कानूनों के आइने में भारतीय राज्य का दमनकारी चरित्र
राॅलेट एक्ट से यू.पी.पी.ए. तक
-प्रियंका
ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा किया गया 13 अप्रैल जलियांवाला बाग हत्याकांड इतिहास के बेहद नृशंस क्रूर हत्याकांडों में से एक है। इस दिन चंद घंटों में सैकड़ों निर्दोष लोगों को ताबड़तोड़ गोलियां बरसाकर भून दिया गया। इनमें मासूम बच्चे, बूढ़े, औरतें, नौजवान सभी थे। इस घटना ने भारतीय जन मानस के दिल में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के प्रति गहरी नफरत को भर दिया। साम्राज्यवाद से यही नफरत पीढ़ी दर पीढ़ी होते हुए हमारे मन में भी आज तक मौजूद है। साम्राज्यवाद की क्रूरता के प्रति नफरत ने भारत के अंदर क्रांति का ज्वार पैदा किया और संघर्षों का सिलसिला तेज हो गया। लाखों-लाख भारतीयों के संघर्ष और कुर्बानियों की बदौलत 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ।
आजाद भारत में अब तक कई जलियांवाला बाग हत्याकांड सरकारें रच चुकी हैं। तेलंगाना, तेभागा किसान आंदोलन के दमन से लेकर आपातकाल, नीलम चैक गोली कांड, मुज्जफरनगर कांड, पंतनगर मजदूर हत्याकांड, नंदीग्राम, सिंगूर, भट्टा-परसौल किसानों का दमन, होण्डा-मारुति के मजदूरों का दमन आदि सैकड़ों जलियांवाला हत्याकांड सरकारें आजाद भारत में रच चुकी हैं। भारतीय शासकों ने अपने ही द्वारा बनाये कानूनों को ताक पर रखकर इन दमन चक्रों को अंजाम दिया। इन दमन चक्रों में सैकड़ों लोग मारे गये।
भगत सिंह ने यही भविष्य देखकर कहा था कि ‘गोरे अंगे्रज चले जायेंगे काले अंगे्रज आयेंगे’। भगत सिंह कोई भविष्यवेत्ता नहीं थे वे समाज विकास को वैज्ञानिक ढंग से देखते थे और समाज विज्ञान ने उन्हें बताया कि समाज दो वर्गों में बंटा है। दुनिया; साम्राज्यवादी अमीर शोषणकारी देश और पीड़ित गरीब देशों में बंटी है। भगत सिंह साम्राज्यवाद से तो मुक्ति चाहते ही थे और इसी ध्येय के लिए वे कुर्बान भी हुए किन्तु वे आजाद भारत में पूंजीपति वर्ग का शासन भी नहीं चाहते थे। वे मजदूरों, किसानों का शासन चाहते थे। समाज विज्ञान के शब्दों में कहे तो वे समाजवाद चाहते थे। इसीलिए उन्होंने कहा यदि साम्राज्यवादियों को भगा दिया और पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया, जिसकी सत्ता के लिए कांगे्रस सहित कई दल लड़ रहे थे, तो होगा यह कि गोरे अंगे्रज जायेंगे और सत्ता पर काले अंगे्रज बैठ जायेंगे।
15 अगस्त, 1947 को जब सत्ता पर पूंजीपति वर्ग बैठ गया तो उसने अंग्रेजों के जमाने का ही शोषण, उत्पीड़न, दमन, जारी रखा। और इसे कायम रखने के लिए उसने अंगे्रजों के जमाने में बने कानूनों को ही लागू कर दिया। जिन कानूनों के काले अक्षरों ने हमारे क्रांतिकारियों को फांसी, आजीवन कारावास की सजायें दी, जिन कानूनों ने भारतीयों पर कोड़े बरसाये, उन्हें जेलों में ठूसा; उन्हीं कानूनों को आजाद भारत में भी लागू कर दिया गया। देशद्रोह से लेकर आई.पी.सी.का पूरा दण्ड विधान इसका प्रतिनिधिक उदाहरण है।
इतने सारे दमन के कानूनों के बावजूद आजाद भारत की सरकारों ने जनता के दमन के लिए ढेरों दमनकारी काले कानून और भी रचे। जिनके द्वारा मजदूर-किसानों को, उनके संघर्षों को, उनके संगठनों को कुचला जा सके।
