गौरी लंकेश हत्याकाण्ड -दीपक
‘यदि वो आरएसएस के खिलाफ नहीं लिखती तो शायद आज वो जिंदा होती’। पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश की हत्या के कुछ दिनों बाद कर्नाटक बीजेपी सांसद जीवराज ने बीजेपी की एक रैली को सम्बोधित करते हुए उक्त बयान दिया था। गौरी लंकेश की 5 सितम्बर को उनके घर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। सीसीटीवी फुटेज से पता चला है कि 2 बाइक सवार हमलावरों ने गोली मारकर उनकी हत्या की है। गौरी की हत्या के बाद से पूरे देश में उनकी हत्या के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन आयोजित किये गए। देश-दुनिया की इंसाफपसंद ताकतों ने गौरी की हत्या पर अपना विरोध दर्ज कराया। इन सबके बावजूद कर्नाटक पुलिस अब तक हत्यारों को गिरफ्तार नहीं कर पाई है। अब तक चली जांच के आधार पर ‘सनातन संस्था’ से जुड़े पांच लोगों पर गौरी की हत्या के मामले में केस दर्ज किया गया है। परंतु लेख लिखे जाने तक हत्यारे पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं।
गौरी लंकेश कर्नाटक से निकलने वाली साप्ताहिक कन्नड़ पत्रिका ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ की संपादक थीं। इस पत्रिका के माध्यम से वो, देश में तेजी से पैर पसार रही दक्षिणपंथी राजनीति की कटु आलोचना करती थीं। यही नहीं देश में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने के लिए आरएसएस व मोदी सरकार को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने इनके खिलाफ कई लेख भी लिखे। अपने लेखों में गौरी आरएसएस को ‘चड्डीधारी’ और मोदी को ‘बूसी बासिया’ (जिसका मतलब है जब भी मुंह खोलेगा, झूठ ही बोलेगा) से सम्बोधित करती थीं। गौरी ने अपने अंतिम सम्पादकीय ‘फेक न्यूज के जमाने में’ आरएसएस की आलोचना करते हुए लिखा था- ‘इस हफ्ते के अंक में मेरे दोस्त वासु ने गोएबल्स की तरह इंडिया में झूठी खबरें बनाने की फैक्ट्री के बारे में लिखा है। झूठ की ऐसी फैक्ट्रियां ज्यादातर मोदी भक्त ही चलाते हैं। झूठ की फैक्ट्री से जो नुकसान हो रहा है, मैं उसके बारे में अपने सम्पादकीय में बताने का प्रयास करूंगी’। 2016 में बीजेपी के दो सांसदों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के चलते सांसदों द्वारा मानहानि के केस में उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। परंतु आधारहीन केस होने के कारण वो जल्द ही रिहा हो गयीं।
अपने लेखों में अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों के अधिकारों का मुखर समर्थन करते हुए वो इनके समर्थन में चलने वाले आन्दोलनों को भी सहयोग व समर्थन देती रहीं। देश में फैले जातिवाद, अन्धविश्वास पर भी अपने लेखों के द्वारा वो जोरदार हमले करती रहीं। यही नहीं कर्नाटक सरकार के साथ मिलकर वो नक्सलियों का सरेन्डर कराने व उनका पुनर्वास कराने की योजना का भी हिस्सा रहीं। अंततः 55 वर्षीय एक जुझारू पत्रकार, हिन्दू फासीवाद की मुखर आलोचक व एक सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश की हत्या कर दी गयी।
पिछले 4 सालों में ये चैथी हत्या है। जिसमें दक्षिणपंथी राजनीति का विरोध करने वाली शख्सियतों को गोली का निशाना बनाया गया है। दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी से शुरू हुआ ये हत्याओं का सिलसिला गौरी लंकेश तक आ चुका है।
