एक और जलियांवाला काण्ड
तब क्रूर शासकों के खिलाफ एकजुट हुये थे छात्र और मजदूर
-किशन कुमार
भारत देश में सत्ताशीन काले अंग्रेजों ने पन्तनगर विश्वविद्यालय में 13 अप्रैल, 1978 को एक और जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड रच डाला था। 13 अप्रैल, 1978 को जब पूरा देश गोरे अंग्रेजों द्वारा 1919 को रचे गये जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड की बरसी के अवसर पर गमगीन था, ठीक उसी दिन गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं औद्योगिक विश्वविद्यालय पन्तनगर, उत्तराखण्ड (तत्कालीन यू.पी.) में पुलिस व पी.ए.सी. द्वारा शांतिपूर्ण सभा व जुलूस निकाल रहे मजदूरों पर गोलियां बरसाकर कत्लेआम किया गया। इस कत्लेआम में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 14 मजदूर मारे गये थे। पन्तनगर गोलीकाण्ड शहीद-ए-आजम भगतसिंह की वह बात याद दिला देता है कि - ‘हमें गोरी बुराई के स्थान पर काली बुराई नहीं चाहिये..।’ आजादी के बाद सत्तासीन हुए काले अंग्रेजों का मजदूर-मेहनतकश विरोधी चरित्र एक बार पुनः उजागर हुआ था। इस घटना ने पुनः यह साबित कर दिया था कि इन काले अंग्रेजों की रीति-नीति व गोरे अंग्रेेजों की रीति-नीति में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है। मजदूरों को काबू में रखने के लिए काले अंग्रेजों को जलियांवाला बाग सरीखे नरसंहार करने से गुरेज नहीं है।
पन्तनगर विश्वविद्यालय में मजदूर संघर्ष की पृष्ठभूमि - 1978 से पूर्व पन्तनगर विश्वविद्यालय में कार्यरत मजदूरों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। विश्वविद्यालय में कार्यरत 4,000 मजदूरों में से अपवाद को छोड़कर समस्त मजदूर अस्थाई थे, दैनिक वेतनभोगी के रूप में कार्यरत थे। मजदूरों का वेतन काफी कम था। मजदूरों को काबू में रखने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चल रहा था। मजदूरों को जाट और गैर जाट के नाम पर बांटा जाता था। अधिकारियों व सुरक्षा गार्डों में ज्यादातर जाटों की भर्ती की गयी थी। मजदूरों को जोर व डण्डे के बल पर दबाकर रखा जाता था। मजदूर तो मजदूर, छात्र व अध्यापक भी संगठन बनाने की नहीं सोच सकते थे। मजदूरों की स्थिति गुलामों सरीखी थी। आवास के नाम पर सैड में रहने वाले मजदूरों के वेतन से 10 प्रतिशत व स्वयं झोपड़ी बनाकर रहने वाले मजदूरों के वेतन से 5 प्रतिशत की कटौती की जाती थी। बिजली-पानी के नाम पर 2 प्रतिशत की वेतन कटौती अलग से की जाती थी। अफसरों द्वारा मजदूरों के साथ भेदभाव किया जाता था। चापलूस मजदूरों के साथ कुछ नरमी बरती जाती थी। वहीं मुखर दिखने वाले मजदूरों को जबरिया छुट्टियां देकर, दिहाड़ी काटकर पीड़ित किया जाता था। 22 अगस्त 1977 से विश्वविद्यालय में कुलपति का पदभार डाॅ. धर्मपाल सिंह द्वारा ग्रहण किया गया। तब से उपरोक्त विभाजनकारी नीति व मजदूरों के उत्पीड़न में भारी वृद्धि हो गयी।
