गुरुवार, 26 जुलाई 2018

पहला अध्यापक

        ‘पहला अध्यापक’ किरगीज (सोवियत संघ) के लेखक चंगीज आइत्मातोव द्वारा लिखित एक लघु उपन्यास है। इसका हिन्दी अनुवाद भीष्म साहनी ने किया है।

        यह उपन्यास महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति (1917) के बाद नये-नये स्थापित समाजवादी रूस के किरगीजिया क्षेत्र के एक छोटे से गांव कुरकुरेव में 1920-30 में घटी घटनाओं का उल्लेख करता है। नयी स्थापित सोवियत सत्ता में पिछड़ी मध्ययुगीन व सामंती मूल्य-मान्यताओं से किस प्रकार संघर्ष करना पड़ा इसका भी उपन्यास सूक्ष्म वर्णन करता है। यह उपन्यास उस नये इंसान का विशद वर्णन करता है जिसका निर्माण महान समाजवादी क्रांति के दौरान और क्रांति के बाद हुआ। यह नया इंसान दुइशेन है। चरित्र, त्याग, समर्पण, सोवियत सत्ता द्वारा दी गयी जिम्मेदारी का निष्ठा से पालन और सबसे बड़ी बात यह कि मेहनतकश जनता से असीम प्रेम आदि दुइशेन के गुण हैं।

        क्रांति के बाद सभी तरह के संसाधनों के अभाव से जूझती सोवियत सत्ता युवा कोमसोमोल 18 वर्षीय अर्धशिक्षित दुइसेन को कुरकुरेव गांव में बच्चों को पढ़ाई का काम सौंपती है। गांव में अशिक्षा, पिछड़ी सोच के कारण कोई भी अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए और न ही कोई स्कूल को स्थापित करने के लिए मद्द के लिए कोई तैयार नहीं होता। तब दुइशेन अकेले ही स्कूल निर्माण का काम अपने हाथ में लेता है और एक पुरानी घुड़शाला को कड़ी मेहनत से पाठशाला में बदलता है। गांव के लोग उस पर हंसते हैं लेकिन वह अपना काम पूरी लगन से करता रहता है। गांव वालों को दुइशेन द्वारा लगातार समझाने-बुझाने की कड़ी मेहनत के बाद गांव वाले अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजने लगते हैं। 

        गांव वाले दुइशेन के बारे में कहते हैं। ‘‘अरे, आप दुइशेन के बारे में नहीं जानते बड़ा कानून कायदे का आदमी है। अपना काम पूरा करने के बाद ही वह किसी दूसरी चीज में दिलचस्पी लेता है।’’ 

        दुइशेन के विद्यार्थियों में सबसे बड़ी 14 वर्षीय आल्तीनाई सुलेमानोव्ना है जो अनाथ है और अपने पिता के चचेरे भाई के यहां रहती है। उसकी चाची और चाचा उसके साथ क्रूर व्यवहार करते हैं। सम्पूर्ण उपन्यास दुइशेन तथा आल्तीनाई के इर्द-गिर्द ही लिखा गया है। एक शिक्षक का अपनी सबसे अच्छी और काबिल शिष्या के प्रति लगन व समर्पण के साथ और आगे बढ़ने में पूर्ण मद्द तथा शिष्या का अपने महान शिक्षक के प्रति सम्मान व कृतज्ञता ही उपन्यास की मूल कथावस्तु है। असल में उपन्यास अपने महान शिक्षक दुइशेन के प्रति सम्मान तथा उसकी महानता को दुनिया से परिचय कराने तथा दुनिया को उससे सीख लेने के लिए पत्र के रूप में लिखा गया है। 

        दुइशेन ऐसे अध्यापक हैं जो बहुत ही कम पढ़े-लिखे हैं। महज अक्षर ज्ञान। फौज में उन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा है और जो शब्दों को जोड़-जोड़ कर पढ़ पाते हैं। उपन्यास में दर्ज है- ‘‘बच्चों, मैं तुम्हें पढ़ना, गिनती करना सिखाऊंगा और यह दिखाऊंगा कि अक्षर और आंकड़े कैसे लिखे जाते हैं।’’ दुइशेन कहने लगा, ‘‘जो कुछ मैं खुद जानता हूं वह तुम्हें सिखा दूंगा......’’।

        ‘‘और सचमुच उसने अद्भुत धैर्य से हमें वह सब सिखाया जो वह स्वयं जानता था। हर शिष्य के ऊपर झुक-झुककर उसने यह दिखाया कि पेंसिल कैसे पकड़ते हैं और उत्साह से हमें वे शब्द समझाये जो हमारी समझ के बाहर थे।’’

