वैज्ञानिक समाजवाद के प्रस्तोता: कार्ल मार्क्स
-अनिकेत
विश्व इतिहास ऐसे तमाम नायकों से भरा हुआ है जिन्होंने न केवल बेहतर, खूबसूरत दुनिया बनाने का सपना संजोया बल्कि इस सपने को हासिल करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। ऐसे तमाम क्रांतिकारी नायकों को दुनिया आज याद करती है। लेकिन बेहतर-पूर्ण बराबरी की दुनिया का ख्वाब संजोना और इस बेहतर दुनिया को धरती पर उतारने की सुसंगत वैज्ञानिक राह सुझाना दो अलग-अलग बातें हैं। वैज्ञानिक समाजवाद के प्रस्तोता मार्क्स और एंगेल्स इसीलिए तमाम नायकों से खास बन जाते हैं कि इन्होंने न केवल बेहतर दुनिया (समाजवाद) के लिए अपना जीवन लगाया बल्कि इस बेहतर दुनिया तक पहुंचने का वैज्ञानिक रास्ता भी सुझाया। उनके सुझाये रास्ते पर चलकर लेनिन से लेकर भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों की पूरी श्रृंखला सामने आयी और एक समय एक तिहाई दुनिया पूंजीवाद को ध्वस्त कर समाजवाद की बेहतर दुनिया को भी पिछली सदी में देख पायी।
इस समय दुनिया भर में वैज्ञानिक समाजवाद के दो संस्थापकों में से एक कार्ल मार्क्स के जन्म का दो सौवां वर्ष मनाया जा रहा है। कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी में एक यहूदी परिवार में 5 मई, 1818 को हुआ था। जब कार्ल मार्क्स महज 6 वर्ष के थे तब इनके वकील पिता हेनरिख मार्क्स ने यहूदी धर्म त्यागकर इसाई धर्म अपना लिया। जर्मनी समेत यूरोप के तमाम देशों में यहूदियों के साथ किया जाना वाला दोयम दर्जे का व्यवहार इस धर्म परिवर्तन का कारण था। माक्र्स का परिवार उदार विचारों का था और धार्मिक कट्टरता का वहां नामोनिशान तक न था। पिता की वकालत ठीक-ठाक चलती थी इसलिए मार्क्स का बचपन अपेक्षाकृत खुशहाली में बीता। मार्क्स के पिता मार्क्स को भी अपनी तरह एक सफल वकील बनाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से मार्क्स 1835 में स्कूली पढ़ाई समाप्त कर कानून की पढ़ाई के लिए पहले बोन वि0वि0 व फिर बर्लिन विश्वविद्यालय पहुंच गये। विश्वविद्यालय पढ़ाई के लिए जाने से पहले ही मार्क्स की मंगनी जेनी वेस्टफालेन से हो गयी। मार्क्स से उम्र में 4 वर्ष बड़ी जेनी जर्मनी के संपन्न घराने से ताल्लुक रखती थीं। मार्क्स और जेनी बचपन से ही मित्र थे। किशोरावस्था में पहुंचते ही यह मित्रता प्रेम में बदल गयी और मार्क्स और जेनी ने एक दूसरे का जीवनसाथी बनना तय कर लिया। मार्क्स के विश्वविद्यालय जाने से पहले दोनों के परिवारों की रजामंदी से उनकी मंगनी व वि0वि0 की पढ़ाई पूरी होने के कुछ समय पश्चात 1843 में दोनों का विवाह कर दिया गया। सगाई के वक्त जेनी मार्क्स के भावी कठिन जीवन से भले ही अपरिचित थी लेकिन जेनी ने अपने मायके का संपन्न जीवन छोड़ मार्क्स के कठिनाई भरे जीवन में हर पग पर मार्क्स का साथ दिया।
बर्लिन विश्वविद्यालय में मार्क्स का परिचय जर्मनी के प्रख्यात दार्शनिक हेगेल के अनुयायियों से हुआ। शीघ्र ही मार्क्स इन अनुयायियों की टोली में शामिल हो गये। धीरे-धीरे उनकी रूचि दर्शन व इतिहास में गहराती गयी और कानून की पढ़ाई से वे दूर होते चले गये। अलग-अलग देशों के दर्शन के अध्ययन के लिए मार्क्स ग्रीक, लैटिन, जर्मन, अंग्रेजी, इतालवी भाषायें सीख चुके थे।
