13 अप्रैल: अमर शहादत हमारी विरासत
-मोहन सिंह
13 अप्रैल का दिन भारतीय इतिहास में वह काला दिन है जब अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने नृशंसता की हदें पार कर दीं। और इस प्रकार अपने मानवद्रोही चरित्र का पर्दाफाश पूरी दुनिया में कर दिया। 13 अप्रैल, 1919 का जलियांवाला बाग नरसंहार जहां एक ओर साम्राज्यवादी शासन की क्रूरता के लिए जाना जाता है वहीं भारतीय मुक्तिकामी जनता के बलिदान के लिए भी जाना जाता है। 13 अप्रैल, 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर बड़ा असर डाला। दुनिया को गुलाम बनाने की मुहिम में साम्राज्यवादियों ने अनेक उपनिवेशों की जनता के साथ ऐसे ही हत्याकाण्डों को अंजाम दिया है। साम्राज्यवाद का इतिहास और समृद्धि गुलाम देशों की जनता के खून में सनी है। क्योंकि आज भी साम्राज्यवाद कायम है इसलिए इस तरह के हत्याकाण्ड आज भी किसी न किसी रूप में भी जारी हैं।
जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड- 13 अप्रैल, 1919 का बैसाखी का दिन था। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास स्थित जलियांवाला बाग में बैसाखी का मेला लगा था। राॅलेट एक्ट के विरोध में वहां एक सभा भी हो रही थी। तभी जनरल डायर ने बिना कोई चेतावनी दिये गोलियां चला दीं। यह बाग तीन ओर से बंद था, बस एक ही रास्ता था; आने और जाने का। और उस रास्ते पर जनरल डायर अपने सिपाहियों संग गोलियां बरसा रहा था। कुल 1600 गोलियां दागी गयीं। इसमें सभा में शामिल और मेला देखने वाले कई लोग मारे गये (बच्चे, बूढे़, महिलाएं सहित)। कुछ लोग जान बचाने के लिए वहां मौजूद कुएं में कूद गये। देखते ही देखते कुआं भी लाशों से भर गया। 120 शव तो कुएं से ही निकले। आज यह कुआं भी शहीदी कुआं के नाम से जाना जाता है।
अंग्रेजी सरकार की रिपोर्ट ने 379 लोगों के मारे जाने तथा 1200 के घायल होने की बात स्वीकारी परंतु वास्तविक आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा का था। अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उसके अफसरों की मानवद्रोही क्रूरता का अंदाजा इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है जब इस हत्याकाण्ड की जांच हेतु हन्टर आयोग के सामने जनरल डायर ने कहा - ‘‘उसे केवल इस बात का दुःख था कि उसका गोला-बारूद खत्म हो गया था और संकरी गलियों के कारण बाग में बख्तरबंद गाड़ी (तोपें) नहीं लायी जा सकी थीं- क्योंकि अब सवाल केवल भीड़ को तितर-बितर करने का नहीं रह गया था, बल्कि ‘नैतिक प्रभाव उत्पन्न करना’ आवश्यक था।’’ आशय स्पष्ट है कि जनरल डायर अपनी क्रूरता से और भी बड़े हत्याकाण्ड को अंजाम देने के इरादे से वहां गया था। ‘नैतिक प्रभाव’ भारतीयों को डराना था, जिससे वे स्वतंत्रता संघर्ष का त्याग कर दें।
तत्कालीन परिस्थितियां- 1904 में जब जापान ने जारशाही रूस को हरा दिया, उस रूस को हरा दिया जो ताकत और साम्राज्य का प्रतीक माना जाता था। इससे एशिया के लोगों में यह विचार घर कर गया कि साम्राज्यों को परास्त किया जा सकता है। और इनका सूरज जल्द ही अस्त होने वाला है। 1917 की महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति ने जारशाही का हमेशा के लिए खात्मा कर दिया।
विश्व युद्ध और भारत- 1914 में शुरू हुआ साम्राज्यवादियों के बीच विश्व युद्ध अभी-अभी (1918) समाप्त हुआ था। इस विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद की स्थिति पूर्व से कमजोर हो गयी। अन्य साम्राज्य भी काफी कमजोर हो गये।
प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का साथ दिया और विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार से नरमी की उम्मीद की। वह उम्मीद कर रहे थे कि उनको ‘डोेमिनियन स्टेटस’ मिल जायेगा। इस युद्ध में 13 लाख भारतीय सैनिक और सेवक यूरोप, अफ्रीका और मध्यपूर्व मेें युद्ध के मोर्चे पर भेजे गये और इनमें से 43,000 कभी भी वापस नहीं लौटे। लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद पाया गया कि अंग्रेज साम्राज्यवादियों का रुख पूर्व की भांति ही है। इसने भारतीय जनता को क्षोभ और गुस्से से भर दिया।
