शुक्रवार, 2 मार्च 2018

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का एक साल -चंदन

डोनाल्ड ट्रम्प को राष्ट्रपति बने एक साल हो चुका है। दुनिया के तथाकथित महान लोकतंत्र के राष्ट्रपति का एक साल।
डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति चुनाव के समय से ही महिला विरोधी, नस्लवादी, मुस्लिम विरोधी, प्रवासी विरोधी टिप्पणियों के कारण विवादों में रहे। इसके अलावा उन्होंने ‘अमेरिका फस्र्ट’, ‘सत्ता प्रतिष्ठानों से बाहर का होना’ सरीखी तमाम लोक लुभावन व दक्षिणपंथी बातें की थीं। इसके अलावा यह भी आरोप लगते रहे कि रूसी साम्राज्यवादियों ने ट्रम्प की चुनाव जीतने में मद्द की। इन सब परिस्थितियों के बाद आखिर वह अमेरिका के राष्ट्रपति हैं। दीगर बात है कि अमेरिकी इतिहास के एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हैं जिसके खिलाफ जनता के विरोध प्रदर्शन थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। ‘यू आर नाॅट माइ प्रेसिडेन्ट’ जैसे नारे आज भी डोनाल्ड ट्रम्प के खिलाफ लगाये जा रहे हैं।
सबसे पहले लोक लुभावन बातों को ले लिया जाये कि एक साल में इनका क्या हुआ? अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और राजनीतिक तौर पर भी वह दुनियाभर में हस्तक्षेप रखता है। जब अमेरिका पहले ही अर्थव्यवस्था और राजनीतिक तौर पर फस्र्ट है, तब अमेरिका में कौन फस्र्ट? अमेरिका यदि फस्र्ट नहीं था, तो फिर फस्र्ट कौन था? अंततः अमेरिका फस्र्ट का क्या नतीजा हो रहा है?
‘अमेरिका फस्र्ट’ अमेरिका में लोक लुभावन नारा उसी तरह है जैसा कि भारत में ‘अच्छे दिन’ का नारा है। असल में अमेरिकी पूंजीपति तो दुनियाभर में फस्र्ट हैं पर अमेरिकी मेहनतकश जनता नहीं है। 2007 से छाये विश्व आर्थिक संकट ने अमेरिकी जनता की हालत पूंजीपतियों की तुलना में और नीचे कर दी। पूर्व राष्ट्रपति इसके दंश को झेलते हुए अपना कार्यकाल पूरा कर गये। उन्हीं के कार्यकाल में ‘आक्यूपाई वाल स्ट्रीट’ (शेयर बाजार पर कब्जा करो) का जबरदस्त आन्दोलन चला। जिसमें जनता ने अमेरिकी समाज में बढ़ रही असमानता के खिलाफ ‘99 प्रतिशत लोगों के पास 1 प्रतिशत सम्पत्ति, 1 प्रतिशत लोगों के पास 99 प्रतिशत सम्पत्ति’ के नारे लगाये। जब समाज में असमानता इतनी बढ़ गयी कि वह बर्दाश्त नहीं हो रही थी, जनता सड़कों पर आ प्रदर्शन कर रही थी, मालों की बिक्री नहीं हो रही थी, औद्योगिक उत्पादन गिर रहा था, सरकार मद्द के लिए आगे आयी। सरकार ने तमाम डूब रहे पूंजीपतियों को संकट से उबारने के लिए बेल आउट पैकेज दिये और मजदूरों-मेहनतकशों को ‘आस्टिरिटी सुधार’ (कठोर सुधार)। इन बेल आउट पैकेजों से पूंजीपति तो संकट से उबर आये पर आस्टिरिटी सुधारों से श्रम कानून और कमजोर कर पूंजीपतियों के पक्ष में कर दिये गये। बेल आउट पैकेजों का बोझ सरकार ने वापस जनता पर डाला। तमाम सामाजिक मदों में कटौती की गई। जिससे अमेरिकी समाज में बेरोजगारी, महंगाई, सामाजिक असुरक्षा सरीखी तमाम समस्यायें ज्यादा भीषण रूप में उभर कर सामने आयीं। नतीजतन जनता आक्रोशित होकर अपने सम्मानजनक जीवन के अधिकार के लिए सड़कों पर उतर आयी। डोनाल्ड ट्रम्प ने ‘अमेरिका फस्र्ट’ का नारा दिया। जिससे जनता को लगा कि शायद हमारी बात हो रही है लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिकी पूंजीपतियों के हितों की बात कर रहे थे। अमेरिकी पूंजीपतियों के हितों की रक्षा सबसे पहले की जायेगी।
‘अमेरिका फस्र्ट’ का नतीजा अमेरिकी मेहनतकश जनता की सामाजिक मदों में कटौती के रूप में हुआ। अपने पहले बजट में डोनाल्ड ट्रम्प ने स्वास्थ्य पर अगले 10 सालों में 800 अरब़ डाॅलर की कटौती करने का लक्ष्य लिया है। इसी तरह अतिरिक्त पोषण सहायता की योजना के फूड स्टाम्प व्यवस्था में 25 प्रतिशत यानी 193 अरब डाॅलर की कटौती की गयी है। स्वास्थ्य और भोजन जैसी बुनियादी सुविधाओं में कटौती करने से मेहनतकशों के हालात और अधिक खराब हो जायेंगे।
वहीं प्रवासियों पर भी सीधा हमला किया जा रहा है। मैक्सिको की सीमा पर बड़ी दीवार लगाने की बात की, जिसका खर्च भी वह मैक्सिको सरकार से वसूलने वाले हैं। अमेरिका में काम करने के लिए आये प्रवासियों के नियमों को और सख्त करना। सात इस्लामिक देशों (ईरान, इराक, लीबिया, सोमालिया, सूडान, सीरिया, यमन) के नागरिकों का अमेरिका आना प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रवासियों के खिलाफ नफरत इतनी गहरी बना दी गई है कि कईयों की तो हत्यायें ही कर दी गई। इस साल 4 भारतीयों की भी इसी नफरत की वजह से हत्या कर दी गई। एक हत्यारे ने तो गोली मारने से पहले कहा, ‘अपने देश वापस जाओ’।