हत्याओं की इस कड़ी में पहला नाम दाभोलकर का है। दाभोलकर की अगस्त 2013 में अज्ञात हमलावरों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। दाभोलकर एक मेडिकल डाॅक्टर थे। वो एक तर्कवादी व अन्धविश्वासों के घोर आलोचक थे। महाराष्ट्र में अन्धविश्वासों के खिलाफ उन्होंने ‘महाराष्ट्र अन्धविश्वास निर्मूलन समिति’ का गठन किया था, जिसने 10,000 से अधिक शिक्षकों को छात्रों को वैज्ञानिक शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षत किया था। दाभोलकर समाज में तर्कशील वैज्ञानिक नजरिए के प्रचार-प्रसार के लिए निकाली जाने वाली पत्रिका ‘साधना’ के सम्पादक भी थे। ये उनके संघर्ष का ही परिणाम था कि महाराष्ट्र सरकार को अन्धविश्वास व काला जादू के खिलाफ कानून पास करना पड़ा।
दूसरा नाम गोविन्द पानसरे का है। जिनकी फरवरी 2015 में महाराष्ट्र में 2 बाइक सवार हत्यारों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। पानसरे भाकपा के सदस्य थे व खेत मजदूर, घरेलू सहायता, आॅटो रिक्शा व अन्य तरह की असंगठित क्षेत्र की यूनियनों को संगठित करने के काम में लगे हुए थे। अपनी हत्या के समय भी वो कोल्हापुर में टोल के विरोध में चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। वो दक्षिणपंथी ताकतों के प्रबल विरोधी थे और इस सन्दर्भ में कई किताबें भी लिख चुके थे। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘शिवाजी कौन थे’ में उन्होंने दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा शिवाजी के सम्बन्ध में फैलाए गए झूठ का पर्दाफाश किया था। अपने इन कामों के कारण ही वो सदैव दक्षिणपंथी ताकतों के रडार पर रहे और आज वो हमारे बीच नहीं हैं।
प्रोफेसर एम.एम.कलबुर्गी इस फेहरिस्त का तीसरा नाम हैं। हम्पी यूनिवर्सिटी के भूतपूर्व कुलपति व लेखक कलबुर्गी की अगस्त 2015 में कर्नाटक में 2 अज्ञात बाइक सवार हत्यारों ने गोली मारकर हत्या कर दी। कलबुर्गी एक प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक और तर्कवादी थे। 2014 में मूर्तिपूजा व ब्राह्मणवादी मूल्य-मान्यताओं के खिलाफ अपना अभियान चलाते रहे। इस वजह से उन्हें दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ से कई धमकियां भी मिल रही थीं। जिसके चलते पुलिस द्वारा उन्हें प्रोटेक्शन भी उपलब्ध करायी गयी थी। कलबुर्गी की हत्या के विरोध में देश के दर्जनों साहित्यकारों ने ‘देश में बढ़ती असहिष्णुता’ के खिलाफ अपने अवार्ड भी वापस किए थे। परंतु अब तक इन मामलों में पुलिस हत्यारों को गिरफ्तार नहीं कर पायी है। हत्यारों का समूह खुलेआम अट्टाहस कर रहा है। दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और अब गौरी लंकेश की हत्या करने के बाद दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा सोशल मीडिया में एक लिस्ट प्रचारित की जा रही है। जिसमें अरुंधति, कन्हैया कुमार, उमर खालिद जैसे कई लोगों के नाम हैं। जिसके द्वारा ये संदेश दिया जा रहा है कि कत्ल होने वालों की लिस्ट में जल्द ही कई और नाम भी जुड़ने वाले हैं।
दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी व गौरी ये चारों व्यक्ति समाज में तेजी से पैर पसार रही हिन्दू फासीवादी राजनीति के कटु आलोचक थे। ये चारों ही आरएसएस की जनता को धर्म पर बांटने वाली राजनीति व मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों का पर्दाफाश करते रहे। लगातार मिल रही धमकियों के बावजूद ये समाज को आगे बढ़ाने के काम में मुस्तैदी से लगे रहे। उनका यही संघर्ष निरंतर दक्षिणपंथियों की आंखों की किरकिरी बना रहा, जिसके चलते उनकी आवाजों को हमेशा के लिए बंद कर दिया गया।
