आगामी चुनाव और छात्र-युवा
मोदी जी के भाषणों-जुमलों को सुनते-सुनते और उनके लटके-झटकों को देखते-देखते चार साल बीत गये। अब कुछ महीनों के भीतर आम चुनाव होने हैं। आम चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। राजनीतिक जोड़-तोड़ शुरू हो चुका है। नेताओं की भाग-दौड़ चालू है। इन सब के बीच सवाल हम छात्र-युवाओं के जीवन और भविष्य का है। सवाल यह भी है कि क्या हमारे देश के नेताओं के पास हमारे जीवन और भविष्य को लेकर कोई योजना है भी कि नहीं।
ऐसा नहीं है कि देश के प्रधानमंत्री व अन्य नेताओं को छात्र-युवाओं की समस्या का पता नहीं है। अच्छे से मालूम है कि आज के छात्र-युवाओं की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है। और इसीलिए मोदी जी ने 2014 के आम चुनाव के समय यह वायदा किया था कि हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार देंगे। और चाल साल बीतने पर जब रोजगार का सवाल जोर-शोर से उठने लगा तो उन्होंने बेरोजगारों को पकौड़ा तलने की सलाह दे डाली। वायदा हवा हवाई साबित हुआ।
बेरोजगारी की समस्या की हकीकत सामने आ ही नहीं सके इसलिए मोदी सरकार ने ऐसा बंदोबस्त कर दिया कि आकड़े ही इक्ट्ठा न हों। आकड़े न होने से सरकार का हर झूठा-सच्चा दावा मानने के अलावा कोई और चारा न होगा। विकास के दावे पेश करने के लिए मोदी सरकार ने जहां आकड़ों की बाजीगरी की वहां बेरोजगारी के मामले में तो वह अपने तरीके से कर तो यह रही है न होगा बांस ना बजेगी बांसुरी। पर बांस और बांसुरी कहावत से ज्यादा यहां बात हकीकत से आंख मूद लेने की है।
हमारे देश में बेरोजगारी भयानक ढंग से बढ़ रही है। घर-घर में ऐसे युवक- युवतियां हैं, जिन्हें काम की बहुत ज्यादा तलाश है। ऐसे काम की चाहत वालों में पढे़-लिखों से लेकर वे भी हैं जिन्होंने स्कूल का कभी भी मुंह नहीं देखा। हालात का अंदाजा सभी को है पर कोई कुछ करता नहीं। चुनाव के समय मोदी जैसे नेताओं द्वारा किये जाने वाले वायदे की हकीकत पिछले चार साल में सबके सामने है। अब, जब अगला चुनाव सामने है तो छली-प्रपंची राजनेता फिर से सब्जबाग दिखायेंगे। लाखों-करोड़ों को रोजगार देने का वायदा करेंगे। विकास-विकास की कहानी गढे़ंगे। हकीकत यह है कि लम्बे समय से भारत के विकास को रोजेगार विहीन विकास कहा जा रहा है। यानी देश में जो आर्थिक नीतियां लागू की जा रही हैं, उनसे जो विकास हो रहा है, उससे रोजगार में वृद्धि नहीं हो रही है। उलट सरकारी, सार्वजनिक व निजी क्षेत्र में लागू नीतियां से छटनीशुदा कर्मचारी-मजदूर बढ़ रहे हैं। जिनको कुछ काम मिलता भी है अस्थायी या ठेके के काम के चरित्र के कारण वे भी असुरक्षित भविष्य के साथ भारी तनाव व चिंता में जीवन जी रहे हैं।
योग्यतानुसार काम की सम्भावनाएं कम से कम होती गयी हैं। हालांकि पढ़े- लिखे उच्च जाति के युवक-युवतियों में यह भ्रम और कुण्ठा भारी मात्रा में फैली हुई है कि वे अगर बेरोजगार है तो इसलिए कि आरक्षण नाम की व्यवस्था कायम है। ऐसे लोग गरीब, सताये हुए लोगों को अपना दुश्मन समझकर उन लोगों के हाथों में खेल रहे हैं जो रोजगार के नाम पर लोगों को ठग व छल रहे हैं। सरकारी व सार्वजनिक क्षेत्र में भर्तियां नाममात्र की हो रही हैं। इसमें भी परीक्षाएं देर-सबेर करके आयोजित की जाती हैं और परिणाम घोषित करने व इंटरव्यू में सालों लग जाते हैं और किसी भाग्यशाली बंदे ने सब बाधाएं पार कर लीं तब भी उसको नियुक्ति अज्ञात-अपरिहार्य कारणों से नहीं दी जाती है।
