- अजय
दिसंबर, 2017 को कारवां आॅन लाइन पत्रिका ने बंबई की सीबीआई के विशेष जज न्यायमूर्ति हरिकृष्ण लोया की 3 साल पहले हुयी मौत पर उनकी बहन के हवाले से एक रिपोर्ट छापी, जिसमें उनकी मौत पर कुछ गंभीर सवाल उठाते हुए संदेह व्यक्त किया गया था। एक जज की संदिग्ध मौत खबरिया चैनलों और सच को जिंदा रखने और हर खबर की खबर का दावा करने वाले अखबारों के लिए एक सनसनीखेज और मुद्दा हो सकती थी जिसे लेकर कई दिनों और कई पन्नों की स्टोरी बन सकती थी। लेकिन हैरंतगेज रूप से इन सभी मीडिया चैनलों व खबरियां चैनलों ने इस मुद्दे पर एक खामोशी ओढ़ ली। कारवां के संपादक, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो0 अपूर्वानंद, जामिया विश्वविद्यालय की प्रो0 मनीषा सेठी आदि कुछ बुद्धिजीवियों ने दिल्ली के प्रेस क्लब में इस पर प्रेस क्रान्फ्रेंस की तो तमाम मीडिया चैनल व राष्ट्रीय अखबारों के पत्रकार इकट्ठा हुए। लेकिन एनडीटीवी को छोड़कर लगभग सभी मीडिया चैनलों ने इस खबर को दबा दिया और अखबारों ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। कुल मिलाकर एनडीटीवी के रवीश कुमार के शब्दों में इसे बर्फ की सिल्लियों के नीचे दबा दिया गया।
इस सवाल को खामोशी में दफ्न करने की कोशिशें तब नाकाम हो गयीं जब देश के सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीश- जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर, जस्टिस कुरियन जोसेफ ने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उन्होंने कहा कि जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय को चलाया जा रहा है उससे लोकतंत्र के लिए खतरा है। पत्रकारों को मुखातिब होते हुए सर्वोच्च न्यायालय के इन चार शीर्ष व वरिष्ठ जजों ने कहां कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा संवेदनशील मामले कुछ पसंदीदा जजों को दिये जाते हैं। जाहिर है कि ये केस सीनियर वरिष्ठ जजों को बायपास करके जूनियर जजों को सौंप दिये जाते हैं। एक विशिष्ट प्रश्न के जवाब में जस्टिस लोया के मामले में भी ऐसा होने की स्वीकारोक्ति इन वरिष्ठ जजों में से एक रंजन गोगोई ने की। इन वरिष्ठ जजों का कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे इन अनुचित तौर-तरीकों के संबंध में उन्होंने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को एक पत्र लिखा था लेकिन उन्होंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
प्रेस कान्फ्रेंस कर इस मामले को सार्वजनिक करने के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के इन चार जजों का कहना था कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे नहीं चाहते कि 20 वर्ष बाद उन पर यह आरोप लगे कि उन्होंने अपनी आत्मा को बेच दिया था।
खैर इसके बाद जस्टिस लोया की हत्या की चर्चा आम हो गयी। विपक्षी पार्टी के नेता राहुल गांधी ने प्रेस कान्फ्रेंस कर जस्टिस लोया की हत्या की निष्पक्ष जांच की मांग कर डाली। भाजपा ने राहुल पर राजनीति करने का आरोप लगाया।
मुख्य न्यायाधीश को घिरता देख राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जो कि अपने को सांस्कृतिक संगठन कहता है तुरंत आगे आया और उसने घोषित किया कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ‘‘राष्ट्रवादी’’ हैं। इस सवाल का जवाब संघ को देना चाहिए कि संवैधानिक पद पर बैठे मुख्य न्यायाधीश को यह तमगा देने की जरूरत क्यों पड़ी?
