इंदिरा गांधी, हिटलर और मोदी
पिछले कुछ वक्त से इंदिरा गांधी फिर चर्चा में हैं। इंदिरा गांधी आज इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन वह फिर भी चर्चा में हैं। कभी इंदिरा गांधी को ‘‘दुर्गा“ शब्द से संबोधित करने वाले अटल बिहारी बाजपेयी की पार्टी के लोग आज फिर इंदिरा गांधी को याद करने लगे हैं। बस फर्क इतना है कि बाजपेयी ने इंदिरा की तारीफ में ये षब्द कहे तो आज के भाजपाई इंदिरा को गालियां दे रहे हैं, कोस रहे हैं। अरुण जेटली जो चुनाव हारकर भी ‘मोदी कृपा’ से वित्त मंत्री बन गए थे उन्होंने फरमाया है कि इंदिरा ‘हिटलर’ थी। पिछले 4 साल जब से भाजपा मोदी की अगुवाई में सत्ता पर पहुंची है तभी से ठीक जून का महीना आते-आते मोदी समेत भाजपाइयों की बाछें खिल जाती हैं। ये पानी पी-पी कर कांग्रेस को व कांग्रेस की नेता इंदिरा को कोसने लगते हैं। ये कहने लगते हैं कांग्रेस ‘लोकतंत्र की भक्षक है’, ‘इंदिरा गांधी तानाशाह थी’। यह सब कहकर ये फिर मक्कारी से खुद को ‘लोकतंत्र के रक्षक’ के बतौर प्रतुत करने लगते हैं। ये कहने लगते हैं कि 75 में जब इंदिरा गांधी ने तानाशाही कायम की थी तब उन्होंने इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। ये जेल गये थे । यही नहीं इन्होंने कुछ राज्यों में जहां इनकी सरकार है वहां ‘75 के आपातकाल में जेल जाने वालों’ के नाम पर विशेषकर संघियों को चिन्हित कर पेंशन देना भी शुरू कर दिया है। हालांकि मोदी की गोद में बैठ गए नीतीश ने भी पेंशन की 2009 में शुरुआत की थी।
4 दशक पहले 1975 में 25 जून की मध्य रात में इंदिरा गांधी ने देश में ‘‘आपात काल“ थोप दिया था। तब संवैधानिक व जनवादी अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। तब देश के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद थे। इस आपातकाल को थोपने के पीछे तर्क दिया गया कि देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में संवैधानिक तानाशाही थोप दी। मज़े की बात यह है कि इंदिरा गांधी ने 1971 के चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया और फिर इस नारे के इर्द गिर्द जनता को भ्रमित कर 352 सीट के प्रचंड बहुमत से सत्ता पर पहुंच गई थीं। और ठीक 4 साल बाद उसी ग़रीब व मेहनतकश जनता को आपातकाल में निशाना बनाया गया। एक तरफ जबरन नसबंदी अभियान चलाकर व दूसरी तरफ सौंदर्यीकरण के नाम पर भी मेहनतकश जनता पर जुल्म ढाये गए।
लेकिन सवाल यह है कि मोदी-शाह-जेटली समेत संघ परिवार को ‘‘इंदिरा गांधी“ रह-रह कर क्यों याद आ रही हैं या क्यों ‘‘इंदिरा प्रलाप“ इनके द्वारा किया जा रहा है। इंदिरा गांधी के जमाने में गुजरात व बिहार में 74 में जबरदस्त छात्र आंदोलन चला था इस आंदोलन के दबाव में गुजरात में विधान सभा भंग करनी पड़ी जबकि गुजरात में कांग्रेस के चिमन भाई पटेल की ही सरकार थी। हालांकि इस छात्र आंदोलन का दमन भी किया गया था। आपातकाल के दौर में पुलिसिया आतंक कायम कर आंदोलनों को कुचलने का काम किया गया। लेकिन आज मोदी के जमाने में जरा छात्र आंदोलनों पर नज़र डालें। चेन्नई के इंजीनियरिंग कालेज से लेकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी तक इन्होंने दमन के घृणित हथकंडे अपनाए हैं। इन्होंने एक तरफ पुलिस का आतंक तो दूसरी तरफ अपने फासिस्ट दस्तों का आतंक कायम किया है। इन्होंने संविधान में संवैधानिक व जनवादी अधिकारों में रद्दोबदल किये बगैर ही ‘‘मोदी व मोदी सरकार" के खिलाफ आवाज उठाने को ‘‘देशद्रोह" के समकक्ष कर दिया है। ये जनवादी अधिकारों को व्यवहार में लागू करना मुश्किल से मुश्किल करते जा रहे हैं। इन्होंने नेता, सरकार व देश के संबंधों को गड्डमगड्ड कर दिया है। इनके हिसाब से सरकार ही मोदी है और मोदी ही देश है। इसलिये किसी भी मुद्दे पर मोदी सरकार की आलोचना मोदी का विरोध है और यह देश का विरोध है और देशद्रोह है। इसलिए नई आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू करने के चलते साथ ही संघियों के फासिस्ट कदमों से जो असंतोष व आक्रोश उपज रहा है जो आंदोलन हो रहे हैं उन्हें ‘‘विरोधियों की साजिश" या “देश द्रोही" कहकर खारिज करना,बदनाम करना फिर अलगाव में डालना व दमन करना यह घृणित फ़ासीवादी तौर तरीक़ा निरंतर आगे बढ़ रहा है। यह सब करने के बावजूद ये चाहते हैं कि आम नागरिक इन पर ही विश्वास करें, जो ये कहें उसी को सत्य मानें। इंदिरा गांधी को हिटलर कहकर ये एक तरफ अपने विपक्षी कांग्रेस को जनता से अलगाव में डालने की कोशिश करते हैं, खुद को हिटलर से नफरत करने वालों के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो दूसरी तरफ खुद को प्रहरी के बतौर प्रचारित करते हैं।
इंदिरा गांधी ने अपने दौर में जून 75 में ‘‘संवैधानिक तानशाही" कायम की थी। यह आपातकालीन प्रबन्ध तब पूंजीपति वर्ग को संकट से उबारने के लिए किया गया था। आज़ादी के बाद शासकों ने देश में विकास का जो पूंजीवादी रास्ता चुना था वह संकटों से होकर आगे बढ़ रहा था। ऊंची मुद्रा स्फीति, व्यापार घाटा व बजट घाटे के साथ-साथ पूंजी का संकट व विदेशी मुद्रा का सकंट। यह संकट बेरोजगारी, महंगाई के रूप में गहन था। कृषि में संकट और ज्यादा गहरा गया था। खाद्य संकट गहन हो चुका था। इस दौर में संकटों को बाह्य संकट के रूप में प्रचारित करने के लिए तीन युद्ध भी किये गए। 62 में भारत-चीन, 65 में भारत-पाक और फिर 71 में पाकिस्तान के साथ युद्ध। जिसने अर्थव्यवस्था को और ज्यादा नुकसान पहुंचाया। इस दौर में निवारक नज़रबंदी कानून देश में पहले से ही लागू था, दिसंबर 69 तक यह लागू रहा था। फिर 71 में इंदिरा गांधी की सरकार ने देश में इस दमनकारी कानून की जगह आंतरिक सुरक्षा के नाम पर नया काला कानून ‘‘आंतरिक सेवा अनुरक्षण कानून" (मीसा) लागू कर दिया। इन सबका मकसद जनता के अलग-अलग हिस्सों के जुझारू आंदोलनों का दमन करना था। ‘‘जमीन जोतने वालों की" का नारा देने वाला नक्सलबाड़ी आंदोलन का फैलना, 21 दिन का रेलवे का चक्का जाम, पी.ए.सी का विद्रोह आदि। गुजरात व बिहार में छात्रों व इनकी यूनियनों का नवनिर्माण आंदोलन। और इन स्थितियों में ही जब 12 जून के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने इंदिरा गांधी के अपने संसदीय क्षेत्र में चुनाव जीतने को गैरकानूनी ठहराकर किसी भी चुने हुए पद पर बैठने से रोक लगा दी। देशव्यापी आंदोलनों के इस दौर में शासक वर्ग की ही दूसरे हिस्से ने इंदिरा को इस फ़ैसले के आते ही गद्दी छोड़ने का अल्टीमेटम दे डाला। दिल्ली घेराव की योजना बना ली। अर्थव्यवस्था व राजनीति के इस गहन संकट में शासक पूँजीपति वर्ग के लिए जरूरी हो गया था कि स्थिति पर सख्ती से काबू पाए। आपातकाल थोपकर यही काम किया गया। संवैधानिक तानाशाही कायम करके विरोधियों व जनसंघर्षों का दमन किया गया। यह ऐसी तानाशाही थी जो साफ-साफ दिख रही थी। पुलिसिया आतंक व दमन स्पष्ट था और जनता को अधिकार छीने जाने का अहसास था, इसलिये इसका विरोध आसान था। इसलिए आपातकाल विरोधी संघर्ष हुए और बाद में यह बढ़-चढ़ कर होने लगे।