विश्व युद्ध के दौरान ही देश में खासकर पंजाब में अंग्रेजों का विरोध और अधिक बढ़ गया। युद्ध के कारण जनता की हालत और भी खराब हो गयी। गरीब भारतीय जनता से युद्ध के खर्च हेतु जमकर पैसा वसूला गया। बढ़ती महंगाई और मुनाफाखोरी ने जनता के कष्टों को और बढ़ा दिया और तबाही की हालत पैदा कर दी। युद्ध के बाद फैली महामारी में एन्फ्लुएंजा के कारण अनेक लोग मारे गये।
अक्टूबर क्रांति का असर- इसी विश्व युद्ध के दौरान रूस मेें मजदूरों द्वारा समाजवादी क्रांति को परवान चढ़ा दिया गया। मजदूरों के इस प्रथम राज ने दुनिया के साथ भारत पर भी अपना प्रभाव डाला। भारत में भी विद्रोही जनान्दोलन शुरू हो गया। इससे अंग्रेजों का साम्राज्य भी हिलने लगा। जनता की पहलकदमी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गयी।
1918 के अंत और 1919 के शुरू में देश में मजदूर हड़तालों की बाढ़ सी आ गयी जो कि भारत के लिए एक नयी चीज थी। दिसंबर, 1918 में बंबई के मिल मजदूरों ने हड़ताल की और जनवरी 1919 तक इसमें 1 लाख 25 हजार मजदूर शामिल हो गये। मजदूरों व जनता की पहलकदमी इतनी बढ़ गयी थी कि कांग्रेस और गांधी तक चौंक पड़े। 1920 के पहले 6 महीनों मेें मजदूर हड़तालों की संख्या और बढ़ गयी। कुल मिलाकर 200 हड़तालें हुयीं जिसमें 15 लाख मजदूरों ने भाग लिया।
अभी तक अंग्रेज तथा अन्य भी यह सोचते थे कि चंद नेताओं या गुटों द्वारा नेतृत्व करने से बड़े-बड़े आंदोलन होते हैं। लेकिन अब भारत का मुक्ति आंदोलन इससे एक कदम आगे बढ़ चुका था। यह थोड़े से लोगों का आंदोलन न रहकर व्यापक जनता का आंदोलन बन रहा था।
यह सब अक्टूबर समाजवादी क्रांति का असर था जिसने मजदूरों व जनता को जागृत कर दिया और अंग्रेजों को आतंकित।
1917 की रूसी क्रांति ने दुनियाभर में आजादी के लिए संघर्षरत जनता और मजदूरों पर बहुत बड़ा असर डाला। एक ओर इस क्रांति ने जहां मजदूर-मेहनतकशों तथा जनता का मनोबल ऊंचा उठाया वहीं दूसरी ओर साम्राज्यवादी ताकतों का मनोबल गिराया। दुनिया में बड़े-बड़े उलटफेर होने लगे। रूसी समाजवादी क्रांति ने पोलेण्ड को, जो पहले जारशाही के अधीन था, स्वतंत्र घोषित कर साबित कर दिया कि राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार है। और बाद में सोवियत संघ की स्थापना के जरिये राष्ट्रों को अलग होने के अधिकार सहित आत्मनिर्णय का अधिकार दिया।
भारतीय जनता में बढ़ता असंतोष और राॅलेट एक्ट- भारतीय जनता के मध्य अंग्रेजी शासन के प्रति बढ़ती नफरत और असंतोष से अंग्रेज घबरा गये। जो जनउभार पैदा हुआ उससे निपटने के लिए डरे हुए अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने राॅलेट कमेटी बनायी। जिसका उद्देश्य था ‘हिन्दुस्तान में क्रांतिकारी आंदोलन से संबंध रखने वाले गुप्त षड़यंत्रों’ का पता लगाने और उनका दमन करने के लिए सुझाव पेश करना। इस समिति के सुझावों के अनुसार भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) का विस्तार कर राॅलेट एक्ट मार्च, 1919 में लागू हो गया। राॅलेट एक्ट अंग्रेजों द्वारा बनाया गया ऐसा कानून था जिसके जरिये वे प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान लागू विशेष आपातकालीन कानून को बाद में भी लागू करना चाहते थे। जिससे कि आजादी का आंदोलन चलाने वाले नेताओं पर अदालतों में मुकदमा चलाने की जरूरत न पड़े और लोगों को ऐसे ही जेलों में ठूंसा जा सके। इस कानून के तहत किसी को भी बिना मुकदमा चलाये दो वर्षों तक बन्दी रखा जा सकता था, लोगों को बिना वारंट गिरफ्तार किया जा सकता था। उन पर विशेष ट्रिब्यूनलों और बंद कमरों में बिना जबावदेही दिये हुए मुकदमा चलाया जा सकता था।