इन चारों हत्याओं में अब तक पाए गए सबूतों के आधार पर एक दक्षिणपंथी संगठन ‘सनातन संस्था’ का नाम आया है। इसी संस्था से जुड़े 4 लोगों के नाम पर 2009 में गोवा में हुए मडगांव ब्लास्ट मामले में कथित रूप से शामिल होने के चलते इंटरपोल द्वारा रेड कार्नर नोटिस भी जारी किया गया था। कई आतंकवादी घटनाओं, हत्याओं में नाम आने के बावजूद इस पर अब तक कोई कार्यवाही न किया जाना दिखाता है कि सरकार द्वारा इसे ‘अभयदान’ प्राप्त है। इस संस्था व आरएसएस के कार्यों व उद्देश्यों में कोई अंतर नहीं है। यूं तो आरएसएस इसे खुद से अलग बताती रही है परंतु इसके कई नेता इस आतंकवादी संगठन को अपना सहयोग व समर्थन देते रहे हैं।
यह संस्था घोषित तौर पर भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने की वकालत करती है व इस सम्बन्ध में प्रत्येक वर्ष इसके सहयोगी संगठन हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा गोवा में अधिवेशन करवाया जाता है। इन अधिवेशनों में लव जेहाद, गौहत्यारों को फांसी, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने आदि के सम्बन्ध में प्रस्ताव पास किए जाते हैं। आरएसएस के कई नेता भी इन अधिवेशनों में भागीदारी करते रहे हैं। यही नहीं जून 2013 में हुए अधिवेशन के दौरान इस आतंकवादी संगठन द्वारा तत्कालीन गुजरात मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी निमंत्रण भेजा गया था। मोदी उस समय शायद अपने चुनाव प्रचार में व्यस्त थे और वे इसमें आ न सके। परंतु उन्होंने अपनी अनुपस्थिति के लिए खेद प्रकट करते हुए आयोजकों को ऐसे अधिवेशन को आयोजित करने के लिए बधाई संदेश भेजा था। यूं ही नहीं है कि देश-विदेश में इन हत्याओं पर विरोध होने के बावजूद ‘प्रधान सेवक’ सनातन संस्था व हत्याओं पर ‘मौन समर्थन’ की चादर तानकर सोए हुए हैं।
मामला महज ‘सनातन संस्था’ का नहीं है बल्कि आरएसएस व मोदी सरकार द्वारा समाज में घोला गया जहर इन हत्याओं के पीछे है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से चुन-चुनकर प्रगतिशील ताकतों, संस्थानों पर हमला बोला जा रहा है। विरोध की हर आवाज को ‘देशद्रोही’ के तमगे से नवाजा जा रहा है। और जहां ये हथियार काम नहीं आ रहा, वहां लाठी-बंदूक और काले कानूनों से बात की जा रही है। बीजेपी द्वारा एक पूरी ट्रोल आर्मी खड़ी की गयी है जो दिन-रात सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक जहर घोलने व विरोधियों के साथ गाली-गलौच करने में लगी हुयी है। अधिकांश मीडिया चैनल या तो ‘मोदी राग’ गा रहे हैं या सरकारी डण्डे का इस्तेमाल कर उन्हें इस गीत की धुन सिखाई जा रही है। अभी भी फासीवादी, ब्राह्मणवादी राजनीति का विरोध करने वाले कई साहित्यकारों को निरंतर जान से मारने की धमकियां दक्षिणपंथियों द्वारा दी जा रही हैं। ब्राह्मणवाद के मुखर आलोचक कांचा इलैय्या धमकियां मिलने के बाद से खुद को अपने घर में बंद करने के लिए मजबूर हैं। अकेले कर्नाटक में ही ऐसे 25 साहित्यकारों को पुलिस प्रोटेक्शन प्रदान की जा रही है। कई लोग लिखना छोड़ चुके हैं तो बाकि अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। संदेश साफ है कि ‘जो कोई भी आरएसएस के खिलाफ लिखेगा, मारा जाएगा’। यही वो माहौल है जिसमें ‘सनातन संस्था’ जैसी ताकतें पैर पसारती हैं और इस माहौल को बनाने में आरएसएस ने दशकों मेहनत की है।
