धर्म: कुछ सामान्य बातें
-शाकिर
यह कार्ल मार्क्स का दो सौवां साल है। 5 मई, 2018 को मार्क्स को पैदा हुए दो सौ साल पूरे हो जायेंगे।
मजदूर वर्ग की (और उसके द्वारा समूची मानवता की) मुक्ति की विचारधारा पेश करने वाले कार्ल मार्क्स को मजदूर-मेहनतकश जनता के सामने एक हौव्वे की तरह प्रस्तुत करने का काम शासक पूंजीपति वर्ग तभी से करता रहा है। इसके लिए बहुत से तरीकों में एक तरीका धर्म को इस्तेमाल करने का रहा है। माक्र्स का प्रसिद्ध वाक्य- ‘धर्म जनता के लिए अफीम है’- बार-बार दोहराया जाता रहा है। यह मजदूर-मेहनतकश जनता की सहज मेधा और मुक्ति की आकांक्षा का ही नतीजा है कि वह शासक पूंजीपति वर्ग के इस मायाजाल को तोड़कर मार्क्स के बताये रास्ते पर चलती रही है।
इस लेख में माक्र्स के किन्हीं अन्य विचारों के बदले केवल धर्म पर उनके कथन की चर्चा की जायेगी और मानव जीवन में धर्म की भूमिका पर प्रकाश डाला जायेगा।
‘धर्म जनता के लिए अफीम है’ वाला वाक्य उनके धर्म पर प्रसिद्ध कथन का केवल एक वाक्य है। उसके ठीक पहले यह कहा गया है:
‘‘...धर्म इस जगत का सामान्य सिद्धांत है, इसका सर्वज्ञान गुटका है, आम रूप में इसकी तर्कणा है तथा इसका आध्यात्मिक कीर्ति शिखर है। धर्म इस जगत की उमंग, इसकी नैतिक स्वीकृति, इसका रहस्यमूलक संपूरक, सांत्वना व पापमोचन का इसका सार्वत्रिक स्रोत है। यह मानवीय सारतत्व का भव्य काल्पनिक मूर्त रूप है। क्योंकि मानवीय सारतत्व की वास्तविक यथार्थता नहीं होती। धर्म के खिलाफ संघर्ष इसलिए परोक्ष रूप से उस जगत के खिलाफ संघर्ष बन जाता है, धर्म जिसकी आध्यात्मिक सुरभि होता है।’’
‘‘धार्मिक व्यथा एक साथ वास्तविक व्यथा की अभिव्यक्ति तथा वास्तविक व्यथा का प्रतिवाद दोनों ही है। धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह (उच्छवास) है, हृदयहीन संसार का हृदय है तथा साथ ही निरुत्साह परिस्थितियों का उत्साह (उमंग) भी है। यह जनता की अफीम है।’’
धर्म जनता के लिए अफीम है। पर इसके अलावा यह और भी बहुत कुछ है। इसीलिए अभी तक मानव समाज किसी न किसी तरह के धर्म के वशीभूत रहा है।
ज्यादातर लोग अफीम को एक नशीले पदार्थ के तौर पर लेते हैं। एक बहुत खराब नशीले पदार्थ की तरह। पर अफीम साथ ही कष्ट निवारण की एक दवा भी है और सदियों तक इसका इस रूप में भी इस्तेमाल होता रहा है। बेहोशी की दवाओं के आविष्कार के पहले चीर-फाड़ के समय मरीज को अफीम दी जाती थी। धर्म के मामले में अफीम की ये दोनों ही विशेषताएं लागू होती हैं। शोषित-उत्पीड़ित जनता के लिए अफीम की कष्ट निवारक की दूसरी विशेषता ज्यादा महत्वपूर्ण रही है- धर्म इस कष्टमय दुनिया में कष्ट सहने की ताकत देता है।
पर सुदूर कबीलाई अतीत में धर्म की यह भूमिका किसी और रूप में ही थी। तब के कबीलाई मनुष्य के कष्ट अलग किस्म के थे। ठीक उसी तरह जैसे उसके सुख अलग किस्म के थे। कबीलाई इंसान तब एकदम प्राकृतिक परिवेश में जीता था। यहां तक कि दूसरे कबीलों के लोग भी उसके लिए अन्य प्राकृतिक जीवों की तरह थे। केवल अपने कबीले के लोग उसके लिए इंसान थे, जिनके साथ उसका सुख-दुःख साझा था।
