विकास और रोजगार के बड़े-बड़े वादों के उलट भारतीय अर्थव्यवस्था संकट से घिरी हुई है। बेरोजगारी की समस्या विकराल से विकरालतर होती जा रही है। अर्थव्यवस्था की सुस्ती और बेरोजगारों के चेहरे पर मायूसी साफ देखी जा सकती है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में डेढ़ प्रतिशत की गिरावट, औद्योगिक उत्पादन, निर्यात में गिरावट अर्थव्यवस्था के खस्तेहाल को बयां कर देती है। अर्थव्यवस्था के खस्ते हाल को बयां करते तथ्यों से उलट प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री बेहद निर्लज्जता से ‘विकास हो रहा है’ की बातें कर रहे हैं। हां! यह बात सच है कि प्रधानमंत्री की भाषणबाजी में अब वो दम नहीं दिख रहा है। उनकी भी जुबान विकास शब्द कहते हुए लोच खा रही है। शायद इसीलिए ‘विकास’ को लेकर बेहद मजाक बन रहे हैं। मोदी का विकास के बारे में कुछ भी कहना मजाक का विषय बन चुका है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की वस्तुगत स्थिति को देखें तो 2015-16 में जीडीपी की विकास दर 8 फीसदी से
जीडीपी की वृद्धि दर 8 फीसदी हो या 6.5 फीसदी यह भारत के अंदर रोजगार की स्थिति बयां नहीं करती। भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर रोजगार विहीन विकास दर है। पूर्व में भी यह विकास दर कम्पनियों की खरीद-फरोख्त, शेयर बाजार में निवेश या बैंकों द्वारा देशी-विदेशी कम्पनियों को दिये गये कर्जों के कारण ऊंची बनी रही है। भारत में रोजगार की स्थिति के स्पष्ट आंकड़े देने से सरकार हमेशा बचती रही है। सरकार द्वारा शुरू की गयी कौशल विकास योजना के बड़े-बड़े गुणगान किये गये। जुलाई 2017 में सरकार द्वारा बताया गया कि अब तक 30,67,080 नौजवानों को इस योजना के तहत प्रशिक्षित किया गया और अब तक 2,90,000 नौजवानों को, मात्र 10 प्रतिशत नौजवानों को ही रोजगार का आॅफर मिला है। निश्चित ही यह आॅफर बेहद मामूली स्तर का ही रहा। कितने नौजवान इस सरकारी आॅफर का लाभ उठाकर अपना जीवन सही से चला रहे हैं, इस बात के कोई तथ्य सरकार द्वारा प्रस्तुत नहीं किये गये। यह योजना भी अन्य सरकारी योजनाओं के समान प्रचार खर्च अधिक और इसकी सार्थकता कुछ साबित नहीं हो रही है।
भाजपा सरकार ने प्रतिवर्ष 2 करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था। वादे के उलट 2013 से 2016 के बीच 53 लाख रोजगार कम हो गया। पिछले तीन वर्षों में मैन्युफैक्चरिंग में 15.8 लाख रोजगार कम हुए हैं। निर्माण उद्योग में 9.1 रोजगार कम हुए हैं।
नये रोजगार सृजन की स्थिति देखें तो वह भी बेहद निराशाजनक है। मोदी की घोषणाओं से काफी दूर है। अप्रैल 2016 से दिसम्बर 2016 के दौरान 2 लाख 31 हजार रोजगार पैदा हुए। (देखें तालिका)। तीन वर्षों में ग्रामीण क्षेत्र में कुल 18 लाख और शहरी क्षेत्र में कुल 35 लाख नौकरियों में कमी आयी है। कुल मिलाकर 53 लाख रोजगार पिछले तीन सालों में कम हुए हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1991 से 2013 के बीच लगभग 30 करोड़ रोजगार की आवश्यकता थी किन्तु मात्र 14 करोड़ रोजगार ही पैदा हुआ।
आंकडा़ें से बयां इस ठोस सच्चाई से हम समाज में फैली बेरोजगारी का अंदाजा लगा सकते हैं। सामान्य स्नातक से लेकर बी.टेक, बी.बी.ए. आदि किये हुए नौजवान दर-दर भटकने को मजबूर हैं। हाल के समय में आई.टी.सैक्टर में नौकरियों में भारी कटौती की खबरें सामने आयी हैं। एक अनुमान के आधार पर आई.टी.सैक्टर में 20-25 फीसदी नौकरियां कम होने की आशंका व्यक्त की जा रही है।