इसकी जरा आज के दौर से तुलना करें। इंदिरा गांधी पर बतौर प्रधानमंत्री इलाहाबाद कोर्ट में केस चलना, फैसला विरोध में आना। आज मोदी-शाह के दौर में जस्टिस लोया जैसे कांड हो रहे हैं। ‘‘भगवा आतंकी दस्तों" के आतंकी व गुजरात दंगों के गुनाहगार ‘‘बेदाग" होकर ‘‘मुक्त" होते जा रहे हैं। आज संवैधानिक फेरबदल किये बगैर जनवाद को कुंद व खत्म किया जा रहा है। जनवादी सोच व मूल्यों पर लगातार हमले हो रहे हैं। जो कोई भी इनका धुर विरोधी है वह इनके लम्पट फासिस्ट दस्तों के हमलों का शिकार हो रहा है, हत्या तक हो रही है। ये अपने विपक्षी बंधुओं को भी नहीं बख्श रहे हैं। सत्ता पर अपनी गिरफ्त बनाये रखने के लिए उन्हें भी ‘‘देश द्रोही" या ‘‘पाकिस्तान परस्त" साबित करने पर तुल जाते हैं। ये झूठ, मक्कारी व लफ़्फ़ाजी में अव्वल हैं। इन्होंने अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति से देश का वातावरण जहरीला बना दिया है। मुस्लिम, दलित व महिला विरोधी माहौल बढ़ता जा रहा है।
इनके मुँह से आज इंदिरा गांधी के लिए ‘‘हिटलर" शब्द निकल रहा है। सही मायनों में हिटलर के असली वारिस या कहा जाय कि भारतीय संस्करण मोदी-शाह-जेटली ही हैं, उनका संघ परिवार है। पिछली सदी में 20-30 के दशक में महामंदी के दौर में जर्मनी के वित्तीय पूंजीपतियों ने हिटलर को पाला-पोसा और फिर 1933 में सत्ता पर बिठाया था। और 36 तक पहुंचते-पहुंचते हिटलर ने अपने फ़ासीवादी दस्तों के जरिये फ़ासीवादी राज्य कायम कर लिया। जिसमें कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनों, मज़दूरों व यहूदियों का भयानक दमन किया गया। यातना कैम्पों में लाखों लोगों का नरसंहार किया गया। संघ शुरुआत से ही हिटलर की इसी फासिस्ट सोच का कायल रहा है, उसकी प्रशंसा करता रहा है। हिटलर की आर्य नस्ल की फ़ासीवादी विचार के ये खास मुरीद हैं। हिटलर व फासिस्ट दस्ते के निशाने पर यहूदी थे इनके निशाने पर अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम हैं। इनकी नफरत भरी ध्रुवीकरण की राजनीति मुस्लिम विरोध पर ही टिकी हुई है। ये देष की बहुराष्ट्रीयता व विविधता को अपने ‘‘एक देश-एक भाषा-एक संस्कृति" से खत्म कर देना चाहते हैं। इनका ‘‘हिन्दू राष्ट्र" फ़ासीवादी राज्य ही है जिसके लिए ये जुटे हुए हैं।
दरअसल पिछले दिनों से चुनावों में जो झटके मोदी-शाह व भाजपा को लग रहे हैं और जिस कदर मोदी की साख गिर रही है उससे एक बौखलाहट इनके भीतर है। इसलिए कुछ ऐसी बातें भी कर रहे हैं, जो इन्हें लगता है कि इनके लिए फायदेमंद होगी। इसीलिए ये इंदिरा को हिटलर कह रहे हैं। लेकिन ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी’ की तर्ज पर बात यहीं तक सीमित नहीं रहने वाली। बात आगे बढ़कर संघ परिवार से होते हुए मोदी को हिटलर का संस्करण कहने तक जाएंगी। ये गौरक्षा, लव जिहाद, राम