किसान आन्दोलन में नयी करवट
-नासिर
महाराष्ट्र के लगभग 40 हजार किसानों ने मार्च प्रथम सप्ताह में नासिक से मुम्बई तक का एक पैदल लांग मार्च निकाला। ये किसान कर्जमाफी, भूमि के पट्टे, न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना करने आदि मांगों को लेकर यह मार्च निकाल रहे थे। इस मार्च को अखिल भारतीय किसान महासभा ने आयोजित किया था।
इस मार्च को निकालने का उद्देश्य महाराष्ट्र सरकार को उसकी वादाखिलाफी के खिलाफ आगाह करना था। दरअसल महाराष्ट्र की देवेन्द्र फड़नवीस की भाजपा सरकार ने चुनाव पूर्व बड़े-बड़े वायदे किये थे जिसमें किसानोें की कर्जमाफी, पेंशन व समर्थन मूल्य बढ़ाने जैसे वायदे थे। 24 जून, 2017 को महाराष्ट्र सरकार ने कर्जमाफी की घोषणा भी की थी। लेकिन महाराष्ट्र सरकार के ये वायदे और घोषणायें सिर्फ जुबानी जमा खर्च बन कर रह गये थे और 8 माह से अधिक समय गुजर जाने पर भी ये लागू नहीं हुए। खैर किसानों के इस मार्च ने व्यापक लोकप्रियता हासिल की और किसानों का मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर एक गम्भीर एजेन्डे के रूप में सामने आया।
जैसा कि स्वाभाविक था कि पूंजीवादी प्रचार तंत्र व गोदी मीडिया ने इस लांग मार्च को पहले कोई तवज्जो नहीं दी। लेकिन सोशल मीडिया के जरिये व्यापक जनता तक अपनी बात पहुंचाने व जनता खासकर मुम्बई के मेहनतकश समुदाय, जनवादी व न्यायप्रिय लोगों की सहानुभूति हासिल करने और उनको अपने पक्ष में लाने में इस मार्च के आयोजक कामयाब रहे। सोशल मीडिया पर नंगे पैर चलने वाले बूढ़े किसानों, महिलाओं के पैरों के जख्म व उनसे रिसते खून व मवाद को जब लोगों ने देखा तो इन किसानों के पक्ष में एक सहानुभूति की लहर दौड़ गयी। गुरूद्वारों, मस्जिदों ने इन जख्मी किसानों के लिए राहत जुटाना शुरू कर दिया। मुम्बई के मशहूर डिब्बावाले (भोजन या लंच सप्लाई करने वाले मजदूर) भी इनके समर्थन में आये। नागरिक समाज के कई लोग आये। इनके भोजन, चप्पल, दवाईयां आदि की व्यवस्था जनता ने की। मुम्बई पहुंचने से पहले ही सोशल मीडिया पर यह लांग मार्च जनता का इतना समर्थन व प्रचार पा चुका था कि खबरिया चैनलों या गोदी मीडिया के लिए भी इसे नजरंदाज करना नामुमकिन हो गया था। विधानसभा के सामने किसानों के पड़ाव को सभी विपक्षी पार्टियां अपना समर्थन देने पहुंच गयीं। महाराष्ट्र सरकार को झुकना पड़ा और किसानों की मांग माननी पड़ी। हालांकि यह अभी आश्वासन ही था। महाराष्ट्र सरकार ने घोषणा की कि 30 जून, 2017 तक के कर्ज माफ कर दिये जायेंगे। डेढ़ साल तक की कर्ज राशि माफ की जायेगी। वन अधिकार कानून के तहत वन जमीन के पट्टे 6 माह के भीतर मंजूर किये जायेंगे। वन अधिकार कानून के मुताबिक अनुसूचित जनजाति व अन्य जातियों के लोग जो परम्परागत तौर पर वन भूमि पर रहते आये हैं और उनकी आजीविका का स्रोत वन्य भूमि ही रही है ऐसे लोगों को 15 दिसम्बर, 2006 को वन अधिकार कानून के तहत जमीन के पट्टे देने की घोषणा हुई थी। अर्थात् जिस जमीन में आदिवासी व अन्य परम्परागत वन निवासी खेती करते हैं या रहते हैं उसका पट्टे के रूप में कानूनी स्वामित्व उन्हें देने की बात हुई थी जिसे कभी अमल में नहीं लाया गया।
