गुरुवार, 26 जुलाई 2018

यूजीसी के बदले एचईसीआई 
पूंजीपतियों की जरूरतों में बदलाव के आधार पर उठाया गया कदम

बीते 27 जून को मानव संसाधन विकास मंत्री (एमएचआरडी) प्रकाश जावड़ेकर ने एक ट्वीट के जरिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के स्थान पर हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया (एचईसीआई) के निर्माण की घोषणा कर दी। क्योंकि यूजीसी, 1956 में एक एक्ट के बाद अस्तित्व में आया था इसलिए नए आयोग का निर्माण भी संसद में एक्ट पास करके किया जा सकता है। इसके लिए मोदी सरकार आने वाले मानसून सत्र में हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया एक्ट (2018) को पास करने की कोशिश करेगी। जिसके बाद यूजीसी का स्थान एचईसीआई ले लेगा। इस नए एक्ट का ड्राफ्ट भी जनता के बीच में रखा गया था तथा ड्राफ्ट पर राय देने के लिए 7 जुलाई तक का समय एमएचआरडी द्वारा दिया गया था। 



ड्राफट के आते ही विभिन्न शिक्षाविदों ने मोदी सरकार के इस कदम की आलोचना की परंतु यह याद रखना होगा कि यूजीसी के स्थान पर एक नये आयोग को लाने का प्रयास कांग्रेस की सरकार में शुरू हुआ था। तब से शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा नेशनल काउसिल फॉर हायर एजुकेशन एंड रिसर्च एंड (एनसीएचईआर) नामक आयोग प्रस्तावित किया था। परंतु भारी विरोध के बाद इसे वे अमलीजामा नहीं पहनाया पाए थे। इसी तरह दूसरा प्रयास मोदी सरकार द्वारा पहले प्रारंभिक सालों में किया गया था। तब भी संम्पूर्ण उच्च शिक्षा को एक ही आयोग के अंतर्गत लाने का प्रयास के तहत हायर एजुकेशन इवोल्यूशन एंड रेगुलेटरी अथारिटी हीरा का प्रस्ताव रखा गया था। परंतु यह प्रयास भी अन्य कारणों से आगे न बढ सका। कुल मिलाकर यूजीसी के स्थान पर एक नई संस्था के गठन का यह तीसरा प्रयास है। और इस बार मोदी सरकार इसे गंभीरता से आगे बढ़ा रही है। 

कांग्रेस और भाजपा सरकार द्वारा किया गये प्रयास दिखाते हैं कि दोनों ही सरकारें यूजीसी को खत्म कर एक नई संस्था का गठन करना चाहती हैं।

यूजीसी का गठन आजादी के बाद उच्च शिक्षा को दिशा देने वाली संस्था के बतौर किया गया था। उस समय उच्च शिक्षा का पूरा ढांचा खड़ा करना था। जिसके तहत नए कालेजों के निर्माण से लेकर उनका पाठ्यक्रम तक तय करने की जिम्मेदारी इसी संस्था के हाथ में थी। सरकार का काम शिक्षा का बजट पास करना और इस बजट का विभिन्न विश्वविद्यालयों और कालेजों में उसकी जरूरतों के आधार पर वितरण करने का काम यूजीसी के हिस्से था। क्योंकि अभी तक उच्च शिक्षा के विकास का कोई बना बनाया फार्मूला नहीं था इसलिए सोचने और क्रियान्वयन के लिए इसे एक हद तक की आजादी भी दी गई। इसके ढांचे का निर्माण भी इसी तरह से किया गया जिससे यह सीधे-सीधे सरकार के हस्तक्षेप से बचे रहें। ये उस समय के भारत की जरूरत थी। इस स्वायत्ता के बिना भारत में उच्च शिक्षा का विकास संभव नहीं था।

इस समय भारत का पूंजीपति वर्ग अपनी शैशवावस्था में था। अपनी जरूरतों के अनुरूप वो चाहता तो था कि उच्च शिक्षा का विकास हो परंतु इस दिशा में कोई भी भूमिका निभाने की स्थिति वो में नहीं था। बाद के समय में पूंजीपति वर्ग की स्थिति में आए बदलाव के अनुरूप उच्च शिक्षा में उसकी धुसपैठ बढती गयी। खासतौर से 1991 उदारीकरण निजीकरण वैश्वीकरण की नीतियां लागू होने के बाद से पूरी उच्च शिक्षा को पूंजीपतियों की सेवा के अनुरूप ढालने के प्रयास तेज से तेजत्तर होते गए हैं।