विश्वविद्यालय में यूनियन बनाने का संघर्ष - पंतनगर विश्वविद्यालय में यूनियन बनाकर विश्वविद्यालय प्रशासन को चुनौती देने का सर्वप्रथम प्रयास छात्रों की ओर से किया गया। शिक्षा की खराब गुणवत्ता, मेस सर्विसेज में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध में छात्रों के भीतर आक्रोश व्याप्त था। अकेले-अकेले सुनवायी न होने पर छात्रों को सामूहिक रूप से अपनी आवाज उठाने को यूनियन की जरूरत महसूस हुयी। विश्वविद्यालय प्रशासन को यूनियन मंजूर न थी। मांगें मनवाने को छात्रों ने 1968, 1972 व 1974 में हड़तालें कीं। विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा छात्रों की मांगों पर सुनवायी करने के स्थान पर दमन का रास्ता चुना गया। 1968 व 1972 में 40-40 छात्रों व 1974 को पुनः 24 छात्रों को निष्कासित कर दिया गया। छात्रों के प्रतिरोध को धीरे-धीरे दबा दिया गया। 1977 आते-आते छात्रों के भीतर भी जाट व गैर जाट के रूप में बंटवारा करने की साजिश में विश्वविद्यालय प्रशासन कुछ हद तक सफल हुआ।
इसी तरह से अध्यापकों द्वारा 1973 को टीचर्स एसोसियेशन बनाने के प्रयासों को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा सर्कुलर जारी करके विफल कर दिया गया। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा कैम्पस काउंसिल के माध्यम से मामले को देखने का आश्वासन दिया गया। तत्कालीन कुलपति डाॅ.ध्यान सिंह का स्पष्ट कहना था कि विश्वविद्यालय में वर्गीय संगठन या यूनियन बनाने का कोई औचित्य नहीं है। यूनियन नेताओं व कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न, दमन, निलम्बन, निष्कासन व झूठे मुकदमों का सिलसिला सा चल पड़ा। कुलपति व विश्वविद्यालय प्रशासन इतनी नीच हरकतों पर उतर आया कि मजदूरों की झोपड़ियों में आग लगवाई गयी, गुण्डों द्वारा मजदूरों को पिटवाया गया, महिलाओं-बच्चों तक के साथ में अभद्रता की गयी। इसका जवाब मजदूरों ने दिसम्बर 1977 व फरवरी, 1978 में हड़ताल कर सामूहिक शक्ति प्रदर्शन के द्वारा दिया। कुलपति डाॅ. धर्मपाल सिंह द्वारा शासन-प्रशासन के दबाव में समझौते तो कर लिए गये परन्तु समझौते का उल्लंघन जारी रहा। 28 जनवरी, 1978 को मजदूरों की छंटनी का आदेश दे दिया गया। 2 व 3 फरवरी, 1978 तक एक हजार से अधिक मजदूरों को गिरफ्तार किया गया। वहीं दूसरी ओर 4 फरवरी, 1978 को मजदूरों व महिलाओं ने कुलपति को प्रशासनिक भवन में बंधक बना लिया। छात्र संघ बनाने की मंशा को लेकर जनवरी, 1978 से छात्रों ने भी अनशन शुरू कर दिया था और 3 फरवरी, 1978 में अनिश्चितकालीन हड़ताल की चेतावनी दे दी थी।
तानाशाह कुलपति मजदूरों व छात्रों को सबक सिखाने पर आमादा थे। 2 फरवरी, 1978 को कुमाऊं कमिश्नर द्वारा कुलपति व डी.आई.जी. की संयुक्त बैठक में कुलपति को स्पष्ट निर्देश दिया कि मजदूरों व छात्रों दोनों के विरुद्ध एक साथ कार्यवाही न की जाये। इस प्रकार के षड़यंत्र के तहत 2 फरवरी, 1978 को विश्वविद्यालय को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया। फरवरी व मार्च माह में भी दमन का सिलसिला जारी रहा।
अंततः 11 अप्रैल, 1978 को ऐतिहासिक हड़ताल शुरू हो गयी। इससे पूर्व हड़ताल को रोकने के लिए 7 अप्रैल, 1978 को विश्वविद्यालय परिसर में धारा-144 लगा दी गयी। हड़ताल के 2 दिनों में ही 200 मजदूरों को गिरफ्तार किया गया।
