कबीलाई समाजों में धर्म
कछुआ, मेंढक और सांप कोई आकर्षक जीव नहीं है। कोई यह भी नहीं कह सकता कि वे बहुत सम्मानित जीव हैं। यह इसके बावजूद कि कुछ हिन्दू धर्म के कुछ अनुयाई नागपंचमी के दिन नागों की पूजा करते हैं। कछुओं और मेंढकों को तो यह सम्मान भी हासिल नहीं है। पर्यावरणवादी कछुओं को लुप्तप्राय जाति मानकर तब भी हो-हल्ला मचाते हैं पर अपनी बहुतायत के चलते मेंढकों को यह भी नसीब नहीं है। कुल मिलाकर यह कि कछुआ, मेंढक और सांप कहीं गिनती में नहीं आते।
ऐसे में जब पता चलता है कि अपने देश में प्राचीन काल में एक वेद का नाम सांप पर था, एक उपनिषद का नाम मेंढक पर था तथा एक ऋषि का नाम कछुआ पर था तो थोड़ी हैरानी की बात हो जाती है। ऋग्वेद की एकमात्र संहिता जो आज उपलब्ध है उसका नाम शाकल संहिता है। शाकल सांप की एक किस्म है। एक उपनिषद का नाम माण्डूक्य उपनिषद है यानी मेंढक उपनिषद (वैसे एक और उपनिषद का नाम श्वेताश्वतर यानी सफेद खच्चर उपनिषद है) प्राचीन ऋषियों में एक सम्मानित ऋषि कश्यप है जो नाम कस्सप अथवा कच्छप (कछुआ) से निकला है। वैदिक साहित्य के नामों से परिचित कोई भी व्यक्ति इस तरह के जन्तुओं या पौधों से निकले हुए तमाम नामों से जरा भी चकित नहीं होता क्योंकि वहां तो इसकी भरमार है।
अब सवाल यह है कि प्राचीन काल के हिन्दुओं को (जो न तो स्वयं तब अपने को हिन्दू के रूप में जानते थे और न कोई और उन्हें इस रूप में जानता था) अपने सम्मानित धर्म ग्रन्थों या व्यक्तियों के इस तरह के असम्मानित नाम रखने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या उनका हास्य बोध इतने ऊॅंचे स्तर का था या फिर वे हजारों साल बाद आने वाले हिन्दू फासीवादी संघियों को चिढ़ाने का प्रबन्ध कर रहे थे?
असल में प्राचीन काल के ये भारतीय कोई भी असम्मानित काम कर नहीं कर रहे थे। इसके उलट वे एकदम परम्परागत और अति सम्मानित काम कर रहे थे। इस तरह के नाम रखकर वे अपने आदि पूर्वज से अपना नाता जोड़ रहे थे।
वैदिक कालीन आर्य कबीलाई लोग थे और दुनियाभर के कबीलाई लोगों की तरह उनकी भी कबीलाई परंपराएं थीं। इन परम्पराओं वह परम्परा भी थी जिसे ‘टोटम पूजा’ कहा जाता है।
कबीलाई समाजों के लिए टोटम का खास मतलब होता है। हर कबीलाई समूह का अपना एक टोटम होता है। पूरा कबीला उसे अपना आदि पूर्वज मानता है यानी उनकी नजर में कबीला उसी से पैदा हुआ होता है। टोटम जन्तु हुआ तो उसका शिकार निषिद्ध होता है। उसकी पूजा होती है। किसी विशिष्ट अनुष्ठान के तहत ही उसकी बलि दी जाती है।
किसी जन्तु से कबीले की यह पहचान कबीलाई समाजों में धर्म की एक खासियत है। अक्सर इसकी जड़ में यह प्र्राचीन तथ्य होता है कि कभी वह जन्तु उस कबीले का प्रमुख खाद्य पदार्थ था। तब उसका अस्तित्व ज्यादातर उसी पर निर्भर था। बाद में अन्य खाद्य पदार्थों के उपलब्ध हो जाने के बाद मामले ने ठीक उल्टा रूप ले लिया। कबीले का प्रमुख खाद्य पदार्थ अब उसके लिए पूर्णतया निषिद्ध और पूजनीय हो गया। बाद के हिन्दू धर्म में गाय के साथ ऐसा ही हुआ। जब गाय प्रमुख मांस के बदले पूजनीय हो गई।
पर कबीले की टोटम के साथ पहचान में एक दूसरा ज्यादा बड़ा और व्यापक पहलू भी विद्यमान था। कबीलाई समाज केवल अपने टोटम जन्तु का ही मानवीकरण नहीं करता था। वह केवल जन्तुओं और वनस्पतियों को ही मानव के रूप में नहीं देखता था। बल्कि प्रकृति की अन्य शक्तियों मसलन सूरज, चॉंद, हवा, वर्षा, पानी, आग इत्यादि को भी मानव के रूप में देखता था। उसके लिए इंसान व उसके आस-पास की जैविक-अजैविक प्रकृति सब एक जैसे थे।
आज हिन्दू धर्म के होली जैसे त्यौहारों पर सभ्य लोगों को बहुत हैरत होती है। सभ्य लोग इसमें मौजूद उश्रंखलता और अश्लीलता से छुब्द होते हैं। वे इसे गुलाल लगाने के सभ्य होली-मिलन तक सीमित करना चाहते है। पर होली जैसे उश्रंखलता और अश्लीलता के त्यौहार अन्य समाजों में भी मौजूद रहे हैं और उनकी जड़ें सदूर अतीत के कबीलाई समाज तक चली जाती है और सुदूर अतीत में वे अश्लील त्यौहार नहीं थे बल्कि अति महत्वपूर्ण प्रजनन अनुष्ठान का हिस्सा थे। जब कबीलाई समाज में इंसान पौधों-जन्तुओं को अपनी तरह ही मानता था तो साथ ही यह भी मानता था कि दोनों आपस में इस तरह जुड़े हुए है कि एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। इस कारण एक की प्रजनन क्रिया दूसरे को प्रभावित करती है। यदि कबीले के सारे वयस्क लोग फसलों में बीज पड़ने के समय खेत के इर्द-गिर्द इकट्ठे होकर आपस में लैंगिक संबंध बनाएं तो इससे ज्यादा बेहतर फसल होगी। वक्त के साथ इस प्रजनन अनुष्ठान से वास्तविक लैंगिक क्रियाएं गायब हो गई और केवल बातें या प्रतीकात्मक हाव-भाव रह गये।
कबीलाई समाज में प्रकृति के इस मानवीकरण के बाद यह कोई मुश्किल नहीं था कि समय के साथ प्रकृति की शक्तियों की पूजा शुरू होती और उसके लिए अनुष्ठान आयोजित किये जाते। यदि कोई शक्ति हमें प्रभावित कर रही है तो उससे दानों ही तरीकां से निपटा जा सकता है या तो उसे सीधे अपने कार्य के द्वारा प्रभावित कर लिया जाये या फिर अनुनय-विनय के द्वारा। प्रजनन अनुष्ठान या कबीलाई जादू-टोना यदि पहली तरह के थे तो पूजा-पाठ दूसरी तरह के। बाद के कबीलाई समाजों में अक्सर दोनों साथ-साथ चलते रहते थे। जन्तुओं या यहां तक कि इंसानों की बलि के पीछे भी यही था।
आज सभ्य समाज में जादू-टोना या जानवरों की बलि बहुत पिछड़ी और बर्बर चीज मानी जाती है। पर कबीलाई समाज में ऐसा नहीं था। एक मायने में यह आज के मुकाबले बहुत ऊॅंची चीज का द्योतक था। यह था प्रकृति और इंसान का तादात्मय-इंसान और प्रकृति का एकरूप होना। प्रकृति और इंसान का यह तादात्म्य तब दोनों की बहुत निम्न समझदारी पर आधारित था पर दोनों के बीच तब वह विशाल खाई नहीं थी जो आज के पूंजीवादी समाज में पाई जाती है।
समय के साथ कबीलाई समाज में इंसान ने अपने और प्रकृति दोनों में आत्मा को देखना शुरू किया। आत्मा की धारणा की पैदाइश धीमे-धीमे ही हुई। मरने के बाद इंसान का क्या होता है? के सवाल से लेकर सपने क्यों आते है इत्यादि का जबाव तलाशते हुए इंसान आत्मा की धारणा तक पहुंचा। एक बार आत्मा की धारणा पैदा हो जाने के बाद भूत प्रेत, देवी-देवता तथा अन्य तरह के अनुष्ठानों का रास्ता खुल गया।
कबीलाई समाजों के देवी-देवता सर्वशक्तिमान नहीं होते थे। वे मोटा-मोटी इंसानों को तरह ही होते थे। उनके इंसानों की तरह ही परिवार थे और उसी की तरह के सुख-दुख। इंसान के साथ उनका उसी स्तर का नाता था। बस वे इंसानों से अलग दुनिया में रहते थे और इंसानों के जीवन को प्रभावित करते रहते थे। भारत और यूनान जैसे ज्यादा विकसित कबीलाई समाजों में इन देवी-देवताओं का एक पूरा संसार ही खड़ा हो गया।