इन परिस्थितियों से पैदा होने वाली घबराहट और भय से अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड को अंजाम दिया। उसने अपने दमनतंत्र को और तेज कर दिया। जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड से पूर्व भी राॅलेट एक्ट के विरोध में हुए प्रदर्शनों पर देश में कई जगह गोलियां चलायी गयीं। जिसमें कई लोग मारे गये और गिरफ्तार हुए। इस नरसंहार को अंजाम देने वाले जनरल डायर को अंग्रेज सरकार ने 20,000 पौण्ड दिये और हाउस आफ लॉर्ड्स में सरकारी तौर पर उसका समर्थन किया गया। पंजाब में इस हत्याकाण्ड के बाद मार्शल लाॅ लागू कर दिया गया। उस समय कितने गोलीकाण्ड हुए, कितनों को फांसी हुयी, कितने बम गिराये गये और कितनों को कड़ी सजाएं दी गयीं इस सब जुल्म का इतिहास बाद की जांच से भी थोड़ा-बहुत ही मालूम हुआ है।
अंत में- जलियांवाला बाग जैसे जघन्य हत्याकाण्ड को अंजाम देने के बाद भी अंग्रेज साम्राज्यवादी अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाये। वो जनता की पहलकदमी, जनता के जनांदोलन को दबाना चाहते थे, ताकि उनका शासन और लूट चिरस्थायी रहे। लेकिन हुआ इसका ठीक विपरीत। जो ‘नैतिक प्रभाव’ जनरल डायर और अंग्रेज साम्राज्यवादी उत्पन्न करना चाहते थे वह लाख कोशिशों के बाद भी ऐसा नहीं कर पाये।
क्रांतिकारियों की एक नयी जमात उठ खड़ी हुयी। भगत सिंह जो इस हत्याकाण्ड के वक्त 12 वर्ष के थे, बाद में भारतीय क्रांति के नायक बन गये। उधम सिंह ने जनरल ओ डायर को इंग्लैण्ड में जाकर उसको, उसके पापों की सजा दी। भारत में मजदूर क्रांति को संगठित करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ने मजदूरों-किसानों का राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में नेतृत्व किया। इसके अतिरिक्त कई क्रांतिकारी संगठन अस्तित्व में आ गये जो क्रांतिकारी तरीके से अंग्रेजों से मुक्ति चाहते थे।
इस तरह जलियांवाला बाग की यह घटना भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक टर्निंग प्वाइंट साबित हुयी। ‘नैतिक प्रभाव’ उल्टा उत्पन्न हो गया। जो भारतीयों को डराने तथा स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से किया गया था उसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया।
आज जब हम पश्चदृष्टि से देखते हैं तो पाते हैं कि साम्राज्यवाद के खिलाफ पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत की जनता भी अकूत बलिदान देते हुये लड़ी। साम्राज्यवादी लूट और शोषण के खिलाफ सतत संघर्ष जारी रहा। पश्चदृष्टि से देखने पर हम यह भी पाते हैं कि आजादी के बाद काले अंग्रेजों ने भी कई जलियांवाला हत्याकाण्ड रचे। ऐसे नरसंहार रचने में कई बार भारतीय देशी शासक अंग्रेजों से भी आगे निकल गये। दरअसल इसकी जमीन शोषणकारी, उत्पीड़नकारी और निजी संपत्ति पर आधारित इस पूंजीवादी व्यवस्था में है। जब तक पूंजीवाद रहेगा, शोषण रहेगा, शासित और मेहनतकशों पर ऐसे अत्याचार होते रहेंगे। आज भी दुनिया में साम्राज्यवाद का अस्तित्व है। वह विभिन्न देशों में ऐसे हत्याकाण्डों को जब-तब अंजाम देता रहता है। इसीलिए आज भी साम्राज्यवाद के खिलाफ मजदूर-मेहनकश जनता का संघर्ष जारी है। जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड और काले कानूनों के इस्तेमाल करने के बाद भी साम्राज्यवादी भारतीय जनता की मुक्ति को नहीं रोक पाये। जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड और उसके बाद बढ़ते जनांदोलन ने यह साबित कर दिया कि काले कानूनों और दमन की इन घटनाओं से जनता को एक हद तक ही रोका जा सकता है। जनता जब निर्णय कर लेती है तो दुनिया की कोई भी शक्ति उसको नहीं रोक सकती। कोई भी काला कानून उसको नहीं रोक सकता। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की इसी विरासत को आज आगे बढ़ाने की जरूरत है। इसी के जरिये मजदूर-मेहनतकश और छात्र-नौजवान साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का नाश कर सकते हैं। इसी के साथ वे सभी तरह के शोषण, दमन और असमानता का अंत कर सकते हैं।
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