शनिवार, 17 नवंबर 2018

डाॅ. कोटनीस और उनकी भूली ना जा सकने वाली यादें

        डाॅ. द्वारकानाथ शांताराम कोटनीस इस देश के उन महान सपूतों में से हैं जिन्होंने मेहनतकशों के संघर्षों का साथ देने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की। डाॅ. कोटनीस ने अपने डाॅक्टरी ज्ञान का इस्तेमाल अपने लिए धन अर्जित करने या सुख सुविधाओं की जिंदगी जीने के लिए नहीं किया। बल्कि चीन की जनता के सबसे कठिन युद्धों में घायलों की जान बचाने के लिए किया। जापानी आक्रमण के खिलाफ चीनी प्रतिरोध युद्ध में डाॅक्टर कोटनीस के योगदान को आज भी चीन की जनता याद करती है। डाॅक्टर कोटनीस का जीवन साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में पूरी दुनिया की उत्पीड़ित जनता की एकता का प्रतीक बन गया। 




        डाॅ. कोटनीस का जन्म महाराष्ट्र के शोलापुर में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनका जन्म 10 अक्टूबर, 1910 को हुआ था। उनके दो भाई और 5 बहनें थीं। उन्होंने मुंबई के सेठ जी.एस. मेडिकल कालेज से डाॅक्टरी की पढ़ाई की। वह चाहते थे कि दुनिया के विभिन्न स्थानों पर जाकर जरूरतमंदों का इलाज करें। इसलिए वह पहले वियतनाम गए, इसके बाद सिंगापुर और बु्रनेई गये अंत में वह हांगकांग पहुंचे।

        1937 में जापानी आक्रमण के खिलाफ चीन का प्रतिरोध युद्ध शुरू हो गया। चीनी मुक्ति सेना के सेनानायक चू तेह ने इस युद्ध में मदद के लिए जवाहरलाल नेहरू से कुछ भारतीय डाॅक्टरों को चीन भेजने का आग्रह किया। 30 जून, 1938 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से अपील जारी की। उन्होंने  22,000 का कोष इकट्ठा करते हुए स्वयंसेवी डाॅक्टरों और एक एंबुलेंस चीन भेजने की व्यवस्था की। उस वक्त भारत में भी ब्रिटिश शासन से आजादी की लड़ाई चल रही थी। इस मदद की महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह आजादी के लिए लड़ रही एक देश की जनता का आजादी के लिए लड़ रही दूसरे देश की जनता की मदद थी। 

        जब डाॅक्टर कोटनीस ने अपने घर पत्र लिखकर चीन जा रहे मिशन में स्वयं के जाने की अनुमति मांगी, तो उनकी मां बहुत दुखी हुईं। उनके दुख का कारण चीन की भारत से दूरी और उसका युद्ध में फंसा होना था। डाॅ.कोटनीस ने एक और पत्र लिखा और अपनी मां से वादा किया कि वह सिर्फ 1 साल तक घर से दूर रहेंगे। इस समय उनके पिता ने उनकी मां को मनाया कि बेटे को जनता की सेवा करने के लिए जाने दें। 

       1938 में 5 सदस्यीय मेडिकल मिशन टीम के रूप में  5 डाॅक्टर चीन गए। इस टीम में डाॅक्टर कोटनीस के अलावा इलाहाबाद के एम. अटल (यह मिशन के नेता भी थे), नागपुर के एम.चोलकर और कोलकाता के बी.के.बसु तथा देवेश मुखर्जी थे। टीम चीन में सबसे पहले हेबई (वूहान) पहुंची। इसके बाद उन्हें 1939 में येनान के क्रांतिकारी आधार इलाके में भेजा गया। ये लोग किसी अन्य एशियाई देश से आने वाली पहली टीम थी, इसलिए उनका स्वागत माओ त्से तुंग, चू तेह और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के कई अन्य नेताओं ने किया। 