कम विकसित कबीलाई समाजों में देवी-देवता अक्सर ही प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे। छोटे-स्थानीय कबीलों में तो अक्सर एक ही प्रमुख देवी या देवता होते थे। आज दुनियाभर में बच गई पिछड़ी कबीलाई जातियों में ऐसा ही देखने को मिलता है।
इस तरह के कबीलाई देवी-देवताओं को ईश्वर से कोई संबंध नहीं होता। कबीलाई समाज ऐसा समाज नहीं होता कि वह एक सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना कर सके। वह एक सीमित जगह में मौजूद थोड़े से लोगों का समाज होता है। उनका मुखिया या सरदार उन्हीं के बीच का, उन्हीं की तरह का व्यक्ति होता है जो शुरूआत में तो पुश्तैनी होने के बदले पूरे कबीले द्वारा चुना गया होता है। इस मुखिया या सरदार की शक्तियां सीमित होती हैं। किसी समाज का इंसान कल्पना की उतनी ही उड़ान भर सकता है जितना उसके समाज की बनावट इजाजत देती है। इसीलिए कबीलाई समाज का इंसान अपने जैसे देवी-देवताओं की ही कल्पना कर पाता है, किसी सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान ईश्वर की नहीं। ईश्वर की कल्पना के लिए दूर-दूर तक फैले हुए राज्यों और उसके राजाओं की आवश्यकता होती है।
कबीलाई समाज के धार्मिक अनुष्ठान सीधे और सरल होते हैं हालांकि उनकी धार्मिक परम्पराएं बहुत मजबूत होती हैं। इन परम्पराओं को बनाए रखने के लिए कबीलाई समाजों में पुरोहितों की उत्पत्ति होती है जो एक साथ ही पुरोहित, वैद्य, शासक सभी भूमिकाएं निभाता है इसको सही तरह से कर सकने के लिए उसे अन्य कामों से मुक्त कर दिया जाता है तथा अक्सर न केवल उसे ज्यादा सम्मान बल्कि उसे उपभोग हेतु ज्यादा सामान भी दिया जाता है। पुरोहित का उत्तराधिकारी सही तरीके से प्रशिक्षित हो सके इसे सुनिश्चित करने की कोशिश पुरोहित के वंशवाद की ओर ले जाती है। एक विशेषाकार सम्पन्न वंशगत पुरोहिती कबीलाई समाज के वर्गीय समाज में विद्यटन की ओर पहला कदम है।
जन्तु, मृत्यु और प्रजनन के योग्य होना कबीलाई समाज के धार्मिक अनुष्ठानों में प्रमुख स्थान रखते हैं। जन्म और खासकर मृम्यु से संबंधित धार्मिक अनुष्ठान तो आज भी सभी धर्मों में प्रचलित हैं पर प्रजनन के योग्य होने से संबंधित अनुष्ठान आज थोड़ा अजीब लगते हैं। आज शादी-ब्याह के समय तो धार्मिक अनुष्ठान होते हैं पर प्रजनन में योग्य होने के समय नहीं। कबीलाई समाजों में इंसान का जीवन मूलतः प्राकृतिक तो था ही। साथ ही अत्यंत छोटा भी था। तीस साल की उम्र मुश्किल से पार होती थी। इसीलिए तब यह जरूरी था कि प्रजनन योग्य होते ही लड़के-लड़कियां प्रजनन करें। यहीं से प्रजनन योग्य हाने को एक बेहद महत्वपूर्ण अवसर मान लिया गया। लड़कों के लिए तो इसकी कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं थी पर लड़कियों का रजस्वला होना इसका स्पष्ट संकेत था इसीलिए लड़कियों के रजस्वला होने के अवसर को धार्मिक अनुष्ठानों से मनाया जाता था और उसके बाद उन्हें लैंगिक संबंधों की इजाजत दे दी जाती थी (या शादी-ब्याह कर दिया जाता था) तब के समाज को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कबीलाई समाजों में लैंगिक प्रजनन संबंधी अनुष्ठान इतने खुले और प्रमुख क्यों हैं!