हेेगेल के दर्शन की द्वन्द्ववादी पद्धति यद्यपि क्रांतिकारी थी पर इस पद्धति पर भाववादी खोल अक्सर ही उसे गलत निष्कर्षों तक ले जाता था। हेगेल अपने दर्शन को सर्वोच्च विचार व जर्मन राजतंत्र को शासन की सबसे बेहतर व्यवस्था घोषित कर राजतंत्र के चहेते बन गये थे। पर हेगेल के तरूण अनुयायी इतने राजभक्त नहीं थे उन्होंने द्वन्द्ववाद की पद्धति का इस्तेमाल राज्य व धर्म की आलोचना के लिए किया। राजतंत्र के विरोध के चलते इन्हें राज्य के दमन का भी शिकार होना पड़ा। अब तक वकील बनने की इच्छा त्याग मार्क्स वि0वि0 में अध्यापन का पेशा अपनाने का तय कर चुके थे पर राज्य द्वारा तरूण हेगेलपंथियों के दमन के चलते उन्हें इस पेशे का भी ख्याल त्यागना पड़ा। जाहिर है मार्क्स अपने उदार विचारों के साथ किसी तरह का समझौता करना पसंद नहीं करते थे। 1841 में एपीक्यूरस के दर्शन पर शोध निबन्ध के साथ मार्क्स ने अपनी शिक्षा समाप्त की।
फायरबाख के प्रभाव में मार्क्स-एंगेल्स ने हेगेल के भाववाद से पिण्ड छुड़ा भौतिकवाद का रुख किया, पर उन्होंने हेगेल की द्वन्द्ववादी पद्धति को भी पकड़े रखा। इस तरह उन्होंने सर्वहारा वर्ग के विश्व दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को विकसित किया।
वि0वि0 की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात मार्क्स ने कुछ समय तक जर्मनी के कोलोन शहर से निकलने वाले राइन समाचारपत्र में संपादन का काम किया। पर शीघ्र ही मार्क्स के क्रांतिकारी विचारों के चलते राज्य का अखबार पर शिकंजा कसा और अखबार को बंद कर दिया गया। 1843 में इस पत्र के बंद होने के बाद अपने विवाह के पश्चात मार्क्स ने जर्मनी छोड़ पेरिस जाने का निर्णय किया। पेरिस में उनकी योजना एक अन्य सहयोगी के साथ मिलकर जर्मन-फ्रांसीसी वर्ष पत्र निकालने की थी। हालांकि इस वर्ष पत्र का एक ही अंक 1844 में निकल पाया।
मार्क्स की एंगेल्स से पहली मुलाकात कोलोन में 1842 में हो चुकी थी पर उस वक्त दोनों में कोई निकटता कायम नहीं हो पायी थी। 1844 में एंगेल्स के पेरिस आने पर दोनों में विचारों की एकता के धरातल पर ऐसी मित्रता कायम हुई जो आजीवन जारी रही। मार्क्स-एंगेल्स की इस मित्रता का आधार उनका एक ही क्रांतिकारी लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण था। इतिहास में इस सरीखी मित्रता के उदाहरण न के बराबर मिलते हैं। उनकी अगले 40 वर्षों तक चली मित्रता बेमिसाल है। 1844 तक मार्क्स व एंगेल्स अपने तरूणाई के विचारों से आगे बढ़ क्रांतिकारी विचारों तक पहुंच चुके थे और अपने क्रांतिकारी लक्ष्यों की खातिर किसी भी कुर्बानी का दृढ़संकल्प कर चुके थे। उन्होंने घोषित किया कि अब तक तमाम दार्शनिकों ने दुनिया को समझने की कोशिश की है जबकि जरूरत उसे बदलने की है।
अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के आधार पर शीघ्र ही मार्क्स-एंगेल्स इस नतीजे पर पहुंच गये कि मजदूर वर्ग ही पूंजीवादी व्यवस्था में सबसे क्रांतिकारी वर्ग है। मजदूर वर्ग के नेतृत्व में एक सामाजिक क्रांति के जरिये पूंजीवाद को ध्वस्त कर समाजवाद स्थापित किया जा सकता है और समाजवाद वर्ग विहीन, शोषणविहीन समाज कम्युनिज्म तक ले जायेगा। 1845 में जर्मन सरकार के दबाव में मार्क्स समेत कई लोगों को देश निकाले जाने का फरमान सुना दिया गया। ऐसे में जहां कई लोगों ने सरकार से सांठ-गांठ कर पेरिस में बने रहने का प्रयास किया वहीं मार्क्स ने ऐसी किसी सांठ-गांठ से इन्कार करते हुए पेरिस छोड़ बेल्जियम के ब्रुसेल्स को अपना नया ठिकाना बना लिया। बेल्जियम में भी जर्मन सरकार मार्क्स के पीछे लगातार पड़ी रही।