        विश्वयुद्ध और उसके बाद गृहयुद्ध के बाद संसाधनों की कमी से जूझती सोवियत सत्ता द्वारा दिये गये बच्चों को पढ़ाने के जरूरी काम को कम क्षमतावान व कम कुशल होने के बाद भी अपनी लगन से दुइशेन ने पूरा किया। आल्तीनाई कहती है- ‘‘मैं आज भी सोचती और हैरान रह जाती हूं कि किस प्रकार वह अर्द्धशिक्षित युवक जो मुश्किल से अक्षर जोड़-जोड़कर पढ़ पाता था, जिसके पास एक भी पाठ्यपुस्तक नहीं थी, यहां तक कि वर्णमाला की पुस्तक तक नहीं थी, कैसे एक ऐसे काम को हाथ में लेने का साहस कर पाया जो वास्तव में महान था। ऐसे बच्चों को पढ़ाना क्या कोई मजाक है, जिनकी पिछली सात पीढ़ियों ने स्कूल का नाम तक न सुना हो और निश्चय ही दुइशेन पाठ्य कार्यक्रम के बारे में, अध्यापन-विधियों के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। या यों कहें कि वह इन चीजों के अस्तित्व तक से अनभिज्ञ था। ऐसी स्थिति में आखिर दुइशेन उनको पढ़ाने के जो स्वयं उसके लिए एक बड़ी चुनौती थी व दुरूह काम था, कैसे करता था? उपन्यास कहता है ‘‘....दुइशेन हमें अंतः प्रेरणा के बल पर पढ़ाया करता था, अपनी सूझ के अनुसार पढ़ाता, जैसे पढ़ा सकता था। जैसे उसे आवश्यक जान पड़ता था। परन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि उसका वह उत्साह, वह जोश, जिसके साथ उसने हमें पढ़ाने की कोशिश की; निष्फल नहीं रहा।’’


        बच्चों को पढ़ाने के लिए दुइशेन का समर्पण अनुकरणीय है। जब गांव वालों द्वारा बर्फीले नाले पर पुल बनाने में मदद नहीं दी गयी तो वह बच्चों को कंधे और गोद में बिठाकर रोज हड्डियों को सुन्न कर देने वाले बर्फीले नाले से पार कराता था। दुइशेन के चरित्र की दृढ़ता के बारे में उपन्यास कहता है ‘‘...फिर भी हमारे लोग यह सोचे बिना नहीं रह पाते थे : किसलिए यह नौजवान, जो औरों से न तो किसी तरह बुरा था और न ही कम ..इतनी कठिनाईयों और अभाव को सहन करता हुआ, लोगों के उपहास और तिरस्कार को बर्दाश्त करता हुआ उनके बच्चों को ऐसे हठ से, मानवेतर दृढ़ता से पढ़ाये जा रहा था?’’

        जब अनाथ आल्तीनाई का उसकी चाची पास के एक धनी व्यक्ति से सौदा कर देती है। धनी व्यक्ति की लड़कियों की उम्र आल्तीनाई के बराबर है। दुइशेन पूरी क्षमता से जबरन आल्तीनाई को ले जाने का विरोध करता है। हाथ टूट जाने और पूरी तरह लहूलुहान होने के कारण वह इसमें असफल हो जाता है। धनी व्यक्ति आल्तीनाई से बलात्कार करता है। अगले ही दिन वह जन मिलिशिया के लोगों की मद्द से आल्तीनाई को आजाद कराता है और धनी व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया जाता है। जब जन मिलीशिया उसे गिरफ्तार कर ले जाती है तब सालों से उससे अपमानित-उत्पीड़ित उसकी पत्नी उसके ऊपर पत्थरों की बौछार कर देती है। आल्तीनाई सुरक्षित भविष्य व आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाने के लिए राजी हो जाती है और शहर चली जाती है। 

        जब यह युवा स्त्री आल्तीनाई रूढ़िवादी-सामंती व उत्पीड़नकारी बंधनों से आजाद होती है तो दुइशेन के प्रति सम्मान और कृतज्ञता को इन शब्दों में व्यक्त करती है- ‘‘जीवन की क्यों ऐसी व्यवस्था नहीं की जा सकती कि लोगों के पदचिन्ह उन चिरस्मरणीय स्थानों पर सदा के लिए अमिट बने रहें जो उन्हें प्रिय थे? यदि वह पगडंडी अब मुझे मिल पाये, जिस पर मैं दुइशेन के साथ पहाड़ पर से उतरी थी, यदि वे पदचिन्ह मुझे मिल जायें, तो मैं धरती पर गिर मास्टर जी के पदचिह्नों को चूम लूं। वह पगडंडी मेरे जीवन के सभी रास्तों का रास्ता है। जीवन की ओर, नये आत्मविश्वास की ओर, नयी आशाओं और आलोक की ओर लौटाने वाला वह दिन, वह पगडंडी, वह रास्ता मुबारक हो...उस घड़ी आकाश में चमकने वाले सूर्य, तुम्हें धन्यवाद, धन्यवाद तुम्हें पृथ्वी!’’ 

