40 लाख की नागरिकता पर प्रश्नचिन्ह
-कविता
असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की दूसरी और अंतिम सूची 30 जुलाई को जारी हुई। इस सूची के जारी होने के बाद यकायक 40 लाख लोगों की नागरिकता पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है। इन लोगों में कुछ नामी-गिरामी और तमाम सामान्य गरीब लोग हैं। कई खबरों में देखने को मिला कि भारतीय सेना में अपना पूरा जीवन लगा चुके लोग भी अपनी नागरिकता सिद्ध करने की दौड़-धूप में लगे हुए हैं।
40 लाख की जनसंख्या कोई छोटी संख्या नहीं है। कई देशों की तो कुल जनसंख्या 40 लाख के आस-पास या इससे भी कम है। इतनी बड़ी जनसंख्या आज हमारे देश में हैरान परेशान है। ये लोग बेहद डरे हुए हैं। वे सोच रहे हैं कि उनके साथ भविष्य में क्या होगा? क्या वे इस देश में ही रहेंगे या पशु की तरह खदेड़ दिये जायेगें? यदि इसी देश में रहेंगे तो कैसे और किन हालातों में रहेंगे। इंसानों जैसे रहेंगे या अधिकार विहीन पशु की तरह।
इतनी बड़ी आबादी की नागरिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने के बाद सरकार और सुप्रीम कोर्ट इस सब पर बराबरी, जनवाद आदि लबादे चढ़ा रहे हैं। सरकार अपने कुरूप चेहरे पर मानवता का नकाब चढ़ाते हुए इसे अंतिम सूची ना मानने को कह रही है और प्रमाण पत्र देकर नागरिकता सिद्ध करने को कह रही है। सुप्रीम कोर्ट भी सैंपल सर्वे की बात कह रहा है और किसी को भी नागरिकता सिद्ध करने के लिए पर्याप्त अवसर व समय देने की बात कह रहा है।
भारत में राष्ट्रीयता की समस्या जटिलता लिये हुए है। भारतीय शासकों ने लगातार दमन और षड़यंत्रों से इन्हें और जटिल बना दिया है। असम के साथ भी ऐसा ही है। असम की मूल जातियों के लोग कई वर्षों से असम में बाहरी लोगों की बढ़ती आबादी का विरोध करते रहे हैं। इतिहास में इस बात को लेकर आंदोलन भी हुए और कई समझौते भी। सरकार इस सबसे राष्ट्रीयता के कम्पोजिशन बिगाड़कर राष्ट्रीयता की मांग कमजोर करने के तौर पर करती रही है। तो भाजपा बांग्लादेशी घुसपैठ कहकर इसे हिन्दू-मुसलमान मुद्दा बनाकर साम्प्रदायिक रोटियां सेकती रही है। कभी भी इस समस्या को हल करने के संजीदा प्रयास नहीं किये गये।
गौरतलब है, असम में लम्बे समय से अन्य जगहों से लोग बसते रहे हैं या बसाये जाते रहे हैं। चाय बगानों में काम करने के लिए अंग्रेजों द्वारा कई क्षेत्रों से मजदूर लाकर यहां बसाये गये। आजादी के बाद भी भारत सरकार द्वारा यहां लोग बसाये गये। काम की तलाश में भी बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि जगहों से लोग यहां आकर बसते रहे हैं। पाकिस्तान से बांग्लादेश के आजाद होने के दौरान भी यहां से लोग आये। 1971 में बांग्लादेश अलग देश बनने के बाद तमाम लोग बांग्लादेश चले गये। किन्तु लगभग 1 लाख लोग यहीं रह गये। 1979 से 1985 के बीच अप्रवासियों के खिलाफ संघर्ष चला। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और असम गढ़ परिषद के बीच समझौता हुआ जिसके तहत 1961 से पहले आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता देने और 1961 से 1971 के दौरान आये अप्रवासियों को 10 साल तक वोट के अधिकार के अतिरिक्त बाकी नागरिक अधिकार देने का समझौता किया गया। मौजूदा एनआरसी में 1971 के बाद असम में आये व्यक्तियों को चिन्हित करना है और उन्हें घुसपैठिया घोषित करना है।
