- कविता
मेरे पैदा होने के एक साल बाद ही यानी मेरे पहले जन्मदिन पर मेरे पैरों में पायल और हाथों में चूड़ी पहना दी गयीं। उस दिन मेरे घर में सभी लोग बहुत खुश थे कि आज मेरा पहला जन्मदिन था। मैं आज एक साल की हो गयी हूं। जरा सोचो, अभी मेरी उम्र एक साल है। इस दुनिया, इस समाज की किसी भी रीति-रिवाज से मेरा कुछ भी वास्ता नहीं हैै। मुझे अभी किसी भी चीज का कोई अनुभव नहीं है। मेरी सारी जिम्मेदारी मेरे माता-पिता उठाते हैं। अभी मुझे चलना भी अच्छी तरह नहीं आता है। अभी मैं इन सभी चीजों से अनजान हूं लेकिन मेरे हाथों में और पैरों में चूड़ी और पायल के नाम पर अभी से उपहार में बंदिशें मिलने लगीं। यह कैसी सामाजिक व्यवस्था है कि एक बेटी के पैदा होते ही उसे बंदिशों का आदी बनाने का प्रयास शुरू हो जाता है। मेरे लिए चांदी की पायल और चूड़ी तो लायी गयीं पर कोई भी मेरे लिए मेरी उम्र के हिसाब से खेल करने के खिलौने नहीं लाया। क्या किसी को इतना भी ख्याल नहीं आया कि इस मासूम बच्चे को किस चीज की जरूरत है?
मजेदार बात यह है कि वे सभी लोग जो वे सारी चीजें उपहार में दे रहे थे उन्हें भी नहीं मालूम है कि वे इन उपहारों के साथ असल में मुझे उन अदृश्य बेड़ियों में जकड़ते जा रहे हैं जो कि मेरे स्त्री होने के कारण मुझे जीवन पर्यन्त न चाहते हुए भी अपनी जकड़ में जकड़े रहेंगे। और इस जकड़न को बिना किसी विरोध के मुझे स्वीकार करना होगा। अभी मेरी उम्र सिर्फ एक साल है अभी से मुझे उन बंदिशों का आदी बनाया जा रहा है ताकि मैं बड़ी होकर इन सब चीजों को अपने जीवन की अहम जरूरत समझ कर इन्हें स्वीकार करती जाऊं। इनका किसी भी प्रकार विरोध न करूं बल्कि इन ‘उपहारों’ को ताजिंदगी मैं खुद स्वीकार करूं और अपने आनी वाली अगली बेटी के लिए एक नियम के रूप में सुरक्षित भी बनाऊं।
मैं अपनी मां, दादी, नानी आदि सभी की परंपराओं को कुछ हेरफेर के साथ, थोड़ा बहुत बदलाव के साथ अपने जीवन में स्वीकार करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से बाध्य की जा रही हूं। हाथों और पैरों में कंगन-पायल के साथ अब ज्यों-ज्यों मेरी उम्र बढ़ती जायेगी उसी अनुसार मेरी बंदिशों की एक लम्बी लाइन मेरे साथ चलती रहेगी।
चार-पांच साल की उम्र में पहुंचते-पहंुचते मेरे नाक, कान छेद दिये जाते हैं और कानों में सोने की बाली और नाक में लौंग पहना दी जाती है। और उसके बाद उठने-बैठने, खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने जैसी तमाम चीजों पर पाबंदी लगायी जानी है। किसी ने भी मेरी इच्छा जानना तो दूर रहा (वह अधिकार मुझे कभी मिला ही नहीं मुझे हमेशा दूसरों की इच्छाओं पर जीना सिखाया गया) मेरे वजूद को ही नहीं स्वीकारा गया। मेरे पैदा होने से लेकर मेरे मरने तक बंदिशों का पहाड़ मेरे आगे खड़ा कर दिया ताकि मैं जीवन में इसके इतर कुछ सोच ही न सकूं और इसको नियति मानकर स्वीकार कर लूं। सामाजिक बंदिशों की इस लीग में ही जिंदगीभर चलती रहूं बस!