मंदिर आदि के जरिये एक तरफ मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं तो दूसरी तरफ ‘पाकिस्तान विरोधी’ अन्धराष्ट्रवादी व उग्रराष्ट्वादी माहौल बना रहे हैं। कश्मीर, धारा 370 के जरिये भी ये अपने फ़ासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। ये भीड़ द्वारा आयोजित हिंसा व हत्या के समर्थक हैं इनमें से कुछ में तो इनके लोग खुद शामिल है। ट्रोलर्स टीम के तो ये खुद फालोवर हैं। मीडिया इनके ही गीत गा रहा है, इनके फ़ासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है।
जहां तक आपातकाल विरोधी संघर्ष में इनकी भागीदारी का सवाल है, वह सीमित रही थी और इसमें भी गिरफ्तारी होने पर माफीनामे लिखे थे। जो कुछ भी भागीदारी रही उसका भी मकसद कहीं से यह नहीं था कि जनवाद का प्रसार हो। इनका मकसद इसमें शिरकत कर अपने फ़ासीवादी आंदोलन को प्रसारित करना था। फ़ासीवादी जनवाद की सवारी कर सत्ता पर पहुंचते ही ये जनवाद को खत्म करने और फासीवाद कायम करने की ओर बढ़ते हैं। यही काम इन्होंने किया। फिर 77 की जनता पार्टी की सरकार में अपने आधार को फैलाने का सबसे बढ़िया मौका भी मिल गया। आज ये बहुमत से सत्ता पर हैं।
इंदिरा गांधी ने अपने दौर में गहन संकट के वक़्त पूंजीपति वर्ग के हित में आपातकाल थोपा था। उसी प्रकार आज के पूंजीवादी संकट के दौर में देश के एकाधिकारी पूंजी के मालिकों ने मोदी की अगुवाई में फासीवादियों को सत्ता पर पहुंचाया है। इंदिरा गांधी भी उस दौर में पूंजीपति वर्ग के हितों को साध रही थी और इसी के हित में राष्ट्रीयकरण से लेकर अन्य योजनाओं को लागू कर रही थीं। यह नहीं संविधान में ‘‘धर्मनिरपेक्ष व समाजवाद“ जैसे शब्द जोड़े गये, अमेरिकी साम्राज्यवादियों के दबाव में आने से इंकार कर दिया गया। आज मोदी के दौर में चीज़ें ठीक इसके विपरीत गति में हैं। दरअसल आज शासक पूंजीपति वर्ग की ही जरूरत तब के उलट है। आज इनकी जरूरत है सत्ता का केंद्रीकरण हो और नई आर्थिक नीतियों की राह में कोई रुकावटें न पैदा हों, ये तेजी से लागू हों, जनवादी चेतना को खत्म कर दिया जाए। यही चीज हो रही है मोदी इसी को आगे बढ़ा रहे हैं। अन्य संवैधानिक संस्थाओं से भी इनका विरोध न हो इसलिये वहां भी इन्होंने अपने पालतू लोगों को बैठा दिया है। ये जानते हैं इन नीतियों से जनाक्रोश व जन असन्तोष पैदा होगा। इसे ध्वस्त या कुंद करने के लिए इनकी फ़ासीवादी राजनीति व एजेंडा चौतरफा आगे बढ़ रहा है। इस फ़ासीवादी राजनीति का असर समाज में काफी गहरा है। इस असर को भांप कर ही कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा आदि पार्टियां पीड़ित मुस्लिमों के साथ खड़ा होने का नाटक भी नहीं कर पा रही हैं। ये खुद के हिन्दू होने, हिन्दू पक्षधर होने को साबित करने में लगी हुई हैं। संविधान भले ही धर्मनिरपेक्ष हो लेकिन देश में, पूंजीवादी राजनीति सर्वधर्मसमभाव से हिंदु तुष्टिकरण या हिंदुत्व की ओर झुक गई है। ये स्थिति बेहद गंभीर और खतरनाक है। इस फ़ासीवादी आंदोलन का जवाब चुनावी गठबंधन और चुनावी हार-जीत नहीं हो सकते। इसका जवाब केवल क्रान्तिकरी राजनीति के आधार पर मज़दूर मेहनतकशों की व्यापक एकजुटता और फ़ासीवादी विरोधी व्यापक मोर्चा होगा।
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