शुक्रवार, 2 मार्च 2018

‘‘मी टू’’ बनाम वास्तविक नारी मुक्ति

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के अवसर पर


                                                                                                                                   - आलोक

उस लड़की का आज कालेज में पहला दिन था। इंटर कालेज के जकड़न भरे महौल से निकल कर डिग्री कालेज के उन्मुक्त वातावरण को लेकर उसका उत्साह देखने ही बन रहा था। घर से निकल उसे 20 किमी दूर शहर के कालेज में पहुंचना था। पर कालेज के भीतर अपनी कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ चुका था। पहले बस में उसे भीड़ का फायदा उठा उसे छूने का प्रयास करने वालों से खुद को बचाना पड़ा और फिर कालेज में घुसते ही उसे एक के बाद एक अश्लील फत्तियों से जूझना पड़ा। कालेज में पहला दिन उसका पढ़ाई में कम इस चिंता से अधिक बीता कि घर लौटते हुए इन फत्तियों, छेड़खानी से कैसे निपटेगी?

स्कूल-कालेज जाने वाली हर लड़की को एक ना एक दिन इस छेड़खानी, फत्तियों से निपटना सीखना पड़ता है। बात केवल स्कूल-कालेज तक की नहीं है नौकरी करने जाती लड़कियों से लेकर सब्जी का ठेला लगाती महिलाओं तक को सबको भारत में छेड़खानी-छींटाकशी का सामना करना पड़ता है। और तो और अपने घर में करीबी रिश्तेदारों तक की वहशी निगाहों का भी उसे सामना करना पड़ता है। अक्सर ही लड़कियां इन हरकतों को सिर झुका कर खामोशी से सहने का सहारा लेती है। कभी-कभी वहशी दरिदों की हरकत इतनी बढ़ जाती है कि वे छेड़खानी से बढकर जोर-जबर्दस्ती पर उतर आते हैं।

इस माहौल में जी रही हर लड़की-महिला अपने जीवन में यह जरूर सोचती है कि आखिर ऐसा लड़कियों के साथ ही क्यों होता है? क्यों उन्हें लड़के-पुरुष हमेशा भूखी निगाहों से घूरते रहते हैं। वे हमारे इर्द-गिर्द तमाम प्रचलित बातों में से कुछ चुन लेती हैं और इसको अपनी नियति मान खामोश हो जाती हैं। वे प्रचलित बातें क्या हैं? ये हैं- ‘लड़कियां लड़कों की तुलना में कमजोर व भावुक होती हैं’, ‘लड़कियांे का काम घर-परिवार- बच्चे संभालना है’, ‘पुरुषों का काम है कमाना’, ‘लड़कियों की इज्जत उसके अपने हाथ में है’, ‘अगर वे तंग कपडे पहन, मेकअप कर घर से निकलेंगी तो लड़कों की निगाहें उन पर पड़ेंगी ही’ कि ‘ज्यादातर पुरुषों का काम है कि अकेली लड़की देख उससे फायदा उठाने की कोशिश करना’, ‘लड़कियां लड़कों से निपट नहीं सकतीं इसलिए खामोश रहने में ही उनकी भलाई है’, आदि, आदि।

कुल संवेदनशील लड़के भी लड़कियों के साथ हो रहे इस बुरे बर्ताव से आहत-दुखी होते हैं पर वे कुछ ही होते हैं। अधिकतर तो बस मौके की तलाश में रहते हैं। ऐसा नहीं कि देश में छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून नहीं हैं। कानून तो हैं पर लड़कियों-महिलाओं की खामोशी के चलते ज्यादातर मामले थाने तक पहुंचते ही नहीं।

 जो लड़कियां हिम्मत कर थाने के दरवाजे पर न्याय के लिए पहुंचती भी हैं तो न्याय पाने की लम्बी प्रक्रिया उनका नये सिरे से उत्पीड़न को तैयार होती हैं। इस प्रक्रिया को पूरा कर दोषी को सजा दिलाने में कुछ ही महिलायें सफल होती हैं। यह सब देख मनचलों को पता होता है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला।

अक्सर ही गरीब परिवारों की बेटियां इस असुरक्षा का अधिक सामना करती हैं। गरीबी न तो उन्हें कानून के दरवाजे पर न्याय के लिए पहुंचाने का मौका देती है और न ही वे कानून की लम्बी उत्पीड़क प्रक्रिया झेलने की स्थिति में होते हैं। इसके उलट अमीर घरों की लड़कियां कुछ तो पैसे से सुरक्षा खरीद सकती हैं व पैसों के दम पर ही अपने खिलाफ हो रहे अपराध से निपटने में अधिक सक्षम होती हैं। पर पूरे समाज में फैली गंदगी के कुछ छींटें उसके दामन पर भी पड़ते रहते हैं और उन्हें भी कभी-कभी यौन उत्पीड़न का शिकार बनना पड़ता है।
पिछले दिनों ट्विटर पर ‘‘मी टू’’ अभियान काफी चर्चा में रहा। हालीवुड की कुछ अभिनेत्रियों द्वारा सालों बाद अपने यौन उत्पीड़न की पोस्ट डालकर इस कैम्पेन की प्रसिद्धि बढ़ी। देखते ही देखते ढेरों नामी-गिरामी सम्पन्न घरों की महिलायें अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की यहां चर्चा करने लगीं। इन खबरों को सेलीब्रेट्रीज के निजी जीवन में झांकने को उतारू पूंजीवादी मीडिया ने हाथों-हाथ लिया और चटखारे के साथ इसे प्रसारित किया जाने लगा। कुछेक आम घरों की लड़कियों ने भी इस पर अपने उत्पीड़न की बातें साझा कीं पर मीडिया ने उन्हें अधिक भाव नहीं दिया।

फेसबुक-ट्विटर के जरिये दुनिया को सुधारने का ख्वाब रखने वाले लोगों को इस ‘‘मी टू’’ अभियान ने काफी आकर्षित किया। उन्हें लगा कि यौन उत्पीड़न के गुनेहगार अगर सार्वजनिक तौर पर उजागर होने लगे तो सामाजिक बदनामी का भय आगे ऐसी घटनाओं को रोकने में मद्दगार हो जायेगा पर ऐसा न तो होना था ना हुआ। ‘‘मी टू’’ पर घटनाओं का साझा होना बढ़ता गया पर समाज में यौन उत्पीड़न की घटनाओं में कोई कमी नहीं आयी। उल्टा कुछ पुरुषों ने पाप मोचन पत्र की तरह यौन उत्पीड़न करने की स्वीकारोक्ति का नया अभियान ट्विटर पर चालू कर दिया जहां यौन उत्पीड़न के दोषी पुरुष अपने द्वारा अतीत में की गयी यौन उत्पीड़न की घटनायें शेयर कर पश्चाताप करने लगे।

इंटरनेट की आभासी दुनिया में चल रहे इन दोनों अभियानों से समाज में यौन उत्पीड़न, यौन हिंसा पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा, इतना जरूर हो गया कि दुनिया के सामने कुछ ‘आदर्शों’ धनी-मानी नेताओं-हीरो-पूंजीपतियों-खिलाडियों की असलियत जरूर सामने आने लगी। ये असलियत बेहद वीभत्स थी। पाया गया कि सत्ताशीन राष्ट्रपति से लेकर तमाम चर्चित चेहरे यौन उत्पीड़न की घटनाओं में लिप्त थे। पाया गया कि शासकों का व्यक्तिगत जीवन-आचरण कोई आदर्श नहीं बल्कि भारी सड़ांध मार रहा है।

इस तरह इंटरनेट की दुनिया कुछ सेलिब्रेट्रीज के लिए यह बताने का मंच बन गई कि कैसे उन्हें कामयाबी पाने के लिए यौन उत्पीड़न झेलना पड़ा। आखिर इस पश्च स्वीकारोक्ति से वास्तविक दुनिया पर, अपराधी पर क्या फर्क पड़ सकता था? वह इतना ही पड़ सकता था कि कुछ सफल पुरुष यौन उत्पीड़न करने की स्वीकारोक्ति का समानान्तर अभियान चालू कर दें और वह शुरू भी हो गया। इन पुरुषों को न तो सजा होगी न ही इनसे समाज नफरत करेगा बल्कि वे खुद की ‘इज्जत’ पश्चातापी पुरुष के रूप में बचा लेंगे। यह अभियान हाउ आई बिल चेंज  नाम से चल रहा है।

‘‘मी टू’’ अभियान की शुरुआत वैसे तो सामाजिक कार्यकर्ता और सामुदायिक आर्गनाइजर तराना ब्रूक द्वारा 2006 में माई स्पेस सोशल नेटवर्क पर की थी तब इसका उद्देश्य अश्वेत महिलाओं के साथ होने वाले यौन दुर्व्यवहारों को उजागर करना था। पर इस अभियान को प्रसिद्धि पिछले वर्ष तब मिली जब अभिनेत्री अल्येसा मिलानो ने 15 अक्टूबर 2017 को सभी महिलाओं को अपने साथ यौन दुर्व्यवहार की कहानी साझा करने का आह्वान किया। मिलानी इस आह्वान से दुनिया के सामने इस समस्या की मात्रात्मक गंभीरता लाना चाहती थीं। मिलानी के आह्वान के बाद लाखों की तादाद में महिलाओं ने इस पर अपने अनुभव साझा किये। अभियान की लोकप्रियता बढ़ती गयी। और पसिद्ध टाइम मैग्जीन को ‘‘मी टू’’ अभियान को टाइम पर्सन आफ इयर के पुरस्कार से नवाजना पड़ा।