अभी भी 40 लाख लोगों की नागरिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। असम के अलग-अलग हिस्सों में 6 डिटेंशन कैंप बने हुए हैं। जहां तकरीबन 900 संदिग्ध अवैध विदेशियों को रखा गया है। इन कैम्पों में बदसलूकी, उत्पीड़न की खबरें जब-तब आती रहती हैं। पिछले दिनों यहां 2 लोगों की मौत बिमारी के कारण हुई; जिसमें एक सुब्रत सेन (37) और दूसरे मोहम्मद जब्बर अली (70) हैं। सुब्रत सेन के पिता का नाम 1966 की वोटर लिस्ट में था फिर इनका परिवार 1980 में गोलपाड़ा जिला चला गया। यहां इनका नाम दर्ज ना होने के कारण वे अवैध संदिग्ध विदेशी बन गये। ऐसी ही कहानी जब्बर अली की है। जब्बर अली के पिता का नाम 1966 और 1994 की वोटर लिस्ट में था किन्तु बाद के समय में जब्बर अली का नाम लिस्ट से कट गया और ये भी अवैध विदेशी घुसपैठिया बन गये। ऐसे तमाम मामले असम में भरे पडे़ हैं। कई जगह तो नागरिकों के पास नागरिक सिद्ध करने के प्रमाण पत्र हैं किन्तु जिला कार्यालयों में ही दस्तावेज नहीं हैं।
असम के इन संवेदनशील हालातों के बावजूद राजनीतिक पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रही हैं। कांग्रेस एनआरसी को अपने कार्यकाल में किया गया काम बताकर श्रेय लेना चाहती हैं देश में फैले अंधराष्ट्रवादी माहौल में वह इसका लाभ अपने वोट बैंक के लिए उठाना चाहती है।
घोर अंधराष्ट्रवादी, साम्प्रदायिक पार्टी भाजपा तो इस मुद्दे से बहुत उत्साहित है। वह तो इसे 2019 के आम चुनाव में मुख्य मुद्दा बना देना चाहती है। वर्षों से बांग्लादेशी/मुसलमान घुसपैठ का माहौल बनाने वाली भाजपा इसे बहुत उपयोगी मुद्दा मान रही है। संघ, भाजपा नेता बेहद उग्र और खूनी बयान दे रहे हैं। अमित शाह व संघ के नेता राम माधव ने तो 40 लाख लोगों को घुसपैठिया घोषित कर दिया है। उन्हें उनके तथाकथित देश बांग्लादेश भेजने की घोषणाएं कर रहे हैं। भाजपा नेता तो 40 लाख लोगों की बायोमैट्रिक पहचान बनाकर, उन्हें घुसपैठिये के तौर पर हमेशा चिन्हित करने तक की वकालत कर रहे हैं। 40 लाख लोगों को डर-भय के माहौल में रखकर भाजपा शेष भारत में भी मुसलमानों को यही संदेश देना चाहती है। यह पूरी घटना भाजपा के खूनी व डराने-धमकाने की राजनीति को बयां कर देती है।
भारत के छात्र नौजवानों को भाजपा के इस विघटनकारी राजनीति को समझना होगा। जो मेहनतकशों को खंड-खंड बांट देना चाहती है। बाहरी-भीतरी, धर्म, जाति आदि नामों के बटवारें को हमे नकारना होगा। साथ ही हमें इस पूंजीवादी व्यवस्था की अमानवीयता को भी समझना होगा कि वो कैसे एक झटके में इतनी बड़ी आबादी को राष्ट्रविहीन कर उनको संकट में डाल दे रही है। इस पूंजीवादी व्यवस्था और विघटनकारी राजनीति के खिलाफ हमें अपनी मेहनतकश की एकता का नारा बुलंद करना होगा। सब हमारे भाई हैं हम सबके भाई हैं।
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