शिक्षा बजट: पूंजीपतियों की चांदी काटने के वास्ते
-चंदन
सरकार शिक्षा के लिए कितनी गम्भीर है, यह बयानों से उतना समझ में नहीं आता है जितना बजट में जारी आंकड़ों से आता है। सरकारी बयानों में कहा जाता है कि हम शिक्षा के प्रति गंभीर हैं। हम शिक्षा को विश्वस्तरीय बनाना चाहते हैं, आदि-आदि। पर वास्तव में कुल 29,20,484 करोड़ रुपये के बजट का 2.91 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा में व्यय किया जाता है। वैज्ञानिक विभाग में यह खर्च 0.85 प्रतिशत है। इससे कोई भी व्यक्ति साफ अंदाजा लगा सकता है कि शिक्षा की कितनी बुरी गत होगी। विज्ञान के क्षेत्र में इतना कम खर्च वैज्ञानिक प्रयोगों का क्या हश्र करेगा?
इस शिक्षा बजट में से एक हिस्सा उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेन्सी (एच.ई.एफ.ए.) के जरिये खर्च होगा। यह एक ऐसी एजेन्सी है जिसे संस्थानों को ‘स्वायत्त’ बनाने की दिशा में कदमों को उठाना है। जब सरकार संस्थानों को स्वायत्त बनाने की बात करती है तो इसका साफ मतलब है कि संस्थानों को अपने खर्च खुद ही जुटाने होंगे। बजट जारी होने के महीने भर के अन्दर ही मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इसकी घोषणा भी कर दी। उन्होंने जेएनयू, बीएचयू सहित 60 विश्वविद्यालयों को स्वायत्त करने की घोषणा की। इसका सीधा मतलब है कि उच्च शिक्षा में मेहनतकशों या गरीब बच्चों की उपस्थिति और गिर जायेगी।
सरकारें आज ज्यादा से ज्यादा निजी एवं स्वायत्त (सेल्फ फायनेन्स) शिक्षा को बढ़ावा दे रही हैं। यह सरकार के ‘शिक्षा मुनाफे के लिए नहीं’ अवधारणा को छोड़ने का ही हिस्सा है। आजादी के बाद जब भारतीय शासकों ने पूंजीपतियों की इच्छा एवं अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए शिक्षा को सार्वजनिक (सरकारी) जिम्मेदारी माना। ऐसे में सरकार का कहना था - शिक्षा मुनाफा कमाने के लिए नहीं। परन्तु जैसे-जैसे भारतीय लोकतंत्र या पूंजीपति वर्ग की उम्र बढ़ती रही वह इस आप्त वाक्य को भुलाता गया। 40 साल के पूंजीवादी लोकतंत्र ने 1986 में नयी शिक्षा नीति की घोषणा की। यह नयी शिक्षा नीति शिक्षा के निजीकरण की नीति थी। आज जब पूंजीवादी लोकतंत्र 70 साल का हो गया है तो वह पुरानी कुछ छूटों को भी नहीं बचे रहने दे रहा है। वह शिक्षा पर हो रहे अपने नाम मात्र के खर्चों को भी नहीं वहन करना चाहता। वह इसे पूंजीपतियों के मुनाफा कमाने के क्षेत्रों के रूप में विकसित कर रहा है। यह इसके बावजूद है कि खुद पूंजीवादी शिक्षाशास्त्री यह मांग करते हैं कि शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए बजट का 6 प्रतिशत तक खर्च किया जाये।
पूंजीवाद में हर चीज मुनाफे के लिए को मुख्य उसूल माना जाता है। जब सरकार शिक्षा पर खर्च करती हुई लगती थी तब भी यह मुनाफे के लिए होता था क्योंकि तब तक शिक्षितों की जरूरत थी और शिक्षा के क्षेत्र से मुनाफा कमाने की सोचने पर गम्भीर संकट खड़ा हो जाता। परंतु आज जब उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में लगी पूंजी बची रह जा रही है और शिक्षित लोग पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं तब शिक्षा को भी एक व्यवसायिक या मुनाफा कमाने का क्षेत्र बना दिया गया है। इसकी एक बानगी इंजीनियरिंग संस्थानों के रूप में भी देखी गयी, जहां मुनाफा देख बड़ी मात्रा में पूंजी लगी तथा बड़े पैमाने पर इंजीनियरिंग कालेज खुले। पर इंजीनियरिंग की पढ़ाई से अपेक्षित रोजगार न मिलने से इंजीनियरिंग कालेजों का बाजार भी ठण्डा पड़ गया और आज इंजीनियरिंग कालेजों के बन्द होने की प्रक्रिया चल पड़ी है।
आज सत्ता में छद्म राष्ट्रवादी भाजपा के पहुंचने से भी कोई बदलाव नहीं होना था और न हुआ। ये भी पूंजीपतियों के वैसे ही सेवक हैं जैसे इनकी पूर्ववर्ती सरकारें थी। कई मामलों में तो ये ज्यादा तेज गति से पूंजीपतियों की सेवा कर रहे हैं। यदि शिक्षा के क्षेत्र में ही देखें तो सी.बी.सी.एस.(च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम), छात्रवृत्ति कटौती, स्वायत्त करना, काफी तेजी से किया जा रहा है। उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेन्सी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाई गई है। जिससे शिक्षण संस्थानों को स्वायत्त कर निजी क्षेत्र के हवाले किया जाए।
पूंजीपति वर्ग की इच्छा-आकांक्षा के अनुरूप बजट में शिक्षा बजट का हिस्सा कम ही रखा गया है और नीति के मामले में उसे निजी के पक्ष में ढाला गया है। वर्तमान बजट का शिक्षा के लिए यही सार है। शिक्षकों- छात्रों के बीच से ऐसे कदमों के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं हालांकि अभी ये इतनी ऊंची नहीं हैं कि सरकार को पीछे हटने को मजबूर कर सकें। यह बात तय है कि छात्रों के भावी संघर्षों को शिक्षा के निजीकरण के अलावा पूंजीवादी मुनाफाखोरी के खिलाफ भी उठना होगा, तभी ऐसी शिक्षा की उम्मीद की जा सकती है जो ज्ञान व मानवीय मूल्यों को ऊंचा उठाये।
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