कबीलाई इंसान ने अपने जीवन को और अपने आस-पास के परिवेश को समझने की कोशिश की। इसके बिना वह जीवन नहीं जी सकता था। समझने की प्रक्रिया में उसने अपने आस-पास की वनस्पतियों-जंतुओं को तथा सूरज, चांद, वर्षा, आग इत्यादि प्राकृतिक शक्तियों को अपने ही जैसा मान लिया। जिसे कहते हैं, उसने प्रकृति का मानवीयकरण कर दिया। उसने किसी वनस्पति या किसी जन्तु को अपना आदि पूर्वज घोषित कर दिया (तथाकथित टोटम)। उसने सूरज, चांद, वर्षा, आग इत्यादि प्राकृतिक शक्तियों को मानवीय मानकर उन्हें कोई नाम दे दिया। समय के साथ इनकी पूजा होने लगी या उनके प्रकोप से बचने के उपाय किये जाने लगे। वे देवता या दानव बन गये।
कबीलाई इंसान शुरू में इंसान के मर जाने के बाद भी उसके जीवन को मानता था। इसीलिए मृतक को दफनाते समय उसके साथ खाना-पीना रखा जाता था। बाद में क्रमशः इंसानी शरीर से अलग किसी आत्मा की धारणा पैदा हुयी। नींद, इंसान को आने वाले सपने, आंख में सामने वाले की परछाई इत्यादि सबने इसमें भूमिका निभाई। आत्मा की धारणा के साथ टोटम और देव-दानव की धारणाएं ज्यादा मुकम्मल हो गईं। अब एक विस्तृत अनुष्ठानों वाले कबीलाई धर्म की संभावना पैदा हो गई। कबीलाई समाज के विघटन तक उनमें कबीलाई धर्मों का यही रूप रहा। इस धर्म ने साथ ही कबीलाई समाज के विघटन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विशेषाधिकार सम्पन्न पुरोहित या तो स्वयं नये शासक वर्ग बन बैठे या फिर नये पैदा हो रहे शासकों का समर्थन कर उसका महत्वपूर्ण हिस्सा बन गये।
यह गौर करने की बात है कि इस कबीलाई धर्म में दुनिया बनाने वाले सर्वशक्तिमान ईश्वर का कोई स्थान नहीं था। अभी इंसान इस नतीजे तक नहीं पहुंच सकता था। कबीले स्थानीय होते थे और सीमित स्थान में गुजर-बसर करने वाले लोग सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकते थे। जैसा कि भारत, यूनान समेत कई समाजों में हुआ, कबीलाई समाज टूटकर वर्गीय समाज बन जाने के बाद भी कबीलाई धर्म का बदला हुआ रूप कुछ समय तक जारी रहा। नये समाज के अनुरूप देवी-देवताओं के श्रेणीक्रम तो पैदा हो गये (देवताओं का राजा इन्द्र) पर अभी ईश्वर पैदा नहीं हुआ। ईश्वर की धारणा पैदा होने के लिए छोटे-छोटे राज्यों के बदले बड़े-बड़े साम्राज्य पैदा होना आवश्यक था। तभी सर्वशक्तिमान राजा के समान्तर सर्वशक्तिमान ईश्वर की धारणा पैदा हो सकती थी। इसीलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सभी धर्मों में ईश्वर के दरबार का वर्णन किसी बड़े राजा के दरबार के वर्णन की तर्ज पर ही किया गया होता है।
