बुद्धिजीवियों पर कायराना हमले
-महेन्द्र
29 अगस्त को देश के विभिन्न स्थानों से बुद्धिजीवियों को गिरफतार किया गया। इनमें अधिवक्ता व ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, कवि वरवरा राव, सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा, अरूण फरेरा व वी.गोन्जाल्विस को बगैर किसी पुख्ता सबूतों के गिरफ्तार किया गया। इन पर भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने, प्रतिबंधित माओवादी पार्टी से संबंध रखने के आरोप लगाये गये। इनको ‘अर्बन नक्सल’ कहकर संबोधित किया गया। ये सभी अपने-अपने घरों में नजरबंद हैं। इन पर लगी आई.पी.सी. व यू.ए.पी.ए. की धाराएं राजकीय दमन को आप ही बयां कर देती है। इन पर आई.पी.सी. की धारा 153 ए यानी लोगों के विभिन्न समूहों के मध्य शत्रुता को बढ़ावा देना, धारा 120 यानी आपराधिक षड़यंत्र, गैरकानूनी गतिविधियों व आतंकवादी कृत्यों में शामिल होना, आतंकवादी कृत्यों हेतु धन जुटाना, आतंकवादी कृत्यों के लिए लोगों की भर्ती करना, आतंकवादी गिरोह या संगठन का सदस्य होना आदि-आदि संगीन धाराएं इन पर थोपी गयी हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि ये लोग विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन करते रहे हैं या दलितों, आदिवासियों, मजदूरों के हकों की लड़ाई लड़ते रहे हैं।
भीमा कोरेगांव में हिंसा के आरोप में महाराष्ट्र पुलिस जून, 2018 में प्रोफेसर सोमा सेन, वकील सुरेन्द्र गाडलिंग, सुधीर ढावले, रोना विल्सन और महेश राउत को गिरफ्तार कर चुकी है। इनकी न्यायिक हिरासत खत्म होने वाली थी। इनके खिलाफ पुलिस चार्जशीट भी दाखिल नहीं कर पायी। ठीक ऐसे समय में यह कार्यवाही की गयी ताकि इनकी हिरासत को आगे खींचा जा सके।
गौरतलब हो कि हर वर्ष 31 दिसंबर को दलित संगठनों से जुड़े लोग भीमा कोरेगांव में इकट्ठा होते हैं। 200 साल पहले 1 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने पेशवाओं की बड़ी सेना को पुणे के कोरेगांव में हरा दिया था। ब्रिटिशों की फौज में मुख्य रूप से बाम्बे नेटिव इन्फैट्री से संबंधित महार रेजिमेंट के सैनिक लड़े थे। इसलिए महार लोग इस युद्ध को अपने इतिहास का एक वीरतापूर्ण अध्याय मानते हैं। वे मानते हैं कि इस लड़ाई में दलितों पर अत्याचार करने वाले पेशवाओं की हार हुयी। इस पर हर वर्ष भीमा कोरेगांव में आयोजन होता है। 31 दिसंबर 2017 को एलगार परिषद द्वारा आयोजन कर इसकी 200वीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी। जहां भारी संख्या में दलित समुदाय एकत्रित हुआ था। इस आयोजन को कई बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संबोधित किया। परंतु हिन्दुत्ववादी ताकतों को यह आयोजन पसंद नहीं आया। क्योंकि यह उनके लिए और उनकी राजनीति के लिए असुविधाजनक था। क्योंकि इसमें अतीत और वर्तमान के ब्राहमणवादी व हिन्दुत्व के झंडाबरदारों द्वारा दलितों के उत्पीड़न के खिलाफ बोला जा रहा था। ब्राह्मणवादी और हिन्दुत्व के ठेकेदारों ने इस आयोजन पर हमला बोल दिया और हिंसा को अंजाम दिया। जिसमें 1 व्यक्ति की मौत हो गयी और कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गये।