भारत में उत्पादन के क्षेत्रों की संकटग्रस्तता बढ़ी है। रोजगार व अर्थव्यवस्था के इस हाल के बावजूद प्रधानमंत्री द्वारा आॅटो की बिक्री में 12 फीसदी, व्यवसायिक वाहनों की बिक्री में 23 फीसदी, दो पहिया वाहनों की बिक्री में 14 फीसदी और इसी तरह हवाई जहाज यात्रा और टेलीफोन ग्राहकों की संख्या में वृद्धि की बात करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था की खुशनुमा तस्वीर पेश करने की कोशिश की गयी।
इस खुशनुमा तस्वीर के उलट सच्चाई यह है कि खनन-उत्खनन में 0.66 फीसदी की गिरावट आयी है। मैन्युफैक्चरिंग में 1.17 फीसदी, निर्माण में 2 फीसदी व कृषि व वनीकरण, मत्स्य में 2.34 फीसदी की मामूली वृद्धि हुई है। यह चार क्षेत्र मिलकर भारतीय अर्थव्यवस्था का 40 फीसदी हिस्सा बनते हैं। इन क्षेत्रों में विकास की सुस्ती भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर बयां करने के लिए पर्याप्त है।
औद्योगिक उत्पादन में भी पिछले वर्षों में गिरावट आयी है। 2016-17 की पहली तिमाही में 7.8 फीसदी से गिरकर यह चौथी तिमाही में 2.9 फीसदी रह गयी। हालांकि यह आंकड़े सरकार द्वारा आधार वर्ष बदलने के बाद के हैं। सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था की खुशनुमा तस्वीर पेश करने के लिए 2004-05 का आधार वर्ष बदलकर 2011-12 कर दिया गया था। यानी अर्थव्यवस्था के विकास की तुलना 2004-05 से नहीं 2011-12 से की जाने लगी। यदि आधार वर्ष 2004-05 माना जाए तो अर्थव्यवस्था में गिरावट काफी ज्यादा है। आधार वर्ष 2004-05 मानते हुए 2016 की पहली तिमाही में औद्योगिक उत्पादन 0.7 फीसदी व 2016 की चौथी तिमाही में 1.9 फीसदी रही है। औद्योगिक क्षेत्र में पूंजी निर्माण में भी 2016 में 2.3 फीसदी की कमी आयी है।
बैंकों द्वारा देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों को भारी मात्रा में कर्ज दिये गये। 2003 में वृद्धि के आंकड़ों और उसके बाद वृद्धि के आंकड़ों के पीछे यह कर्ज भी एक मुख्य वजह रही है। किन्तु बाजार में छायी मंदी ने जल्द ही इस प्रयास को नाकाम साबित कर दिया। एक अनुमान के अनुसार बिजली क्षेत्र में लगभग 30 हजार मेगावाट की परियोजनाएं अटकी हुई हैं। इन परियोजनाओं के लिए बैंकों से कर्ज लिया गया अब इनके अटक जाने से बैंकों का पैसा अटक गया। बैंकों का एन.पी.ए. बढ़ गया। अर्थशास्त्री बताते हैं कि बिजली, दूरसंचार, स्टील निर्माण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में पूंजी निवेश की सम्भावना नहीं है। यह क्षेत्र समस्याग्रस्त बने हुए हैं। इस सबके बावजूद सरकार द्वारा वर्ष 2017-18 के लिए 84,500 करोड़ की परियोजनाएं ली गयी हैं। सरकार का यह काम निश्चित ही भविष्य में बैंकों के सामने और विकराल समस्या को पैदा कर देगा।
यदि देश के निर्यात क्षेत्र की बात करें तो पिछले तीन वर्षों में इस क्षेत्र में भी गिरावट आयी है। 2015, 2016, 2017 में यह क्रमशः 310, 266, 276 अरब अमेरिकी डाॅलर तक गिर गया है। 1991 के बाद से ही सरकार अपनी अर्थव्यवस्था को निर्यातमूलक बनाती गयी है। मोदी सरकार का ‘मेक इन इंडिया’ भी निर्यातमूलक व विदेशी पूंजी निवेश का ही नारा है। पश्चिमी देशों और अमेरिका में छायी मंदी ने भारत के निर्यात को काफी धक्का लगा दिया है। निर्यात में आयी यह गिरावट देश के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के खस्ताहाल को भी बयां कर देती है। देश की अर्थव्यवस्था का 16.5 फीसदी हिस्सा मैन्युफैक्चरिंग का है। विदेशों में निर्यात का एक बड़ा हिस्सा मैन्युफैक्चरिंग से जुड़ा है। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में 15.8 लाख रोजगार कम हो जाने की वजह निर्यात सेक्टर का समस्याग्रस्त हो जाना है।
