साम्राज्यवादी सर्वनकारवादी संस्कृति के भयावह दुष्परिणाम
-मानस
पूंजीवादी समाज में लोगों के बीच अलगाव, अकेलापन, निराशा के भाव कितने अधिक व्यापक हो गये हैं, इसे विकसित पूंजीवादी देशों यानी साम्राज्यवादी देशों के लोगों के व्यवहार से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि यह निराशा-हताशा सिर्फ साम्राज्यवादी देशों के लोगों के बीच ही व्याप्त है। या वहां सिर्फ समाज के खाते-पीते तबकों तक ही सीमित है। वास्तविकता यह है कि यह समूची दुनिया में कमोबेश व्याप्त है और इसके शिकार समाज के सभी तबके हैं। यह मौजूदा समय में पूंजीवादी संस्कृति का सार्वजनिक चरित्र है।
विकसित पूंजीवादी देशों के तकरीबन सभी शहरों में जीवन भयावह रूप से अवसाद से भरा हुआ है। यह बेहद उबाऊ और दुखद है।
इन शहरों में सम्पन्नता है। यह इस तथ्य के बाबजूद कि अब हालात खराब हो रहे हैं, “सामाजिक सुरक्षा” के ढांचे को तोड़ते जाने से सामाजिक असमानता साफ-साफ दिखाई पड़ने लगी है। पश्चिमी यूरोप के हर देश के लोगों में अभाव और परेशानियां भी दिखाई पड़ती हैं। लेकिन अगर यहां की तुलना दुनिया के लगभग सभी अन्य देशों से की जाये तो पश्चिमी देशों के शहरों की समृद्धि अभी भी चैंकाने वाली और चैंधियाने वाली लगती है।
लेकिन इस समृद्धि ने संतुष्टि, खुशी या आशावाद भरे जीवन को सुनिश्चित नहीं किया। यदि कोई पेरिस या लंदन में समूचा दिन चक्कर लगाते हुए बिताये और लोगों को करीब से जानने-समझने की कोशिश करे तो वह लोगों के ठंडे क्रूर व्यवहार पर, निराशा भरी और बेचैन झुकी हुई नजरों पर, हमेशा मौजूद दुःख पर बार-बार कांप उठेगा।
इन सभी साम्राज्यवादी बड़े शहरों में जीवन नदारद है। उत्साह, गर्मजोशी, कविता और प्रेम इन सबका घोर अभाव है।
चारों तरफ घूमने पर विशालकाय इमारतें मिलती हैं और दुकानें सुंदर सामानों से अटी हुई हैं। चमकदार रोशनी रातभर जगमगाती रहती है। तब भी लोगों के चेहरे मुरझाये हुए दिखते हैं। जब जोड़े दिखते हैं या यहां तक कि जब लोग समूह में होते हैं, तब ये मानव पूरी तौर पर आणुविकीकृत अलग-थलग दिखते हैं। ठीक गियासोमेट्टी की मूर्तियों की तरह पूरी तरह से आणुविकीकृत दिखते हैं।
लोगों से बातें करने पर किसी को भी भ्रम, अवसाद और अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है। सुसंस्कृत कटाक्ष और कभी-कभी नकली शहरी विनम्रता ऐसी पतली परते हैं जिन्हें ये खो चुकीं मानव आत्मायें अपनी भयावह दुष्चिन्ताओं और पूर्णरूप से असहनीय अकेलेपन को ढके हुए हैं।
उद्देश्यहीनता के साथ निष्क्रियता गुंथी रहती है। पश्चिमी देशों में राजनीतिक तौर पर, बौद्धिक तौर पर और यहां तक कि भावनात्मक तौर पर सच्चे अर्थो में प्रतिबद्ध लोगों का मिलना अधिकाधिक दूभर होता जा रहा है। बड़े उद्देश्यों की भावनायें इस समय डरावनी लगती हैं। पुरुष और स्त्रियां दोनों उनको अस्वीकार कर देते हैं। महान मकसद से जुड़ने को अधिकाधिक नीची निगाहों से देखा जा रहा है। यहां तक कि उनका मजाक उड़ाया जाता है। सपने छोटे-छोटे तुच्छ और हमेशा ‘‘व्यवहारिक’’ होते हैं और अब तो इन्हें बखूबी छिपाया जाता है। अब कल्पनाशीलता को अतार्किक और पुराना जैसा समझा जाता है।
