शनिवार, 24 नवंबर 2018

गुजरात: अप्रवासी मजदूर-मेहनतकशों पर हमले
-सतीश

        गुजरात के साबरकांठा में 28 सितंबर को 14 माह की एक बच्ची के साथ बलात्कार की घटना के बाद, गुजरात के कई जिले सुलग उठे। यह एक बहुत ही निर्मम व अमानवीय घटना है। पिछले समयों में पूरे देश में महिलाओं और बच्चियों के प्रति बढ़ते अपराधों ने भारतीय पूंजीवाद की सड़ांध को बाहर ला दिया। पूंजीवादी समाज का सांस्कृतिक पतन और समाज में फैली यौन कुंठा इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रही है। इसलिए इस तरह की घटनाओं के लिए निजी तौर पर तो व्यक्ति दोषी है ही लेकिन उससे ज्यादा यह व्यवस्था दोषी है जो समाज में ऐसे अमानवीय तत्वों को पैदा कर रही है।

        जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता और बेरोजगारी के ज्वालामुखी के ऊपर खड़े भारतीय समाज में इस घटना ने एक अलग ही रूप ले लिया। रेप का आरोपी 19 वर्षीय रविन्द्र साहू जिस फैक्टरी में काम करता है उसी के सामने एक चाय की दुकान में सो रही बच्ची को बहलाकर खेत में ले गया और वहां जाकर बलात्कार किया। आरोपी बिहार राज्य का निवासी है। इसलिए गुजरात में स्थानीय व प्रवासी का अंतरविरोध तीखा होकर सामने आ गया। 

        राघनपुर विधानसभा से कांग्रेस विधायक अल्पेश ठाकोर ने बयान दिया कि इंडस्ट्रियल यूनिट्स को दूसरे राज्यों की जगह स्थानीय लोगों को काम देना चाहिए। इसके बाद गुजरात क्षत्रिय ठाकोर सेना ने अप्रवासियों के खिलाफ प्रदर्शन किये और उक्त घटना के बाद क्षेत्रवादी व सांप्रदायिक नेताओं को उत्तर भारतीयों के खिलाफ बोलने का मौका मिल गया व इन विरोध प्रदर्शनों में हिंसा भी हुई। जिन इलाकों में बिहार, यू.पी., म.प्र., राजस्थान के नागरिक रह रहे हैं, उन इलाकों को निशाना बनाया जाने लगा। प्रवासी मेहनतकशों, मजदूरों में दहशत का माहौल पैदा हो गया। फड़, खोखे, ठेले, परचून वाले व मजदूरों को मारा-पीटा जाने लगा, धमकी दी जाने लगी व गुजरात छोड़ने को मजबूर किया जाने लगा। देखते ही देखते 6 जिलों में उत्तर भारतीयों के खिलाफ 20 हिंसा की घटनाएं हुयीं। हिम्मतनगर के साबरकांठा, मेहसाणा, गांधीनगर, अहमदाबाद के चांद खेड़ा, अमराईबाड़ी, बाबूनगर और ओढ़न, सूरत के सचीन, पांडेसरा, डिंडोली जैसे औद्योगिक इलाकों को निशाना बनाया जाने लगा। 

        घटना वाले इलाके में लगभग सवा लाख लोग बाहरी रहते हैं। प्रवासी मजदूरों को गुजरात से भगाने के लिए फैक्टरियों को निशाना बनाया जा रहा है। फैक्टरियां भी मजदूरों का ट्रांसफर कर रही हैं। मजदूरों को गाड़ियों में भरकर बाहर भेजा जा रहा है। लेकिन इन बसों को जगह-जगह रोककर इन्हें उतार दिया जाता है। आॅटो वाले को यूपी वाला पता चलने पर वे बैठाने से इनकार कर दे रहे हैं या फिर रास्ते मेें उतार देते हैं। 