आज आर्थिक संकटों का शिकार वैश्विक अर्थव्यवस्था में पूंजीपति वर्ग के नए नए क्षेत्रों को तलाश रहा है। शिक्षा में भी ऐसा ही एक क्षेत्र बनता है। और खास तौर से भारत में उच्च शिक्षा का विशाल क्षेत्र देसी विदेशी पूंजीपतियों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। बिरला-टाटा से लेकर तमाम पूंजीपति इस क्षेत्र में पहले से ही घुसने का प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए तो पहले से मौजूद तमाम कानूनों सस्थाओं को अपनी जरूरतों के मुताबिक ढालने की मांग सरकार से करते रहे हैं। इन मांगों की पूर्ति भिन्न-भिन्न तरीकों से सरकारें करती रही हैं। यूजीसी के स्थान पर एचईसीआई भी दिशा में उठाया गया कदम है। अभी कुछ माह पूर्व ही शिक्षा मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा देश में 62 उच्च शिक्षण संस्थानों को स्वयत्त करने की घोषणा की गई थी। जिसके तहत इन संस्थानों को इसकी उत्कृष्टता के आधार पर तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया था। पहली श्रेणी में आने वाले संस्थानों को सरकारी मदद के बिना और सरकार की अनुमति के बिना पाठ्यक्रम तय करने एवं नये कोर्स खोलने शिक्षकों को भर्ती करने आदि मामलों में आजादी देना निर्धारित किया गया था। दरअसल इस तथाकथित आर्थिक स्वायत्ता द्वारा सरकार उच्च शिक्षा से अपना पल्ला झाड़ते हुए इसे पूंजीपतियों के लिए पूरी तरह से खोल देना चाहती थी। इस ‘स्वयत्ता’ के तहत प्रमुख संस्थानों को दी गई आजादी अपने आप में ही यूजीसी की प्रासंगिकता को खत्म कर देती थी। दरअसल अब तक उच्च शिक्षा संस्थान जिन कामों के लिए यूजीसी से बंधे हुए थे (अथवा आश्रित) थे। ‘स्वायत्तता’ की नई नीति के तहत या यूजीसी पर उनकी निर्भरता को खत्म कर दिया गया था। ऐसे में एक ऐसी संस्था की जरूरत पैदा होती थी जो स्वयत्ता की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाएं। जो संस्थानों को अनुदान देने के बजाय उत्कृष्टता के आधार पर उन्हें श्रेणियों में विभाजित करने का काम करें। जिससे सरकार उन्हें श्रेणियों के आधार पर अनुदान प्रदान करे। एचईसीआई ऐसी ही एक संस्था है। जिसका काम सिर्फ उच्च शिक्षा के रेगुलेशन का होगा। अनुदान देने का काम शिक्षा मंत्रालय के हाथ में होगा। अब तक अनुदान देने और रेगुलेशन दोनों ही काम यूजीसी से संबंधित था।

अनुदान देने का काम सीधे सरकार के हाथ में आ जाने से संस्थानों पर सरकार का नियंत्रण और अधिक बढ़ जाएगा। उदाहरणस्वरूप यदि किसी संस्थान द्वारा सरकार के विरोध में कोई पेपर प्रकाशित किया गया अथवा किसी विभाग द्वारा ऐसे विषय में शोध कार्य करवाया गया जो कि सरकार के विरोध में जाता है। तो सरकार उसका अनुदान रोक सकती हैं। यही नहीं अनुदान रोकने का भय दिखाकर सरकार संस्थानों पर अपनी शर्तें पहले के मुकाबले आसानी से थोप सकती हैं। 

जहां कांग्रेस सरकार इस बदलाव को लाने में नाकाम रही। वहीं बहुमत से काबिज मोदी सरकार इसे एक झटके में कर देना चाहती है। जहां तक बात भाजपा की है तो अपने फासीवादी चरित्र के अपुरूप समाज के हर हिस्से को एक केन्द्रीयकृत सत्ता के अंतर्गत लाना चाहती है। केंद्रीयकृत सत्ता द्वारा पूंजीपतियों और अपने दोनों हितों को बहुत आसानी से आगे बढ़ाया जा सकता है। बीजेपी द्वारा उच्च् शिक्षा के क्षेत्र में भी ऐसे ही प्रयास करने की कोशिश पहले हीरा और अब एचईसीआई द्वारा की जा रही है। एचईसीआई का पूरा ढांचा ऐसा बनाया गया है कि यह सीधे-सीधे सरकार के नियंत्रण में रहे। जैसा कि इस आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के अलावा 12 अन्य सदस्यों का चुनाव सीधे सरकार द्वारा किया जाएगा। इस आयोग के ऊपर एक परामर्श कमेटी होगी जिसे हर 6 माह में बैठना होगा तथा जिसके अध्यक्ष शिक्षा मंत्री होंगे। यदि एचईसीआई कमेटी के 14 सदस्यों में से कोई भी सरकार की मंशा के अनुरूप काम नहीं करता तो उसे सरकार द्वारा हटाया भी जा सकता है। यूजीसी के सदस्यों को सरकार द्वारा हटाया नहीं जा सकता था। इसी तरह के अन्य अधिकार यूजीसी को कुछ स्वयत्ता प्रदान करते थे परंतु आज पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे की राह में कोई भी रोडा नहीं चाहता है। इसलिए एचईसीआई का गठन इस प्रकार से किया गया है की पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में रहे। 