गौरी लंकेश की हत्या के बाद संघी गिरोह द्वारा जश्न मनाना भी इनकी हत्यारी सोच को दिखाता है। बीजेपी सांसद के बयान का जिक्र हम ऊपर कर आए हैं। इसी कड़ी में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सोशल मीडिया सलाहकार आशीष मिश्रा का बयान भी गौर करने लायक है। वो लिखते हैं, ‘बुरहान वानी के बाद गौरी लंकेश भी मारी गयी, कितने दुख की बात है।’ यही नहीं एक बीजेपी सदस्य निखिल दधीच गौरी की मौत पर ट्वीट करता है ‘एक कुतिया कुत्ते की मौत क्या मरी सारे पिल्ले एक सुर में बिलबिला रहे हैं।’ ये हैरत की बात नहीं है कि ऐसे गिरक हुए गलीच आदमी को प्रधानमंत्री मोदी ट्वीटर पर फाॅलो करते हैं। क्योंकि इन दधीचियों के गुरु मोदी खुद गुजरात दंगों पर ऐसा बयान दे चुके हैं। गौरी की मौत के बाद संघी गिरोह द्वारा खुलकर सोशल मीडिया पर उत्सव करना ये दिखाता है कि हत्यारों ने आरएसएस के ही काम को पूरा किया है।
इस हत्यारे समूह द्वारा अगली हत्याओं के लिए जारी की गयी लिस्ट में सबसे ऊपर मशहूर लेखिका अरुंधति राॅय का नाम है। यह लिस्ट और हत्याएं एक संदेश हैं। यह संदेश हर उस व्यक्ति के लिए है जो समाज को बेहतर बनाने के सपने देखता है। जो शोषण मुक्त, उत्पीड़न मुक्त भारत के निर्माण की लड़ाई में लगा हुआ हैै। जो थोड़ा भी सोच और बोल सकता है। यह संदेश चीख-चीख कर बोल रहा है। कि ये चुप रहने का समय नही है। बल्कि मेहनतकश जनता को संगठित कर इन फासीवादी ताकतों के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजाने का है।
‘यदि वो आरएसएस के खिलाफ नहीं लिखती तो शायद आज वो जिंदा होती’। पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश की हत्या के कुछ दिनों बाद कर्नाटक बीजेपी सांसद जीवराज ने बीजेपी की एक रैली को सम्बोधित करते हुए उक्त बयान दिया था। गौरी लंकेश की 5 सितम्बर को उनके घर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। सीसीटीवी फुटेज से पता चला है कि 2 बाइक सवार हमलावरों ने गोली मारकर उनकी हत्या की है। गौरी की हत्या के बाद से पूरे देश में उनकी हत्या के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन आयोजित किये गए। देश-दुनिया की इंसाफपसंद ताकतों ने गौरी की हत्या पर अपना विरोध दर्ज कराया। इन सबके बावजूद कर्नाटक पुलिस अब तक हत्यारों को गिरफ्तार नहीं कर पाई है। अब तक चली जांच के आधार पर ‘सनातन संस्था’ से जुड़े पांच लोगों पर गौरी की हत्या के मामले में केस दर्ज किया गया है। परंतु लेख लिखे जाने तक हत्यारे पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं।
गौरी लंकेश कर्नाटक से निकलने वाली साप्ताहिक कन्नड़ पत्रिका ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ की संपादक थीं। इस पत्रिका के माध्यम से वो, देश में तेजी से पैर पसार रही दक्षिणपंथी राजनीति की कटु आलोचना करती थीं। यही नहीं देश में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने के लिए आरएसएस व मोदी सरकार को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने इनके खिलाफ कई लेख भी लिखे। अपने लेखों में गौरी आरएसएस को ‘चड्डीधारी’ और मोदी को ‘बूसी बासिया’ (जिसका मतलब है जब भी मुंह खोलेगा, झूठ ही बोलेगा) से सम्बोधित करती थीं। गौरी ने अपने अंतिम सम्पादकीय ‘फेक न्यूज के जमाने में’ आरएसएस की आलोचना करते हुए लिखा था- ‘इस हफ्ते के अंक में मेरे दोस्त वासु ने गोएबल्स की तरह इंडिया में झूठी खबरें बनाने की फैक्ट्री के बारे में लिखा है। झूठ की ऐसी फैक्ट्रियां ज्यादातर मोदी भक्त ही चलाते हैं। झूठ की फैक्ट्री से जो नुकसान हो रहा है, मैं उसके बारे में अपने सम्पादकीय में बताने का प्रयास करूंगी’। 