बहरहाल महाराष्ट्र के किसानों के इस लांग मार्च ने तात्कालिक तौर पर जीत हासिल की है लेकिन व्यवहार में उनकी मांगें कितनी लागू होती हैं यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।
अगर पिछले एक साल को देखें तो भारत में किसानों का आन्दोलन एक नई करवट लेता दिखायी दे रहा है। पिछले 2-3 दशकों से जारी कृषि संकट और उसके चलते लाखों किसानों की आत्महत्या व खामोश तबाही अब एक व्यापक आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण करने की ओर बढ़ रही हैै। देश के अलग-अलग हिस्सों में किसानों के आन्दोलन, प्रदर्शन व व्यापक उभार ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है और कृषि के संकट को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना दिया है।
सर्वप्रथम पिछले साल तमिलनाडु में विगत 100 साल में सबसे भयंकर सूखे के चलते तबाह-बर्बाद, कर्ज में डूबे हुए 32 जिलों के किसानों ने जंतर-मंतर (दिल्ली) में धरना प्रदर्शन किया था। ये किसान अपने साथ आत्महत्या करने वाले अपने परिजनों की खोपड़ियों के कंकाल अपने साथ लाये थे। अपनी विपदा व तबाही को व्यक्त करने के लिये इन किसानों ने अर्द्धनग्न होने, मुंह में चूहे दबाने, अपना मल खाने जैसे रोंगटे खड़े करने व अंर्तमन को हिलाने वाले तौर-तरीके अपनाये लेकिन तब भी पूंजीवादी प्रचार तंत्र व गोदी मीडिया ने इनकी व्यथा को अनसुना कर दिया। केन्द्र सरकार ने अपने आंख, नाक, कान बंद कर लिये क्योंकि ये किसान मोदी सरकार के विकास के दावों को आइना दिखा रहे थे। 100 दिन के बाद भी कोई सुनवाई न होने के बाद ये किसान अपने गांव लौटने पर मजबूर हुए। तब तक उन पर 30-40 हजार रुपये और कर्ज हो चुका था। इन किसानों का आन्दोलन थमा नहीं है अभी वे गांव-गांव जाकर आन्दोलन के अगले चरण की तैयारी कर रहे हैं।
2017 में ही 1 से 10 जून के बीच मध्यप्रदेश के मंदसौर में कर्जमाफी और समर्थन मूल्य डेढ़ गुना करने की मांग को लेकर किसानों का प्रदर्शन हुआ जिसे भाजपा की शिवराज सरकार ने पहले बलपूर्वक दबाना चाहा, किसानों पर गोलियां चलाई गयी।
अंततः जब किसानों का आन्दोलन और व्यापक व उग्र हो गया तो शिवराज सरकार को झुकना पड़ा तथा 8 रुपये/किलो के हिसाब से किसानों का प्याज खरीदने व अन्य कुछ मांगें मानी गयीं।
सितम्बर 2017 में राजस्थान के सीकर में प्याज व मूंगफली की फसल बर्बाद होने के चलते समर्थन मूल्य बढ़ाने, कर्जमाफी, बछड़ों की बिक्री पर रोक हटाने, आदि मांगों को लेकर किसानों ने एक व्यापक आन्दोलन किया। यह आन्दोलन एक व्यापक आन्दोलन बन गया। इस आन्दोलन को समाज के अन्य तबकों का समर्थन भी हासिल हुआ। आॅटो चालक, विद्यार्थी, डी.जे. वाले और आरा मशीन वाले भी किसानों की मांग के समर्थन में खड़े हो गये। पहले इस आन्दोलन की अनदेखी करने वाली भाजपा की वसुन्धरा राजे की सरकार को आखिरकार किसानों की मांगों के आगे झुकना पड़ा। 50 हजार रुपये तक की कर्जमाफी व किसानों के लिए 2000 रुपये पेन्शन की घोषणा वसुंधरा सरकार ने की। लेकिन छलपूर्वक वसुंधरा सरकार ने अपनी घोषणाओं को बहुत सीमित-संकुचित रूप से लागू किया। केवल सहकारी बैंकों से कर्ज लेने वाले किसानों का ही कर्ज माफ हुआ। फलतः किसान ठगा हुआ महसूस कर फिर आन्दोलन की राह पर आगे बढ़े। 