कबीलाई समाज टूटकर बने वर्गीय समाजों में धर्मोें का विकास मुख्यतः दो तरह से हुआ। एक पहले का कबीलाई धर्म नये समाज के विकास के साथ क्रमशः बदलता गया और अंत में उसने एकदम भिन्न स्वरूप ग्रहण कर लिया। भारत में ऐसा ही हुआ। यूनान-रोम में यह प्रक्रिया उतनी पूर्णता तक नहीं पहुंची। दूसरे तरीके में किसी समाज में तीव्र परिवर्तन के किसी समय में कोई नया धर्म तेजी से पैदा हुआ। पुरानी परंपरा से बहुत कुछ लेने के बावजूद यह नया होता था और अक्सर ही एक सामाजिक आंदोलन के तौर पर अस्तित्व में आता था। यहूदी, इसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन और सिख ऐसे ही धर्म हैं।
भारत में आर्यों का वैदिक देवी-देवताओं और हवन-यज्ञ वाला कबीलाई धर्म वर्गीय समाज बन जाने के बाद भी अगले पांच सौ साल तक बदलते रूप में जिंदा रहा। फिर इसमें बदलाव आना शुरू हुआ और अगले हजार साल में उसका वह रूप सामने आया जिसे आज परंपरागत हिन्दू धर्म कहा जाता है, जिसका दम महात्मा गांधी से लेकर संघी मोहन भागवत सभी भरते हैं। इस सामंती सनातनी हिन्दू धर्म का ऋग्वेद के इन्द्र-वरुण वाले कबीलाई धर्म से बहुत दूर का नाता है। सनातनी हिन्दू धर्म इस बीच देश में पैदा हो गये बौद्ध और जैन धर्म से टकराते हुए व उनसे सीखते हुए विकसित हुआ था।
बदलते समाज के अनुरूप इस तरह क्रमशः विकसित होते धर्म के विपरीत जो धर्म एक झटके से (ऐतिहासिक अर्थ में) सामाजिक आंदोलन के रूप में पैदा हुए उनकी विकास प्रक्रिया अलग रही है। इस तरह के धर्मों के एक या अनेक प्रवर्तक रहे हैं। शुरु में ये शोषित-उत्पीड़ित जनों को या तो गोलबंद करते रहे हैं या उनके दुःख-कष्ट को स्वर प्रदान करते रहे हैं। इन्हें अक्सर ही शोसकों-शासकों के उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है। परंपरा से बहुत कुछ लेने के बावजूद इन्होंने स्पष्ट तौर पर बहुत कुछ नकारा भी। इस तरह के धर्मों के साथ यह हुआ कि कम या ज्यादा समय बाद शासक वर्गों ने अपने लिए फायदेमंद जानकर इन्हें अपना लिया। अब ये शासक वर्गों के शासन का औजार बन गये। शोषित-उत्पीड़ित जनों की मुक्ति का झंडा उनके गले में गुलामी का पट्टा बन गया।
वर्गीय समाजों में धर्मों की उत्पत्ति चाहे जिस रूप में रही हो और ऊपरी तौर पर धर्मों की रूढ़िवादिता या जड़ता चाहे जितनी रही हो, इतिहास पर थोड़ी नजर डालते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि सारे ही धर्म देश और काल के हिसाब से बदलते रहे हैं। धर्मों मेें यदि जड़ता है तो साथ ही बदलाव भी। आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य व सम्राट अशोक के समय के हिन्दू धर्म व पृथ्वीराज चैहान के समय के हिन्दू धर्म में बहुत भिन्नता है। इसी तरह गौतम बुद्ध के बौद्ध धर्म और सम्राट हर्ष वर्धन द्वारा अपनाए गये बौद्ध धर्म में बहुत भिन्नता है। एक ही समय यानी आज मौजूद भारत, वर्मा और जापान के बौद्ध धर्म में बहुत भिन्नता है। यह भिन्नता एकदम स्वाभाविक है। यदि धर्म किसी देश-काल में मौजूद समाज की जरूरतें पूरी करता है तो देश-काल बदल जाते ही वह बदल जायेगा। यह इसलिए कि बदले देश-काल के समाज की जरूरतें बदल गयी हैं। पर वैधानिकता के लिए वह बहुत सी परम्पराओं को या तो जारी रखता है या उनकी दुहाई देता रहता है। ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ देवता इन्द्र और हिन्दू पुराणों के लंपट इन्द्र में कोई समानता नहीं है पर सनातनी हिन्दू वेदों की दुहाई देते रहते हैं। गौतम बुद्ध के दो धोती, एक कटोरा वाले बौद्ध भिक्षु और नालंदा विश्वविद्यालय के सोने से सजे हाथी पर सवारी करने वाले मठाधीश में कोई समानता नहीं है पर ‘बुद्धं शरणम गच्छामि, संघम शरणम गच्छामि’ का जाप जारी रहता है।
सारे ही वर्गीय समाजों में स्थापित धर्मों ने जो रूप ग्रहण किया उन्होंने शासक और शासित, शोषक और शोषित वर्गोें के लिए अलग-अलग भूमिका निभाई। शोषकों- शासकों के लिए धर्म उनके शोषण-शासन का औजार बन गया। इसके द्वारा बिना हिंसा के भी शोषितों-शासितों को दबा कर रखा जा सकता था। दूसरी दुनिया में सुख का लालच देकर उन्हें इस दुनिया में दुःखों-कष्टों के समुद्र में डुबोया जा सकता था। किस्मत का खेल, पिछले जन्मों के कर्मों का परिणाम या ईश्वर की इच्छा घोषित कर उनकी हर तरह की असंतोष की भावना का शमन किया जा सकता था। इतना ही नहीं, इस सबके द्वारा अथवा ईश्वर-धर्म का डर दिखाकर धर्म के ठेकेदारों द्वारा उनसे भारी वसूली की जा सकती थी। हिन्दू, इसाई धर्मों समेत ज्यादातर धर्मों ने इस वसूली की एक व्यापक व्यवस्था ही ईजाद कर ली।
दूसरी ओर शोषित-शासित जनता के लिए धर्म इस हृदयहीन दुनिया का हृदय था। दुःखों-कष्टों से भरी हुई इस दुनिया में यह उसके लिए सुकून की शरणस्थली था। अपनी जिंदगी की न समझ में आने वाली बातों की यह व्याख्या था। वह अपने को और अपने आस-पास की दुनिया को इसी से समझता था। शोषक व शासक ठीक इसी चीज का इस्तेमाल करते थे।
उपरोक्त से आसानी से समझा जा सकता है कि क्यों आदि काल से लेकर अभी तक इंसान पर धर्म का इतना ज्यादा प्रभाव रहा है। क्यों आज भी ज्यादातर लोग इसकी जकड़न में हैं।
धर्मों के जकड़न के ढीला पड़ने की शुरुआत पूंजीवाद की उत्पत्ति के साथ हुई। पूंजीवाद के विकास के लिए विज्ञान का विकास जरूरी था। और विज्ञान के विकास के लिए जरूरी था कि ज्ञान-विज्ञान को पुराने सामंती युग के धर्म की जकड़ से मुक्त किया जाये। तर्क-वितर्क और ज्ञान-विज्ञान की अपनी स्वतंत्र दुनिया कायम हो। इसीलिए सामंतवाद के खिलाफ नये उभरते पूंजीपति वर्ग का संघर्ष साथ ही सामंती धर्म के खिलाफ भी संघर्ष बन गया जो कई बार धर्मों में सुधार से आगे बढ़कर स्वयं धर्मों से मुक्ति का ही संघर्ष बन गया (जैसा कि महान फ्रांसीसी क्रांति के दौरान हुआ था)। अंततः पूंजीवादी समाज स्थापित होते-होते इन समाजों में धर्म भी काफी बदल गया था।