1947 में तेलगांना किसान आंदोलन को कुचलने के लिए निवारक नजरबंदी कानून बनाया गया। जिसके तहत राष्ट्र सुरक्षा व कानून व्यवस्था के नाम पर देश के अन्नदाता किसानों के सीने पर ही गोलियां दाग दी गयीं। देश की आजादी के लिए लड़ने वाला किसान आजादी के तुरंत बाद ही राष्ट्र के लिए खतरा हो गया। यह पूंजीपति वर्ग का राष्ट्र इसे बनाये रखने के लिए कितने भी गरीबों का खून बहा सकता है; इस कानून और दमन चक्र ने यह उद्घोष कर दिया।
1962 (भारत-चीन युद्ध के समय) जवाहरलाल नेहरू सरकार ने नेशनल सिक्योरिटी एक्ट के तहत युद्ध विरोधी लोगों का व्यापक दमन किया। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां की गयी। इसके बाद इंदिरा गांधी सरकार ने कुख्यात काला कानून लागू किया। जिसका नाम था मीसा (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) इस कानून के तहत नक्सलवादी आंदोलन का व्यापक दमन किया गया।
इन दमन चक्रों के बावजूद देश के भीतर गरीब, मेहनतकश, नौजवानों का आक्रोश थम नहीं रहा था। बल्कि वह लगातार तेज हो रहा था। रेलवे की हड़ताल, पी.ए.सी. विद्रोह, छात्र-नौजवानों के उग्र आंदोलन देश की फिजा बदल रहे थे। ये फिजा कहीं पूंजीवादी सत्ता को उखाड़ ना फेंके, इसका डर पूंजीपति वर्ग को दिन-रात सता रहा था। ऐसे ही हालात में इंदिरा गांधी द्वारा संवैधानिक प्रावधान के तहत ही देश में आपातकाल थोप दिया गया।
संविधान ने हमें मौलिक अधिकार भी दिये। पर उसी संविधान के भीतर इन मौलिक अधिकारों को कभी छीना जा सकता है, लिख दिया गया। यानी हमें दिये गये हमारे मौलिक अधिकार भी पूंजीपति वर्ग और उसकी सत्ता के बंधक हैं। वह चाहे तो हमें यह दे या ‘राष्ट्र की सुरक्षा’ इत्यादि की बाते कह छीन ले। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा संविधान के इसी प्रावधान के तहत सभी अधिकार भंग कर दिये गये। आपातकाल के पूरे दौर में पूंजीपति वर्ग की बर्बर तानाशाही का मंजर हर जगह था। राज्यसत्ता द्वारा हत्याएं, यातनायें, कैद, दमन उत्पीड़न, हर सड़क, हर चैक पर, हर गली की कहानी बन गयी।
शुरुआती भीषण दमन के बाद धीरे-धीरे आपातकाल विरोधी आंदोलन खड़ा होने लगा। इस आंदोलन के प्रभाव और लगभग सत्ता विरोधी ताकतों को कुचल देने के बाद पूंजीपति वर्ग पुनः संसदीय चुनाव की शासन प्रणाली की तरफ लौट पड़ा।
जनता का सिर फोड़कर अब फिर जनता के हक, अधिकारों की बातें होने लगीं। लोकतंत्र, संसदीय चुनाव के कसीदे पढ़े जाने लगे। 1977 के चुनाव में मोरारजी देसाई की सरकार बनी। इस सरकार द्वारा भी मीसा और पी.डी.एक्ट के सभी दमनकारी प्रावधानों को मिलाकर कोड आॅफ क्रिमिनल प्रोसीजर (एमेडमैंट) कानून बनाया। मोरारजी की सरकार ज्यादा वर्षों तक न चली। फिर चरण सिंह प्रधानमंत्री चुने गये किंतु यह सरकार भी ज्यादा न चल सकी।
एक बार फिर पूंजीपति वर्ग ने अपने सबसे भरोसेमंद दल कांगे्रस को सत्ता सौंपी। जिसने पूरी निष्ठा से उसकी सेवा की थी। 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार बनी। सरकार बनने के बाद दो दमनकारी कानून बनाये गये जिसमें से एक था एस्मा (आवश्यक सेवा अधिनियम)। इस कानून के तहत आज भी सेवा क्षेत्र में लगे लोगों का दमन किया जा रहा है। एस्मा लगाये जाने के डर से कर्मचारियों के आंदोलनों को कुंद किया गया। इस कानून के तहत हड़तालों को ही गैरकानूनी करार देकर उनका दमन किया जाता रहा है। दूसरा कानून था, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम। जोकि पूर्व के कानूनों के समान राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर एक दमनकारी कानून ही है।