दूर बाहर से आने वाले व्यक्ति को यह दुखद और अप्राकृतिक लगता है। उसे यह सब निर्ममतापूर्वक कुचली गयी और काफी हद तक दयनीय दुनिया लगती है।
करोड़ों बालिग पुरुष और महिलायें जिनमें कुछ सुशिक्षित हैं, यह नहीं जानते कि वे अपने जीवन के साथ क्या करें? वे अपने खालीपन को भरने के लिए और यह खोजने के लिए कि उन्हें अपने जीवन में क्या करना है, कुछ पाठ्यक्रमों में दाखिला ले लेते हैं या वापस स्कूल में चले जाते हैं। यह सभी खुद को संतुष्ट करने के लिए होता है क्योंकि कोई बड़ी आकांक्षायें दिखाई नहीं पड़ती। प्रत्येक खास व्यक्ति के साथ ये अधिकांश प्रयास शुरू होते हैं और खतम हो जाते हैं।
अब कोई भी दूसरों के लिए, समाज के लिए, मानवता के लिए, मकसद के लिए या यहां तक कि अपने जीवन साथी के लिए अपना बलिदान नहीं करता। वस्तुतः जीवन साथी की धारणा भी समाप्त होती जा रही है। सम्बन्ध अधिकाधिक दूर के होते जा रहे हैं। प्रत्येक स्त्री या पुरुष अपने लिए जगह तलाश रहा है, साथ होने में भी स्वतंत्रता की मांग कर रहा/रही है। अब दो जीवन साथी नहीं हैं, इसके बजाय दो पूर्णतया स्वतंत्र व्यक्ति हैं जो सापेक्ष नजदीकी में साथ-साथ रहते हैं, कभी-कभी शारीरिक तौर पर स्पर्श करते हैं, कभी नहीं करते, लेकिन अधिकतर वे खुद के लिए रहते हैं।
पश्चिमी देशों की राजधानियों में आत्मकेन्द्रित होना, यहां तक कि खुद अपनी निजी आवश्यकताओं के प्रति पूर्ण जुनून भयंकर पराकाष्ठा पर पहुंचा हुआ है।
मनोवैज्ञानिक तौर पर इसे सिर्फ विकृत और बीमार दुनिया की संज्ञा दी जा सकती है।
इस विचित्र नकली वास्तविकता से घिरे हुए, कई अन्यथा स्वस्थ व्यक्ति, अंततोगत्वा मानसिक तौर पर बीमार महसूस करते हैं या हो भी जाते हैं। तब बिडम्बना यह है कि वे पेशेवर विशेषज्ञों के पास मदद लेने इसलिए जाते हैं जिससे कि वे ‘सामान्य’ लोगों की कतारों में फिर से शामिल हो सकें। यहां ‘‘सामान्य’’ से मतलब पूरी तरह से ‘मातहत’ नागरिक से है। अधिकांश मामलों में, निरंतर विद्रोह करने के बजाय, मौजूदा हालात के विरूद्ध निजी युद्ध छेड़ने के बजाय, ऐसे व्यक्ति जो अभी भी कम से कम कुछ हद तक अलग दिखते हैं, अल्पमत में हो जाने से इतना अधिक भयभीत हो जाते हैं कि वे मैदान छोड़ देते हैं, खुद ब खुद आत्मसमर्पण कर देते हैं और अपने आप को ‘असामान्य’ समझने लगते हैं।
सच्चे और प्राकृतिक विश्व के बारे में कम से कम कुछ कल्पना करने और कुछ स्वप्न देखने में अभी भी समर्थ कुछ ऐसे लोगों के अंदर की आजादी की चिन्गारी तेजी से बुझती जाती है।
तब तत्काल क्षणभर में हर चीज अपरिवर्तनीय रूप से खतम हो जाती है। यह किसी भयावह फिल्म की तरह लग सकता है, लेकिन ऐसी बात नहीं है। यह पश्चिम में जीवन की सच्ची वास्तविकता है।