अर्थव्यवस्था की इस संकटग्रस्त स्थिति के बावजूद देश का पूंजीपति वर्ग अपनी सम्पत्ति बड़ा रहा है। फोब्र्स पत्रिका के 2017 में जारी की गयी रिपोर्ट के आधार पर भारत के 100 पूंजीपतियों की सम्पत्ति में 26 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसमे सबसे ऊपर हैं मुकेश अम्बानी जिनकी सम्पत्ति में 67 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ये अब एशिया के टाॅप फाइव पूंजीपतियों में शुमार हो चुके हैं। मोदी की अम्बानी पर विशेष कृपा आज किसी से छिपी नहीं है। वरना संकटग्रस्त दूरसंचार कम्पनियों के बावजूद अम्बानी का मुनाफा कैसे होता।
अर्थव्यवस्था का संकट या मंदी बड़े एकाधिकारी पूंजीपतियों के लिए सम्पत्ति बढ़ाने का भी मौका होता है। बर्बाद हो रही छोटी-मझोली पूंजी को खरीदकर कारपोरेट पूंजीपति और मोटा हो जाता है। इनका बाजार हथिया कर वह और मुनाफा कमाता है।
पूंजीपतियों की बढ़ती सम्पत्ति से उलट देश का मजदूर-मेहनतकश नौजवान का जीवन बर्बादी की कगार पर खड़ा है। संकट के दौर में मजदूरों को और लूटकर पूंजीपतियों की तिजोरियां भरी जा रही हैं। किसानों की बदहाली, आत्महत्याएं करते किसान किसी से छिपे नहीं हैं। पढ़-लिखकर नौजवान बेरोजगार घूमने को मजबूर हैं। मेहनतकशों को इन हालात में डालकर ही देश का पूंजीपति वर्ग मुनाफा कमा रहा है। इनके मुनाफे की हवस ही बार-बार समाज को मंदी में धकेलती है।
मौजूदा समय का ये संकट 2007-08 से शुरू संकट का ही निरंतर रूप है। किसी तिमाही में मामूली वृद्धि के बावजूद संकट मूलतः बना हुआ है। तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों (विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन) के दावों को इस संकट ने झूठा साबित कर दिया है। अब यह संस्थाएं ‘संकट में जीने की आदत डाल लो’ की बातें कहने लगी हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट भी इसी वैश्विक संकट का ही हिस्सा है। भारतीय पूंजीपति वर्ग संकट से निकलने के जितने प्रयास कर रहा है। उसका हर प्रयास उसे और गहरे संकट में धकेल रहा है। क्योंकि इस संकट के मूल में पूंजीवादी उत्पादन पद्धति है। पूंजीपति वर्ग ने ही इस संकट को जन्म दिया और उसके हितों को ही आगे बढ़ाकर संकट को हल करने के प्रयास किये जा रहे हैं।
निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों में ही संकट का हल खोजा जा रहा है। इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया जा रहा है। पूंजीपति वर्ग के संकट का फिलहाल कोई रास्ता पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों, राजनीतिक दलों को नहीं सूझ रहा है।
वैश्विक बाजार में छायी सुस्ती के कारण भारतीय निर्यात अर्थव्यवस्था को संकट से नहीं निकाल सकता। पूंजीपति वर्ग की मेहनतकश को लूटने-खसोटने की नीति ने उनकी क्रय शक्ति बेहद गिरायी हुई है। इसलिए घरेलू मांग के बढ़ जाने की भी कोई उम्मीद नहीं है।
कुल मिलाकर पूंजीवादी व्यवस्था के पास अपने द्वारा पैदा किये इस संकट का कोई हल नहीं हैं यह संकट पूंजीपति वर्ग के एक छोटे हिस्से को तो अपनी सम्पत्ति बढ़ाने का मौका देता है किन्तु मजदूर-मेहनतकशों, नौजवानों के लिए यह एक आफत की घड़ी है। पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंककर समाजवाद कायम कर ही ऐेसे संकट से मुक्ति पायी जा सकती है।
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