क्या स्त्री के साथ यह अन्याय प्राकृतिक है? नहीं यह तो सामाजिक अन्याय है। यह उस समाज की देन है जहां पुरुष स्त्री से हर मायने में श्रेष्ठ होता है। वह परमेश्वर का रूप है, भले ही व्यवहार में वह शैतान ही क्यों न हो। पुरुष की श्रेष्ठता दैवीय है। देव रूपी पुरुष, स्त्री रूपी देवी पर हमेशा ही शासक के रूप में रहा है। पुरुष शासक और स्त्री शासित।
स्त्री को इस समाज ने देवी तो बना दिया लेकिन इस देवत्व से स्त्री के जीवन में कुछ भी नहीं बदला। सिवाय उस गुलामी को और अधिक जटिल बनाने के जिसे ‘देव’ और ‘दानवों’ सभी ने स्वीकार किया। उन्होेंने मेरी पूजा की, मेरे पैर भी धोये, मेरी आरती उतारी, मुझे देवी बनाया। कई बार तो मुझ जैसी अबोध बच्चियों को देवालयों की शोभा के रूप में ‘देवदासी’ तक बना दिया गया। लेकिन मुझे वह सब नहीं दिया जो मेरा हक था। जो मुझे मिलना चाहिये था। जो मेरे जीवन के लिए जरूरी था। मुझे समाज का एक अंग बनाने के लिए जरूरी था और जो मेरे स्वतंत्र बजूद को स्वीकारने के लिए आवश्यक था।
मैं स्त्री के रूप में पैदा हो गयी तो इसमें मेरा क्या दोष? मैंने उस मासूम अवस्था में ही क्या अपराध किया जो कि मुझे अबोधपन से ही बंदिशों में बांधना शुरू कर दिया। यह मुझे उस गुलामी का आदी बनाने के अलावा और क्या था जिसमें मुझे जीवन भर बंध कर उन सामाजिक ‘उसूलों’ का पालन करना था।
ऐसा नहीं कि मुझे अपने जीवन में प्यार नहीं मिला। मेरे माता-पिता, दादा-दादी आदि सभी मेरे अपने लोगों से मुझे भरपूर प्यार मिला। मेरा विश्वास है कि मुझे समाज में बाकियों के मुकाबले अधिक स्वतंत्रता भी मिली, अधिक प्यार भी मिला। मगर फिर भी उन सामाजिक उसूलों का जाल तो हर समय मेरे सिर पर सवार रहता ही था। जो इस समाज ने एक स्त्री पर थोप रखे हैं। मेरे पंखों को उन उड़ानों के लिए तैयार होने के तो सारे रास्ते यहीं बंद कर दिये। जो मुझे अनंत आकाश की ऊंचाईयों में ले जाते। मुझे मेरे वजूद का एहसास कराते। तब मेरा जीवन संभवतः अधिक सार्थक होता।
इस दुनिया में हर स्तर पर गैर बराबरी है। कदम-कदम पर अधिकारों और कर्तव्यों की दुहाई देकर बंदिशें लगायी जाती हैं। यहां पर स्त्री और पुरुष के अधिकार और कर्तव्य अलग हैं। जो एक का अधिकार है वह दूसरे का नहीं। इस देश में जाति-धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम से बंटवारा तो है ही, स्त्री-पुरुष के नाम पर यह बंटवारा जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा सभी में मौजूद है। कहीं कम तो कहीं अधिक मात्रा में हर समाज स्त्री को बंधनों में बांधे रखता है। इन बंदिशों को समाज का नियम मान कर चलना प्रत्येक स्त्री का कर्तव्य हो जाता है। यह उसको, उस मासूम अवस्था से ही सिखाना शुरू कर दिया जाता है जिसका उसे कोई ज्ञान नहीं। उसका जब उसे एहसास होता है तो तब तक यह उसकी नियति बन चुकी होती है।
मेरी इस दुनिया के सभी माता-पिताआंे से एक बिनती है। मेरे जैसे मासूम बच्चों के माता-पिताओं मेरी मासूमियत का तो थोड़ा खयाल रखो। मेरे भविष्य को इन अन्तहीन बंदिशों में मत बांधों। मेरे पंखों को उस उड़ान के लिए तैयार करो जो इस आकाश की अनंत ऊंचाईयों तक उड़ने में सक्षम हों। मेरे इन पंखों को इतनी मजबूूती दो कि उन अनंत ऊंचाइयों में उड़कर मैं अपने वजूद का एहसास कर सकूं। आप मेरा साथ तो दो। मुझ पर भरोसा तो करो। इन सामाजिक बंदिशों को तोड़ने के लिए मुझे सक्षम बनाओ और इस संघर्ष में मेरे साथ आओ। लेकिन पहले मुझे मेरी वास्तविक आजादी तो दो! एक अबोध का खत
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