- महेन्द्र
हरियाणा में सोनीपत के पास एक गांव है बाली। यहां 27 एकड़ में कभी एक इंजीनियरिंग कालेज चलता था। भगवान परशुराम कालेज आफ इंजीनियरिंग नामक इस कालेज की इमारत अब भी वैसी ही है लेकिन यहां कोई भी इंजीनियरिंग का छात्र नहीं है। लगातार कम होते प्रवेशों के बाद आखिरकार यह कालेज बंद हो गया। अब इसमें कुश्ती एकेडमी चल रही है। यहां की मैकेनिकल इंजीनियरिंग वर्कशाप में अब मशीनें नहीं बल्कि नीले मैट बिझे हुए हैं। जहां पहलवानों को कुश्ती का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
मराठवाड़ा इंस्टीटयूट आफ टेक्नोलोजी (बुलंदशहर) में मात्र दो जुड़वा भाई ही प्रथम वर्ष के छात्र हैं। एक ने आई.टी तो दूसरे ने इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया है।
यूं तो हरियाणा ऐसा राज्य बन गया है जहां सर्वाधिक सीटें (74 प्रतिशत) खाली हैं लेकिन देश के अन्य राज्यों की हालत इस मामले में बहुत अच्छी भी नहीं है।(देखें तालिका-1) इंजीनियरिंग कालेजों की हालत निरंतर गंभीर होती जा रही है। कई कालेज बंद हो गये हैं तो कई में अब पब्लिक स्कूल चल रहे हैं, तो कई में कुछ और धंधे।
2016-17 में पूरे देश में कुल इंजीनियरिंग की सीटों का 51 प्रतिशत सीटें खाली रह गयीं। यहां प्रवेश लेने के लिए छात्र आये ही नहीं। ऐसा तब हो रहा है जब इन कालेजों ने मैनेजमैंट कोटे के तहत सीधे प्रवेश देना शुरू कर दिया है। जिसने प्रवेश परीक्षा पास नहीं की है, उनको भी इन कालेजों में सीधे प्रवेश का ‘आफर’ दिया जा रहा है। 153 ऐसे कालेज हैं जो कम प्रवेश संख्या के कारण बंदी के बिल्कुल निकट हैं। (तालिका - 2 देखें) इस समय जिस इंजीनियरिंग ब्रान्च की कीमत कुछ भी नहीं है वह इन्फोरमेशन टेक्नोलोजी है (आई.टी.) है। पूरे देश में 2012-13 से 2016-17 तक 770 संस्थानों ने अपने यहां इस ब्रान्च की पढ़ाई बंद करवा दी है। इसके अलावा इलैक्ट्रोनिक्स और इलैक्ट्रीकल्स, कम्प्यूटर साइंस, मैकेनिकल, सिविल आदि का ऐसा ही हाल है।(देखें तालिका-3)। आई.टी. ब्रान्च को बंद करने वाले राज्यों में तेलंगाना सबसे ऊपर है। तेलंगाना में 157, तमिलनाडू में 104 तो आन्ध्रप्रदेश में 128 संस्थानों ने अपने यहां आई.टी ब्रान्च को बंद कर दिया है।
अगर पिछले पांच वर्षों पर निगाह डालें तो पायेंगे कि खाली सीटों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। (देखें तालिका-3) जो इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई अब छात्रों-युवाओं के लिए कोई आकर्षण नहीं पैदा कर रही है।
इंजीनियरिंग कालेजों की यह परिघटना राष्ट्रीय है। पूरे देश भर में इंजीनियरिंग और ‘सुरक्षित रोजगार’ का जो क्रेज 2 दशक पूर्व था वह हवा हो चुका है। इंजीनियरिंग करना और उसके बाद बेरोजगार रहना आज भारत की आम हकीकत बन चुका है।
