शुक्रवार, 2 मार्च 2018

ढहता किला बमुश्किल बचा पायी भाजपा

गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी का ‘गुजरात माडल’ ढहते-ढहते बच गया। बीजेपी 150 से अधिक सीटों का लक्ष्य लेकर चल रही थी। वह 99 सीटों में आकर रुक गई। इस चुनाव में उसे 49.1 प्रतिशत मत मिले जो कि 2014 लोक सभा चुनाव से लगभग 11 प्रतिशत मत कम है। कांग्रेस 41.4 प्रतिशत मत पायी। सहयोगियों के साथ 80 सीटें जीतने के बाद वह सरकार बनाने के लिए 92 सीटों से कुछ कदम दूर रही। मीडिया ने इसको ऐसे प्रचारित किया जैसे गुजरात चुनाव नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी ने फिर से सारा देश जीत लिया हो।
      गुजरात चुनाव मोदी-शाह की जोड़ी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया था। ‘गुजरात माडल’ को भाजपा सालों से बेच रही थी। अगर यह ‘गुजरात माडल’ हार जाता तो मोदी-शाह की जोड़ी की साख शासकवर्गीय मीडिया के सामने फीकी पड़ जाती। इसलिए यह जोड़ी हर हाल में चुनाव जीतना चाहती थी। इसके लिए उसने साम-दाम-दण्ड-भेद सभी तरीके अपनाये। पानी की तरह पैसा बहाया गया। मीडिया मैनेजमैंट को साधा। अपनी सोशल मीडिया फैक्टरी से कुप्रचार आदि जारी रखा। गुजरात में भाजपा के 22 वर्षों के शासन काल के दौरान उसने वहां पर अपनी पैठ जमायी है। वह इस हद तक कि व्यवस्था के सभी अंगों में उसकी मजबूत पैठ है। वहां भाजपा-संघ के लोग बैठे हुए हैं। अपने हिसाब के व्यक्तियों को ही चुना जाता रहा है, मुख्य पदों पर बैठाया जाता रहा है। चुनाव न जीतते देख चुनाव की तारीख बाद में घोषित करना, संसद का सत्र टालना, लगभग पूरी मोदी कैबिनेट वहां लगी रही। अधिकतर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री वहां लगाये गये। उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में जीते मेयरों की गुजरात ले जाकर परेड करवायी गयी। हार के डर सेे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा ने चुनाव प्रचार को छिछले स्तर पर उतार दिया। ‘मैं गुजरात का बेटा हूं’ जैसा भावनात्मक प्रचार शुरू किया। ‘बाहरी लोग आकर गुजरात की अस्मिता पर सवाल कर रहे हैं।’ रोना-धोना शुरू कर नोटंकी शुरू कर दी। इसके आगे बढ़कर ‘पाकिस्तान गुजरात चुनाव को प्रभावित कर रहा है, वह गुजरात का मुख्यमंत्री तय कर रहा है’ आदि इस तरह के राग अलापने लगे। 
संघ के तमाम अनुषंगी संगठन मीडिया की नजरों से दूर समाज में जहर घोलने के काम में हमेशा की तरह लगे हुए थे। वह हिन्दू-मुस्लिम का बंटवारा करते रहे। मंदिर-मस्जिद में बांटकर भाजपा के लिए राह आसान करते रहे। 
इस सब के बावजूद भाजपा बहुत कम अंतर से ही जीत पायी। कांग्रेस ने अपने मत प्रतिशत व सीटों में इजाफा किया है। भारतीय पूंजीपति वर्ग और उसकी मीडिया ने ‘नालायक’ राहुल गांधी को गंभीर राजनेता, मोदी के विकल्प के बतौर पेश किया। राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव के दौरान 27 हिन्दू मंदिरों के दर्शन किए। हिन्दू वोटर नाराज न हो जाए, कांग्रेस ने राहुल गांधी को शिव भक्त व जनेऊधारी के रूप में प्रचारित किया। दूसरी तरफ गुजरात चुनाव के बीच में राजस्थान के अंदर अफराजुल नामक मजदूर को बीभत्स तरीके से मारते हुए उसका वीडियो सोशल मीडिया पर छाया रहा। कांग्रेस पार्टी ने कहीं से भी इसके लिए एक शब्द तक नहीं बोला। कांग्रेस जैसी जो पार्टियां अपने आप को सेक्यूलर का तमगा देती हैं, संघ-भाजपा के हिन्दू फासीवाद के सामने वह नततस्तक हो गयीं। जो आने वाले समय में एक भयानक तस्वीर साबित होगी। 
गुजरात के चुनाव को लेकर जैसी उम्मीदें बांधी जा रही थीं, मगर नतीजे आने के बाद वामपंथी, बौद्धिक दायरे व पूंजीवादी उदार पंथियों के दायरों में मायूसी छायी है। उनके विश्लेषणों से यही पता चलता है कि फासीवाद और आगे बढ़ रहा है। सुधारवादी, उदारवादियों, सामाजिक जनवादी वामपंथियों जैसों की सारी उम्मीद भाजपा को संसदीय चुनावों में हराने पर टिकी है। इसके लिए वह कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय गैर भाजपा दलों पर आश लगाए रखते हैं। इनका आपस में गठबंधन सही हो जाये तो संघ-भाजपा को मात दी जा सकती है। इन चुनावी नतीजों से कुछ आश लगाए बैठे हैं। 
