- महेन्द्र
आये दिन ये खबरें सुनने को मिलती हैं कि मोबाईल न मिलने के कारण या बाईक नहीं दिलाने पर युवक ने आत्महत्या की। अन्य तरह की घटनाएं भी सुनने को मिलती हैं कि परिजनों पर मोबाईल, बाईक या ऐसी ही अन्य तरह की सामग्रियों को दिलाने के लिए झगड़ा करना या घर छोड़ देना। ऐसी घटनाएं तो बहुत ही बढ़ गयी हैं जिसमें अच्छे-खासे, पढ़े-लिखे नौजवान अपनी ‘जरूरतों’ को पूरा करने के लिए चोरी करते हैं, एटीएम लूटते हैं या फिर किसी को धोखा देते हैं। वस्तुओं को जमा करना, जो भी नये उत्पाद या उत्पाद के माडल बाजार में आ रहे हैं उनको हासिल करने की लालसा इतनी प्रबल है कि ऐसा लगता है कि मानो वही अंतिम लक्ष्य हो। मोबाईल, नये-नये फैशन के कपड़े आदि ऐसे उत्पाद हैं जिनको लेकर युवाओं-छात्रों की दीवानगी हद पार कर रही है। छात्रों-युवाओं के बीच बातचीत का प्रमुख मुद्दा मोबाईल के नये गैजट्स, नये फैशन के कपड़े या नयी-नयी बाईकें आदि रहता है। उपभोक्ता सामग्रियों से घिरे छात्र-युवा व अन्य व्यक्ति एक तरह से उनकी कैद में हैं।
आये दिन ये खबरें सुनने को मिलती हैं कि मोबाईल न मिलने के कारण या बाईक नहीं दिलाने पर युवक ने आत्महत्या की। अन्य तरह की घटनाएं भी सुनने को मिलती हैं कि परिजनों पर मोबाईल, बाईक या ऐसी ही अन्य तरह की सामग्रियों को दिलाने के लिए झगड़ा करना या घर छोड़ देना। ऐसी घटनाएं तो बहुत ही बढ़ गयी हैं जिसमें अच्छे-खासे, पढ़े-लिखे नौजवान अपनी ‘जरूरतों’ को पूरा करने के लिए चोरी करते हैं, एटीएम लूटते हैं या फिर किसी को धोखा देते हैं। वस्तुओं को जमा करना, जो भी नये उत्पाद या उत्पाद के माडल बाजार में आ रहे हैं उनको हासिल करने की लालसा इतनी प्रबल है कि ऐसा लगता है कि मानो वही अंतिम लक्ष्य हो। मोबाईल, नये-नये फैशन के कपड़े आदि ऐसे उत्पाद हैं जिनको लेकर युवाओं-छात्रों की दीवानगी हद पार कर रही है। छात्रों-युवाओं के बीच बातचीत का प्रमुख मुद्दा मोबाईल के नये गैजट्स, नये फैशन के कपड़े या नयी-नयी बाईकें आदि रहता है। उपभोक्ता सामग्रियों से घिरे छात्र-युवा व अन्य व्यक्ति एक तरह से उनकी कैद में हैं।
आखिर ऐसी कौन सी वजह है जो इन वस्तुओं को हासिल करने की ऐसी लालसा पैदा करती है कि उनको न पाने पर जीवन जैसी अमूल्य चीज को त्यागने को मजबूर कर देती है। या यूं कहें कि ये वस्तुओं के प्रति ऐसा आकर्षण है कि जो जीवन से ज्यादा है। जीवन कम मूल्यवान और उपभोग की वस्तुएं ज्यादा मूल्यवान बन जा रही हैं?