1847 में मार्क्स-एंगेल्स एक गुप्त प्रचारकारी मजदूर संगठन कम्युनिस्ट लीग के सदस्य बन गये। यह एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन था जिसकी शाखाएं कई देशों में फैली हुई थी। इस संगठन को मार्क्स-एंगेल्स ने अपने वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों पर खड़ा किया व इसके निर्देश पर ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ तैयार किया। 1848 की शुरुआत में ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ के प्रकाशन के जरिये सर्वहारा वर्ग ने पहली बार अपने क्रांतिकारी लक्ष्यों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत किया।
इस घोषणा पत्र में मार्क्स-एंगेल्स ने बतलाया कि वर्गीय समाजों में शोषक व उत्पीड़ित वर्गों के बीच चलने वाला वर्ग संघर्ष ही इतिहास की प्रमुख प्रेरक शक्ति होती है। अब तक के सभी वर्गीय समाजों को आगे की ओर गति देने का काम यह वर्ग संघर्ष ही करता रहा है। पूंजीवादी समाज भी पूंजीपति व मजदूर वर्ग के संघर्ष से ही आगे की मंजिल में जायेगा। पूंजीपति वर्ग ने इतिहास में यद्यपि क्रांतिकारी भूमिका अदा की है तथापि वह एक शोषणकारी वर्ग है। समाज का सबसे क्रांतिकारी वर्ग मजदूर वर्ग है जो पूंजीपति वर्ग की सत्ता को पलट कर समाजवाद का निर्माण करेगा। समाजवादी समाज निजी सम्पत्ति का खात्मा करते हुए वर्गों के खात्मे के जरिये एक वर्गविहीन, राज्यविहीन समाज में संक्रमण कर जायेगा।
अभी ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ 1848 में प्रकाशित ही हो रहा था कि फ्रांस से शुरू होकर एक महाद्वीपीय क्रांति ने समूचे यूरोप को अपने आगोश में ले लिया। यह क्रांति यद्यपि पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में सामंती वर्गों के खिलाफ केन्द्रित थी परन्तु ढेरों जगहों पर मजदूर वर्ग इसकी मुख्य लड़ाकू शक्ति था। क्रांति के इस मौके पर क्रांतिकारी मार्क्स-एंगेल्स भला इससे अलग कैसे रह सकते थे। वे भी क्रांति में कूद पड़े और क्रांति में मजदूरों की मांगों को उठाने की कोशिश करने लगे।
क्रांति के इस माहौल में बेल्जियम सरकार के दबाव में मार्क्स को बेल्जियम छोड़ना पड़ा और वे पहले पेरिस और फिर जर्मनी में क्रांतिकारी सरगर्मी में हिस्सा लेने चल दिये। जर्मनी में क्रांति की आवाज को स्वर देने के लिए उन्होंने कुछ समय तक नया राइन समाचार पत्र अखबार निकाला। जर्मनी में पूंजीपति वर्ग द्वारा अपनी ही क्रांति से विश्वासघात कर सामंतों से समझौते के चलते क्रांति विफल हो गयी। क्रांति के पश्चात चले दमन चक्र में पहले मार्क्स पर मुकदमा चलाया गया पर मुकदमें में आरोप सिद्ध न होने के चलते 1849 में उन्हें जर्मनी से निर्वासित कर दिया गया। कुछ समय पेरिस में रहने के बाद अब मार्क्स ने इंग्लैण्ड के लंदन को अपना ठिकाना बनाया जहां वे बाकि जीवन भर रहे।
1848-49 की क्रांतियों का वैज्ञानिक सार संकलन मार्क्स ने ‘लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रुमेर’ नामक पुस्तिका में किया। लंदन में मार्क्स ने राजनैतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन में अपना ध्यान लगाया। लंदन का उनका जीवन भारी आर्थिक कठिनाईयों से भरा था। यद्यपि एंगेल्स वक्त-वक्त पर मार्क्स की आर्थिक सहायता करते रहे पर तब भी कई बार ऐसी परिस्थितियां आयीं कि घर की चीजें गिरवी रख गुजारा चलाना पड़ा। इतने कठिनाई भरे जीवन में मार्क्स की कई संतानें गरीबी के चलते मौत का शिकार बन गई। इस पर भी इस महान प्रतिभा ने पूंजीवादी समाज का आर्थिक विश्लेषण करने वाली पुस्तक ‘पूंजी’ की तैयारी स्वरूप लगातार 10-10 घण्टे लंदन म्यूजियम की लाइब्रेरी में अध्ययन जारी रखा। क्रांति के प्रति जीवन बलिदान करने वाले तमाम वीरों से मार्क्स का यह बलिदान कहीं से भी कम नहीं था।