खामोश पड़ा मीडिया अब लोकतंत्र के सजग प्रहरी के रूप में सामने आया। व्यवस्था का पहरूवा बनकर कुछ चेहरे सामने आये। उन्होंने लोकतंत्र के लिए इसे गंभीर संकट बताया। एक जज की खामोश और संदिग्ध मौत नहीं बल्कि चार जजों का मुख्य न्यायाधीश व सर्वोच्च न्यायालय के बारे में टिप्पणी करना उनकी चिंता का विषय था। वे सर्वोच्च न्यायालय और न्याय व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा उठ जाने की आशंका से भयभीत नजर आये। लेकिन दरअसल वे एक खतरनाक सच पर पड़े पर्दे के उजागर होने से भयभीत थे। वे भयभीत थे न्यायालय समेत पूंजीवादी सत्ता के विभिन्न अंगों का भंडाभोड़ होने से। लोकतंत्र के मंदिर ‘संसद’ की प्रतिष्ठा तो जनता की नजरों में पहले ही गिर चुकी है। ऐसे में अब न्याय के सर्वोच्च ‘मंदिर’ में न्याय को ‘मैनेज’ करने का आरोप खुद उसी के भीतरी लोग लगा रहे हों तो व्यवस्था के पहरूओं का चिंचित होना लाजिमी है। क्योंकि उनके लिए न्याय नहीं ‘न्याय का भ्रम’ ज्यादा महत्वपूर्ण था। भाजपा को सिर्फ एक ही फिकर थी अपने सबसे बड़े सरदारों का खौफनाक चेहरा एक बार फिर बेनकाब होने की। उनके लिए अपने कौटिल्य की कुटिलता और अपने मातृ संगठन संघी मंडली के खौफनाक चेहरे के बेपर्दा होने, अपने फासीवादी आत्मा के बेनकाब होने का भय सर्वोपरि था। इसलिए तथाकथित ‘लोकतंत्र के चैकीदार’ से लेकर भाजपा के नेताओं व संघ परिवार सभी को सांप सूंघ गया। सबकी जुबानें सिल गयीं। वे भीतर से बहुत सक्रिय हो गये लेकिन बाहर से इसे सर्वोच्च न्यायालय का आंतरिक मामला कहकर पल्ला झांडते रहे या फिर इस मुद्दे पर राजनीति करने का बहाना कर कांग्रेसियों को कोसते नजर आये।
कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय के चार शीर्ष जजों के सार्वजनिक रूप से प्रेस कान्फ्रेंस करने के बाद एक तूफान आ गया। इस तूफान या बवंडर ने भारतीय लोकतंत्र की सड़ाध को एक बार फिर उजागर कर दिया है।
एक बार फिर हम जस्टिस लोया की मौत के उन पहलुओं की तरफ लौटते हैं जो इस मामले को संदिग्ध बनाते हैं या उससे अधिक भारतीय लोकतंत्र को संदिग्ध बनाते हैं। जस्टिस लोया सीबीआई के विशेष जज थे। जो सोहराबुद्दीन शेख फर्जी एनकाउंटर केस की जांच कर रहे थे। इस केस में गुजरात पुलिस के कई आला अधिकारियों के साथ भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष व गुजरात के तत्कालीन गृह राज्य मंत्री अमित शाह मुख्य आरोपी थे। इस फर्जी हत्याकांड में सोहराबुद्दीन शेख, उसकी पत्नी कौसर बी की फर्जी एनकाउंटर में हत्या हुयी थी। साथ ही इस फर्जी एनकाउंटर के एक अहम गवाह तुलसी प्रजापति की भी हत्या हो गयी थी। इस मामले मंे गुजरात में न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होने के अंदेशे के चलते सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इसे गुजरात से बाहर महाराष्ट्र स्थांतरित कर दिया गया था। तथा शुरू से अंत तक एक ही जज के अंतर्गत जांच व सुनवाई करने की बात सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में थी।
इस मामले में पहले दिन से न्यायिक निर्देशों का उल्लंघन हुआ। मुख्य आरोपी अमित शाह अदालत में कभी उपस्थित नहीं हुए। उन्हें उपस्थित रहने का निर्देश देने के साथ विशेष न्यायाधीश का स्थांतरण हो गया। उनकी जगह बृज हरिकृष्ण लोया इस मामले मंे नियुक्त हुए। जस्टिस लोया ने अमित शाह को महाराष्ट्र में होने के बावजूद कोर्ट में उपस्थित न होने पर फटकार लगायी। इसके कुछ समय बाद 30 नवंबर को बंबई से नागपुर अपने एक परिचित के यहां विवाह समारोह में शामिल होने गये थे। जहां उनकी कथित तौर पर दिल का दौरा पड़ने से मौत हो जाती है। इसके कुछ समय बाद नये नियुक्त जज द्वारा अमित शाह सहित सभी आरोपियों को इस केस से बरी कर दिया जाता है।
मामले में नया मोड़ तीन साल बाद तब आता है जब कारवां के पत्रकार निरंजन टाकले ने जज लोया के पिता व बहन के उनकी हत्या की आशंका के बयान सहित दो लेख प्रकाशित किये। इन लेखों से कई ऐसे बिन्दु उभरे जो हत्या की आशंका की तरफ ईशारा करते थे। संक्षेप में वे इस प्रकार थे-
1. जस्टिस लोया के पिता ने दावा किया कि जज लोया अपनी मौत से पहले काफी परेशान थे और उन्होंने अपने ऊपर भारी दबाव की बात की थी। उन्होंने यह भी बताया था कि बंबई हाईकोर्ट के एक शीर्ष जज द्वारा उन्हें मामले को अमित शाह के पक्ष में निपटाने के लिए 100 करोड़ की रिश्वत की पेशकश की गयी थी।
2. जज लोया की बहन जो स्वयं डाक्टर हैं, ने दावा किया कि जज लोया को हृदय संबंधी कोई बीमारी नहीं थी। वे छोटी-मोटी बीमारी मंे भी अपनी बहन से सलाह लेते थे।
3. जस्टिस लोया बंबई से नागपुर जाने को इच्छुक नहीं थे। अपने ही सहकर्मी दो जजों के दबाव में वे नागपुर गये थे। जज लोया की मृत्यु के बाद न तो उनका पंचनामा हुआ और न ही उनकी लाश के पोस्टमार्टम के लिए उनके परिजनों की सहमति ली गयी। मृत्यु के बाद उनका शव बंबई मंे उनके परिवार को सौंपने के बजाय उनके पिता के घर उनके गांव भेज दिया गया। जिसमंे ड्राइवर के अलावा कोई नहीं था।
4.मृत्यु के 3 दिन बाद उनका मोबाईल आरएसएस के एक कार्यकर्ता द्वारा उनके परिवार को सौंपा गया।
5. जस्टिस लोया का शव ईश्वर तावड़े नाम के एक शख्स द्वारा रिसीव किया गया। जिसने अपने को उनका भतीजा बताया जबकि लोया के पिता व बहन के अनुसार इस नाम का या उनका कोई भतीजा नागपुर में है ही नहीं। यह ईश्वर तावड़े नाम का जज लोया का तथाकथित भतीजा आज तक सामने नहीं आया।
6. जस्टिस लोया की बहन के अनुसार उनके शर्ट पर खून क धब्बे थे तथा बैल्ट का बकल भी गलत लगा था। जस्टिस लोया की बहन के इस बयान से उनकी हत्या की आशंका मजबूत होती है।
7. जस्टिस लोया के साथ गए दो जज उनकी मृत्यु के डेढ़ माह बाद उनके परिवार से मिले जबकि सामान्य शिष्टाचार के तहत उनको उनके परिवार के साथ घटना के बाद कम से कम सहानुभूति प्रकट करने के लिए तो होना ही था।
इसके अलावा कई अन्य तथ्य थे जो जज लोया की मौत को संदिग्ध बनाते थे। इस प्रकरण में जस्टिस लोया के पुत्र ने एक समय बंबई हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को एक पत्र लिखकर अपने पिता की हत्या को संदिग्ध मानते हुए विशेष जांच की मांग की थी। हालांकि बाद में वह अपनी पिता की मृत्यु को स्वाभाविक मृत्यु बताकर अपने बयान से पलट गये।
जज लोया की मृत्यु जिन भी परिस्थितियों में हुयी हो उसकी जांच की बात तो एक बेहद सामान्य चीज थी। बंबई हाईकोर्ट के एक वकील द्वारा इस मामले की विशेष जांच की मांग को लेकर एक जनहित याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गयी। लेकिन मामले में फिर एक नया मोड़ तब आता है जब इस याचिका को खारिज करने की मांग को लेकर एक काउंटर याचिका दाखिल होती है। और मुख्य न्यायाधीश उक्त याचिका की सुनवायी प्राथमिकता क्रम में एक निचली बेंच को उसकी सुनवाई का आदेश देते हैं। और इस तरह शीर्ष अदालत व मुख्य न्यायाधीश भी शक के दायरे में आ जाते हंै। जिसको लेकर शीर्ष न्यायालय के 4 शीर्ष जजों का अंतर्विरोध मुखरित होकर सामने आता है। इस तरह कुल मिलाकर पूरी न्याय व्यवस्था ही कठघरे में खड़ी हो जाती है।
न्यायपालिका और वह भी सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों को लेकर भ्रष्टाचार के आरोप नये नहीं हैं। समय-समय पर उच्च न्यायालयों में भ्रष्टाचार के आरोप सतह पर आते रहे हैं। 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस रामास्वामी पर भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते ‘महाभियोग’ की नौबत आ गयी थी। 2010 में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस काटजू ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में ‘कुछ सड़ने’ की बात कही थी और जब उनके इस बयान को वरिष्ठ वकील पी.पी.राव ने इस आग्रह के साथ सुप्रीम कार्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की कि इससे पूरे उत्तर प्रदेश की न्यायिक व्यवस्था के लिए साख का खतरा पैदा होगा तो सुप्रीम कोर्ट ने उनकी इस याचिका को इस टिप्पणी के साथ खारिज कर दिया कि वहां कुछ अच्छे जज भी हैं लेकिन ‘अंकल जज’ (भाई भतीजावाद)की प्रवृति वहां हावी है।