कोई भी संवेदनशील व सामाजिक तौर पर सक्रिय बाहरी व्यक्ति ऐसे माहौल में कुछ दिनों से ज्यादा काम नहीं कर सकता।
बाहर से जाने वाला ऐसा व्यक्ति यदि थोड़े समय के लिए लंदन, पेरिस या न्यूयार्क में अपने किसी काम से जाता है तो ठंडेपन, उद्देश्यहीनता और किसी बड़े उद्देश्य के प्रति लगन की और तमाम मानवीय भावनाओं के चिरकालिक अभाव को देखकर उसके अंदर भी भयंकर थकाने वाला प्रभाव पड़ता है। उसकी सृजनशीलता क्षरित हो जाती है और वह अर्थहीन बीमारी भरे अंतद्र्वन्द्व में डूबने-उतराने लगता है।
ऐसे व्यक्ति उस भयावह माहौल से कुछ ही दिनों में प्रभावित होने लगते हैं। वे अपने बारे में बहुत ज्यादा सोचने लगते हैं, वे दूसरों की भावनाओं के बारे में सोचने के बजाय अपनी भावनाओं की ही फिक्र करने लगते हैं। वे मानवता के प्रति अपने कर्तव्य को नजरअंदाज करने लगते हैं। वे हर आवश्यक समझे जाने वाले काम को टालने लगते हैं। ऐसे लोगों की क्रांतिकारी धार कुंद होने लगती है। उनका आशावाद खत्म होने लगता है। बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष करने का उनका संकल्प कमजोर होने लगता है।
तब, पश्चिमी शहरों में थोड़े समय के लिए बाहर से जाने वाले संवेदनशील ऐसे लोग जल्द से जल्द यथासम्भव तेजी के साथ भाग जाना चाहते हैं। वे इस बासी भावनात्मक दलदल से अपने को अलग कर लेना चाहते हैं।
पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में किसी भी सार्थक संघर्ष का मिलना काफी मुश्किल है। वहां अधिकांश संघर्ष अंतर्राष्ट्रीयतावादी नहीं हैं। इसके बजाय वे स्वार्थपूर्ण हैं और अपनी प्रकृति में वे पश्चिमोन्मुख हैं। वहां न तो सही मायने में साहस, न प्यार करने की क्षमता, न समर्पण की भावना और न ही विद्रोह बचा हुआ है। नजदीक से पड़ताल करने पर वहां वस्तुतः कोई जीवन ही नहीं है।
पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में सर्वनकारवाद का बोल-बाला है। क्या यह मानसिक अवस्था, यह सामूहिक बीमारी किसी हुकूमत द्वारा सोद्देश्य बरपा की गयी है? यह इसका एक बड़ा पक्ष है। लेकिन इस अवस्था में, साम्राज्यवाद की इस मंजिल में पूंजीवाद यही बीमार मानसिकता ही पैदा कर सकता है।
यह अत्यधिक प्रभावशाली, नकारात्मक तौर पर प्रभावशाली काम कर रहा है।
किसी भी संवेदनशील सक्रिय व्यक्ति का मन और काले निराशावाद के विरूद्ध, पश्चिमी पूंजीवादी संस्कृति द्वारा पैदा किये और लगभग सभी जगह फैलाये गये इस भद्दे सर्वनकारवाद और काले निराशावाद के विरूद्ध विद्रोह करता है। वह इससे पूर्णतया नफरत करता है। वह इसे स्वीकार नहीं कर सकता है। वह इसके समक्ष घुटने नहीं टेकेगा।
पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में भी ऐसे लोग हैं, अच्छे लोग हैं, प्रतिभाशाली लोग हैं, जिन्हें प्रदूषित किया जा रहा है और उनकी जिन्दगी बर्बाद की जा रही है। वे महान व बड़ी लड़ाईयां त्याग रहे हैं, वे अपने बड़े लगावों व प्रेम से भाग रहे हैं। वे अपने गहरे लगाव और अटूट बंधन से ज्यादा स्वार्थपरता और अपने लिए ‘स्थान’ व ‘निजी भावनाओं’ को चुन रहे हैं। वे मानवता और बेहतर दुनिया के लिए महाकाव्यात्मक लड़ाइयों के महान दुस्साहस करने के बदले अर्थहीन कैरियरों का चुनाव कर रहे हैं।
लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन को एक-एक करके प्रत्येक क्षण और प्रत्येक दिन बर्बाद किया जा रहा है। ये जीवन सौन्दर्य से भरपूर, प्रसन्नता से और प्यार से भरपूर, जोखिम उठाने, सृजनशीलता और विशिष्टता से भरपूर, सार्थकता और उद्देश्य से भरपूर हो सकते थे। लेकिन इसके बजाय ये जीवन खालीपन वाले, शून्यता भरे, संक्षेप में अर्थहीन हो गये हैं। ऐसा जीवन जी रहे लोग जड़ होकर कार्य और नौकरी पूरी कर रहे हैं। हुकूमत द्वारा आदेश दिए गए तमाम आचरण पद्धतियों की बिना सवाल किये इज्जत कर रहे हैं तथा असंख्य विचित्र कानूनों और नियमों को शिरोधार्य कर रहे हैं।
अब वे अपने खुद के पैरों से नहीं चल सकते। उनको पूरी तरह से मातहत कर लिया गया है। उनके लिए यह सब खत्म हो गया है।
ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के लोगों का साहस टूट चुका है। वे साम्राज्यवादियों की विनाशकारी और नैतिक तौर पर पूर्णतया पतित संस्कृति के मातहत होकर आज्ञाकारी सेवकों की भीड़ में तब्दील कर दिये गये हैं।
वे खुद सोचने की क्षमता खो चुके हैं। वे महसूस करने का साहस खो चुके हैं।
परिणामस्वरूप चूंकि पश्चिमी साम्राज्यवादी बाकी दुनिया पर व्यापक प्रभाव रखते हैं, इसलिए समूची मानवता गम्भीर खतरे में है और वह अपने स्वाभाविक गुण खो रही है और पीड़ा झेल रही है।
ऐसे समाज में व्यक्ति; उत्साह से ओतप्रोत व्यक्ति को, अपने लक्ष्य को पूर्णरूप से समर्पित और सच्चे व्यक्ति को कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया जा सकता। इस तरह के समाज में केवल गहरे सर्वनकारवाद और मानव द्वेष को ही स्वीकार किया जाता है और इज्जत दी जाती है। ऐसे समाज में क्रांति या विद्रोह की बात शराबखाने और ड्राइंग रूम के सोफों से बामुश्किल बाहर निकल पाती है।
ऐसे समाज में प्रेम करने में समर्थ लोगों को विदूषक, यहां तक कि संदेहास्पद और खतरनाक तत्व के तौर पर देखा जाता है। उसका/उसकी मजाक उड़ाना और तिरस्कार करना आम बात है।
आज्ञाकारी और कायर लोग अपने से भिन्न लोगों से घृणा करते हैं। वे ऐसे लोगों पर अविश्वास करते हैं जो बड़े कामों के लिए खडे़ होते हैं और जो अभी भी लड़ने में समर्थ हैं, ऐसे लोग जो अपने लक्ष्य को पूर्णतया समझते हैं, ऐसे लोग जो सिर्फ बात नहीं करते और जो अपने प्रिय व्यक्ति के लिए या सम्मानपूर्ण मकसद के लिए बिना रंचमात्र की हिचकिचाहट के अपने समूचे जीवन को झोंक देना आसान काम समझते हैं।