22 फरवरी 2018 को फिर सीकर में आन्दोलन शुरु हुआ यह आन्दोलन नागौर और झुंझनु तक फैल गया। ‘जयपुर चलो’ का नारा दिया गया लेकिन वसुंधरा सरकार ने आन्दोलनकारियों को जयपुर में घुसने से बलपूर्वक रोक दिया। किसान नेताओं की गिरफ्तारियां की गयीं। हालांकि बाद में चहुंओर से निन्दा व जनदबाव के चलते किसान नेताओं को रिहा कर दिया गया। किसानों ने सरकार द्वारा राजधानी में नहीं घुसने देने के जवाब में नेताओं को गांव में नहीं घुसने देने का ऐलान किया है। 1 मई को पूरे राजस्थान में जिला मुख्यालयों के घेराव का कार्यक्रम रखा है।
गत वर्ष नवम्बर माह में देश के लगभग 184 किसान संगठनों के हजारों किसानों ने देश के कई हिस्सों की पदयात्रा के बाद राजधानी दिल्ली के संसद मार्ग पर प्रदर्शन किया था। इस खबर को भी पूंजीवादी मीडिया ने खास तवज्जो नहीं दी।
उत्तर प्रदेश में वायदे के अनुसार दाम न मिलने पर किसानों ने राजधानी लखनऊ की सड़कों पर आलू बिखरा दिया।
किसानों की बर्बादी, गम्भीर कर्जग्रस्त होने व आत्महत्या करने की खबरें बिहार, कर्नाटक, पंजाब, गुजरात से भी लगातार आती हैं।
बिहार में इस बार 1700 एकड़ जमीन में मक्के की फसल में बाली नहीं आयी क्योंकि एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने घटिया बीज बेचा था। पहले से बाढ़ की आपदा से त्रस्त किसानों के लिए यह दोहरी मार थी।
कुल मिलाकर किसानों की तबाही, बर्बादी, आत्महत्या का परिदृश्य एक सर्वव्यापी रूप ग्रहण कर चुका है और इसके खिलाफ किसानों का प्रतिरोध भी अब सामने आ रहा है।
भारत का कृषि संकट कोई नयी परिघटना नहीं है। नयी आर्थिक नीति के तहत साम्राज्यवादी वैश्वीकरण-उदारीकरण के साथ 1990 के दशक से ही भारत में कृषि में बहुत गम्भीर संकट पैदा होना शुरू हो गया। इसके चलते किसानों के जीवन पर गम्भीर असर देखने को मिला। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नीति के तहत सरकारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को जहां निर्यातोन्मुखी बनाने पर जोर दिया वहीं कृषि को उपेक्षित किया गया। कृषि मंे समर्थन मूल्य व सरकारी खरीद से सरकारें हाथ खींचने लगीं। कृषि पर योजनागत काम कम किया गया। सिंचाई परियोजनायें कम फंड या फंड के अभाव में अधर में लटकने लगीं। किसानी पत्र मिलने वाले ऋणों को सीमित व संकुचित किया गया। किसानों को खाद, बीज पर मिलने वाली सब्सिडी को क्रमशः घटाया गया। इस तरह जहां कृषि व किसानों को बाजार व सूदखोरों के हवाले कर दिया गया वहीं किसानों को कृषि में पूंजीगत लाभ बढ़ाकर बाजारोन्मुख व निर्यातोन्मुख खेती के लिए प्रोत्साहित किया गया। राष्ट्रीय बीज व कीटनाशक कम्पनियों, सट्टेबाजों के लिए कृषि क्षेत्र को खोल दिया गया। इसी तरह जहां किसान को मिलने वाला संरक्षण क्रमशः खत्म होता गया वहीं आगतों के दामों में लगातार वृद्धि के चलते किसान सूदखोरों के दबाव में फंसते गये।