पर एक बार समाज में प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद पूंजीपति वर्ग को भी पहले के शासक वर्गों की तरह यह बात समझ में आ गई कि यदि शोषण- उत्पीड़न वाले अपने पूंजीवादी निजाम को बचाये रखना है तो जनता को धर्म की अफीम खिलाना जरूरी है। इसीलिए शासक पंूजीपति वर्ग पलटकर धर्म का हामी बन गया है। जैसे-जैसे यह पूंजीपति वर्ग बूढ़ा होता गया और उसकी पूंजीवादी व्यवस्था पतित, बूढ़़ी-जर्जर होती गई वैसे-वैसे उसकी धार्मिकता बढ़ती गई। आज भारत, अमेरिका समेत सभी पूंजीवादी देशों में शासक वर्ग द्वारा धर्म का सक्रिय प्रचार और धार्मिक पोंगापंथ को बढ़ावा देना इसी का हिस्सा है। इसी के साथ राजनीति में धर्म का इस्तेमाल भी इसी का हिस्सा है।
आज धर्मों के मामले में सारी दुनिया दोहरी गति की अवस्था में है। एक ओर पतित पूंजीपति वर्ग धर्म और धार्मिक पोंगापंथ को बढ़ावा देने में लगा हुआ है। वह इसके लिए धर्म के ठेकेदारों, पैसे और तकनीक का भरपूर इस्तेमाल कर रहा है। पर दूसरी ओर विज्ञान और तकनीक का विकास तथा तदनुरूप तर्क-वितर्क की प्रवृत्ति का विकास धर्म के नीचे से जमीन खिसका रहा है। धार्मिक विश्वासों में आस्था बनाये रखना दिन-ब-दिन कठिन साबित होता जा रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि यूरोप के कई देशों में अधार्मिकों और नास्तिकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। भारत जैसे गरीब देशों में मजारों, तीर्थ स्थलों पर उमड़ती भीड़ या बाबाओं के आश्रमों में इकटठा होती भीड़ परम्परागत धर्मों में आस्था के कमजोर पड़ने की अभिव्यक्ति है जो उथल-पुथल के समय एक झटके से नास्तिकता की ओर ले जायेगी।
इंसान की वास्तविक मुक्ति के लिए जरूरी है कि उसे काल्पनिक मुक्ति की दुनिया से बाहर लाया जाये। इसी दुनिया में दुःखों-कष्टों से निपटारे के लिए जरूरी है कि उसे दूसरी दुनिया में सुखों की कल्पना से खींचा जाये। ईश्वर में आस्था को समाप्त करने के लिए जरूरी है कि उसे स्वयं में विश्वास करना सिखाया जाये।
लेकिन यह सब तभी संभव है जब शोषित-उत्पीड़ित जन इस बात पर भरोसा कर सकें कि वे दुःखों-कष्टों से भरी अपनी इस जिन्दगी को स्वयं बदल सकते हैं। और यह भरोसा भी केवल बदलने के इस संघर्ष में उतरकर ही कायम हो सकता है। कहने की बात नहीं कि जीवन और दुनिया की सही वैज्ञानिक व्याख्या क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए अत्यंत जरूरी है। यहीं से धर्म ईश्वर व इंसानी जीवन में इनकी भूमिका की समुचित व्याख्या भी जरूरी बन जाती है।
धर्म, धर्म की वास्तविकता, ईश्वर की हक़ीक़त व ज़रुरत पर सिरे से आर्टिकल में बहस ही नहीं की गई हैं. धर्म के नकारात्मक पहलुओं को बताकर सिरे से धर्म ही को नकारने का प्रयास किया गया! हर धर्म को ओब्जेटीक्वली देखा जाना चाहिए, न कि सब को एक ही लकड़ी से हांक दिया जाएं. जिस पर सभी विचारधाराओं को अलग अलग देख कर समझा जाना चाहिए उसी तरह धर्म को भी. पहले के ज़माने में धर्म को कैसे यूज़ किया जाता था इसका कोई प्रमाण नहीं दिया गया. सिर्फ़ मार्क्सी विचारधारा के आधार पर धर्म पर इलज़ाम तराशी की गई. गुज़ारिश है कि इस विषय पर कुछ अच्छे आर्टिकल लिखे जाएँ.
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