ऐसे व्यक्ति पश्चिमी देशों की शिष्ट, गुलाम मानसिकता वाले उथली भीड़ को आतंकित करते हैं और चिढ़ाते हैं। सजा के बतौर ऐसे व्यक्तियों से पिण्ड छुड़ाया जाता है, उनको अलग-थलग कर दिया जाता है, बहिष्कृत किया जाता है, सामाजिक तौर पर निर्वासित किया जाता है और उनको खलनायक बनाया जाता है। कुछ लोगों का अंत हमलों में, यहां तक कि पूर्णतया बर्बाद करने में होता है।
परिणाम यह होता है कि पृथ्वी में कहीं भी इस तरह की तुच्छ और इतनी आज्ञाकारी संस्कृति नहीं है जितना कि इस समय पश्चिम को नियमित चला रही है। अभी हाल में यूरोप और उत्तरी अमेरिका में कुछ भी क्रांतिकारी बौद्धिक महत्व की चीज नहीं प्रवाहित हो रही है।
पूर्णतया प्रत्याशित और अच्छी तरह से नियंत्रित चैनलों के जरिए ही संवाद और बहसें संचालित हो रही हैं।
पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने अतार्किकता, वितृष्णापूर्ण नकारात्मकता से पूरे पश्चिमी जगत को आच्छादित कर लिया है और वे इसे दुनिया के अन्य देशों में भी सफलतापूर्वक निर्यात कर रहे हैं।
इससे अरबों लोगों का जीवन बर्बाद होगा। अरबों जिंदगियां पहले ही बर्बाद हो चुकी हैं।
लेकिन इसका मुकाबला अलग- अलग व्यक्ति नहीं कर सकते। इनका मुकाबला संगठित और सचेत मजदूर वर्ग ही सामूहिकता की ताकत के बल पर कर सकता है। पूंजीवादी देशों में, विशेषतौर पर साम्राज्यवादी देशों में निम्न पूंजीवादी बुद्धिजीवी इस अलगाव का सर्वाधिक शिकार हैं। वहां के मजदूर भी एक हद तक इसके शिकार रहे हैं। लेकिन इधर जब से मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश आबादी पर हमले बढ़े हैं तो इसके प्रतिकार के लिए वे उठ खड़े हो रहे हैं। आने वाले समय में, पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के निम्न पूंजीवादी तबके भी संगठित मजदूर वर्ग की सामूहिक ताकत के बल पर और उनके संघर्षों से प्रेरणा पाकर इस पराजयवाद और सर्वनकारवाद से छुटकारा पाने की ओर बढ़ेगा।
लेकिन इस समय न सिर्फ पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के निम्न पूंजीवादी बुद्धिजीवी तबकों के भीतर बल्कि भारत जैसे देशों के निम्न पूंजीवादी बुद्धिजीवी भी अधिकतर सर्वनकारवाद और पराजयवाद के शिकार हैं। हां, यहां उतनी सघनता नहीं है जितनी कि पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के लोगों में यह व्याप्त है।
इससे निपटने का कोई सीधा-सरल या व्यक्तियों को ठीक करने के जरिए रास्ता नहीं है।
मजदूर वर्ग की संगठित सामूहिक ताकत से क्रांतिकारी आशावाद संचालित संघर्षों के जरिए ही मौजूदा पस्तहिम्मती और सर्वनकारवाद भरी हताशा से पार पाया जा सकता है।
हां, इसका रास्ता लम्बा, टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन यही एक मात्र रास्ता है।
(आंद्रे बिटचेक के लेख love, Western Nihilism and Revolutionary optimism के मुख्य अंश के आधार पर साभार Global Research, April 5, 1917)
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