2016 में बीजेपी के दो सांसदों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के चलते सांसदों द्वारा मानहानि के केस में उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। परंतु आधारहीन केस होने के कारण वो जल्द ही रिहा हो गयीं।
अपने लेखों में अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों के अधिकारों का मुखर समर्थन करते हुए वो इनके समर्थन में चलने वाले आन्दोलनों को भी सहयोग व समर्थन देती रहीं। देश में फैले जातिवाद, अन्धविश्वास पर भी अपने लेखों के द्वारा वो जोरदार हमले करती रहीं। यही नहीं कर्नाटक सरकार के साथ मिलकर वो नक्सलियों का सरेन्डर कराने व उनका पुनर्वास कराने की योजना का भी हिस्सा रहीं। अंततः 55 वर्षीय एक जुझारू पत्रकार, हिन्दू फासीवाद की मुखर आलोचक व एक सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश की हत्या कर दी गयी।
पिछले 4 सालों में ये चैथी हत्या है। जिसमें दक्षिणपंथी राजनीति का विरोध करने वाली शख्सियतों को गोली का निशाना बनाया गया है। दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी से शुरू हुआ ये हत्याओं का सिलसिला गौरी लंकेश तक आ चुका है।
हत्याओं की इस कड़ी में पहला नाम दाभोलकर का है। दाभोलकर की अगस्त 2013 में अज्ञात हमलावरों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। दाभोलकर एक मेडिकल डाॅक्टर थे। वो एक तर्कवादी व अन्धविश्वासों के घोर आलोचक थे। महाराष्ट्र में अन्धविश्वासों के खिलाफ उन्होंने ‘महाराष्ट्र अन्धविश्वास निर्मूलन समिति’ का गठन किया था, जिसने 10,000 से अधिक शिक्षकों को छात्रों को वैज्ञानिक शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षत किया था। दाभोलकर समाज में तर्कशील वैज्ञानिक नजरिए के प्रचार-प्रसार के लिए निकाली जाने वाली पत्रिका ‘साधना’ के सम्पादक भी थे। ये उनके संघर्ष का ही परिणाम था कि महाराष्ट्र सरकार को अन्धविश्वास व काला जादू के खिलाफ कानून पास करना पड़ा।
दूसरा नाम गोविन्द पानसरे का है। जिनकी फरवरी 2015 में महाराष्ट्र में 2 बाइक सवार हत्यारों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। पानसरे भाकपा के सदस्य थे व खेत मजदूर, घरेलू सहायता, आॅटो रिक्शा व अन्य तरह की असंगठित क्षेत्र की यूनियनों को संगठित करने के काम में लगे हुए थे। अपनी हत्या के समय भी वो कोल्हापुर में टोल के विरोध में चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। वो दक्षिणपंथी ताकतों के प्रबल विरोधी थे और इस सन्दर्भ में कई किताबें भी लिख चुके थे। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘शिवाजी कौन थे’ में उन्होंने दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा शिवाजी के सम्बन्ध में फैलाए गए झूठ का पर्दाफाश किया था। अपने इन कामों के कारण ही वो सदैव दक्षिणपंथी ताकतों के रडार पर रहे और आज वो हमारे बीच नहीं हैं।