मानव जीवन में चीजों का उत्पादन बुनियादि काम है। मनुष्य के जीवन की कल्पना उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन के बगैर संभव नहीं है। वस्तुओं के उपभोग के बिना भी मनुष्य का अस्तित्व संभव नहीं है। उपभोग के बिना न मनुष्य का जीवन संभव है और न जीवन का आनंद। इस तरह के बुनियादी उपभोग में मनुष्य का भोजन-जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते या कपड़े-जो शरीर को गर्मी-सर्दी-बरसात आदि से बचाव करते हैं, आदि शामिल हैं। इसी तरह जीवन को बिमारियों से बचाने के लिए आवश्यक दवाएं, घर आदि उपभोग की वस्तुएं शामिल हैं। इसी तरह मनोवैज्ञानिक व बौद्धिक जरूरतों को पूरा करने वाले साधन जैसे- कला, संगीत, नृत्य, साहित्य आदि भी उपभोग की वस्तुएं हैं। अगर संक्षेप में बात की जाये तो उपभोग की वस्तुएं वे वस्तुएं या साधन हैं जिसके बिना मनुष्य अपने जीवन में स्वाभाविक रूप से अवांछित तनाव महसूस करता है या स्वाभाविक जीवन नहीं जी पाता। वह भोजन के अभाव में भूख की पीड़ा हो या संगीत, कला, साहित्य जैसी चीजों के अभाव में जीवन की नीरसता का कष्ट हो।
इसके विपरीत ऐसी उपभोग की वस्तुएं जो वास्तव में मनुष्य की किसी मूल आवश्यकता या कला-ज्ञान-सौन्दर्य की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं लेकिन करिश्माई प्रचार या व्यावसायिक मुनाफे की दृष्टि से मनुष्य के लिए उपयोगी बना दी गयीं हैं; उपभोक्तावादी संस्कृति की देन है। असल में मनुष्य को उनकी जरूरत नहीं है लेकिन धुआंधार प्रचार के जरिये उनके लिए कृत्रिम जरूरत पैदा कर दी जाती है। पूंजीवादी समाज से पूर्व के समाजों मंे भी ऐसी गैर जरूरी वस्तुओं का प्रचलन था जो कि शान-शौकत के लिए या आडंबर के लिए प्रयोग की जाती थीं। ये वस्तुएं उपयोगी कम होती थी बल्कि कष्टदायक ज्यादा। लेकिन इसका प्रयोग शासक वर्ग या कुलीन वर्ग के लोगों द्वारा ही किया जाता था। आधुनिक पूंजीवादी समाज में उपभोक्तावादी संस्कृति के जरिये इन कृत्रिम जरूरतों के प्रभाव में न सिर्फ शासक वर्ग-मध्यम वर्ग बल्कि शोषित-उत्पीड़ित, आम जन व छात्र-नौजवान सभी हैं।
गोरा बनाने का दावा करने वाली क्रीम ऐसा ही उत्पाद है। विज्ञान की आधुनिक खोजों को भी त्वचा का रंग बदलने में सफलता नहीं मिली है। लेकिन क्रीम बनाने वाली कंपनी बार-बार प्रसारित होने वाले विज्ञापन के जरिये ऐसा वातावरण तैयार कर देती है कि अवैज्ञानिक बात पर भरोसा कर लोग इसे खरीद लेते हैं। बालों को काला करने या झड़ने से रोकने वाला तेल आदि ऐसे ही उत्पाद हैं। वैज्ञानिक तथ्य व खोजें इसका खंडन करते हैं। फैशन प्रदर्शनों के माध्यम से नये-नये उत्पादित कपड़ों का प्रचार किया जाता है। फैशन को जल्दी-जल्दी बदलने का काम सुनोयोजित तरीके से किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि नये-नये कपड़ों-फैशनों के जरिये उनकी जरूरत को पैदा किया जाय। अब साल-छः माह में बदलते फैशन के अनुसार आपको ये कपड़े खरीदने के लिए लालायित किया जाता है। जो व्यक्ति बदलते फैशन से तालमेल बिठाने में असफल रहता है उसे ‘आउट आफ डेट’, रूढ़ीवादी या कंजरवेटिव नाम से संबोधित किया जाता है।
छात्रों-युवाओं के मध्य कपड़ों, नये-नये फैशन व नये-नये ब्रांडो के मोबाईल, बाईक या ऐसी ही अन्य चीजों को खरीदने के लिए बाजार खास तौर पर योजना बनाता है। इन चीजों को बार-बार विज्ञापन में प्रभावी तरीके से दिखाये जाने से उसके दिल और दिमाग में इनकी जरूरत को उपभोक्तावादी संस्कृति के जरिये छात्रों-युवाओं के मध्य आरोपित किया जाता है। संचार माध्यम टी.वी.इंटरनेट इनके सफल हथियार हैं।
उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए होने वाले विज्ञापनों का खर्च कई बार वस्तुओं की लागत से भी ज्यादा होता है। कंपनियों द्वारा लोगों के मध्य नई कृत्रिम जरूरतों को पैदा करने के लिए ‘शोध’ किया जाता है। विज्ञापन कैसे और किन लोगों को अपना निशाना बनायेगा इस बात भी भारी मात्रा में खर्च किया जाता है। इस सबकी वसूली उपभोक्ताओं से ही महंगे दामों पर उन्हें बेचकर की जाती हैै। पहले जहां महिलाओं को गोरा बनाने वाली फेयर एंड लवली क्रीम आती थी अब पुरूषों के लिए फेयर एंड हैण्डसम क्रीम आ गयी है और विज्ञापन के जरिये हीनभावना पैदा कर इस उत्पाद को इस्तेमाल करने के लिए मानसिक दबाव पैदा किया जाता है। पहले जहां एक क्रीम साल भर के मौसम के लिए होती थी वहीं अब हर मौसम के लिए, धूप-छांव के लिए अलग-अलग क्रीमों का विज्ञापन किया जाता है। सौन्दर्य प्रसाधन को बेचने के लिए पूंजीवाद ने सौन्दर्यबोध की परिभाषा ही बदल दी है। आज सौन्दर्य का अर्थ गोरा होना, भोंड़े फैशनों का वशीभूत होना तथा मल्टीनेशनल कंपनियों द्वारा निर्मित परिधान या इलैक्ट्रोनिक सामानों, महंगे मोबाईलों आदि का उपयोग हो गया है। और जो ऐसा नहीं कर रहा या कर पा रहा वह ‘स्मार्ट’ नहीं है, सुन्दर नहीं है। वह पिछड़ा इंसान है।
उपभोक्तावादी संस्कृति पूंजीवादी संस्कृति का ही एक हिस्सा है। पूंजीवाद पूर्व के सभी समाजों में उपभोक्तावादी संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं थी। हालांकि शासक वर्ग और कुलीन लोग अनावश्यक व महंगी वस्तुओं का इस्तेमाल अपनी शान-शौकत व स्तर का दिखावा करने के लिए करते थे लेकिन आम जन ऐसा नहीं करते थे। इसका कारण यह था कि पूंजीवाद पूर्व के समाजों में उत्पादन का स्तर निम्न था। समाज की कुल ऊर्जा आवश्यक वस्तुओं को पैदा करने में ही खप जाती थी। इसके बाद भी पर्याप्त उत्पादन नहीं हो पाता था। पूंजीवाद पूर्व समाजों में उत्पादन का मुख्य उद्देश्य उपभोग करना था। बाजार में बेचने के लिए सीमित प्रकार की वस्तुएं ही होती थीं।
लेकिन पूंजीवादी समाज में उत्पादन का उद्देश्य वस्तुओं को बेचना है। पूंजीवादी समाज मालों (वस्तुओं) के उत्पादन और उनको बेचकर मुनाफा हासिल करके ही टिके रह सकता है। विभिन्न प्रकार के मालों का उत्पादन (वे चाहे गैर जरूरी ही क्यों न हो) और उनका विज्ञापन ही पूंजीवादी समाज की आत्मा है। समाज के प्रत्येक क्षेत्र के व्यवसायीकरण केे जरिये पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति विभिन्न उत्पादों को बेचती है। मालों की इसी बिक्री से पूंजीपति वर्ग का मुनाफा बढ़ता है। और मुनाफे के लिए वह कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। वह बच्चों की मासूम हंसी से लेकर महिलाओं के शरीर की नुमाइश को अपने मालों की बिक्री का जरिया बना देता है। रोज ही वह नये-नये उत्पादों का ‘आविष्कार’ करता है। एक उत्पाद से बोर होने पर वह ग्राहकों के सामने नये उत्पाद का विकल्प पेश करता है। यह सिलसिला जारी रहता है।