1860 के दशक की शुरुआत में मजदूर आंदोलन में उभार आने पर मार्क्स-एंगेल्स ने फिर मजदूर संगठनों को एक करने में अपना ध्यान लगाया। उनकी मेहनत से 1864 में ‘अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ’ नाम से मजदूरों का पहला इण्टरनेशनल लंदन में स्थापित हुआ। यद्यपि मार्क्स-एंगेल्स के वैज्ञानिक समाजवाद के विचार अब तक काफी प्रचारित हो चुके थे, तब भी मजदूर आंदोलन में तमाम दूसरे विचार भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद थे। इस इण्टरनेशनल के ढेरों प्रस्तावों को खुद मार्क्स ने लिखा। मार्क्स-एंगेल्स लगातार इंटरनेशनल के मंच से गलत विचारों से संघर्ष करते रहे। इस संघर्ष का परिणाम यह निकला कि इण्टरनेशनल के भंग होते वक्त 1876 आते-आते मार्क्सवाद मजदूर वर्ग की सर्वप्रमुख विचारधारा बन चुका था।
1871 में पेरिस शहर के मजदूरों ने पेरिस कम्यून के रूप में सर्वहारा का पहला राज्य स्थापित किया तो मार्क्स ने लगातार सलाहों के जरिये इसकी मदद की। 72 दिन तक चले इस कम्यून के नेतृत्व में यद्यपि मार्क्सवादी मजदूर नहीं थे तब भी व्यवहारतः कम्यून ने मार्क्स-एंगेल्स के विचारों को पुष्ट किया। कम्यून का अध्ययन कर मार्क्स-एंगेल्स ने समाजवाद के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण सबक भी निकाले। ‘फ्रांस में गृह युद्ध’ नामक पुस्तक में मार्क्स ने इन सबकों को पेश किया। इन सबकों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि कम्यून के अनुभव से मार्क्स-एंगेल्स ने बतलाया कि सर्वहारा वर्ग पूंजीवादी राज्य मशीनरी का उपयोग अपने हितों में नहीं कर सकता। अर्थात् सर्वहारा वर्ग को क्रांति के दौरान पूंजीवादी राज्य मशीनरी को ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अपनी नई मशीनरी खड़ी करनी होगी। इसी तरह एक अन्य महत्वपूर्ण सबक यह था कि समाजवाद में एक कार्यशील संगठन सत्ता संचालन करेगा न कि संसदीय। अर्थात समाजवाद में नेता-अफसर-न्यायाधीश सब जनता के द्वारा चुने जायेंगे व उन्हें वापस बुलाने का अधिकार जनता को होगा। जो लोग कानून बनायेंगे उसे लागू करने का जिम्मा भी उन्हीं का होगा।
मार्क्स 70 के दशक के शुरुआत से ही बीमार रहने लगे। बीमारी के दौरान भी लगातार वे जहां एक ओर ‘पूंजी’ पर कार्य करते रहे साथ ही तमाम संगठनों को बहुमूल्य सलाहें देते रहे। पर ‘पूंजी’ का पहला खण्ड प्रकाशित करने में ही मार्क्स सफल हुए। पूंजी के शेष दो खण्ड मार्क्स की मृत्यु के पश्चात एंगेल्स ने प्रकाशित किये। 1883 में मार्क्स की मृत्यु के साथ ही सर्वहारा वर्ग ने अपने महान क्रांतिकारी शिक्षक व नेता को खो दिया।
मार्क्स मजदूर वर्ग की मुक्ति की वैज्ञानिक विचारधारा को न केवल सूत्रित करने वाले व्यक्ति थे बल्कि सर्वोपरि वे एक क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन मजदूर वर्ग की मुक्ति की दिशा में समर्पित कर दिया। मार्क्सवाद के रूप में जो विचारधारा उन्होंने प्रस्तुत की वह दुनिया भर में बेहतर समाज के लिए लड़ने वालों को आज भी राह दिखला रही है।
मार्क्स के जीते जी पेरिस कम्यून के एक सितारे के अलावा भले ही मानव जाति ने समाजवाद के दर्शन न किये हों पर 20वीं सदी में मार्क्स के दिखाये रास्ते पर चलते हुए रूस में लेनिन के नेतृत्व में 1917 की महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति से समाजवाद के रूप में बेहतर व खुशहाल दुनिया के निर्माण में मजदूर वर्ग सफल रहा। इसके बाद एक के बाद एक कई देश समाजवाद की ओर बढे़। एक समय में तो दुनिया का एक तिहाई हिस्सा समाजवाद से जगमगाने लगा था पर पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग पर एक बार फिर पलटवार करते हुए इन समाजों को ध्वस्त करने में सफलता पा ली।