भारत में बहुतायत किसान छोटे किसान हैं। 77 प्रतिशत किसानों की जोत 2 हेक्टेयर से कम है। ये किसान कर्ज लेकर ही खेती करते हैं। आमतौर पर बैंक से कर्ज धनी किसानों को ही मिलता है। छोटे किसानों के लिए सूदखोर ही कर्ज का स्रोत बनते हैं जो कि 30 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक की दर से कर्ज देते हैं। इस तरह ये छोटे किसान अकाल, बीज खराब होने, अति उत्पादन और कम उत्पादन दोनों स्थितियों में तबाह-बर्बाद होने के लिए मजबूर होते हैं। मजबूरी में ये औने-पौने दामों में अपनी फसल आढ़तियों, बिचैलियों, दलालों व जमाखोरों को बेचने पर मजबूर होते हैं। भंडारण की सुविधा न होने के चलते छोटे व गरीब किसान बिचैलियों की शर्तों पर और कभी-कभी लागत से भी कम कीमत पर अपनी फसल बेचने को मजबूर होते हैं। इस तरह वैश्वीकरण के दौर में किसानों की तबाही आजाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आती है।
सरकारी सूत्रों के अनुसार 1995 से 2014 के बीच 2,46,434 किसानों ने आत्महत्या की है। केवल महाराष्ट्र में ही 2004 से 2013 के बीच औसतन 3,695 किसानों ने प्रतिवर्ष आत्महत्या की है। देश के पैमाने पर प्रतिवर्ष 10,000 से 12,000 किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या कर रहे हैं। गौरतलब है कि आत्महत्या करने वाले किसान मुख्यतः गरीब व छोटे किसान हैं। जिनके लिए आगतों में बढ़ोत्तरी व बाजार के उतार-चढ़ाव के चलते खेती करना लगातार घाटे का सौदा बनता जा रहा है और वे अधिकाधिक सूदखोरों के चंगुल में फंसते जा रहे हैं।
देशी-विदेशी पूंजी को प्रोत्साहित करने हेतु बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण ने कृषि संकट में अतिरिक्त योगदान दिया है। देशभर में 30 लाख हेक्टेयर उपजाऊ भूमि का गैर कृषि कार्यों के लिए विगत समय में अधिग्रहण किया जा चुका है।
भारत में अभी भी 70 करोड़ आबादी कृषि पर निर्भर है। कृषि संकट के चलते 42 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने के कगार पर हैं। कृषि से बाहर हो रही श्रमशक्ति को उद्योग अथवा मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में भी समाहित होने का अवसर नहीं है। इसलिए गांवों में अतिरिक्त आबादी का बोझ बढ़ रहा है। जो शहरों में आ भी रहे हैं उन्हें केवल जिन्दा रहने भर का रोजगार मिल रहा है जो अप्रत्यक्ष बेरोजगारी है अथवा जिसे प्रधानमंत्री के अन्दाज में पकोड़ा रोजगार कहा जा सकता है।
केन्द्र में मोदी सरकार के आने के बाद किसानों की स्थिति और बुुरी हुई है। पहले नोटबन्दी फिर जी.एस.टी. ने कृषि उत्पादों की कीमतों को नकारात्मक तौर पर प्रभावित किया। ऋण तथा आगतों को जुटाने में भी इसने समस्यायें पैदा की। खासकर छोटे और गरीब किसानों के लिए। रही-सही कसर गौ रक्षकों के उत्पात ने पूरी कर दी। गौ रक्षकों के उत्पात के चलते किसान न तो अब मवेशी खासकर बछड़ों को बेच पा रहे हैं न दुधारु पशु खरीद पा रहे हैं। राजस्थान के पुष्कर पशु मेले में पशुओं के विनिमय में 90 प्रतिशत गिरावट आयी है। इस तरह किसानों की अर्थव्यवस्था का एक आपात विकल्प भी खत्म हो गया है।
सवाल है कि इस कृषि संकट का क्या समाधान हो और मौजूदा किसान आन्दोलन का क्या भविष्य है?