        जब आल्तीनाई एक पत्र के जरिये दुइशेन से प्रेम का इजहार करती है तो दुइशेन उसका कोई जवाब नहीं देता। हालांकि वह भी आल्तीनाई से प्रेम करने लग जाता है। लेकिन दुइशेन के लिए निजी भावनाएं, निजी हित, समाज हित से ऊपर नहीं हैं। दुइशेन नहीं चाहते कि प्रेम के कारण आल्तीनाई की पढ़ाई में बाधा आये। आगे पढ़कर आल्तीनाई समाज के लिए और अधिक योगदान कर सकती है। इस तरह यह नायक अपने प्रेम का बलिदान कर देता है। और सोवियत सत्ता और मेहनतकश जनता की अपने क्षमता के अनुरूप सेवा करता रहता है। 

        समय के साथ जब शिक्षा का व्यापक प्रसार सोवियत समाज में हो जाता है तो प्रशिक्षित व योग्य शिक्षकों द्वारा शिक्षा देने का काम संभव हो पाता है। कुरकुरेव गांव में भी अब माध्यमिक स्कूल खुल जाता है और अब दुइशेन को बच्चों को पढ़ाने का काम नहीं करना पड़ता है और अब वह डाकिया बन गया है। जब गांव में आल्तीनाई माध्यमिक स्कूल के उद्घाटन में आती है जो अब एक विद्वान बन गयी है और देश-विदेश जाती रहती है तो वह दुइशेन को देखकर दुःखी होती है और अपने को मिलने वाले सम्मान पर खिन्न होती है। बरबस वह सोचती है ‘‘मैं एक और कारण से भी अपने को अपराधी महसूस करती थी। वह कारण यह था कि नये स्कूल के उद्घाटन के समय मेरे प्र्रति किसी प्रकार का सम्मान प्रदर्शित नहीं किया जाना चाहिए था, सम्मान के पद पर मुझे बैठाने की जरूरत नहीं थी। इसका अधिकारी था हमारा पहला अध्यापक, हमारे गांव का पहला कम्युनिस्ट- बूढ़ा दुइशेन। और हुआ इसके बिल्कुल विपरीत। हम समारोह मना रहे थे। जबकि वह शानदार आदमी डाक लिए घोड़े पर सवारी करता हुआ स्कूल के उद्घाटन सम्बन्धी पुराने छात्रों के मुबारकवादी तार बांटता फिर रहा था।’’

        परन्तु दुइशेन नये समाज का एक नया इंसान था। जो पूरी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित था। जाहिर सी बात है कि उसकी यह निष्ठा व समर्पण मेहनतकश जनता तथा पूर्व की पीड़ित जनता की मुक्ति का जरिया था। जनता की सेवा व उनको अपनी इच्छानुसार व स्वतंत्र भविष्य निर्माण में उनकी मदद करता था। लेकिन समाज और अपनी जनता को समर्पित दुइशेन इसके बदले में अपने लिए किसी भी चीज की मांग नहीं करता। मांग तो दूर की बात वह प्रशंसा या प्र्रशस्ति के बारे में सोचता भी नहीं है। वह मानता है कि जो कुछ उसने किया या कर रहा है वही तो उसका काम है। और अपना काम करना कौन सी विशिष्टता है। 

        अंत में ‘पहला अध्यापक’ क्यों पढ़ा जाना चाहिए? पहला, शिक्षा के संघर्ष की गाथा जानने के लिए। दूसरा, एक अध्यापक व एक शिष्या के उच्च मानवीय रिश्तों व एक-दूसरे के प्रति सम्मान व समर्पण की भावना को जानने के लिए। तीसरा, इसके लिए कि सोवियत समाज के शुरुआती काल में शिक्षा हासिल कराने के सोवियत सत्ता व उसके कार्यकर्ताओं द्वारा दृढ़ प्रतिबद्धता व असीम संकल्प को जानने के लिए। चौथा, पिछड़े व शिक्षा विहीन जनता को जब शिक्षा हासिल करने का अनुकूल मौका मिलता है तो वे किस प्रकार आसमान की ऊंचाईयों को छू सकते हैं। पांचवा व अंतिम यह कि सोवियत समाज के दुइशेन जैसे चरित्रों से सीखने व उनको जीवन में उतारने के लिए और ऐसा किये बिना न तो इस पूंजीवादी समाज को बदला जा सकता है और न नये समाज का निर्माण किया जा सकता है।                                 

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