हमारे देश में भी मार्क्स-लेनिन के दिखाये रास्ते पर चलने वालों की लम्बी श्रृंखला रही है। शहीदे आजम भगत सिंह भी अपने अन्तिम दिनों में रूसी क्रांति सरीखी क्रांति भारत में करने की आवश्यकता बतलाने लगे थे। अनगिनत लोगों ने क्रांति की इस राह पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।
आज हमारे देश में मजदूर- किसान-छात्र-नौजवान पूंजीवाद के जुए तले पिसने को मजबूर हैं। छात्रों-नौजवानों की शिक्षा व रोजगार का संकट दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। हमारे पूंजीवादी शासक इस संकट को हल करने में न केवल अक्षम साबित हो रहे हैं बल्कि वे हमारे संघर्षों को कमजोर करने, बांटने व कुचलने के लिए फासीवाद की राह पर आगे बढ़ रहे हैं। वे हमारे सभी नायकों भगत सिंह से लेकर आजाद तक को संघी विचारधारा का समर्थक घोषित करने में जुटे हैं। आज देश में क्रांति-आजादी की बात करने वालों को एक-एक कर देश विरोधी साबित करने में संघी लाॅबी जुटी है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों के तलवे चाटने वाले भारतीय शासकों की संघी जमात जिसे देश की सम्प्रभुता बेचने में भी कोई शर्म नहीं है, खुद को ‘महान’ राष्ट्रभक्त घोषित कर रही है। ऐसी परिस्थितियों में एक बेहतर भविष्य का स्वप्न संजोये नयी युवा पीढ़ी छात्रों-नौजवानों के सामने एक गम्भीर चुनौती प्रस्तुत है। यह चुनौती इस लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को धूल चटाने की चुनौती है। यह चुनौती संघी फासीवादियों को धूल चटाने की है। यह चुनौती भगत सिंह की क्रांति की अलख को जलाये रखने की है। यह चुनौती सबको वैज्ञानिक शिक्षा व सम्मानजनक रोजगार देने वाले समाजवादी भारत के निर्माण की है। यह चुनौती देश में समाजवादी क्रांति करने की है। इस क्रांति से ही छात्रों-युवाओं-मजदूरों-किसानों के जीवन में बेहतरी कायम हो सकती है। इस क्रांति के हर योद्धा के लिए वैज्ञानिक समाजवाद कम्युनिज्म के मार्क्स द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों व लेनिन-माओ द्वारा उसमें किये गये विकास से परिचित होना जरूरी है। मार्क्स दुनिया को बदलने वाले हर क्रांतिकारी युवा के प्रेरणास्रोत रहे हैं। भारत की क्रांति में भी मार्क्स का संघर्षों भरा जीवन व उनके विचार क्रांति की लौ को जलाये रखने वालों को हमेशा राह दिखलाते रहेंगे।
संघी शासक भले ही लेनिन की कितनी मूर्तियां ढहा दें, माक्र्सवाद को विदेशी विचारधारा कहकर कितना ही बदनाम कर दें, भगत सिंह की मूर्ति ढहाने का उनमें साहस नहीं है। वे चाहे जितना ढोंग कर लें वे इस सच्चाई को झुठला नहीं सकते कि वे खुद हिटलर की विचारधारा पर चल रहे हैं। देश में जिस लोकतंत्र का शासक दम्भ भरते हैं, वह खुद यूरोप में पैदा हुआ था। इसीलिए मार्क्सवाद भले ही जर्मनी के महान मार्क्स-एंगेल्स की देन हो पर दुनिया के हर कोने में मुक्ति के इन विचारों की जरूरत है। भारत में भी इन्हीं विचारों पर आगे बढ़ बेहतर दुनिया-समाजवाद को कायम किया जा सकता है। पूंजीवाद का अन्त और समाजवाद की विजय दोनों निश्चित है। मार्क्सवाद की सच्चाईयां अजर-अमर हैं।
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