इंजीनियरिंग कालेजों का बंद होना इस बात को बहुत अच्छे से अभिव्यक्त कर देता है कि उच्च तकनीकि शिक्षा प्राप्त युवाओं में बेरोजगारी का क्या आलम है। आज किसी बेरोजगार इंजीनियर को ढूढ़ना सबसे आसान काम है। जिस संख्या से छात्र-युवा इंजीनियरिंग की डिग्री ले रहे उसकी तुलना में उनको मिलने वाले सम्मानजनक रोजगार की संख्या नगण्य है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था उनको खपा पाने में असमर्थ है। आल इंडिया काउंसिल आफ टैक्नीकल एजूकेशन (एआईसीटीई) के अनुसार पिछले पांच वर्षोें में कैंपस प्लेसमैंट 50 प्रतिशत से भी कम रहा है। स्पष्ट है कि पिछले 5 वर्षों से हर वर्ष आधे से ज्यादा इंजीनियर सम्मानजनक रोजगार नहीं पा रहे हैं। उनको जो रोजगार हासिल हो रहा है वह उनकी योग्यता के बिल्कुल भी अनुकूल नहीं है। फैक्टरी के भीतर आईटीआई, पालिटैक्निक और बी.टेक डिग्रीधारी से एक ही काम करवाया जा रहा है। और जो वेतन डिग्रीधारी को हासिल हो रहा है वह 5000 रू0 से 10,000 रू0 के बीच है।
इंजीनियरिंग में स्नातक किये हुओं में बेरोजगारी इतनी भयानक है कि एआईसीटीई और सरकार भी इसे छुपा नहीं पा रही है। एक प्रश्न के जवाब में प्रकाश जावडेकर ने राज्य सभा में कहा कि ‘2016-17 में 40 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातकों का ही प्लेसमैंट हुआ।’ बाकि के 60 प्रतिशत का क्या हुआ? वे या तो श्रम की मंडी में बेहद सस्ते में अपना श्रम बेच रहे हैं, जहां भीषण शोषण को झेल रहे हैं। या फिर बेरोजगारी की पीड़ा सहते हुए अपने हाल पर लाचार हैं।
इसकी सबसे बड़ी कीमत छात्र और उनके अभिभावक चुका रहे हैं। प्राइवेट कालेज से इंजीनियरिंग करने के लिए 4 से 6 लाख तक का खर्चा हो जाता है। बड़े-बड़े वायदे व स्वप्न दिखा कर कालेजों के मालिक-प्रबंधक छात्रों को प्रलोभन देते हैं। अपनी जमीन को बेचकर या जीवन की गाढ़ी कमाई को खर्च कर अभिभावक अपने बच्चों का प्रवेश इन कालेजों में कराते हैं। लेकिन डिग्री हाथ में आने के बाद उनके पास कुछ नहीं बचता। और डिग्री भी ऐसी की, जो दो जून की रोटी का बंदोबस्त भी नहीं कर सकती।
कालेजों के मालिकों का क्या, वे अपनी इस शिक्षा की दुकान को बंद कर दूसरी दुकान खोल लेते हैं। अभी तक वह शिक्षा नामक माल को बेचने का धंधा कर रहे थे और अब कोई और धंधा शुरू कर देंगे। इसमें सबसे बड़ी ठगी और डाकेजनी तो छात्रों-अभिभावकों पर ही होती है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि जो संस्थान गुणवत्तायुक्त इंजीनियर नहीं तैयार कर रहे हैं वो बंद हो रहे हैं। कुछ विद्वान इनसे और आगे जाते हुए छात्रों को ही दोषी ठहराकर कहते हैं कि वे इतने काबिल नहीं हैं कि रोजगार पा सकें। सरकारी प्रचार का दोहराव करते हुए वे कहते हैं कि जिनके पास टैलेंट है उसको रोजगार की कोई कमी नहीं। इन विद्व जनों से मिलता-जुलता विचार मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर एक इंटरव्यू में व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि यह सरकार नहीं है जो इनको (इंजी. कालेजों) बंद करना चाहती है बल्कि ये छात्र हैं जो इनको बंद कर रहे हैं। छात्रों के पास संस्थान को चुनने का हर अधिकार है। छात्र बुरी गुणवत्ता वाले कालेजों को बंद कर रहे हैं और यह अच्छा संकेत है। इन विद्वानों का मानना है कि जरूरत से ज्यादा आपूर्ति ही इंजीनियरियों की बेरोजगारी या फिर संस्थानों के बंद होने का कारण है।
लेकिन सवाल पैदा होता है कि जरूरत से ज्यादा आपूर्ति कैसे हो गयी? क्या इसको नियंत्रित नहीं किया जा सकता था? इन प्रश्नों का जवाब देने में विद्वानों को कष्ट होना लाजिमी था। इसलिए वे समस्या का उथला विश्लेषण करते हैं। वे समस्या की जड़ में नहीं जाते क्योंकि इससे इस पूंजीवादी व्यवस्था की हकीकत उजागर होती है। इसीलिए ये विद्वान पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार हैं।
दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था अराजकता को पैदा करती है। जिस तरह पूरी व्यवस्था में अराजकता रहती है उसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी अराजकता रहती है। इस अराजकता या ज्यादा आपूर्ति का कारण मुनाफा है। जिस क्षेत्र से ज्यादा मुनाफा होता है सारे पूंजीपति उसी क्षेत्र में निवेश करते हैं और एक समय बाद वहां आपूर्ति अधिक हो जाती है और मांग कम।
पूंजीवाद में शिक्षा भी एक व्यवसाय है। अन्य व्यवसायों की तरह शिक्षण संस्थान खोलने वाले पूंजीपति इस क्षेत्र में बस मुनाफा पीटकर अपनी दौलत बढ़ाने के उद्देश्य से आते हैं। उनका लक्ष्य कुशल और योग्य इंजीनियर तैयार करना कतई नहीं था। उनका लक्ष्य मोटी फीस लेकर, तमाम तरह के प्रलोभनों का जाल बुनकर उनमें छात्रों-अभिभावकों को फंसाना था।
इस पूरी परिघटना का एक अन्य पहलू भी है। वह है मौजूदा दौर का छुट्टा पूंजीवाद। छुट्टे पूंजीवाद ने शिक्षा क्षेत्र को निजी पूंजीपतियों के लिए पूरी तरह खोल दिया। उस पर कोई नियंत्रण कायम न कर उसको अपनी मनमर्जी करने की खुली छूट दी। तभी मोटी फीस, डोनेशन आदि द्वारा इन पूंजीपतियों ने छात्रों-अभिभावकों का चौतरफा उत्पीड़न किया। एआईसीटीई जैसी संस्थाएं खुले पूंजीवाद के दौर में निरीह और लाचार बना दी गयीं। तब यह कहना कि ऐसे संस्थान बंद होना अच्छी बात है जो गुणवत्ता वाले इंजीनियर नहीं तैयार कर रहे हैं; बेमानी है, धूर्तता है। निजी शिक्षण संस्थानों की खुली निरंकुशता, लूट और अधिक आपूर्ति के लिए पूंजीवादी सरकारें दोषी हैं न कि छात्र। निजी पूंजी की चैतरफा मार और खुले पूंजीवाद के दौर में पूंजीवादी नियम-कानून सब किनारे लगा दिये गये। निजी पूंजीपतियों को मिली खुली छूट के कारण जहां 1990-91 में बी.टेक और एम.टेक की सीटें 87,059 थीं, वहीं 2017-18 में इसमें 18 गुना की वृद्धि होकर 16.62 लाख हो गयी। यह निजी पूंजी को मिली खुली छूट ही थी जिस कारण उत्तर प्रदेश में 2002-03 मंे 22,491 सीटें बी.टेक की थीं जो मात्र 15 वर्षों में 1.42 लाख हो गयीं (जो कि 535 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी है) तथा संस्थानों की संख्या 83 से बढ़कर 296 हो गयी (जो कि 296 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी है)।निजी पूंजी को मिली छूट ने ही नियम-कानूनों की ऐसी-तैसी कर भ्रष्टाचार को जन्म दिया। मानकों को ताक पर रखकर कालेजों को खोलने की अनुमति देने हेतु रिश्वत लेने के आरोप में सीबीआई ने जुलाई, 2009 में एआईसीटीई के मेम्बर सेक्रेटरी के. नारायण राव को गिरफ्तार किया था। सीबीआई ने एआईसीटीई के चेयरमैन पर भी 3 आरोप दर्ज किये।