पर सारे ही कबीलाई समाजों के धर्म को एकरूप में ही देखना ठीक नहीं होगा। कबीलाई समाज भी बदलते रहे हैं और उसी के अनुरूप के उनके धार्मिक अनुष्ठान, रीति-रिवाज और परम्पराएं भी बदलती रही हैं। आज के भारत को ही लें तो इसमें जो कबीलाई समाज अवशेष के रूप में बच गये हैं उनमें एक ओर तो अंदमान-निकोबार की ओंगी सरीखी एकदम आदिम जनजातियां हैं तो दूसरी ओर भोटिया और मीणा जैसी जनजातियां भी जिनसे बड़ी संख्या में लोग पूंजीवादी राज्य मशीनरी में भर्ती होते है। इन जनजातियों में मौजूद धार्मिक रीति-रिवाज बहुत भॉंति-भॉंति के हैं। वे आस-पास के हिन्दू धर्म से बहुत प्रभावित भी हैं।
इतिहास में कबीलाई समाजों में बदलाब के साथ उनके धार्मिक अनुष्ठान और रीति-रिवाज भी बदलते रहे। वक्त के साथ जब कबीलाई समाजो का वर्गीय समाजों में विघटन होने लगा तो नये पैदा होते वर्गीय समाज में ये अनुष्ठान और रीति-रिवाज प्रविष्ट हो गये। ऐसा तब भी हुआ जब नये वर्गीय समाज के अनुरूप नये व्यापक धर्मां का उदय हुआ। पुरानी धार्मिक परम्पराओं ने नये धर्म में भी जगह बना ली। सभी धर्मां में कम या ज्यादा मात्रा में आज भी ये पुरानी कबीलाई परम्पराएं मौजूद हैं।
हिन्दू धर्म में आज भी जन्म, मृत्यु और विवाह के समय किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों (खासकर स्त्रियों द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले) को देखकर कोई भी बहुत आसानी से यह पहचान सकता है कि ये कबीलाई अनुष्ठानों के अवशेष हैं। इसका सीधा सा कारण यह है कि इन अनुष्ठानों का आधुनिक जीवन से कोईै लेना-देना नहीं होता। आधुनिक धर्मों में से एक इस्लाम में काबा में मौजूद पत्थर और वहां हज की यात्रा भी किसी पुरानी कबीलाई परम्परा का ही अवशेष है।
यह बहुत अस्वाभाविक नहीं है। इंसान की मानसिक दुनिया की निरंतरता उसकी भौतिक दुनिया की निरंतरता से ज्यादा होती है। पुराने विचार, मूल्य मान्यताएं और पुराने रीति-रिवाज लम्बे समय तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होते रहते हैं हालांकि उनका रूप बदलता जाता है। उनकी उपयोगिता भी बदलती जाती है। इसीलिए क्रांतिकारी रूपान्तरण इतना कठिन और जटिल साबित होता है। भारत जैसे समाजों में जब कभी भी धर्मों से मुक्ति का सवाल उठेगा तो पाया जायेगा कि न केवल वर्तमान विश्वासों व अंधविश्वासों से निपटना पड़ रहा है बल्कि सुदूर अतीत के विश्वासों व अंध-विश्वासों से भी। लेकिन साथ ही यह भी रेखांकित करना होगा कि भविष्य के कम्युनिष्ट समाज में पहुंचकर इंसान प्रकृति के साथ अपने उस तादात्म्य को पुनः और ऊॅंचे स्तर पर स्थापित कर रहा होगा जो कभी अतीत के कबीलाई समाजों में थी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें