सोमवार, 21 मई 2018

नये-नये जलियांवाला रचते भारतीय शासक

-अनुपम

       यह वर्ष जलियांवाला बाग हत्याकांड का सौंवा वर्ष है। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा भारत को लूटने और भारतीयों के दमन का स्याह इतिहास जलियांवाला बाग हत्याकांड है। भारतीय मजदूरों, किसानों, छात्रों व युवाओं के बहादुर संघर्ष के परिणामस्वरूप अंग्रेज साम्राज्यवादियों को भागना पड़ा। अंग्रेजों के जाने के बाद सत्ता भारतीय पूंजीपतियों व सामंतों के हाथ में आ गई। समय के साथ पूंजीपति वर्ग सत्ता पर कब्जा मजबूत बनाता गया। 



         आजादी के बाद जिस भारत का निर्माण किया गया वह मजदूरों-किसानों-युवाओं के सपनों का भारत नहीं था। शासक जरूर बदल गए थे लेकिन शोषित जनता वहीं रही। उत्पीड़न करने वाले तो बदल गए परन्तु उत्पीड़ित वही रहे। आजादी के बाद के समय ने साबित किया कि नये शासक (पूंजीपति वर्ग) गोरे अंग्रेजों से जरा भी भिन्न नहीं थे। भारतीय जनता का शोषण, उत्पीड़न और दमन करने में वे अंगेजों से जरा भी कम नहीं थे। क्योंकि आजादी हासिल करने के बाद सत्ता का मूल चरित्र नहीं बदला था इसलिए गोरे अंग्रेजों के दमन चक्र को काले अंग्रेजों ने बदस्तूर जारी रखा। ब्रिटिश पुलिस व फौज की तरह ही भारतीय पुलिस व फौज भी जनता का दमन और उत्पीड़न करने वाली मशीनरी बनी। इसलिए आजादी के बाद पूंजीपति वर्ग के हितों को साधने के लिए भारतीय पुलिस व फौज ने कई जलियांवाला हत्याकांड अंजाम दिए। 


          अपनी अधिकार विहीनता और शोषण के विरोध में जब-जब भारत के मजदूर-मेहनतकश उठ खड़े हुए हैं तो भारतीय पुलिस-फौज का रुख उनके प्रति अंग्रेजों जैसा क्रूर रहा है। उनके आंदोलनों को सत्ता के दम पर खून में डुबोने में भारतीय शासक वर्ग जरा भी नहीं हिचके। पहले अंग्रेज लूटते थे अब भारतीय पूंजीपति वर्ग मजदूरों-मेहनतकशों को लूट रहा है। इसी लूट के पीछे शोषण छिपा है। शोषण और लूट के खिलाफ मजदूरों-मेहनतकशों, किसानों का संगठित संघर्ष जब-जब हुआ है तब-तब भारतीय शासक उससे निपटने के लिए क्रूर अंग्रेजों की दमनात्मक विरासत से प्रेरणा लेते रहे। 


        आजाद भारत में किसानों का तेलंगाना आंदोलन का क्रूरता से दमन किया गया। तेलंगाना के किसान जमींदारों व साहूकारों के शोषण और लूट के खिलाफ 1946 से ही संघर्षरत थे। किसानों से कम दाम पर अनाज की जबरन वसूली का उन्होंने विरोध किया। अंग्रेज साम्राज्यवाद और सामंती उत्पीड़न के विरूद्ध ल़िक्षत यह आंदोलन आजादी के बाद भी जारी रहा। जिसका कि स्वयं को समाजवादी कहने वाले नेहरू ने भीषण दमन कर अंत किया। हजारों किसान और आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कम्युनिस्ट कार्यकर्ता मारे गए। कईयों को जेल की कालकोठरी में डाल दिया गया। 
आजादी के बाद ही नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन, श्रीकाकुलम (केरल) तथा भोजपुर बिहार और अन्य किसान आंदोलन के साथ भी भारतीय शासक वर्ग और उसकी पुलिस-फौज ने ऐसा ही दमन चक्र चलाकर ही उनसे निपटा। यह आंदोलन क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित थे और इनकी मांगों और संघर्ष के केन्द्र में नए समाज का सपना था। आजादी के बाद और खासकर नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के बाद किसानों की खस्ता हालात और लूट दोनों में वृद्धि हुई। इसके खिलाफ किसानों के आंदोलनों से लाठियों, जेलों व हत्याओं से निपटा गया। अभी कुछ दिनों पूर्व ही मध्य प्रदेश के संघर्षरत किसानों को गोलियों से भूनकर छह किसानों की निर्मम हत्या कर दी गई। आजाद भारत में आज भी किसानों के साथ पूंजीवादी शासकों का व्यवहार शोषण और दमन का है। 


        कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में राष्ट्रीयता के आंदोलनों का भी शासकों की सरकारों ने क्रूर दमन किया है। कश्मीर, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड, मणिपुर और आसाम के राष्ट्रीयता के आंदोलनों का आजाद भारत की सरकारों के द्वारा क्रूरता और हिंसा के जरिए दमन किया गया है। इन राज्यों में आर्म्स फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट लगाकर ‘सुरक्षा बलों’ को असीमित अधिकार दिए गए हैं। जिसके जरिए ‘सुरक्षा बल’ आंदोलित समूह पर अंग्रेज शासकों की तरह क्रूरता से पेश आती है। हजारों की संख्या में झूठे मुठभेड़ों, प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोली बारी करके या लोगों को चिन्हित कर उनसे ‘निपटने’ का खूनी खेल आजादी के बाद भी बदस्तूर जारी है। इन राज्यों में सुरक्षाबलों द्वारा महिलाओं के साथ यौंन हिंसा और बलात्कार आम सी बात हो गई है।


         इसके अलावा आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन के संघर्ष भी आजादी के बाद जारी हैं। मुख्यधारा से अलग देश के विभिन्न राज्यों में फैले इन आदिवासी समूहों का अपने क्षेत्र के जल, जंगल और जमीन पर पारंपरिक अधिकार रहा है। ये प्राकृतिक संसाधन उनके लिए सिर्फ संसाधन नहीं हैं बल्कि वे उनकी जीवन पद्धति व धार्मिक पद्धति का हिस्सा हैं। देशी विदेशी कारपोरेट घराने आदिवासियों के इन क्षेत्रों मंे मौजूद खनिज संपदा को हथिया कर मुनाफा कमाना चाहते हैं या इन क्षेत्रों में अपने प्रोजेक्ट लगा रहे हैं। पूंजीवादी सरकारें जबरन आदिवासियों से इन इलाकों को खाली कराना चाहती हंै। और इसके लिए सरकारों ने इन क्षेत्रों में आदिवासियों के विरूद्ध एक युद्ध सा छेड़ दिया है। फर्जी मुकदमे में संघर्षरत आदिवासियों को फंसाना, उन्हें माओवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार देना व आदिवासी स्त्रियों के साथ यौंन हिंसा व बलात्कार के जरिए इनका क्रूर दमन कर रहे हैं। देशी विदेशी पूंजी के हितों को साधने के लिए भारतीय शासक वर्ग व उसकी सरकारें बड़े पैमाने पर हिंसा पर उतारू हैं। आदिवासियों के प्रति भारतीय पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों का व्यवहार साम्राज्यवादी अंग्रेजों की तरह ही है।