        भारतीय मेडिकल मिशन के चीन पहुंचने तक चीन के बड़े हिस्सों पर जापान का कब्जा हो चुका था। उस वक्त जापानी कब्जे के खिलाफ पूरे चीन में असंतोष और आक्रोश की लहर फैल चुकी थी। जापानी कब्जे के खिलाफ प्रतिरोध शुरू हुए लगभग 2 साल बीत चुके थे। जापानी हमले के खिलाफ क्वोमितांग पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच संयुक्त मोर्चा कायम हो चुका था। लेकिन क्वोमितांग पार्टी का नेता च्यांग काई शेक जापानियों सेे लड़ाई तो निष्क्रिय तरीके से लड़ता था, लेकिन कम्युनिस्टों के खिलाफ उसकी लड़ाई पूरी सक्रियता से होती थी। जापान की भारी फौजी मशीनरी के सामने क्वोमितांग की सेना लगातार पीछे हटती जा रही थी। 

        जापान ने 1931 से ही चीन के भीतर पैर पसारने शुरू कर दिए थे। 18 और 19 सितंबर, 1931 में मंचूरिया रेलवे के एक हिस्से को बम से उड़ाने का झूठा आरोप चीनियों पर लगाते हुए जापानियों ने मुकदम शहर पर कब्जा कर लिया। क्वोमितांग द्वारा बहुत मामूली प्रतिरोध पाकर मांचूको की अपनी कठपुतली सरकार का गठन किया। 1934 से एक घोषणा की गई जिसके अनुसार पूरा चीन जापान का संरक्षित क्षेत्र था। 1935 में कोई भी अधिकारी या सशस्त्र बल जो कि जापान के लिए शत्रुता को बनाने की संभावना थी उसे हेबेे और चाहर से बाहर कर दिया गया। 

        जापानी हमले के खिलाफ च्यांग काई शेक नरम बना रहा जबकि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने समस्त जनता का जापानी हमले का प्रतिरोध के लिए आह्वान किया। दिसंबर, 1936 में शियान में च्यांग काई शेक को उसके ही जनरलों ने बंधक बना लिया और जापान के खिलाफ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाने का दबाव बनाया। इसके बाद से संयुक्त मोर्चा के तहत जापानी हमले के खिलाफ प्रतिरोध युद्ध शुरू हुआ। 

        जापान की फौजी तैयारी ज्यादा मजबूत होने की वजह से 1938 के अंत तक जापान ने ज्यादातर बंदरगाहों,  ज्यादातर बड़े शहरों और रेलवे के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। क्वोमितांग की राजधानी नानकिन पर दिसंबर 1937 में जापानियों ने कब्जा कर लिया। जापानियों ने उस शहर को नष्ट कर दिया और इस शहर के लोगों का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया; जो नानकिन नरसंहार नाम से जाना जाता है। 3 लाख चीनी नागरिकों और आत्मसमर्पण करने वाले सैनिकों को मार दिया गया। लाखों महिलाओं का बलात्कार किया गया।

        लेकिन जापान का कब्जा शहरों और रेलवे लाइनों से आगे नहीं बढ़ पाया। 1937-38 के 2 वर्ष जापानी आक्रमण के खिलाफ चीनी प्रतिरोध युद्ध के रणनीतिक प्रतिरक्षा के चरण थे। 1949 से 1943 तक प्रतिरोध युद्ध रणनीतिक प्रतिरोध के चरण में रहा। इस दौरान जापान ने नाकेबंदी के द्वारा चीनी प्रतिरोध को काबू में करने की कोशिश की। लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की क्रांतिकारी भूमि सुधार की नीति और सरकार में जनता के व्यापक भागीदारी कराने की नीति की वजह से शहरों के बाहर प्रतिरोध युद्ध लगातार मजबूत होता गया। गुरिल्ला दस्तों ने इस दौरान लगातार जापानी सेना को परेशान करना जारी रखा। उत्तरी और पूर्वी चीन के बड़े हिस्से क्रांतिकारी आधार इलाके में परिणत हो गए। इसी दौरान अमेरिका और इंग्लैंड भी जापान के खिलाफ युद्ध में शामिल हो गए। 

        1944 की शुरूआत से अगस्त 1945 तक की अवधि चीनी प्रतिरोध युद्ध की रणनीतिक प्रत्याक्रमण का चरण था। जापान को प्रशांत महासागर के संघर्ष के लिए अपनी टुकड़ियों को हटाना पड़ा और खाली होने वाले क्षेत्रों को कम्युनिस्ट पार्टी अपने आधार इलाके का विस्तार कर रही थी। हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिकी परमाणु बम के हमले के बाद जापान ने पूरी तरह घुटने टेक दिए। 2 सितम्बर 1945 को जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। 