इसी तरह 2016 में दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह मालेगांव व अक्षरधाम मामलों में दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए टिप्पणी की थी कि बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों के मामले में भिन्न मानदंड लागू किये जा रहे हैं। उन्होंने मालेगांव मामले मंे आरोपियों के हिन्दू समुदाय से होने की बात सामने आने पर सरकारी वकील को मामले पर मुलायम रुख अपनाने की नसीहत का हवाला दिया। उन्होंने जांच एजेंसियों की अल्पसंख्यकों पर फर्जी मकदमे लगाने की प्रवृति भी चर्चा की थी।
2013-14 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज जस्टिस कर्णन ने अपने सहयोगी जजों व सुप्रीम कोर्ट के जजों को भ्रष्टाचार में लिप्त रहने का आरोप लगाया था। उन्होंने 20 जजों पर विशिष्ट तौर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे। हांलाकि बाद मंे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के आरोप में उन्हें 6 माह की सजा हुई।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जस्टिस बालाकृष्णन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। उनके ऊपर अपने रिश्तेदारों को संपत्ति बनाने में मद्द करने तथा मुकदमों को ‘फिक्स’ करने के आरोप सेवानिवृत्ति के बाद लगे थे। यह आरोप उन पर केरला हाईकोर्ट में उनके सहयोगी जस्टिस पी.के शम्सुद्दीन ने लगाये थे। इसके बाद प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया के अध्यक्ष व सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने उन पर भ्रष्ट जजों की पदोन्नति करने के आरोप लगाये थे।
दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस एस.एन. ढींगरा ने भी एक पत्रिका को दिये अपने इंटरव्यू में न्यायिक प्रक्रिया में खामियों की तरफ ईशारा किया था तथा 1984 के दंगों के संदर्भ में चर्चा करते हुए पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज करने के तरीकों पर ही सवाल उठाते हुए कहा था कि प्राथमिकी जिस तरह से दर्ज होती है उसमें जजों के हाथ में बहुत कुछ नहीं रह जाता है। उन्होंने न्यायिक व्यवस्था को भी पूर्णतः पाक-साफ देखने की प्रवृत्ति को भी यह कहकर खारिज किया था कि जज भी इसी समाज से आते हैं और समाज की बुराईयों से वे अलग नहीं हो सकते।
खुद वर्तमान मुख्य न्यायाधीश पर अपने करियर के विभिन्न दौर में अनुचित लाभ लेने के आरोप लगे हैं।
न्याय पालिका के सर्वोच्च शिखरों को जिस तरह पवित्र गाय बताने की कोशिशें हो रही हैं, जिस तरह इस पर किसी सवाल को आज ‘लोकतंत्र’ के लिए खतरा बताया जा रहा है वैसा पहले कभी नहीं हुआ। जबकि न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार की खबरें लगातार सामने आती रही हैं।
इस सबसे यह जाहिर होता है कि दरअसल संघ मंडली व मोदी सरकार इस कदर बौखलाई हुयी है कि वह किसी भी सूरत में नहीं चाहती कि इस मामले की पुनः गंभीर जांच हो। खतरा ‘लोकतंत्र’ को नहीं संघ मंडली को है।
कुल मिलाकर जस्टिस लोया की संदिग्ध मौत देश की न्यायपालिका सहित शासन के विभिन्न अंगांे मंे फासीवादी तत्वों की घुसपैठ को दर्शाती है। यह संघी फासीवाद के खौफनाक चेहरे को भी उद्घाटित करती है। निश्चित तौर पर खतरा न्यायपालिका के लिए नहीं समूचे ‘भारतीय लोकतंत्र’ के लिए है जिसके फासीवाद की तरफ बढ़ने की यह एक और आहट है।
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