लेकिन वे यह बात भूल जाते हैं कि कांग्रेस भारतीय पूंजीपति वर्ग की सबसे विश्वसनीय पार्टी रही है। जो खुद आपातकाल लगाने से लेकर अंबानी-अडानी की हर तरीके से सेवा को तत्पर है। अगर कांग्रेस सत्ता में आती तो वह भी खुद अपने द्वारा लायी गयी नवउदारवादी नीतियों को ही आगे बढ़ायेंगी। जो देश के लिए घातक साबित हुयी हैं। खुद क्षेत्रीय दल कभी भाजपा की गोद में बैठ जाते हैं तो कभी कांग्रेस की। यह ग्रामीण पूंजीपति वर्ग का ही हिस्सा भर है। जो फासीवाद से लड़ने की रस्म अदायगी करता है। अपनी सांठ-गांठ करते ही उससे भी दूर चला जाता है। 
इस सब के बीच गुजरात के साढे 6 करोड़ जनता के मूल सवाल पीछे छूट गये। सरकारी शिक्षा में गुजरात अन्य राज्यों से इतने पीछे क्यों है? वहां निजी कालेजों की बाढ़ क्यों बढ़ रही है? स्वास्थ्य का गिरता स्तर, युवाओं के कम होते रोजगार के सवाल, किसानों को उनका लागत मूल्य न मिलना व आत्महत्या करते किसान, मजदूरों के श्रम कानूनों को लागू न करने, पूंजीपतियों को गुजरात में लूट की खुली छूट देना, वहां पर अल्पसंख्यकों के इतने बुरे हालातक्यों हैं? मुस्लिमों की अलग बस्तियां बसाकर कौन सा शासक कायम किया जा रहा है? मुस्लिमों की समस्या पर कोई भी पार्टी बोली तक नहीं। नोटबंदी व जीएसटी से तबाह हुए छोटे व्यापार व उद्योग, बढ़ती महंगाई जैसे सवाल गायब हो गये। गुजरात भाजपा के 22 साल व नरेन्द्र मोदी के अच्छे दिनों के साढे 3 साल बाद जनता से झूठे वायदे और ड्रामेबाजी के अलावा कुछ बचा नहीं था। यह समय लूट और झूठ फैलाने में बिताया गया। इस नंगे नाच से ध्यान भटकाने के लिए समाज में नफरत के बीज बोये गये। मुसलमानों व दलितों के विरूद्ध बर्बर हिंसक अपराधों को बढ़ावा व शह दिया जा रहा है। इसको संगठित गिरोहों को मनमाने ढंग से करने की छूट दी जा रही है। 
भाजपा फासीवादी संघ की चुनावी पार्टी है। हार-जीत उसकी एक प्रक्रिया है। परंतु चुनाव में हार जाने से संघ का फासीवादी हार नहीं जाता। उसके बाद भी संघ परिवार के तमाम संगठन अपना काम जारी रखते हैं। वह समाज की नसों में जाति-धर्म-क्षेत्र का जहर घोलते रहते हैं। सत्ता प्रतिष्ठानों से लेकर समाज की तमाम संस्थाओं सेना-पुलिस, न्यायपालिका, नौकरशाहों, शिक्षा-संस्कृति, साहित्य जगत में संघ की पैठ बढ़ती रही है। यह संगठित और कैडर आधारित संगठन है। पिछले तीन दशक से जारी नवउदारवादी नीतियां व एक दशक से जारी आर्थिक संकट ने इसको और आगे बढ़ाया है। 
अलग-अलग तबकों में बढ़ते असंतोष व असुरक्षा बोध का संघी फासीवादियों ने काफी फायदा उठाया है। अपनी ‘कुशलता’ के दम पर वह आज शिखर पर है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब तक पूंजीवाद रहेगा तब तक फासीवाद भी रहेगा। यह पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के समय का सबसे मजबूत साथी है। 
फासीवाद को पीछे धकेलने के लिए व्यापक एकता की जरूरत है। इसको पूंजीपति वर्ग के हिस्से नहीं कर सकते। यह खुद उसकी व्यवस्था का विपरीत समय पर लागू होने वाली व्यवस्था है। इससे लड़ने के लिए जो इस पूंजीवादी व्यवस्था से पीड़ित हैं, उनको आगे आना होगा। वह भारत का मजदूर वर्ग है। जो इस व्यवस्था में सबसे ज्यादा तबाह व बदहाल है। क्रांतिकारी संगठन बनाकर, अपने आधार को समाज के हर तबके-वर्ग तक ले जाना होगा। उनकी आर्थिक-राजनैतिक मांगों पर संघर्ष करते हुए तभी मजदूर वर्ग के झंडे तले किसानों, छात्रों-युवाओं, समाज के हर शोषित-उत्पीड़ित तबकों को आना होगा। तभी इस फासीवादी काली छाया की जनक पूंजीवादी व्यवस्था को परास्त किया जा सकता है। यह काम अभी से जारी रखना होगा। 

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