        अप्रवासी मजदूरों के लिए ऐसे संकट के काल में फैक्टरी मालिक व ठेकेेदार मौके का फायदा मजदूरों के वेतन की चोरी करने में उठा रहे हैं। जब मजदूर यहां से पलायन कर रहे हैं तो मालिक वेतन देने से इनकार कर दे रहे हैं। मजदूरों के पास जो पैसा बचा-खुचा है वह बस-ट्रेन में ही खत्म हो जा रहा है। नूरपुरा गांव में जिसमें प्रवासी मजदूर काम करते थे उसे निशाना बनाया गया। 12 अक्टूबर को अमरजीत सिंह नाम के मजदूर को प्रवासी होने के कारण पीट-पीट कर मार डाला गया जो लगभग 15 वर्ष से गुजरात में रह रहा था। वह सूरत में पांडेसरा इलाके की मिल में काम करता था। उसकी बीबी व 2 बच्चे वहीं रहते थे। इन घटनाओं से लोग इतनी दहशत में हैं कि वे अपने घरों में कैद हो गये हैं। सोशल मीडिया पर भी लगातार मारपीट व गुजरात छोड़ने की धमकी के वीडियो वायरल हो रहे हैं। इससे लोग पत्नी/बच्चों का ना ही इलाज कराने बाहर जा पा रहे हैं और ना ही अन्य बाजार के कामों से बाहर निकल पा रहे हैं। लगभग 60 हजार से अधिक प्रवासी - उ.प्र., बिहार, म.प्र. व राजस्थान के लोग गुजरात से पलायन कर चुके हैं। 

        गुजरात पुलिस प्रमुख शिवानंद झा ने मीडिया में दिये बयान में बताया कि प्रवासियों के खिलाफ हिंसा में लगभग 500 लोगों को गिरफ्तार किया गया है तथा 57 केस दर्ज किये गये हैं। 

        गुजरात के समाजशास्त्रियों का मानना है कि गुजरात राज्य की स्थापना से लेकर राज्य के सामाजिक और आर्थिक विकास में यूपी व बिहार के लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गुजरात के हैवी फिजीकल लेबर, स्किल्ड, सेमी स्किल्ड उद्योगों में 50 से 75 प्रतिशत प्रवासी मजदूर काम करते हैं। यह लोग दिन-रात फैक्टरियों में काम करते हैं। ये एमएसई व एमई के लिए बहुत अच्छा है। गुजरात में उत्पादन का बड़ा हिस्सा प्रवासी मजदूरों के श्रम से ही पैदा होता है। लेकिन गुजरात के उद्योगों को इस मंजिल तक पहुंचाने वाले लोग क्षेत्रवाद की राजनीति का शिकार होकर आज दंगाईयों की दहशत के चलते ट्रेन, बस, ट्रक आदि में भरकर अपने-अपने गृह राज्य की ओर पलायन कर रहे हैं। गुजरात से आने वाली ट्रेनें भारत-पाक विभाजन की याद ताजा कर दे रही हैं। जब ये लोग अपने गृह राज्य के स्टेशन पर उतरते हैं तो इनके चेहरे पर मायूसी व दहशत को साफ देखा जा सकता है। यह स्थिति ‘अखण्ड भारत’ बनाने वालों व ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देने वालों के गाल पर तमाचा भी है। 

        देश में बढ़ रहे फासीवादी आंदोलन और भारतीय राज्य की संवैधानिक संस्थाओं के फासीवादीकरण का खामियाजा सबसे ज्यादा तो मजदूरों-मेहनतकशों को ही भुगतना पड़ रहा है। क्योंकि फासीवाद संकटग्रस्त पूंजीवाद की पैदाइश है तो पूंजी सबसे पहले हमला भी मजदूर वर्ग पर ही बोलेगी। फासिस्ट ताकतें जिन लंपट तत्वों की फौज तैयार कर रही हैं वे अपना निशाना मेहनतकशों को ही बनाते हैं। इसका रूप जातिवादी, सांप्रदायिक व क्षेत्रवादी कुछ भी हो सकता है। 

        लेकिन जब ये हमला उत्पादन के क्षेत्रों में होता है तो इसका असर उत्पादन पर भी पड़ता है और पूंजीपति वर्ग के मुनाफे पर भी। इसीलिए साबरकांठा सिरामिक एसोसिएशन के सचिव कमलेश पटेल ने मीडिया को बताया कि हर महीने 80 से 90 करोड़ सिरामिक का धंधा होता है। इसमें 50-60 प्रतिशत बाहरी लोग काम करते हैं। घटना के बाद 30-35 प्रतिशत लोग भाग चुके हैं। इससे सिरामिक उद्योग चैपट हो गया है। गुजरात चैंबर आफ कामर्स और इंडस्ट्री के प्रमुख जैकिक वासा ने पत्र में लिखा कि गुजरात के मुख्यमंत्री ने प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने को कहा है। कई उद्योग दिन-रात काम करते हैं। इस समय त्योहारी सीजन है। दीवाली पर गुजरात वैसे ही बंद रहता है। प्रवासी लंबी छुट्टी लेते हैं; ऐसे में इस समय का पलायन विनाशकारी साबित होगा। 

        समाजशास्त्री डा. गौरांग जानी का कहना है कि राज्य की आर्थिक व सामाजिक प्रगति में यू.पी, बिहार के लोगों का बहुत योगदान रहा है। अहमदाबाद में एक समय 80 कपड़ा मिल हुआ करती थी, जिसमें प्रवासी मजदूर काम करते थे। उसके बाद सूरत के पावरलूम उद्योग में दूसरे राज्य के लोगों का योगदान रहा है। ‘‘प्रवासी नियमों के तहत उन्हें यह अधिकार है कि वो देश के किसी भी कोने में जाकर बस सकते हैं। रोजगार कर सकते हैं। नौकरी- पेशा कर सकते हैं।’’

        लेकिन आज देश के एक कोने से देश के ही लोगों को भगाया जा रहा है। जिन लोगोें के श्रम की बदौलत गुजरात यहां पहुंचा है; उन्हीं को दुश्मन बताया जा रहा है। उनके खिलाफ सोशल मीडिया में नफरत फैलायी जा रही है। स्थानीय लोगों को प्रवासियों से छुटकारा पाने की अपील की जा रही है। कारखानों में मजदूरों पर हमले बोले जा रहे हैं। 

        कांग्रेस और भाजपा दोेनों के ही नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। लेकिन दोनों ही क्षेत्रवाद हो हवा दे रहे हैं। वहीं तलवे चाटू मीडिया प्री पोल सर्वे दिखाकर आग में घी डालने का काम कर रहा है। कांग्रेस हिंदी भाषी क्षेत्रों में होने वाले चुनावों में गुजरात पलायन को मुद्दा बनाकर चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है। वहीं भाजपा गुजरात मेें व हिंदी भाषी क्षेत्रों में इस पूरे घटनाक्रम के लिए कांग्रेस को घेर कर अपना उल्लू सीधा कर रही है। लेकिन असल में दोनों ही क्षेत्रवाद की राजनीति कर रही हैं। 

        लेकिन इन सब राजनीतिक प्रपंचों के बावजूद यू.पी, बिहार, म.प्र. सहित अन्य जगहों के मेहनतकश समुदाय के लोग दशकों से गुजरात में रह रहे हैं। वे न केवल वहां उत्पादन में योगदान दे रहे हैं बल्कि सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलनों से भी जुड़े हैं। वहां हिन्दी विकास मंच का गठन किया गया है। इसके संस्थापक जितेन्द्र राय दशकों से वहां रह रहे हैं। वे कह रहे हैं, यह चुनावी हथकंडा है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में चुनाव है लेकिन गुजरात में हिन्दी भाषी सुरक्षित नहीं। ऐसा डर का माहौल कभी नहीं रहा। असामाजिक तत्व हर जगह हैं। एक व्यक्ति के कारण पूरे समाज को परेशान करना ठीक नहीं। बिहार सांस्कृतिक मंडल बड़ौदरा में बसे उत्तर भारतीयों की संस्था है। इसके पूर्व अध्यक्ष डी.एन. ठाकुर कहते हैं कि उत्तर भारतीयों पर निशाना साधकर राजनीति से जुड़े लोग अपना व्यक्तिगत राजनीतिक हित साधने में लगे हैं। 1983 से बड़ौदरा में हमसे 20 हजार लोग जुड़े हैं। हमें सभी लोगों का सहयोग मिला है। छठ पूजा में हमारे साथ 1 लाख लोग होते हैं। इमारतों से लेकर निर्माण तक हमारे योगदान से हुआ है। 

        परंतु इस सब के बावजूद अब भी गुजरात के इलाकों में उत्तर भारतीय मेहनतकशों पर हमले जारी हैं। असमान विकास, बेरोजगारी और पलायन पूंजीवाद की आम गति में निहित है। उ.प्र., बिहार, बंगाल आदि राज्यों से बड़ी गरीब मेहनतकश आबादी रोजी-रोटी की तलाश में जन सेवा व जनसाधारण जैसी ट्रेनों में ठुंसकर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे औद्योगिक इलाकों व कृषि कार्यों में मजदूरी करने जाते हैं। ये लोग वहां जाकर कठिन कामों से लेकर ऐसे सभी काम करते हैं जिन्हें स्थानीय लोग करना पसंद नहीं करते और बहुत ही अमानवीय परिस्थितियों मंे रहते हैं। कुल मिलाकर ये आबादी उन इलाकों में सस्ते श्रमिकों के तौर पर इस्तेमाल होती है और लोकल आबादी इन्हें हिकारत की नजर से देखती है। प्रवासी कानून इन्हें पूरे देश में कहीं भी रहने व रोजगार-पेशा करने की इजाजत तो देता है पर वह अपने ही देश में कितना अपमान सहते हैं; इसका अंदाजा उनसे मिलकर या तत्काल गुजरात से पलायन के दौर में लगाया जा सकता है। पूंजीवाद का असमान विकास कुछ जगहों पर चकाचैंध व विकास पैदा करता है तो कुछ जगहों पर भुखमरी, गरीबी, बेराजगारी, पिछड़ापन पैदा करता है। जिसके परिणामस्वरूप लोग अमानवीय परिस्थितियों में काम करने को मजबूर होते हैं। ऊपर से हमारे देश में क्षेत्रवाद, जातिवाद व सांप्रदायिकता जैसी घृणित राजनीति इन्हें अपना आसान शिकार बनाकर और अमानवीयता में धकेलती है तथा देश के नागरिकों को एक-दूसरे के दुश्मन के तौर पर सामने खड़ा कर देती है। जिसके परिणामस्वरूप गुजरात पलायन जैसी घटनाएं पैदा होती हैं तथा कोई भी घटना इस तरह की घटनाओं जिसका असर व्यापक आबादी पर पड़ता है, को पैदा कर देती है। 

        आधुनिक पूंजीवादी समाज में देश की व्यापक मेहनतकश जनता को वर्गीय आधार पर एकजुट कर ही क्षेत्रवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता, बेरोजगारी जैसी समस्याओं के खिलाफ संघर्ष किया जा सकता है। तभी हम एक ऐसे समाज की तरफ बढ़ सकते हैं जहां महिलाओं व बच्चियों के खिलाफ दरिंदे अपराध न कर सकें। जहां महिलाओं को उपभोग के सामान की बजाय एक नागरिक समझा जाय और देश के हर नागरिक को देश के किसी भी कोने में सम्मानजनक तरीके से रहने व रोजगार-पेशा करने की आजादी हो।    

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