प्रकाश जावड़ेकर ने आयोग के समर्थन में हर बात पर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने का रोना रोते रहते हैं। भाजपा सरकार इस बात पर कितनी गंभीर है, इसे एचईसीआई के संघटन से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। एचईसीआई के 14 सदस्यों में मात्र 2 शिक्षक रखे जाएंगे जबकि यूजीसी के 12 सदस्यों में से कम से कम 4 शिक्षक अनिवार्य रूप से रखे जाने का प्रस्ताव था। एचईसीआई देश की उच्च शिक्षा को दिशा देने उसकी गुणवत्ता सुधारने, शोध कार्य को आगे बढ़ाने का काम करेगी। परंतु कमेटी में 14 में से 2 शिक्षकों की उपस्थिति यह दिखाती है कि भाजपा उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का तर्क महज एक जुमला है। वहीं दूसरी ओर सरकार पूंजीपतियों के हितों के प्रति इतनी सचेत है कि इस दिशा में कोई कमी ना रह जाए इसके लिए पूंजीपति वर्ग से सीधे एक प्रतिनिधि एचईसीआई कमेटी में शामिल किया जाएगा। एचईसीआई के 14 सदस्यों में से एक इंडस्ट्री (पूंजीपति वर्ग) से होगा। अब तक पूंजीपति वर्ग पदों में पीछे से शिक्षा को संचालित करता था परंतु इस छुट्टे पूंजीवाद के दौर में पूंजीपति वर्ग खुलकर सामने आ रहा है। वह तसल्ली कर लेना चाहता है कि सब कुछ उसके हितों के मुताबित हो। इसलिए भी प्रस्तावित कमेटी में वो सशरीर शामिल रहेगा। 

इस नए आयोग के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है। कि पिछले आयोग के पास बेहतर प्रदर्शन ना कर पाने वाले संस्थानों को दंडित करने का कोई अधिकार नहीं था। इसलिए नए आयोग को दंड देने का भी अधिकार देकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारा जा रहा है। इस दिशा में एचईसीआई को अधिकार दिया गया है कि वह विभिन्न संस्थानों को उनके प्रदर्शन के मुताबिक श्रेणी प्रदान करेगी और यदि आयोग चाहे तो बेहतर प्रदर्शन न कर पाने वाले संस्थानों को तो बंद भी कर सकती है। यूजीसी के पास संस्थानों को बंद करने का अधिकार नहीं था। परंतु वह बेहतर प्रदर्शन न करने वाले या यूजीसी रेगुलेशन को ना मानने वाले संस्थानों के अनुदान में कटौती कर उन्हें दंडित करती थी। इसका मतलब दंड देने के मामले में सरकार द्वारा दिया जा रहा झूठ एक महज लफफाजी है। जिस नये आयोग को वैधानिकता प्रदान करने के लिए गढ़ा गया है। और जहां तक बात बेहतर प्रदर्शन ना कर पाने वाले संस्थानों की है उनकी अयोग्यता के कारण पर कोई बात नहीं कर रहा है। इस तरह से दिखाया जा रहा है कि यह संस्थान जानबूझकर बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं। सरकार द्वारा निरंतर बजट में कमी संस्थानों की कमी शिक्षकों की कमी आदि कारणों की तरफ से आंखें मूंद ली गई है। और इन सब कारणों से यदि कोई संस्थान बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाएगा तो सरकार के पास उसे बंद करने का अधिकार भी होगा। सरकार के कर्मों की सजा पूरे देश के छात्रों को भुगतनी पड़ेगी। गजब की निल्लर्जता है। खैर पूंजीवाद है ही निर्ल्लज व्यवस्था।

अतः स्पष्ट है कि यूजीसी के स्थान पर नए आयोग का गठन उच्च शिक्षा के स्तर में कोई सुधार नहीं करने जा रहा है। बल्कि उच्च शिक्षा के निजीकरण को और अधिक ठोस रूप देने का प्रस्ताव है। ये आज के पूंजीपति वर्ग की मांग है। यूजीसी भिन्न तरीके से पूंजीपति वर्ग के हितों को साधता था तो एचईसीआई खुले तौर पर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पूंजीपतियों के लिए राह सुगम बनायेगा। देश के मेहनतकश परिवारों से आने वाले करोड़ों-करोड़ छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के दरवाजे यूजीसी के समय में भी बंद थे। अब एचईसीआई निम्न मध्यम वर्ग से आने वाले छात्रों की राह में भी दुर्गम बनायेगा। आज जरूरत है कि शिक्षा से वंचित देश के मेहनतकश परिवारों से आने वाले छात्र उसके लिए शिक्षण संस्थानों के दरवाजों को बंद करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था को ठोकर मार कर गिरा दें। बंद दरवाजों के पास एक सुंदर भविष्य देने वाला समाजवादी भारत तुम्हारा इंतजार कर रहा है जरूरत बस दरवाजे को तोड़ने की है।                

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