इंदिरा गांधी के बाद 1985 में राजीव गांधी ने सत्ता संभाली। राजीव गांधी द्वारा बेहद खतरनाक कानून टेररिस्ट एण्ड डिसरप्टिव एक्टिविटीज एक्ट बनाया जोकि टाडा के नाम से कुख्यात है। खालिस्तानी अलगाववादी आंदोलन और फिर इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूिम दिखाकर यह कानून भारतीय जन पर थोप दिया गया। इस कानून को पंजाब, कश्मीर, उत्तरपूर्वी राज्यों और अल्पसंख्यकों के विरूद्ध विशेष तौर पर इस्तेमाल किया गया। लगभग 10 वर्षों तक इस कानून के तहत राज्य द्वारा भयानक उत्पीड़न किया गया। मानवाधिकारों का हनन किया गया।
2001 में वर्ड ट्रेड सेन्टर पर हमले के बाद अमेरिका ने आतंकवाद का राग अलापना शुरू किया। आतंकवाद के खिलाफ जंग की बातें करते हुए दूसरे देशों में हमले-हत्यायें की जाने लगीं। अमेरिका द्वारा अपने नागरिकों के अधिकारों में भी कटौती की जाने लगी। 13 दिसम्बर, 2001 में भारतीय संसद में हमला हुआ, जिसके बाद भारतीय शासक ही आतंकवाद को एक मुख्य समस्या का राग अलापने लगे। हांलाकि वह पहले से भी अमेरिका के सुर में सुर मिला रहे थे। अब देश की राज्यसत्ता के निशाने पर देश के अल्पसंख्यक और आदिवासी आ गये थे या ज्यादा सही कहे तो इन पर नये और व्यापक हमले की तैयारी की जाने लगी थी। इसी पृष्ठभूमि में एक नया काला कानून ‘पोटा’ लागू किया गया।
इस कानून का जागरुक नागरिकों, संगठनों और विपक्षी दलों द्वारा विरोध किया गया। इसके बाद बनी कांगे्रस सरकार द्वारा पोटा को बदलकर ‘गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम’’ (यू.ए.पी.ए.) 2004 में लागू किया गया। पोटा के स्थान पर यू.ए.पी.ए. सिर्फ नाम बदलने भर का ही मामला था। यह कानून पोटा के लगभग सभी जनविरोधी प्रावधानों को समेटे हुआ था। कुछ बेहद मामूली ही फेरबदल कर यू.ए.पी.ए. बना दिया गया। इस कानून के कुछ खतरनाक प्रावधान तालिका मंे देखें। केन्द्रीय कानून के अतिरिक्त विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अपने-अपने राज्यों में विभिन्न काले कानून लागू किये हुए हैं। कश्मीर पूर्वोत्तर राज्यों में ‘आर्म्स फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट’ (AFSPA) लागू किया हुआ है। जिसके तहत सेना को असीमित अधिकार मिल जाते हैं। इस कानून के तहत सेना को गोली चलाने, तलाशी लेने, गिरफ्तारी-दमन-उत्पीड़न के अधिकार मिल जाते हैं। इन क्षेत्रों में सेना और AFSPA के खिलाफ तीखा रोष जब तब सामने आता रहता है। मणिपुर में मनोरमा देवी के बलात्कार और हत्या के बाद वहां उसका तीखा विरोध आंदोलन खड़ा हुआ जिसमें महिलाओं ने नग्न प्रदर्शन कर नारा लगाया ‘इंडियन आर्मी रेप अस’। इरोम शर्मीला कई सालों तक इसी कानून को हटाये जाने की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर बैठी थीं।
महाराष्ट्र में अपराध रोकने के नाम पर कुख्यात कानून मकोका (महाराष्ट्र संगठित अपराध रोकथाम कानून) है। मकोका, टाडा, पोटा की तर्ज पर ही लगाया गया। इस कानून के तहत मानवाधिकारों का घोर उल्लघंन होता है।