जहां तक कृषि संकट की जड़ों का सवाल है मोदी सरकार या पूर्ववर्ती सरकारों की नीतियां इसकी सघनता के तात्कालिक कारण हैं तो साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नीतियां मध्यवर्ती कारण हैं। इसका मूल व दीर्घकालिक कारण पूंजीवादी व्यवस्था है। जिसमें कृषि का उद्योग द्वारा शोषण अंतर्निहित हैै। दूसरे कृषि में पूंजी संचय की गति अनिवार्य तौर पर छोटे किसानों की तबाही और धनी किसानों या फार्मरों के और अधिक शक्तिशाली होने में होती है। पूंजी की इस गति को किसी भी सुधार से रोका नहीं जा सकता। पूंजीवाद में छोटे किसानों को उजाड़कर सर्वहारा में तब्दील किया जाता है। पूंजीवाद में उनकी समृद्धि की कामना कतई व्यवहारिक या संभव, प्रायः नहीं है।
किसानों के मौजूदा आन्दोलन का नेतृत्व धनी किसानों के हाथों में है। चाहे वह लाल झंडा ही क्यों न थामे हो। धनी किसानों का यह तबका स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट (अक्टूबर 2006) को लागू करने को ही अपना एजेन्डा बनाये हुए है। स्वामीनाथन कमेटी का गठन 2004 में हुआ था जिसने दिसम्बर 2004 में अपनी पहली और 4 अक्टूबर 2006 को अपनी अंतिम रिपोर्ट दी। अपनी रिपोर्ट में स्वामीनाथन आयोग ने कुछ सुधारवादी नुस्खे दिये हैं जिनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना करने, बेकार पड़ी जमीनों को सीलिंग के जरिये भूमिहीनों में बांटने, कर्ज वसूली पर रोक, कृषि जोखिम बैंक की स्थापना कर किसानों को फसल बर्बादी पर मुआवजे की व्यवस्था करने, सिंचाई की व्यवस्था दुरुस्त करने, ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार, बीज की उचित व्यवस्था आदि के सुझाव दिये हैं।
स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट जिन संरक्षणवादी तौर तरीकों की वकालत करती है वे कृषि संकट का स्थायी समाधान नहीं हैं। लेकिन उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ को ये सुधारवादी तरीके कतई स्वीकार नहीं हैं इसलिए किसी भी सरकार ने स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू नहीं किया।
दूसरे स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट किसानों के वर्गीय विभाजन को अनदेखा कर उन्हें एक समांग प्रवर्ग या समुदाय के रूप में देखती है, जो कि बेहद त्रुटिपूर्ण है।
स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट की कुछ सिफारिशें मसलन; लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य, मुआवजा, आदि लागू हो भी जायें तो इसका फायदा धनी व मझोले किसानों को ही होगा। गरीब किसान को तात्कालिक राहत भले ही मिल जाए तो भी दीर्घकालिक तौर पर उसे कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि वह बाजार में बेचता कम खरीदता ज्यादा है। खेत मजदूर को तो आटा, दाल सहित सब कुछ बाजार से ही खरीदना है उनके लिए यह सुधार प्रतिकूल ही होगा।
किसान समस्या का कोई वर्गेतर हल नहीं है। मौजूदा दौर में किसान आन्दोलन की यह खासियत है कि किसान प्रश्न को वर्गेतर रूप में प्रस्तुत कर पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर ही किसान प्रश्न का हल ढूंढा जा रहा है। जिसका अनिवार्य परिणाम छोटे किसानों व खेत मजदूरों की कीमत पर धनी किसानों का पोषण है। विभेदीकृत किसान समुदाय के बीच विभेदीकृत मांगें अर्थात छोटे व गरीब किसानों के लिए राहत की मांग पर आधारित किसान आन्दोलन ही गरीब किसानों को धनी किसानों के पिछलग्गूपन से मुक्त कर उन्हें सर्वहारा के सहयोगी के रूप में तथा पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ समाजवाद की दिशा में अग्रसर कर सकता है।
समग्र रूप में किसानों के देश भर में उठ रहे आन्दोलन भविष्य के लिए एक उम्मीद जगाते हैं क्योंकि इन आन्दोलनों में सक्रिय और सबसे जुझारु गरीब किसान हैं। संघर्ष की राह पर चलते हुए वे देर-सबेर धनी किसानों के पिछलग्गूपन, उन पर निर्भरता व पूंजीवादी व्यवस्था में विश्वास से मुक्त होंगे। मजदूर वर्ग व क्रांतिकारी छात्र-नौजवानों से उनकी एकता कायम होगी। निश्चित तौर पर इसमें सचेत प्रयास की मुख्य भूमिका होगी। हम छात्र-नौजवान इतिहास की गति को समझते हुए इस कार्य में अपनी भूमिका निभा सकते हैं।
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