प्रोफेसर एम.एम.कलबुर्गी इस फेहरिस्त का तीसरा नाम हैं। हम्पी यूनिवर्सिटी के भूतपूर्व कुलपति व लेखक कलबुर्गी की अगस्त 2015 में कर्नाटक में 2 अज्ञात बाइक सवार हत्यारों ने गोली मारकर हत्या कर दी। कलबुर्गी एक प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक और तर्कवादी थे। 2014 में मूर्तिपूजा व ब्राह्मणवादी मूल्य-मान्यताओं के खिलाफ अपना अभियान चलाते रहे। इस वजह से उन्हें दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ से कई धमकियां भी मिल रही थीं। जिसके चलते पुलिस द्वारा उन्हें प्रोटेक्शन भी उपलब्ध करायी गयी थी। कलबुर्गी की हत्या के विरोध में देश के दर्जनों साहित्यकारों ने ‘देश में बढ़ती असहिष्णुता’ के खिलाफ अपने अवार्ड भी वापस किए थे। परंतु अब तक इन मामलों में पुलिस हत्यारों को गिरफ्तार नहीं कर पायी है। हत्यारों का समूह खुलेआम अट्टाहस कर रहा है। दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और अब गौरी लंकेश की हत्या करने के बाद दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा सोशल मीडिया में एक लिस्ट प्रचारित की जा रही है। जिसमें अरुंधति, कन्हैया कुमार, उमर खालिद जैसे कई लोगों के नाम हैं। जिसके द्वारा ये संदेश दिया जा रहा है कि कत्ल होने वालों की लिस्ट में जल्द ही कई और नाम भी जुड़ने वाले हैं।
दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी व गौरी ये चारों व्यक्ति समाज में तेजी से पैर पसार रही हिन्दू फासीवादी राजनीति के कटु आलोचक थे। ये चारों ही आरएसएस की जनता को धर्म पर बांटने वाली राजनीति व मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों का पर्दाफाश करते रहे। लगातार मिल रही धमकियों के बावजूद ये समाज को आगे बढ़ाने के काम में मुस्तैदी से लगे रहे। उनका यही संघर्ष निरंतर दक्षिणपंथियों की आंखों की किरकिरी बना रहा, जिसके चलते उनकी आवाजों को हमेशा के लिए बंद कर दिया गया।
इन चारों हत्याओं में अब तक पाए गए सबूतों के आधार पर एक दक्षिणपंथी संगठन ‘सनातन संस्था’ का नाम आया है। इसी संस्था से जुड़े 4 लोगों के नाम पर 2009 में गोवा में हुए मडगांव ब्लास्ट मामले में कथित रूप से शामिल होने के चलते इंटरपोल द्वारा रेड कार्नर नोटिस भी जारी किया गया था। कई आतंकवादी घटनाओं, हत्याओं में नाम आने के बावजूद इस पर अब तक कोई कार्यवाही न किया जाना दिखाता है कि सरकार द्वारा इसे ‘अभयदान’ प्राप्त है। इस संस्था व आरएसएस के कार्यों व उद्देश्यों में कोई अंतर नहीं है। यूं तो आरएसएस इसे खुद से अलग बताती रही है परंतु इसके कई नेता इस आतंकवादी संगठन को अपना सहयोग व समर्थन देते रहे हैं।
यह संस्था घोषित तौर पर भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने की वकालत करती है व इस सम्बन्ध में प्रत्येक वर्ष इसके सहयोगी संगठन हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा गोवा में अधिवेशन करवाया जाता है। इन अधिवेशनों में लव जेहाद, गौहत्यारों को फांसी, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने आदि के सम्बन्ध में प्रस्ताव पास किए जाते हैं। आरएसएस के कई नेता भी इन अधिवेशनों में भागीदारी करते रहे हैं। यही नहीं जून 2013 में हुए अधिवेशन के दौरान इस आतंकवादी संगठन द्वारा तत्कालीन गुजरात मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी निमंत्रण भेजा गया था। मोदी उस समय शायद अपने चुनाव प्रचार में व्यस्त थे और वे इसमें आ न सके। परंतु उन्होंने अपनी अनुपस्थिति के लिए खेद प्रकट करते हुए आयोजकों को ऐसे अधिवेशन को आयोजित करने के लिए बधाई संदेश भेजा था। यूं ही नहीं है कि देश-विदेश में इन हत्याओं पर विरोध होने के बावजूद ‘प्रधान सेवक’ सनातन संस्था व हत्याओं पर ‘मौन समर्थन’ की चादर तानकर सोए हुए हैं।
मामला महज ‘सनातन संस्था’ का नहीं है बल्कि आरएसएस व मोदी सरकार द्वारा समाज में घोला गया जहर इन हत्याओं के पीछे है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से चुन-चुनकर प्रगतिशील ताकतों, संस्थानों पर हमला बोला जा रहा है। विरोध की हर आवाज को ‘देशद्रोही’ के तमगे से नवाजा जा रहा है। और जहां ये हथियार काम नहीं आ रहा, वहां लाठी-बंदूक और काले कानूनों से बात की जा रही है। बीजेपी द्वारा एक पूरी ट्रोल आर्मी खड़ी की गयी है जो दिन-रात सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक जहर घोलने व विरोधियों के साथ गाली-गलौच करने में लगी हुयी है। अधिकांश मीडिया चैनल या तो ‘मोदी राग’ गा रहे हैं या सरकारी डण्डे का इस्तेमाल कर उन्हें इस गीत की धुन सिखाई जा रही है। अभी भी फासीवादी, ब्राह्मणवादी राजनीति का विरोध करने वाले कई साहित्यकारों को निरंतर जान से मारने की धमकियां दक्षिणपंथियों द्वारा दी जा रही हैं। ब्राह्मणवाद के मुखर आलोचक कांचा इलैय्या धमकियां मिलने के बाद से खुद को अपने घर में बंद करने के लिए मजबूर हैं। अकेले कर्नाटक में ही ऐसे 25 साहित्यकारों को पुलिस प्रोटेक्शन प्रदान की जा रही है। कई लोग लिखना छोड़ चुके हैं तो बाकि अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। संदेश साफ है कि ‘जो कोई भी आरएसएस के खिलाफ लिखेगा, मारा जाएगा’। यही वो माहौल है जिसमें ‘सनातन संस्था’ जैसी ताकतें पैर पसारती हैं और इस माहौल को बनाने में आरएसएस ने दशकों मेहनत की है।
गौरी लंकेश की हत्या के बाद संघी गिरोह द्वारा जश्न मनाना भी इनकी हत्यारी सोच को दिखाता है। बीजेपी सांसद के बयान का जिक्र हम ऊपर कर आए हैं। इसी कड़ी में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सोशल मीडिया सलाहकार आशीष मिश्रा का बयान भी गौर करने लायक है। वो लिखते हैं, ‘बुरहान वानी के बाद गौरी लंकेश भी मारी गयी, कितने दुख की बात है।’ यही नहीं एक बीजेपी सदस्य निखिल दधीच गौरी की मौत पर ट्वीट करता है ‘एक कुतिया कुत्ते की मौत क्या मरी सारे पिल्ले एक सुर में बिलबिला रहे हैं।’ ये हैरत की बात नहीं है कि ऐसे गिरक हुए गलीच आदमी को प्रधानमंत्री मोदी ट्वीटर पर फाॅलो करते हैं। क्योंकि इन दधीचियों के गुरु मोदी खुद गुजरात दंगों पर ऐसा बयान दे चुके हैं। गौरी की मौत के बाद संघी गिरोह द्वारा खुलकर सोशल मीडिया पर उत्सव करना ये दिखाता है कि हत्यारों ने आरएसएस के ही काम को पूरा किया है।
इस हत्यारे समूह द्वारा अगली हत्याओं के लिए जारी की गयी लिस्ट में सबसे ऊपर मशहूर लेखिका अरुंधति राॅय का नाम है। यह लिस्ट और हत्याएं एक संदेश हैं। यह संदेश हर उस व्यक्ति के लिए है जो समाज को बेहतर बनाने के सपने देखता है। जो शोषण मुक्त, उत्पीड़न मुक्त भारत के निर्माण की लड़ाई में लगा हुआ हैै। जो थोड़ा भी सोच और बोल सकता है। यह संदेश चीख-चीख कर बोल रहा है। कि ये चुप रहने का समय नही है। बल्कि मेहनतकश जनता को संगठित कर इन फासीवादी ताकतों के खिलाफ युद्ध का बिगुल बजाने का है।
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