        भारत के मजदूरों का शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संगठित तथा असंगठित संघर्षों के प्रति भी पुलिस-प्रशासन से लेकर न्यायपालिका तक का रुख दमनात्मक है। मारूति-सुजूकी के मजदूरों का आंदोलन और पूरी राज्य मशीनरी के द्वारा उसका क्रूर दमन इसका प्रतिनिधिक उदाहरण है। 148 बेगुनाह मजदूरों को झूठे मुकदमों में फंसाकर लगभग साढ़े चार साल जेल में बंद रखा गया। और न्यायपालिका का यह कहना कि ‘‘इनको अगर बेल मिल जायेगी तो विदेशी निवेश प्रभावित होगा’’, यह बात बहुत अच्छे से बयां कर देती है आजाद भारत की पूंजीवादी राज्य मशीनरी मजदूरों के दमन में अंग्रेजों से जरा भी कम नहीं है। यह व्यवस्था के चरित्र को भी अच्छे से जाहिर कर देता है। ठीक ऐसा ही प्रिकाॅल (तमिलनाडु) के मजदूरों के साथ भी किया गया। जब प्रशासन-पुलिस व न्यायपालिका के जरिये पूंजीवादी व्यवस्था ने आंदोलित मजदूरों को दोहरे आजीवान कारावास की सजा सुना दी।


        देश के विभिन्न हिस्सों में वेतन-भत्तों, श्रम कानूनों को लागू कराने या यूनियन गठन जैसे संवैधानिक अधिकारों के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। और पूंजीवादी राज्य मशीनरी अपने संविधान में दर्ज अधिकारों को मजदूरों को हासिल कराने के मार्ग में अनेकानेक बाधाएं खड़ी करती है। जब संघर्षरत मजदूर आंदोलन करते हैं तो राज्यमशीनरी लाठी चार्ज, झूठे मुकदमों के जरिए उनके दमन पर उतारू हो जाती है। 
        

        बेहतर और सस्ती शिक्षा पाने के लिए जब छात्र नौजवान मांग करते हैं तो उनका भी दमन किया जाता है। आजादी के बाद विभिन्न मांगों को लेकर छात्र-युवाओं के संघर्षों को पुलिसिया दमन का शिकार होना पड़ा है। हाल ही में शिक्षा मद में कटौती तथा ‘‘स्वायत्तता’’ के नाम पर बजट कटौती के खिलाफ शांतिपूर्ण मार्च कर रहे जेएनयू के छात्रों का दिल्ली पुलिस ने बर्बर दमन किया। छात्राओं को खासतौर से निशाना बना कर उनके कपड़े फाड़े गए और उनके साथ अभद्रता की गई। यह सब नागरिकों की सुरक्षा का दावा करने वाली पुलिस द्वारा किया गया।
     

        रोजगार की मांग करने वाले विभिन्न राज्यों के प्रशिक्षित बेरोजगारों के साथ उनके राज्य की पुलिस कैसा व्यवहार करती है यह रोज ही अखबारों के माध्यम से पता चलता रहता है। जब खबरें आती हैं उनके साथ लाठीचार्ज किया गया, उनको गिरफ्तार किया गया आदि-आदि। 
     

        आजादी के बाद भी अगर दमन तंत्र खत्म नहीं हुआ तो इसका कारण यह है कि अंग्रेजों और भारतीय पूंजीपति वर्ग के चरित्र में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। दोनों ही लुटेरे और मजदूरों-मेहनतकशों के शोषक हैं। दोनों ही निजी संपत्ति की व्यवस्था के पैरोकार और मुनाफे के गुलाम हैं। जब तक शोषण, असमानता और मालिक और नौकर के संबंद्ध रहेंगे तब तक दमन तंत्र भी रहेगा। इसका खात्मा भगत सिंह के बताए रास्ते पर चलकर और उनके सपनों को सच में बदलकर ही किया जा सकता है। और वह भगत सिंह का सपना या रास्ता क्या है? वह है समाजवादी भारत का निर्माण। वह है निजी संपत्ति की पूंजीवादी व्यवस्था का नाश और मजदूरों-मेहनतकशों की सामूहिक संपत्ति का निर्माण। वह है मुट्ठीभर पूंजीपति वर्ग को शासन-सत्ता से हटाकर मजदूरों मेहनतकशों के हाथ में सत्ता का आना। वह है पूंजीपति वर्ग के समग्र संपत्ति के मालिक होने के स्थान पर मजदूरों-मेहनतकशों का समग्र संपत्ति का मालिक बन जाना। जलियांवाला बाग जैसे हत्याकांडों का हमेशा के लिए नामोनिशान ऐसे ही मिटाया जा सकता है।     

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