इस अभियान का शुरुआती उद्देश्य जो भी रहा हो पर आज यह एक तरह से पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन का एजेण्डा बन गया है। बू्रक के अनुसर इस अभियान के जरिये महिलाओं को अपने साथ छेड़छाड़ करने वाले व्यक्ति को उजागार करने मे मद्द मिलेगी। वे साझे से उन्हें ‘ना’ कह सकेंगी। इसके साथ ही ब्रूक इसके जरिये महिलाओं-बच्चों के यौन उत्पीड़न के लिए कानूनों में सुधार की बात करती हैं। स्कूली बच्चों की यौन हिंसा से सुरक्षा के लिए वे स्कूलों में काम करने वालों की पहचान, अंगुलियों के निशान आदि लेने की बात करती हैं। साथ ही वो ‘‘मी टू’’ कांग्रेस बिल पास करने की मांग करती हैं जिसके तहत अमेरिकी फेडरल कर्मचारी को कांग्रेस सदस्यों के द्वारा किये यौन दुर्व्यवहार की शिकायत करने को अधिक आसान बनाने का प्रावधान है।

‘‘मी टू’’ अभियान 85 से अधिक देशों में विभिन्न नामों से प्रचारित हो चुका है। अब इसी की तर्ज पर ‘‘मी टूक 12’’ (स्कूलों में यौन दुर्व्यवहार के खिलाफ) ‘चर्च टू’’ (चर्च के भीतर यौन हिंसा दुर्व्यवहार के खिलाफ) ‘‘ मी टू मीलेटरी’’ (सेना के भीतर यौन दुर्व्यवहार के खिलाफ) आदि अभियान छेड़े जा चुके हैं।

भारत में भी ‘‘मी टू’’ अभियान के तहत कई सेलिब्रेट्रीज के साथ-साथ कुछ छेड़-छाड़ के आरोपी प्रोफेसरों की हरकतों को ट्विटर पर उजागर किया गया। इस अभियान की कई जगहों से आलोचना भी आ रही है। इसमें सर्वप्रमुख है कि बगैर सबूत जाने माने लोगों पर इसके जरिये कीचड़ उछाला जा रहा है। हो सकता है कुछेक महिलाओं ने ऐसा किया भी हो। पर यह आम बात नहीं है।

दरअसल यह अभियान जिस चीज को उजागर करना चाहता है वह यह है कि महिलाएं बड़े पैमाने पर यौन हिंसा का शिकार हैं। अभियान के आयोजकों का मानना है कि समस्या की मात्रा देख सरकारें इसको रोकने के लिए विवश होंगी। कानूनों में सुधार करेंगी। समस्या से पीड़ित महिलाएं समस्या व्यक्त करने का साहस कर पायेंगी व इस सबसे समस्या हर हो जायेगी। इस तरह यह अभियान समस्या को महज कानून व्यवस्था की समस्या मान लेता है।

वास्तविकता यह है कि भारत सरीखे पिछड़े देशों में ही नहीं अमेरिका, फ्रांस में भी कामकाजी महिलायें बड़ी मात्रा मे़ यौन उत्पीड़न झेलती हैं। इन सभी देशों में कानून इस उत्पीड़न की रोकथाम को पर्याप्त मात्रा में बने हुए हैं। फिर ऐसा क्यों है कि समस्या की विकरालता बढ़ती जा रही है? इसकी वहज मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में छिपी है।

पूंजीवादी व्यवस्था के शीर्ष पर काबिज पूंजीपति (इसमें पुरुष, महिला दोनों शामिल हैं) अपना माल बाजार में बेचने के लिए महिला शरीर को उपभोग वस्तु के रूप में स्थापित करते रहे हैं। हर चीज के विज्ञापन में महिला शरीर का इस्तेमाल किया जाता है। इससे समाज में नारी शरीर को उपभोग के सामान के बतौर स्थापित कर दिया जाता है। इसे स्थापित करने वाले कौन हैं? ये वो लोग हैं जो पूंजीपति वर्ग के हिस्से हैं, इसके समर्थन में या इस काम में मलाई बांटने वाले फिल्मी हीरो-हीरोईन, पूंजीवादी पार्टियों के नेता आदि हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था में शासक वर्ग की महिलाओं व मजदूर-मेहनतकश महिलाओं-छात्राओं के हित अलग-अलग हैं। सोनिया गांधी, एश्वर्या राय, प्रियंका चैपड़ा अपने वर्ग के पुरुषों के साथ मिलकर अपने राजनैतिक लक्ष्यों-फिल्मों -विज्ञापनों से समाज में वो माहौल तैयार करती हैं जिनका शिकार हर कालेज जाती आम लड़की, नौकरी पेशा मजदूर-मेहनतकश महिला बनती हैं। इस गंदे माहौल के कुछ छींटे जब पलटकर इन अभिनेत्रियों पर भी पड़ते हैं तो ‘‘मी टू’’ सरीखे अभियान इस झूठ को समाज में फैलाने लगते हैं कि सभी महिलाओं के हित एक हैं। सभी पीड़ित हैं।