देश और दुनिया में छाया आर्थिक संकट एक दूसरा आयाम है जो इस परिघटना को और भयावह बना रहा है। 2007-08 से जारी यह संकट भारी पैमाने पर छंटनी कर बेरोजगारों की संख्या को बढ़ा रहा है। नये रोजगार न के बराबर पैदा हो रहे हैं। यह आर्थिक संकट भी पूंजीवादी व्यवस्था की अराजकता और मुनाफाखोर चरित्र की ही पैदाइश है। पूंजीवाद समय-समय पर ‘बूम’ पैदा करता रहता है। एक समय आईटी बूम पैदा किया गया। आईटी के क्षेत्र में बहुत बड़ा निवेश किया गया, शिक्षण संस्थानों में इस कोर्स की मांग बहुत ज्यादा थी। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था की अराजकता और अयोजनाबद्धता ने आज इस इस ट्रेड को मूल्यविहीन बना दिया है। मौजूदा आर्थिक संकट ने इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोगों को नौकरी से निकाला है, जहां आज भी मांग न के बराबर है। आर्थिक संकट के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं में बेरोजगारी दर बहुत-बहुत ज्यादा है।
जाहिर है कि बीटेक कालेजों के बंद होने, आधे से ज्यादा सीटें खाली रहने, आधे से ज्यादा डिग्रीधारियों के बेरोजगार रहने की यह परिघटना पूंजीवाद की आम परिघटना है। यह इस पंूजीवादी व्यवस्था व पूंजीवादी शासकों पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है कि युवाओं की इतनी बड़ी संख्या को वह सामाजिक विकास मेें योगदान देने से रोकता है। युवाओं की इस ऊर्जा को यूं ही बर्बाद करने वाले शासक जब तकनीकि विकास, मेक इन इंडिया की बातें करते हैं तो वे कोरी बकवास कर रहे होते हैं। एक तरफ करोड़ों बेरोजगार बी.टेक डिग्रीधारी और दूसरी तरफ शासकों की मेक इन इंडिया की जुमलेबाजी दोनों ही पूंजीवाद में आम हैं।
पूंजीवाद में उपरोक्त परिघटना को रोका नहीं जा सकता। एआईसीटीई द्वारा कालेजों को मान्यता देने में सख्ती जैसे नीमहकीमी नुस्के भी इसको रोक नहीं सकते। पूंजीवादी व्यवस्था का नाश कर और समाजवाद की स्थापना ही इस अराजकता को रोक सकती है। समाजवाद ही युवाओं के कौशल और ऊर्जा के इस अपव्यय को (जो पूंजीवाद में आम नियम है) रोककर उसको समाज विकास का एक मजबूत साधन बनाता है।
समाजवादी व्यवस्था योजना बनाकर कालेज/संस्थान खोलने, उनमें उच्च गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराने और प्रशिक्षित डिग्रीधारी युवाओं को रोजगार देकर सामाजिक उत्पादन में अपना योगदान देने का भरपूर मौका उपलब्ध कराता है। अतः आज के डिग्रीधारी युवाओं, बेरोजगारों को पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष को उठ खड़े होना होगा और समाजवादी क्रांति को अंजाम देने के लिए व्यापक एकजुटता बनानी होगी।
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