नये-नये उत्पादों की बिक्री के लिए पूंजीवाद विज्ञापन का सहारा लेता है, उनके लिए बाजार पैदा किया जाता है। इस प्रचार से प्रभावित लोग या उपभोक्तावादी संस्कृति के शिकार लोग इन उत्पादों को हासिल करने की होड़ में जुट जाते हैं। नौकरी पेशा लोग जहां अपनी मोटी कमाई से उपभोग की भूख मिटाने की कोशिश करते हैं। कर्ज लेकर मोटरगाड़ियों, फ्रीज, टी.वी. आदि से अपने घर को ‘सजाते’ हैं। वस्तुओं को खरीदने की इस कृत्रिम भूख में वह स्वयं इन वस्तुओं का गुलाम बन जाता है। क्योंकि उपभोग की इस भूख का सिलसिला कहीं खत्म नहीं होता। एक वस्तु हासिल कर लेने के बाद दूसरे को हासिल करने का जुनून तुरंत ही शुरू हो जाता है।
छात्रों-युवाओं के मध्य उपभोक्तावादी संस्कृति वस्तुओं को हासिल करने के लिए माता-पिता पर दबाव डालने पर मजबूर कर देती है। परिजनों को धमकाना, भावनात्मक तौर पर ब्लैकमेल करना भी एक और जरिया है। वस्तुओं को खरीदने की भूख इस प्रकार उन पर हावी होती है कि वे इनके अभाव में मनोविकार का शिकार हो जा रहे हैं। सामाजिक वातावरण भी उन पर इन चीजों को हासिल करने का दबाव डालता है। वस्तुओं को हासिल करने के लिए वे चोरी, धोखा देने में भी पीछे नहीं रहते। जिनके घर की आर्थिक स्थिति इसकी इजाजत देती है वे इन्हें हासिल करने में सफल रहते हैं। आर्थिक तौर पर कमजोर घरों के युवाओं की स्थिति दयनीय बनी रहती है। यही कारण है कि इन परिवारों के युवा उपभोग की इन वस्तुओं को हासिल करने में असफल रहने पर अपने जीवन का त्याग भी कर दे रहे हैं। यह उपभोक्तावादी संस्कृति की गम्भीरता और उसके खतरनाक प्रभावों को अच्छे से बयां कर देती है।
भारत में जहां अधिकांश आबादी गरीब है जो दो वक्त की रोटी को हासिल करने में ही अपना पूरा जीवन लगा देती है, वहां उपभोक्तावादी संस्कृति महंगी और गैर जरूरी वस्तुओं की भूख जगाती है। इन्हें हासिल करने के लिए वह कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहता है। क्योंकि पूंजीवादी समाज में खुद को अपडेटेड दिखाने व सम्मानीय स्थान हासिल करने के लिए यही मापदण्ड है कि उसके पास अमुक-अमुक वस्तुओं का होना जरूरी है।
पूंजीवाद के भीतर पनपे उच्च मध्यम वर्ग की भी यही धारणा है कि ‘सामाजिक प्रतिष्ठा’ का आधार इन्हीं उपभोग की वस्तुओं में ही है। इस वर्ग को इस बात से कोई गुरेज नहीं कि ये वस्तुएं कैसे हासिल की जाती हैं। पूंजीपति वर्ग के विचारों का प्रबल समर्थक यह वर्ग इस सामाजिक प्रतिष्ठा को हासिल करने अर्थात वस्तुओं को हासिल करने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लेता है।
पूंजीवाद में, उपभोक्तावादी संस्कृति के इस दौर में मानवीय मूल्यों का कोई स्थान नहीं है। इस दौर में सत्य, खुशियां, पारिवारिक रिश्ते, दोस्ती, सामाजिकता जैसी बातें गुम हो गयी हैं। बाजार और उपभोक्तावादी संस्कृति की जड़े जीवन, मीडिया, राजनीति, जीवनशैली आदि सभी चीजों में गहरे तक धंस चुकी हैं।
पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के अन्य प्रभाव भी हैं। इनमें पहला यह कि यह लोगों को लगातार व्यस्त रखती है। पहले वस्तुओं को निहारने, फिर उनको खरीदने की योजना बनाने, फिर साधन जुटाने और अंत में हासिल कर लेने में। सिलसिला यहीं खत्म होता तो अच्छा था। दरअसल, सिलसिला तो यहां से शुरू होता है। दूसरा, उपभोक्तावादी संस्कृति की हवस मजदूर-मेहनतकशों को अपनी सामाजिक हैसियत भुलाने का काम करती है। मजदूर और अन्य मेहनतकश वर्ग शासक पूंजीपति वर्ग से संघर्ष करने के बजाय उनका जैसा जीवन जीने की हसरत पालते हैं। पूंजीपति वर्ग की संस्कृति का प्रशंसक बनकर उनके मूल्यों को वह आत्मसात कर लेते हैं।