इस हिंसा के लिए जिम्मेदार 100 से अधिक लोगों पर मुकदमा दर्ज हुआ जिसमें मुख्य आरोपी सनातन संस्था के संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे थे। इस मामले में एकबोटे को 14 मार्च को गिरफतार किया गया जिसे बाद में जमानत मिल गयी लेकिन संभाजी भिडे आजाद घूमता रहा। जाहिर सी बात है कि अगर देश का प्रधानमंत्री जिसे ‘गुरूजी’ कहकर संबोधित करे और सनातन संस्था से जुड़ी संस्था हिन्दू जनजागृति सम्मेलन को 2013 में शुभकामनाएं भेजी हों तो कार्यवाही करे भी कौन? जब सैंय्या जी भये कोतवाल तो डर काहे का। कई बुद्धिजीवियों की हत्या करने की शक की सुई भी सनातन संस्था की ओर मुड़ी है। महाराष्ट्र एटीएस इस पर प्रतिबंध लगाने की बात बहुत पहले ही कर चुकी है। लेकिन सत्ता का पूर्ण संरक्षण इन हत्यारी और आतंकवादी संस्थाओं को है। यह बात दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है कि बिना सत्ता के संरक्षण के ये कारनामे अंजाम नहीं दिये गए। अब यह आसानी से समझा जा सकता है कि हिंसा के आरोपियों के बजाय दलितों और उनके हितों की बात करने वाले बुद्धिजीवियों पर सरकारी दमन क्यों बरपा है।
हिंसा व हत्याओं से आतंक का वातावरण बनाने वाले सनातन संस्था को आरएसएस-भाजपा का वरदान प्राप्त है। ये संघ की हिन्दुत्व की फासीवादी परियोजना को भिन्न रूप से और भिन्न नाम से आगे बढ़ा रहे हैं।
इन 5 बुद्धिजीवियों की नजरबंदी इसी की अगली कड़ी है। जेल की सलाखों के पीछे वे लोग हैं जिन्होंने दलितों-मेहनतकशों के हक में अपनी आवाजें बुलंद कीं। बुद्धिजीवियों पर बोला गया यह हमला साफ संकेत करता है कि हिन्दुत्ववादी फासीवादी ताकतें इस देश को किस ओर ले जाना चाहते हैं। पहले वे उत्पीड़ितों के आयोजन पर हमला करते हैं फिर उनके पक्ष में खड़े बुद्धिजीवियों को जेल की कोठरियों में भेजने का षड़यंत्र रचते हैं। बुद्धिजीवियों पर बोला गया यह हमला देश में बढ़ते फासीवाद का परिचायक है। यह साफ संकेत है कि जो कोई भी दलितों, मजदूरों, मेहनतकशों के पक्ष में खड़ा होगा या उनके हितों की बात करेगा तो उससे हिन्दुत्ववादी फासीवादी ऐसे ही निपटेंगे। यह हमले समाज में डर माहौल पैदा करने की गरज से किये जा रहे हैं। संघ-भाजपा के सत्ता में पहुंचने के साथ इन हमलों की तीव्रता बढ़ती चली गयी है। व्यवस्था के विभिन्न अंगों, कालेज-कैंपसों में सुनियोजित तरीके से तो समाज में माॅब लिंचिंग का यह आतंक कायम किया जा रहा है।
लेकिन हर प्रतिक्रियावादी की तरह संघी फासीवादी और उनके गुर्गे इतिहास से सबक लेने में पूरी तरह असमर्थ हैं। इतिहास बदलवाने को आंदोलन चलाने वाले, इतिहास का अपने मनमाफिक पुनर्लेखन करवाने वाले इतिहास से सबक ले भी कैसे सकते हैं। सामाजिक चेतना और स्वतंत्रता की गति को पीछे मोड़ने का वे जितना भी प्रयास करें, मात ही खायेंगे। दलितों, मजदूरों, मेहनतकशों को मध्ययुगीन दोयम दर्जे की स्थिति में पहुंचाने का जितना भी प्रयास वे करें असफल वे ही होंगे। निश्चित ही दलित, आदिवासी, मजदूर, किसान, बुद्धिजीवी एकजुट हो अपनी पूरी ताकत लगाकर इतिहास को आगे ले जाने मेंएक न एक दिन जरूर सफल होंगे।
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