        जापानी आक्रमण के खिलाफ चीनी प्रतिरोध युद्ध की महत्वपूर्ण कड़ी में डाॅ. कोटनीस का योगदान अमूल्य था। भारतीय मेडिकल मिशन के 4 अन्य डाॅक्टरों के देश लौट जाने के बाद भी डाॅक्टर कोटनीस चीन की कठिन परिस्थितियों में बने रहे और प्रतिरोध युद्ध को मजबूत करते रहे। वे युद्ध के सबसे आगे के मोर्चे पर नियुक्त होते थे और उन्होंने कई चीनी सैनिकों की जान बचाई। युद्ध के मोर्चे में डाॅक्टर के रूप में उनका काम काफी महत्वपूर्ण था। येनान में जहां दवाइयों की हमेशा कमी रहती थी, स्थिति और भी कठिन हो जाती थी। 1940 में जापानी टुकड़ियों के खिलाफ चले एक लंबे युद्ध के दौरान वे 72 घंटे तक बिना रुके, बिना सोए लगातार आपरेशन करते रहे। इस दौरान उन्होंने 300 जख्मी सिपाहियों का इलाज किया। 

        डाॅ. कोटनीस चलते-फिरते अस्पतालों में गरीबों का इलाज करते थे। बाद में डाॅक्टर कोटनीस ने आठवीं राह सेना में शामिल होकर बुलेई पहाड़ी के निकट की सीमा पर काम किया था। वे कनाडा के डाक्टर नारमन बेथ्यूम की मौत के बाद उनके नाम पर बने डाॅक्टर नारमन बेथ्यूम अंतर्राष्ट्रीय शांति प्रस्ताव के पहले निदेशक भी हुए। 

        1940 में डाॅ. कोटनीस की मुलाकात गाओ शिंगलान नाम की एक चीनी नर्स के साथ हुई। दोनों ने काफी कठिन हालात में एक-दूसरे को मदद पहुंचाते हुए काम किया। दोनों एक-दूसरे से प्रभावित हुए और दिसम्बर 1941 में दोनों का विवाह हुआ।

        युद्ध की कठिनाइयों ने डाॅक्टर कोटनीस के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालना शुरू किया। इसके बावजूद वे सैनिकों को होने वाली एक संक्रामक बिमारी के लिए टीका विकसित करते हुए इसका प्रयोग अपने ऊपर करने से नहीं चूके। लेकिन अंततः 9 दिसंबर, 1942 को थकान और भोजन की कमी से जर्जर उनके शरीर नजवाब दे दिया। मिर्गी के कुछ दौरे के बाद उनकी मौत हो गई। उनको चीन के एक गांव के कब्रिस्तान में दफनाया गया।

         उनकी मौत पर माओ त्से तुंग ने कहा ‘‘सेना ने अपनी मदद करने वाला हाथ खो दिया है, राष्ट्र ने अपना मित्र को दिया है। हमें हमेशा उनके अंतर्राष्ट्रीयतावाद की भावना को याद रखना होगा।’’ 

        आज डाॅक्टर कोटनीस को डाॅ. बेथ्यूम के साथ याद किया जाता है। चीन के शिजियाझुआंग में डाॅक्टर बेथ्यूम के साथ में इनका एक स्मारक है। यहां के छोटे से संग्रहालय में डाॅक्टर कोटनीस की एक नोटबुक है जिसमें भारत से चीन जाते हुए डाॅक्टर कोटनीस ने नई भाषा के शब्दों के अर्थ लिखे हुए हैं। डाॅक्टर के द्वारा इस्तेमाल किए गए सर्जरी के कुछ औजार हैं और माओ तथा अन्य नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें हैं। 

        डाॅ. कोटनीस के ऊपर भारत में एक उपन्यास लिखा गया और एक फिल्म बनी। 1945 में ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा एक उपन्यास ‘एंड वन डिड नाॅट कम बैक’ और शांताराम द्वारा अभिनीत और निर्देशित एक फिल्म ‘डाॅ. कोटनीस की अमर कहानी’ 1946 में प्रदर्शित हुई।

        डाॅ. कोटनीस के त्याग समर्पण और दृढ़ता आने वाली कई पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।       

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