अमेरिका फस्र्ट का वैश्विक मंच पर भी प्रभाव पड़ा। अमेरिका ने जलवायु परिवर्तन के मामले में हुए पेरिस समझौते की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया और पेरिस समझौते से हटने की बात की। अपनी यही प्रतिबद्धता ट्रम्प ने जी-20 की बैठक में दोहराई जहां वह अलग-थलग पड़ गये। 19 के मुकाबले एक वोट से पेरिस समझौते को माना गया (विरोध में एकमात्र अमेरिका था)। (इसका यह मतलब नहीं है कि अन्य देशों के शासक पर्यावरण पर बहुत गम्भीर हैं) इसके अलावा अपने देश के बाजार को अपने पूंजीपतियों के लिए संरक्षित करने के लिए अमेरिका ने इस्पात के आयात पर प्रतिबंध लगाने की बात की।
अपने व्यापारिक हितों को ऊपर रखने के अलावा युद्ध भी पूंजीवाद में प्रभुत्व स्थापित करने का तरीका रहा है। इसी क्रम में ट्रम्प आजकल उत्तरी कोरिया के साथ युद्ध का माहौल बनाये हुए है। जिसमें उत्तरी कोरिया भी किसी तरह की भभकी में आने के बजाय लगातार मिसाइल परीक्षण कर अमेरिका को मुंह चिढ़ा रहा है। आर्थिक प्रतिबंध लादकर अमेरिका कोरिया को दबाना चाहता है। यहां तक की डोनाल्ड ट्रम्प तो राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर पहले खुद परमाणु हमला करने की धमकी तक दे चुके हैं। हांलाकि जर्मनी-फ्रांस जैसे सहयोगियों तक ने भी ट्रम्प के इस बयान की आलोचना की है।
वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था जिस असमाधेय संकट में फंसी हुई है उससे अमेरिका भी पार नहीं पा सकता। इस संकट से पार पाये बिना अमेरिका अपने देश में बढ़ रहे असंतोष को शांत नहीं कर सकता। पूंजीवाद में बाजार की अराजकता और मुनाफे के केन्द्र में होने की वजह से संकटों और असंतोष से मुक्ति नहीं मिल सकती।
जब संकट का कोई हल नहीं निकल पा रहा है तब शासक वर्ग लोकतंत्र का बाना उतारकर फासीवाद की ओर बढ़ना शुरू करता है। अमेरिका में ट्रम्प का सत्ता तक पहुंचने का एक प्रमुख कारण है। अर्थव्यवस्था के मामले में ऐसी नीतियां बनाना कि जनता पर कर लादें जाएं, अपने देश के पूंजीपति वर्ग के हितों को सर्वोपरि रखना (संरक्षणवादी कदम आदि के जरिये), युद्धोन्माद बनाये रखना और जरूरत पड़ने पर युद्ध करना, वहीं राजनीति के मामले में अंधराष्ट्रवाद का प्रसार, समाज के उत्पीड़ित हिस्सों के प्रति आक्रामक होना। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में हिलेरी क्लिंटन के जीतते-जीतते रह जाने के बाद जब डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति बन गये तो शासक वर्ग ने इसीलिए उसे अपना लिया। सत्ता प्रतिष्ठानों से ‘बाहर’ का यह व्यक्ति सत्ता प्रतिष्ठानों का हिस्सा बन गया। राष्ट्रपति बनने के अगले दिन दिए गए बयान में डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी जुबानी कड़वाहट को कम कर कहा ‘ मैं सारे अमेरिका का राष्ट्रपति बन कर दिखाऊंगा’। दिन गुजरने के साथ ही पूंजीपति वर्ग के उन हिस्सों ने भी ट्रम्प को अपना राष्ट्रपति मान लिया जो चुनाव के दौरान हिलेरी क्लिंटन को अधिक समर्थन कर रहे थे।
भले ही शासकों ने ट्रम्प को अपना लिया पर जनता, वह तो अपनाने को राजी ही नहीं है। जनता ट्रम्प के कड़वे बयानों को नहीं भूली और न ही ट्रम्प इसे भुलाना चाहते हैं। सामाजिक मदों में भारी कटौती कर उन्होंने जतला दिया है कि वह पूंजीपति वर्ग के ही लायक नुमांइदे हैं। मेहनतकश जनता के नहीं। हां, ऐसा वह सार्वजनिक मंचों से नहीं कह सकते किसी भी अन्य देश के राजनीतिज्ञ की तरह।
अमेरिकी समाज में भयानक असंतोष मौजूद है। बेरोजगारी, सामाजिक मदों में कटौती, अवसादग्रस्तता, सामाजिक असुरक्षा, आदि। इन समस्याओं के अलावा बढ़ते फासीवादी प्रभाव ने जनता की चुनौतियों को और बढ़ा दिया है। निश्चित तौर पर समस्याओं के हल के लिए अमेरिकी जनता जूझ रही है। विकल्प कोई, क्लिंटन, ट्रम्प या ओबामा नहीं हैं बल्कि सिर्फ आमूलचूल सामाजिक बदलाव यानी क्रांति ही है। मुनाफे की इस पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को ध्वंस कर नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण ही अमेरिकी जनता के दुःखों-कष्टों को अंतिम तौर पर खत्म कर सकती है।              

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें