गुरुवार, 26 जुलाई 2018

नोवोसिबिर्स्क की लोमड़ियां

लोमड़ियां को चालाक जानवर माना जाता है। बच्चों की कहानियों में लोमड़ी ही सबसे चालाक जानवर होती है। कहावत भी है- लोमड़ी की तरह चालाक लोमड़ियों के चालाक होने की धारणा पता नहीं कैसे बनी। लोमड़ियों ने कम से कम इंसान के साथ तो कोई चालाकी नहीं की होगी। या हो सकता है कभी लोमड़ियां इसानों के पालतू जानवरों के छोटे-छोटे बच्चों और मुर्गियों वगैरह को चुराती रही हों। जो भी हो, लोमड़ियां चालाक जानवर मानी जाती हैं तो मानी जाती हैं।

इन मासूम या गुनहगार लोमड़ियों ने बीसवीं सदी में इंसान के साथ एक वास्तव में चालाकी की बात की और उसे चक्कर में डाल दिया। और जिन इंसानों को चक्कर में डाला गया वे कोई सीधे-साधे या अनपढ़ जाहिल लोग नहीं थे। बल्कि वे स्वयं को बेहद बुद्धिमान मानने वाले वैज्ञानिक।


घटना बीसवीं सदी के दूसरे हिस्से की है।

तब आज के रूस के बदले सोवियत संघ हुआ करता था। उसकी राजधानी मास्को से करीब दो हजार मील दूर सुदूर साइबेरिया में लोमड़ियों का एक फार्म था। नोवोसिबिर्स्क के पास के इस फार्म में सिलवर ब्लैक फाक्स या रुपहली काली लोमड़ियां पाली जाती थी। इन जंगली लोमड़ियों को पालने की वजह उनके शरीर पर उगने वाले खूबसूरत रूपहले काले बाल थे जो फर बनाने के काम आते थे। फरों से गरम कोट वगैरह बनते थे।

उस समय वेज्ञानिकों के बीच यह बहस चला करती थी कि डार्विनवाद सही है या लामार्कवाद। उस समय प्रचलित डार्विनवाद के अनुसार जीवों के जीन में फरक होता है। इसीलिए जीवों में फरक होता है। यदि फरक वाले जीवों को चुनकर ऐसे जीवों की संख्या बढ़ाई जाये तो कई पीढ़ी बाद नये तरह का जीव यानी नयी प्रजाति का जीव पैदा हो जायेगा। इसके विपरीत लामार्कवाद कहता था कि जीव अपने जीवन में जो अनुभव करता है वह न केवल उसको बदलता है बल्कि यह उसकी अगली पीढ़ी में भी चला जाता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसा होने से नये तरह का जीव पैदा हो जाता है। पहले के अनुसार नये तरह के जीव को पैदा होने में बहुत समय लगता है जबकि दूसरे के अनुसार यह जल्दी हो सकता है।

सोवियत संघ में दिमीत्री बीलीयेव नामक एक जीव वैज्ञानिक थे वे 1907 में पैदा हुए थे। वे डार्विनवादी थे। उन्होंने सोचा कि क्यों न डार्विनवाद को नये सिरे से साबित करने के लिए नये तरह का प्रयोग किया जाये। यह तो सभी को पता था कि सुदूर अतीत में तीस-चालीस हजार साल पहले इंसान ने कुत्तों को पालतू बनाया था। इसके पहले कुत्ते जंगली भेडियों की तरह ही थे। बचे हुए मांस के टुकड़ों और हड्डियों के लालच में इंसानों की बस्ती के इर्द-गिर्द रहकर वे धीमे-धीमे जंगली से पालतू बन गये। वे इंसानों के पहले पालतू जानवर थे। तब से कुत्ता इंसान का सबसे वफादार पालतू जानवर बना हुआ है। यहां तक कि वह इंसानों के लिए गाली बन गया है।

बीलीयेव ने सोचा कि क्यों न जंगली लोमड़ियों को पालतू बनाया जाये। अभी तक कहीं ऐसा नहीं हुआ था। अभी तक कहीं भी लोमड़ियां पालतू नहीं बनी थी। पर यह देखते हुए कि भेडिये, कुत्ते, लोमड़ियां एक ही परिवार की हैं जैव विकास की वंश परम्परा में बीलीयेव ने इस पर प्रयोग करने का फैसला किया। उसी समय नोवोसिबिर्स्क के रुपहली लोमड़ियों के फार्म के पास एक नयी प्रयोगशाला खुली थी। बीलीयेव ने वहीं अपना स्थानांतरण करवा लिया और लोमड़ियों पर प्रयोग शुरू कर दिया।

प्रयोग के लिए खास तरह की लोमड़ियों को चुना गया। रुपहली लोमड़ियों के फार्म में पाया गया था कि वे तीन तरह की थीं। पहले श्रेणी उन लोमड़ियों की थी जो इंसानों के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख दिखाती थीं और उनसे दूर भागती थीं। दूसरी श्रेणी उन लोमड़ियों की थी जो शत्रुतापूर्ण रुख नहीं दिखाती थीं पर नजदीक भी नहीं आयी थीं। तीसरी श्रेणी उन लोमड़ियों की थी जो इंसानों के पास आ जाती थीं या अपने नजदीक आने देती थीं।

बीलीयेव ने तीसरी तरह की लोमड़ियों को चुना और ऐसी सैकड़ों लोमड़ियों को इक्ट्ठा कर उनका आपस में प्रजनन करवाना शुरू किया। यानी ऐसी नर व मादा लोमड़ियों से बच्चे पैदा करवाये जाते थे तथा फिर ऐसी ही लोमड़ियों को उन बच्चों में से चुनकर उनसे फिर बच्चे पैदा करवाये जाते थे।

ऐसा करते हुए छः पीढ़ी बाद बीलीयेव ने पाया कि ऐसी लोमड़ियां पैदा हो गयी हैं जिन्हें पालतू कहा जा सकता था। दस पीढी बाद ऐसी लोमड़ियां की तादाद 18 प्रतिशत थी। बीस पीढ़ी बाद पालतू लोमड़ियों की तादाद 35 प्रतिशत हो गयी। कोई आधी सदी बाद (प्रयोग 1950 के मध्य में शुरू हुआ था।) चालीसवीं पीढ़ी में पालतू लोमड़ियां 70-80 प्रतिशत थीं। यानी उस पीढ़ी में जो लोमड़ियां पैदा हुई उनमें से 70-80 प्रतिशत पालतू थीं। अब वे इतनी पालतू थीं कि उन्हें घरों में पालतू जानवर के तौर पर पालने के लिए बेचा जाने लगा। प्रयोगशाला के लिए यह आय का अच्छा स्रोत हो गया।

बात केवल लोमड़ियों के व्यवहार की नहीं थी कि वे जंगली के बदले पालतू बन गयी थीं। उनके बाहरी रूप रंग में भी परिवर्तन आ गया था। उनके कान सीधे खडे़ रहने के बदले कुत्तों की तरह लटक गये थे। उनकी पूंछ सीधी नीचे लटकी रहने के बदले गोल घुमावदार हो गई थी, जैसी कुत्तों की होती हैं। उनके माधे पर  खास तरह का सितारा पैदा हो गया था जैसा झबरीले कुतों में पाया जाता है। ये बाहरी परिवर्तन सबके लिए सबसे आश्चर्यजनक थे। 

जैसा कि पहले बताया गया है। बीलीयेव एक डार्विनवादी थे। उन्होंने यह प्रयोग शुरू ही किया था डार्विनवाद को खास तरह से प्रमाणित करने के लिए। पर अब प्रयोग कुछ और ही दिखा रहा था। चालाक लोमड़ियां ने इंसानों के साथ चालाकी की थी और उन्हें चक्कर में डाल दिया था। वे डार्विनवाद के बदले लामार्कवाद को प्रमाणित कर रही थीं।

जब प्रयोग की लोमड़ियों की देखभाल करने वाले मजदूरों से पूछा गया कि लोमड़ियां पालतू कैसे हो गयी हैं तो एक महिला मजदूर ने बहुत सीधा सा जवाब दिया। उसने कहा कि हम लोमड़ियों से प्यार करते हैं। उनकी अच्छी तरह से देखभाल करते हैं। हमने उन्हें अलग-अलग नाम दे रखा है। और उन्हें उनके नाम से पुकारते हैं। बदले में लोमड़ियां भी हमें प्यार करती हैं। यह एक खालिस लामार्कवादी जवाब था।

जब बीलोयेव से इस तरह के जवाब का जिक्र किया गया तो उन्होंने कहा कि आम लोग तो स्वभाविक तौर पर लामार्कवादी होते हैं, वे मानते हैं कि सीखी हुई बातें संतानों में चली जाती हैं। पर बीलीयेव की नजर में यह कोई परेशानी की बात नहीं थी बल्कि इससे लाभ ही था। इस तरह के विश्वास के चलते मजदूर लोमड़ियों की ज्यादा अच्छी तरह से देखभाल करते थे। डार्विनवादी होने के चलते स्वयं बीलीयेव इतनी अच्छी देख भाल नहीं कर सकते थे।