यहां यह बात कैसे भूली जा सकती है कि देश में बहुत सारा रोजगार जहां है वहां आरक्षण नहीं है। निजी क्षेत्र, सेना ऐसी ही जगहें हैं। असंगठित क्षेत्र में जहां कमरतोड़ मेहनत करनी होती है, वहां कौन सा आरक्षण है। लगातार लुप्त होती जा रही सरकारी नौकरियां में आरक्षण का क्या मतलब रह गया है। और उस पर यह हकीकत भारी पड़ती है कि सरकारी सार्वजनिक क्षेत्र में आरक्षित पदों पर वर्षों से योग्य दलित व आदिवासी युवक-युवतियां न मिलने से भर्तियां ही नहीं हो पाती हैं। आजादी के इतने साल बाद भी सदियों से सताये हुए लोग बार-बार सताये जाते हैं, कोसे जाते हैं। नफरत के निशाने पर होते हैं। उच्च जाति के भ्रम व कुण्ठा के शिकार युवक-युवतियां को हकीकत से रूबरू होना चाहिए न कि नफरत व हिंसा का कारोबार करना चाहिए।
बेरोजगारी की मार से घायल युवक-युवतियों को रोजगार की तलाश के चंद हफ्तों में यह बात अच्छे से समझ में आने लगती है जो शिक्षा उन्होंने पायी है वह लगभग-लगभग किसी काम की नहीं है। अक्षर ज्ञान, सामान्य गणित व जानकारी को उपलब्धि मानना हो तो अलग बात है।
जो शिक्षा हम छात्र-युवा आजकल हासिल कर रहे हैं वह हमारे जीवन में क्या काम आती है। न इसको हासिल करना ज्ञान, विवेक, मुक्ति का एहसास देता है और न इसका इस्तेमाल करना आनंद व उत्साह देता है। एक बोझ जो दिमाग व आत्मा को ढोना पड़ता है। बचपन से पढ़ने-लिखने की क्रिया आतंक का पर्याय बन जाती है। अभिभावक-शिक्षक जो खुद कभी आतंकित रहे होते हैं। आतंक के पुजारी बन जाते हैं। खुदा ना खास्ता कोई कामयाब शिक्षाशास्त्री, बुद्धिजीवी आदि बन जाये तो वह किसी आतंकवादी से कम नहीं होता। पढ़े-लिखे का मतलब हमारे समाज में बौद्धिक दबदबे या आतंक का पर्याय बन जाता है। यह बौद्धिक आतंकवादी समाज में मेहनत करने वालों को मूर्ख समझता है। अपने ज्ञान की बंदूक से जहां-तहां फायरिंग करता रहता है।
बेरोजगारी व अजीबो-गरीब ढंग से दी जाने वाली शिक्षा के शिकार छात्र-युवाओं की आत्मा संकटग्रस्त न हो तो क्या हो। कुण्ठा ग्रस्त होने के लिए पूरा इंतजाम हमारी समाज व्यवस्था ने किया हुआ है। जाति, धर्म, इलाका, भाषा, स्त्री-पुरुष भेद अमीर-गरीब, देहात-शहर आदि तरह-तरह के प्रेतों का साया आत्मा पर हमारे अबोध, मासूम दिनों में ही चिपक जाता है। हमारा समाज हमारा परिवार हमारे स्कूल सब हमें कुठिंत बनाने के लिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं। कुण्ठा के समुद्र में हमारा बचपन व जवानी डूबती-उभरती रहती है।
सवर्ण घर में जन्म लेने वाला श्रेष्ठताबोध से कुंठित मर्द है तो कुंठित स्त्री है। तो उपेक्षा व अपमान से आक्रोशित गोरा है तो कुंठित, सांवला देती है तो कुंठित। अंग्रेजी में घिट-पिट कर ले तो कुंठित, न कर पाये तो कुंठित। कोठी-कार वाले घर का तो कुंठित। कुंठा की व्यापकता बता देती है कि हमारा समाज क्या और कैसा है।
और क्षणभर को सोचा जाए इस सब में हमारी राजनैतिक व्यवस्था की क्या भूमिका है। राजनैतिक पार्टियां क्या रोल अदा करती हैं। नेता क्या करते हैं। चुनावों में क्या होता है और जो कुछ होता है तो क्यों होता है।
थोड़ा भी हम सोचने लगे तो हम पायेंगे हमारी राजनैतिक व्यवस्था को प्यारा सा नाम लोकतंत्र भले ही दिया गया हो पर बेचारे लोक इसमें कुछ खास नहीं कर सकते हैं। कैसे? ऐसे 2014 के चुनाव में लगभग 85 करोड़ मतदाता थे इनमें से 55 करोड़ ही मत डालने गये। यानी 30 करोड़ मतदाता मत डालने के प्रति उदासीन थे। और तीस करोड़ लोग कम नहीं होते। आजादी के समय हमारी जनसंख्या करीब-करीब इतनी ही थी। फिर 55 करोड़ में जिन पार्टी या गठबंधन ने सरकार बनायी उसे करीब 17 करोड़ ही मत मिले। यानी मोदी जी को मत डालने वालों में से दो-तिहाई ने स्वीकारा ही नहीं। इस गणित को गौर से देखिये। कुल मतों का इस मोदी सरकार को एक बट्टा पांच ही मिल पाया।