इस कानून के तहत विशेष तौर पर अल्पसंख्यकों को ही निशाना बनाया जा रहा है। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां कर सालों-साल उन्हें जेल में बंद रखा जाता है। वर्षों बाद पता चलता है कि वे निर्दोष थे। इस कानून के तहत तमाम लोगों का जीवन पूरी तरह बर्बाद हो जाता है। पिछले दिनों कई रिपोर्टों ने 10-15 साल जेलों में रहे निर्दोष लोगों के जीवन की व्यथा को दिखाया।
महाराष्ट्र की तर्ज पर ही उत्तर प्रदेश में भी यूपीकोका लागू किया गया। गौरतलब है कि 2007 में जब मायावती इस कानून को लेकर आयी तो भाजपा द्वारा इसका तीखा विरोध किया गया था। अब योगी सरकार आने के बाद इसे लागू कर दिया गया है। योगी अपने इरादे व्यक्त करते हुए कहते हैं ‘गोली का जवाब गोली से दिया जायेगा’। कुछ छोटे अपराधियों, खनन माफियाओं की लिस्ट दिखाकर इस कानून की जरूरत बतायी गयी। किन्तु सरकार यह कानून किस पर लागू करेगी यह इसी तरह से पता चल जाता है कि तमाम बड़े माफिया तो विधान सभा में बैठे हैं। वह लाल बत्ती में घूम कर अपना कारोबार धड़ल्ले से कर रहे हैं।
14 दिसम्बर को हाई कोर्ट ने अवैध खनन में शामिल कानपुर देहात के जिलाधिकारी और गोरखपुर के जिलाधिकारी राजीव रौतेला को निलंबित करने का आदेश दिया। किन्तु सरकार द्वारा इसे नहीं लागू किया गया। (गौरतलब है कि ये वही रौतेला है जिन पर फूलपुर उपचुनाव में निर्लज्जता व खुले तौर पर भाजपा का साथ देने के गंभीर आरोप लगे) मकोका की तर्ज का यूपीकोका का निशाना भी साफ है। इसके निशाने पर अल्पसंख्यक और जनता के संघर्षशील संगठन ही हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था अपने राज को कानून का राज कहती है। कानून को सर्वोपरी कहती है, कानून को निरपेक्ष कहती है। किन्तु उपरोक्त कानून को देखें तो ये सारे ही विशेष तौर पर राजनीतिक विरोधियों, मेहनतकशों को कुचलने का ही काम करते हैं। कभी राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर, तो कभी आतंकवाद को रोकने के नाम पर। अगर हम भारतीय जेलों में बंद लोंगो की पृष्ठभूमि देखें तो पायेंगे कि वहां ज्यादातर गरीब आबादी ही मिलेगी। अमीर लोग अपने पैसे के बल पर कानून के लम्बे हाथों से हमेशा ही बच जाते हैं। कानून के लम्बे हाथ तो गरीब की गर्दन दबाने के लिए बनाये गये हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार 15 वर्षो (2002-17) के दौरान 373 लोगों को फांसी की सजा दी गयी। जिसमें से तीन चैथाई लोग पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग से हैं। 75 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि के लोग रहे हैं ऐसे ही आंतक से जुड़े मामलों में सजा पाने वाले 93.5 प्रतिशत लोग दलित या धार्मिक अल्पसंख्यक रहे हैं।
स्पष्ट है कि कानून का डण्डा हवा में लटका नहीं है। ये किसके हाथ में है सब इसी बात से तय हो जाता है। आज कानून का डण्डा पूंजीपति वर्ग के हाथ में है। इसीलिए ये मेहनतकश के सिर पर ही पड़ता है। जब कानून से बात नहीं बनती तो वह सारे कानून ताक पर रख देता है। फर्जी इनकाउण्टर करके या आजाद भारत के जालियांवाला बाग रचकर भीषण दमन करके भी वह अपने स्वर्ग को बचाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मेहनतकश बार-बार शासक वर्ग को उसके स्वर्ग से खींचकर पटक देने के लिए अपना फौलादी हाथ बढ़ाता है। इस हाथ को रोकने के लिए शासक वर्ग काले कानून को लेकर आता है। कब तक ये काले कानून के दमन चक्र इसकी संजीवनी बनेंगे यह देखने की बात है।
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