नोवोसिबिर्स्क की रुपहली लोमड़ियों ने बुद्धिमान जीव वैज्ञानिकों को चक्कर में डाल दिया था। उन्हें पालतू बनाने की शुरूआत हुई थी डार्विनवाद का एक और प्रमाण जुटाने के लिए पर वे पालतू बनकर लामार्कवाद को प्रमाणित कर रही थी। (वैसे यह कहना होगा कि स्वयं डार्विन इस तरह के लामार्कवाद के विरोधी नहीं थे। यह तो आधुनिक डार्विनवादी थे जो इसके विरोधी थे।) ऐसा करके वे सारी दुनिया का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही थीं। वे वाकई बहुत चालाक साबित हुई थी। आज का चालक से चालाक मशहूर व्यक्ति उहारण के लिए अमिताभ बच्चन या विराट कोहली भी इतनी शोहरत नहीं बटोर सकता था- बिना कुछ करे-धरे।

स्वाभाविक ही था कि चक्कर में पडे़ जीव वैज्ञानिक इसकी व्याख्या करने का प्रयास करते। और यह किया गया जीव विज्ञान की तेजी से उभरती शाखा एपिजेनेटिक्स के माध्यम से। वास्तव में यह एपिजेनेटिक्स का एक अच्छा प्रमाण था जब लोमड़ियों के जीवन का अनुभव तेजी से उनकी संतति में जाकर उनका व्यवहार और रूप रंग दोनों बदल दे रहा था। नोवोसिबिर्स्क की रुपहली लोमड़ियां जीव विज्ञान के विकास के लिए सुनहली साबित हुई थीं। प्रयोग अभी जारी है।

नोवोसिबिर्स्क की रुपहली लोमड़ियां पर प्रयोग विज्ञान के उन प्रयोगों में है जो शुरू तो एक चीज को साबित करने के लिए हुए थे। पर उन्होने साबित किया उल्टी चीज को। विज्ञान में ऐसे उलट फेर अक्सर होते रहते हैं।

रुपहली लोमड़ियों ने दिखाया कि कभी भेड़ियें कैसे पालतू बने होंगे और कुत्तों में तब्दील हुए होगें। बस तब इंसानों ने यह सचेत तौर पर नहीं किया था। तब यह अचेत तौर पर अपने आप हुआ था, इसलिए इसने ज्यादा समय लिया होगा। इस प्रयोग की रोशनी में जैक लण्डन के मशहूर उपन्यासों- ‘जंगल की पुकार’ (कॉल आव द वाइल्ड) और ‘पालतू भेडिया’ (ह्वाइट कैंग को भी बेहतर समझा जा सकता है। नोवोसिबिर्स्क की रुपहली लोमड़ियों की कहानी जब एक साथी ने सुनी तो उसने मजेदार सवाल किया। उसने जिज्ञासा व्यक्त की कि क्या इंसान को भी ऐसे ही पालतू बनाया जा सकता है?

सवाल बहुत रोचक था। पर थोड़ा सा ही ध्यान देने पर पता चला कि सवाल तो निरर्थक है। इंसान को पालतू बनाने की क्या जरूरत है। अपने देश के मोदी भक्त किसी भी पालतू जानवर से ज्यादा पालतू हैं और खतरनाक भी। पिछली सदी में हिटलर ने सभ्य जर्मनी के एक हिस्से को ऐसे ही पालतू बना लिया था और इसने मानवता पर जो कहर ढाया उसकी यादें आज भी ताजा हैं।

इसलिए सवाल यह नहीं है कि क्या इंसान को पालतू बनाया जा सकता है? सवाल यह है कि हरेक इंसान को स्वतंत्र चेतना सम्पन्न व्यक्तित्व का मालिक कैसे बनाया जाये? कैसे ऐसा इंसान बनाया जाए जो न दूसरों पर शासन करना चाहे और न दूसरों से शासित होना चाहे? कैसे ऐसा इंसान बनाया जाये जो न दूसरों को पालतू बनाना चाहे और न ही स्वयं पालतू बनना चाहे?
ऐसा केवल एक बिलकुल नये समाज में ही संभव हो सकता है भविष्य के साम्यवादी समाज में। ऐसा इंसान बनने व बनाने की प्रक्रिया इस समाज के निर्माण की ही प्रक्रिया होगी। इसकी शुरुआत एक ऐसे आमूल-चूल इंकलाब से होगी जो आज के पालतू बनने और बनाने वाले समाज को ध्वस्त कर दे।

जैविक जगत के जीव विज्ञान के नियम इंसानों पर हूबहू लागू नहीं होते। इंसान के और इंसानी समाज के अपने नियम हैं इसलिए रुपहली लोमड़ियों के प्रयोग से इंसानों के लिए कोई निष्कर्ष नही निकाला जा सकता। पर बच्चों की कहानियों की परम्परा में बात करें तो चालाक लोमड़ियों ने इंसानों को चक्कर में डालकर उन्हें ज्यादा बुद्धिमान बना दिया।

(इस लेख के तथ्य लोरेन ग्राहम की किताब ‘लीसेंको का भूत’ से लिए गये हैं)    

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