर्शाें पर आधारित साम्यवादी शिक्षा व मूल्य दिये जाते थे। इसके लिए सोवियत संघ में माध्यमिक शिक्षा में वोकेशनल-टैक्निकल शिक्षा संस्थान बनाये गये। संस्थानों के विकास और छात्रों के प्रवेशों पर तालिका-2 देखें।



        शिक्षा के प्रसार ने रोजगार के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त लोगों की संख्या को भी बढ़ाया। जिसे तालिका-3 में देखा जा सकता है।



       कम्युनिज्म (साम्यवाद) से गहरी नफरत करने वाले साम्राज्यवादी-पूंजीवादी देशों ने सोवियत संघ से हमेशा ही घृणा की, युद्ध थोपे या युद्ध जैसे हालात बनाये रखे। लेकिन शिक्षा में जो प्रयोग नये समाज व मानव के निर्माण के लिए सोवियत संघ में किये गये उनको पूंजी की सेवा में भौड़ें ढंग से पूंजीवादी देशों में नकल किया गया। पालीटेक्निक शिक्षा को छात्रों के शोषण व पूंजी के अंधाधुंध मुनाफे के लिए प्रयोग किया गया। वर्तमान में भारत सरकार द्वारा जारी नीम राष्ट्रीय रोजगार वृद्धि योजना (नेशलन इम्प्लायबिलिटी इन्हेंसमेंट मिशन) परियोजना के जरिये पूंजी की ऐसी ही घृणित सेवा की जा रही है। जहां फैक्टरी मालिक नौजवानों के श्रम का शोषण कर रहे हैं। पूंजीपति वर्ग और उसके शासकों से शिक्षा और समाज के उत्थान की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

        सोवियत संघ में विभिन्न उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को अपनी मातृभाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था की गयी। 1920-30 के दशक में विभिन्न राष्ट्रीयताओं की लिपि को विकसित किया गया। जिसमें किरगिज, बश्किर, बुरिअत, दागिस्तान, सुदूर उत्तर के इलाकों की भाषा को विकसित किया, लिपिबद्ध किया और शिक्षा मातृभाषा में उपलब्ध कराने की व्यवस्था की। इसी तरह मध्य एशिया व काकेशस क्षेत्र के उज्बेक, तदजीक, तुर्केमेन, कजाक और अजरबेजान की पुरीनी लिपि व्यवस्था को विकसित किया गया। जहां अरबी भाषा के बाद पहले लैटिन व फिर रूसी भाषा को अपनाया गया।

        मातृभाषा में शिक्षा दिए जाने के महत्व को सभी जगह औपचारिक तौर पर स्वीकार किया गया परंतु सही ढंग से लागू केवल सोवियत संघ में किया गया।पूंजीवादी देशों में या तो पिछड़ी हुई भाषाओं को हाशिये पर डाल दिया गया या अन्य भाषाओं के विकास के लिए कोई संभावना ही नहीं छोड़ी गयी। तमाम जगह भाषायी आधार पर आज भी संघर्ष बने हुए हैं। पूंजीवाद में मनुष्य की समानता के साथ-साथ राष्ट्रों की समानता को भी कुचला जाता है। कम्युनिज्म के आदर्शों पर टिके समाज में इसकी कोई गुजांइश न थी। 

        सोवियत संघ पर द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जर्मन हमले का शिकार शिक्षा और शिक्षण संस्थान भी हुए। जर्मन फासीवादी हमलों में कब्जे वाले क्षेत्रों में लगभग 82,000 स्कूलों को नष्ट कर दिया गया। जिसमें युद्ध से पहले 1 करोड़ 50 लाख छात्र अध्ययनरत थे। इस दौरान भी कम्युनिस्ट सरकार स्कूलों के विकास और सुधार पर विचार कर रही थी। स्कूल में प्रवेश की उम्र को 8 वर्ष से घटाकर 7 वर्ष कर दिया गया। मजदूर-किसान-नौजवानों के लिए स्कूलों का निर्माण किया गया। इसी दौरान मूल्यांकन के लिए परीक्षाओं को माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर ले जाया गया। साथ ही छात्रों को सैन्य रूप से भी दक्ष किया गया। विश्वयुद्ध की समाप्ति के 5 वर्ष बाद ही शिक्षण संस्थानों के नुकसान की भरपायी कर ली गयी। 

        सोवियत संघ में शिक्षा के उत्थान और नए क्रांतिकारी सुधारों का आधार समाजवाद था। 1956 में खु्रश्चेव के द्वारा पूंजीवादी तख्तापलट कर दिया गया। उसने भी शिक्षा के ढ़ांचे में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया। बाद में आए ब्रेझनेव-कोसिगिन ने भी शिक्षा के ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किए। परंतु शिक्षा में साम्यवादी विचारों-आदर्शों को निरंतर कम किया गया। लेनिन की बात करते हुए उनकी शिक्षाओं को भुला दिया गया। इस तरह शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे क्रांतिकारी परिवर्तनों-विकास को तहस-नहस कर दिया गया। 

        आज जब चहुंओर दक्षिणपंथी फासीवादी विचारों का प्रभाव बढ़ रहा है, शासक वर्ग ज्यादा से ज्यादा प्रतिक्रियावादी हो गया है। खुद भारत में संघी-भाजपा सरकार विज्ञान की जगह कूपमंडूकता, धर्मनिरपेक्ष की जगह धार्मिक मिथक, अंधराष्ट्रवाद का प्रचार-प्रसार कर रही हैं। जब कालेज-कैंपसों को फासीवाद की प्रयोगशाला बना रहा हो, तब क्रांति, समाजवाद और समाजवादी शिक्षा व्यवस्था को गहराई से समझने की जरूरत है। जरूरत है इतिहास को जानने की और यह बताने की कि सदैव बर्बरता अपने सभी रूपों में; फासीवाद सहित; हारी है और सभ्यता जीती है।    

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