तीसरा, इसने दो मान्यताओं को जन्म दिया है जिसमें पहली यह है कि उपभोग की जो वस्तुएं आज कुछ सीमित लोगों के पास हैं वह धीरे-धीरे सभी को उपलब्ध हो सकती हैं। जैसे पहले कारें गिने-चुने लोगों के पास ही होती थी आज कार रखने वालों की संख्या कहीं ज्यादा है। दूसरा, यह कि समानता अपने-आप में कोई साध्य नहीं है।
उपरोक्त मत के अनुसार पूंजीवादी समाज सम्पन्नता दे सकता है अतः समानता की बात अप्रासांगिक हो गयी है। उनके मतानुसार कुछ लोग सीढ़ी के उच्चतम स्तर पर हैं और बाकि लोग नीचे। यह सीढ़ी एस्केलेटर की तरह है इसलिए सारे लोग ऊपर जा रहे हैं। नीचे वाले भी ऊपर। अगर इन दोनों के बीच की दूरी खत्म नहीं होती, उनके बीच के अनेकों स्तरों के भेद खत्म नहीं होते तो क्या फर्क पड़ता है? इस प्रकार उपभोक्तावादी संस्कृति समानता व सम्पन्नता के मध्य विसंगति पैदा करती है। यह धारणा किसके पास क्या उपभोग की वस्तुएं हैं इस आधार पर असंख्य वर्गों में बांट देती है। यह और कुछ नहीं सिर्फ मजदूर-मेहनतकश वर्गों व शासक पूंजीपति वर्ग के बीच संघर्ष को मिटाने का प्रयास है। इसके जरिये वह यह धारणा शासकों और शोषितों को एक ही स्थान पर खड़ा कर देता है। इस बात पर पर्दा डाल देती है कि मजदूर-मेहनतकश व गरीब छात्रों के दुःखों-समस्याओं का कारण पूंजीवादी व्यवस्था व पूंजीपति वर्ग है।
इस प्रकार उपभोक्तावादी संस्कृति पूंजीवादी व्यवस्था की उम्र को लम्बा करती है। उसके संकटों को टालने का काम करती है। यह पूंजीवादी समाज का मुख्य तत्व है। यह इस बात को स्थापित करती है कि समाज के भीतर प्रत्येक तत्व उपभोग करने योग्य है बस उसे ठीक तरीके से, जरूरी वस्तु के रूप में पेश करने की जरूरत है। बाजार में स्थापित होने के बाद उसे खरीदने और बेचने वाले तो आसानी से मिल जायेंगे। आज के नवउदारवादी पूंजीवाद के दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति न सिर्फ पूंजीवादी शोषण का परिणाम है बल्कि पूंजीवाद को जिन्दा रखने का कारगर हथियार भी है।
आज पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न और दमन के खिलाफ छात्र-नौजवानों को संगठित करने के साथ-साथ उपभोक्तावादी संस्कृति के खिलाफ भी मोर्चा खोलना होगा। परिवर्तनकामी शक्तियों को छात्रों-युवाओं व मेहनतकशों को संगठित करते हुए उपभोक्तावादी संस्कृति के वर्गीय पहलू को उजागर करने की जरूरत है। साथ ही छात्रों-युवाओं को इस पतित संस्कृति से सचेत रहने और अपने जीवन के हर क्षेत्र में इसके खिलाफ संघर्ष करने के कार्यभार को अपने एजेण्डे पर लेना होगा। पतित पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के विकल्प के बतौर मेहनतकशों-छात्रों-युवाओं की सामूहिक समाजवादी संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने की जरूरत है। पूंजीवाद की व्यक्तिवादी व उपभोक्तावादी संस्कृति व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बनाती है इसके विपरीत समाजवादी सामूहिक संस्कृति मेहनतकश वर्गों की सामूहिकता व श्रम के सम्मान को स्थापित करती है। समाजवादी संस्कृति ही मनुष्यों के आत्मिक सुख का आधार है और त्याग, समर्पण का वायस है। ठीक इसीलिए छात्रों-युवाओं का कार्यभार बन जाता है कि वे उपभोक्तावादी संस्कृति की गुलामी के जुए को उतार फेंके। इसके लिए इसकी जनक पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा अनिवार्य है।
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