वास्तविकता यह है कि सामंती संस्कृति जहां महिला विरोधी थी वहीं पूंजीवादी साम्राज्यवादी संस्कृति भी महिला विरोधी है। पूंजीवाद महिला शरीर का ही इस्तेमाल नहीं करता बल्कि वह फैक्टरियों कारखानों में महिलाओं-लड़कियों के सस्ते श्रम का भी दोहन करता है। वह महिलाओं की भारी आबादी को भारी बदहाली-कंगाली का जीवन जीने को मजबूर करता है।

इसीलिए पूंजीवादी नारीवादी आंदोलन समस्त महिलाओं की एकता की बात करता है। वहीं वास्तविक नारी मुक्ति को संबोधित पूंजीवाद विरोधी या समाजवादी नारीवादी आंदोलन मेहनतकश महिलाओं की मजदूर-मेहनतकश पुरुषों से एकता की बात सामने लाता है।

वास्तविक नारी मुक्ति मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में सम्भव नहीं है। महिलाओं की मुक्ति के लिए जरूरी है कि समस्त महिलायें घर की कैद से बाहर निकल सामाजिक उत्पादन में प्रवेश करें। पर पूंजीवाद भारी बेरोजगारी के आज के दौर में समूचे महिला समुदाय को रोजगार नहीं दे सकता। महिलाओं की मुक्ति पूंजीवाद का नाश करने वाली इस समाजवादी क्रांति से होगी जिसका नेतृत्व मजदूर वर्ग करेगा।

आज से 100 वर्ष पूर्व रूस में जब इसी तरह की क्रांति के जरिये समाजवाद की स्थापना की गयी तो सोवियत समाजवाद ने महिलाओं को सालों के दमन उत्पीड़न, अधिकारहीनता से एक झटके में मुक्त कर दिया। महिलाओं के साथ यौन हिंसा सरीखी घटनायें बेहद कम हो गयीं। स्त्री पुरुष जीवन के हर क्षेत्र में समान हो गये।
8 मार्च दुनिया भर की मजदूर मेहनतकश महिलाओं का त्यौहार है। अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस के रूप में मशहूर इस दिन की शुरुआत लगभग 110 वर्ष पूर्व दूसरे इंटरनेशनल (मजदूरों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन) की क्लारा जेटकिन सरीखी नेताओं के नेतृत्व में हुई थी। इस त्यौहार के जरिये मजदूर मेहनतकश महिलायें, छात्रायें अपनी मुक्ति के लिए पूंजीवाद के नाश का संकल्प लेती हैं।

वास्तविक महिला मुक्ति की यह धारा इस तथ्य को सामने लाती हैं कि महिलाओं के शोषण, गुलामी का कारण कानूनों का अभाव नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था है। पूंजीवादी व्यवस्था का समूल नाश कर व मजदूरों-मेहनतकशों का राज समाजवाद ही समस्त महिलाओं को सम्मानजनक गरीमामय व पूर्ण बराबरी का जीवन दे सकता है।

इस सबका तात्पर्य यह नहीं है कि समानता को संबोधित कानूनों, मौजूदा व्यवस्था में महिला सुरक्षा के प्रावधानों की मांग नहीं की जानी चाहिए। निश्चित ही वह की जानी चाहिए। यौन उत्पीड़न के हर दोषी चाहे वह घर में हो या कालेजों में या नौकरी की जगह पर; के खिलाफ लड़ते हुए महिलाओं को कुछ सहुलियत दिलाने वाले प्रावधानों के लिए लड़ा जाना चाहिए पर इन प्रावधानों के जरिये इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि इनके बनने मात्र से महिलायें आजाद हो जायेंगी। इन प्रावधानों को पाने के लिए लड़ते हुए छात्राओं-मेहनतकश महिलाओं को एक व्यवस्था विरोधी लड़ाई के लिए तैयार करना पडे़गा। पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा कर ही वास्तविक नारी मुक्ति की ओर बढ़ा जा सकता है। 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस इसी संकल्प को लेने का दिन है।

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