13 अप्रैल 1978 को ‘झ’ कालोनी स्थित राम मंदिर प्रांगण में एकत्रित एवं बेनी जोन से शांतिपूर्वक जुलूस की शक्ल में वहां आ रहे निहत्थे मजदूरों पर पुलिस व पी.ए.सी. द्वारा बर्बर गोलीकाण्ड कर मजदूरों का नरसंहार किया गया। भाग रहे मजदूरों का पीछा करते हुए गोलियां बरसाई गयीं। उसी दिन मटकोटा में भी नरसंहार रचा गया। घायल मजदूरों व मृत मजदूरों को घसीटते हुए गाड़ी में लादा गया।
उस समय होस्टल न. 3 की छत पर उपस्थित छात्रों का खून इस बर्बर हत्याकाण्ड से खौल उठा। छात्र नारेबाजी करते हुए मजदूरों के समर्थन में उतर आये। साथ में अध्यापक भी थे। छात्रों व अध्यापकों की पहल व भाईचारे का परिणाम यह निकला कि पी.ए.सी. व पुलिस बैकफुट पर आ गयी। अन्यथा खूनी दरिन्दों द्वारा कितने और मजदूरों को कत्ल किया जाता। वहीं छात्रों ने कई घायल मजदूरों को अस्पताल पहुंचाकर उनकी जानें बचाईं। जिला मजिस्ट्रेट जब ढाई बजे विश्वविद्यालय के इण्टरनेशनल गेस्ट हाउस पहुंचे तो छात्रों ने डी.एम. को बंधक बना लिया और स्पष्टीकरण की मांग की। छात्रों द्वारा उस समय की गयी रिकार्डिंग बाद में बहुत काम आई। उसी दिन छात्रों ने शाम को धारा-144 तोड़ते हुए विश्वविद्यालय परिसर में जुलूस निकाला। उधर मजदूरों की हड़ताल जारी रही। 14 अप्रैल की रात को कुलपति धर्मपाल सिंह पंतनगर विश्वविद्यालय से भाग खड़े हुए। आॅल इण्डिया रेडियो में प्रसारित व अखबारों में कुलपति के द्वारा अपने पद से इस्तीफा दे दिया है कि खबर के बाद 18 अप्रैल, 1978 को हुए समझौते के बाद हड़ताल समाप्त हो गयी। परन्तु 20 मई, 78 को कुलपति के 22 मई, 1978 से विश्वविद्यालय में लौटने की खबर मिलते ही मजदूरों ने विरोध में 20 मई से ही क्रमिक अनशन शुरू कर दिया। 22 मई को कुलपति धर्मपाल सिंह के पंतनगर लौटने पर 23 मई, 1978 से मजदूरों ने हड़ताल शुरू कर दी। 20 जून, 1978 को कुलपति को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा जिसे 22 जून, 1978 को स्वीकार कर लिया गया। मजदूरों ने तानाशाह कुलपति को उसकी औकात बता दी। अंततः 42 दिनों पश्चात 3 जुलाई, 1978 को मजदूरों की हड़ताल समाप्त हुई।
आज जबकि सरकारें खासतौर पर मोदी सरकार मजदूरों-मेहनतकशों के प्रति ज्यादा हमलावर है। श्रम कानूनों में खुलेआम मजदूर विरोधी बदलाव हो रहे हैं, मेडिकल व इंजीनियरिंग की फीसें बेतहाशा बढ़ाकर इन्हें आम छात्रों की पहुंच से बाहर किया जा रहा है, रोजगार मांग रहे नौजवानों का भयंकर दमन किया जा रहा है। किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं, नोटबंदी व जी.एस.टी. की मार से छोटे दुकानदार व व्यापारी तबाह हो रहे हैं। वहीं हिन्दू-मुस्लिम, राम मंदिर, गौ रक्षा, लव जिहाद के नाम पर जनता को लड़वाया जा रहा है। ऐसे विषम हालातों में मजदूरों-छात्रों-मेहनतकशों की एकता व भाई चारे की आज सख्त जरूरत बनती है। आज संकट ग्रस्त पूंजीवाद से मानवता को बचाने को शहीदे आजम भगत सिंह की शिक्षा कि हमें श्रमिक वर्ग के समाजवादी राज से कम कुछ भी स्वीकार नहीं, कि साम्यवादी सिद्धान्तों के आधार पर समाज का निर्माण करना ही क्रांति है। इस पर अमल करने की सख्त जरूरत है।
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