संसद में भले ही प्रचण्ड बहुमत हो पर मतदाताओं के प्रचण्ड हिस्से का समर्थन नहीं है। वास्तव में एक अल्पमत सरकार पूरी तानाशाही से पांच साल तक शासन करती है। यह कैसा लोकतंत्र है, जहां जनता के मत देने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। यानी आप मत दें, न दें, नोटा दबाये, मोदी या किसी का कम या ज्यादा समर्थन-विरोध करें कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। सांसद-विधायक तो महज दस फीसदी मत पड़ने पर उसमें से सबसे ज्यादा मत हासिल करने पर संवैधानिक ढंग से चुन लिया जायेगा।
और फिर राजनैतिक पार्टियों का मेला और उनका झमेला किस लोकतंत्र की गारंटी देता है। यह इस बात की गारंटी देता है कि हम छात्र-युवा इसके बारे में कुछ इस ढंग से सोचें कि यह अपनी कमी बेशी के साथ ठीक है। एक पार्टी गठबंधन के जाने के बाद दूसरे का आना बदलाव, भाग्य परिवर्तन की आशा व अहसास दे। सच्चाई में कुछ खास नहीं बदलता अफसर वैसे ही रहते हैं, पुलिस, सेना, अदालत वैसी ही रहती है नीतियां वैसी ही रहती हैं। व्यवस्था वैसी ही रहती है। व्यवस्था वैसे ही काम करती है। अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होता जाता है। मुकेश अम्बानी(भारत का सबसे अमीर आदमी) के लिए कांग्रेस पार्टी अपनी दुकान थी तो मोदी गुजराती मोटा भाई। और मजे की बात मुकेश अम्बानी की सेवा में तत्पर हाल के दोनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व नरेन्द्र मोदी सामान्य पृष्ठभूमि से आये थे। दोनों ही अपने गरीबी, अभाव के दिनों की चर्चा करके गरीबों की सहानभूति हासिल करते थे। और मुकेश अंबानी की दौलत मौन धारण करने वाले और बड़बोले दोनों के काल में बेहिसाब बढ़ी। और मुकेश अम्बानी जैसे कई हैं।
बेरोजगारी से जूझते युवक-युवती मुकेश अम्बानी के किस्सों को कितना ही ढंग से रट लें पर वे किसी काम के नहीं। मुकेश अम्बानी बनने का सपना हकीकत में उतर नहीं सकता। मनमोहन, मोदी, राहुल या कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू खैरा सत्ता के शीर्ष पर पहुंच कर अम्बानी जैसों के दिल का टुकड़ा साबित होगा।
जब सत्ता के शीर्ष पर ऐसे देव मेहरबान हों जो मुकेश अम्बानी जैसों पर ही कृपा बरसायें तो लाखों-करोड़ों बेरोजगार युवाओं या अच्छे रोजगार की आशा में पढ़ते (नहीं पढ़ते) छात्रों को क्या मिलने वाला है। चिंता, विवशता, तनाव, कुण्ठा, असुरक्षा व कभी खत्म न होने वाली जद्दोजहद।
अब सवाल यहां पर अंत में यह है कि हम क्या चाहते हैं। क्या हम ऐसा ही जीवन जीना या जीते रहना चाहते हैं या फिर इस मकड़जाल से बाहर आना चाहते हैं। ऐसे ही जीने या जीते रहने में कुछ खास नहीं करना है। मान लेना है हमारी किस्मत ही खराब है। हमारा खुदा हमसे नाराज है। हमारे कर्म ही ऐसे हैं। दुनिया में अगर आये हैं तो जीना ही पड़ेगा।
और मकड़जाल से बाहर आने की बात ही सोचने का मतलब है जूझना। संघर्ष करना। मकड़जाल में फंसे हुए अपने दोस्तों, साथियों, रिश्तेदारों पर निगाह डालना और यह जानना कि मैं अकेला नहीं मेरे जैसे हजारों-लाखों हैं। और यह मकड़जाल कितना ही मजबूत हो पर यह हजारों-लाखों के सामने कुछ नहीं है। और यह मकड़जाल हजारों-हजार तन्तुओं से बना है। इस तन्तु का नाम कभी कांग्रेस, कभी भाजपा, कभी चुनाव, कभी मीडिया, कभी अदालत, कभी जेल, कभी पुलिस, कभी लोकतंत्र, कभी कुछ, कभी कुछ होता है। इस मकड़जाल का सही व सटीक वैज्ञानिक नाम पूंजीवाद है। और पूंजीवाद से मुक्ति का मतलब है, इंकलाब करना। पूंजीवाद का नाश करना और उस व्यवस्था समाजवाद को स्थापित करना जिससे मुकेश अम्बानी, नरेन्द्र मोदी और उनके लगुए-भगुए सबसे ज्यादा नफरत करते हैं।
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