बाबा बूझा सिंह
-जुनैद
भारत की आजादी की लड़ाई में एक से बढ़कर एक ऐसे व्यक्ति हुये हैं जिनके जीवन के बारे में जानकर सहज ही आश्चर्य होता है। क्या ऐसे लोग भी हो सकते हैं? क्या ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो भारत की जनता के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकते हैं?
करतार सिंह सराभा, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां, मास्टर सूर्यसेन जैसे हजारों-हजार क्रांतिकारियों के बीच एक नाम बाबा बूझा सिंह का भी है।
बाबा बूझा सिंह भारत के ऐसे क्रांतिकारी थे जो बीसवीं सदी में हुये सभी महान आन्दोलनों में भागीदार रहे। चाहे वह गदर आन्दोलन हो या फिर नक्सलबाड़ी आन्दोलन रहा हो। चाहे वह गोरे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई रही हो या फिर काले अंग्रेेेजों के खिलाफ छेड़ा गया संघर्ष हो।
बाबा बूझा सिंह हर उस जगह मौजूद थे जहां उनकी क्रांतिकारी चेतना उन्हें लेकर जाती थी। वे अच्छी तरह से समझ लेते थे कि क्या वक्त की पुकार है। यही कारण है कि गदर आन्दोलन से शिक्षित-दीक्षित बूझा सिंह नक्सलबाड़ी आन्दोलन के संगठनकत्र्ता बन गये। वे उस उम्र में क्रांति के लिये पूरे जोर-शोर से लग गये जिस उम्र में लोग हाथ-पांव छोड़कर बिस्तर पकड़ लेते हैं।
उनके जीवन के बारे में लिखी गयी एक किताब में एक जगह पर लिखा है, ‘‘एक बार फिर जब बूझा सिंह ने पंजाब में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के लिये घर छोड़ा तो उनके भाई युगेसर ने उनसे कहा,
‘‘वीर जी, अब आप वृद्ध हो गये हैं। अब आप कैसे भूमिगत जीवन की कठिनाईयों का सामना करेंगे?’’
‘‘क्रांतिकारी कभी बूढ़े नहीं होते। मैं इस उम्र में भी इस क्रूर राज्य का सामना कर सकता हूं।’’
उन्होंने अपने निश्चय पर दुबारा जोर दिया। उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। उन्होंने अपनी साइकिल ली और विशाल इलाके का भ्रमण करने लगे। सैकड़ों युवा उनके नेतृत्व में अपना जीवन न्यौछावर करने के लिये तैयार होने लगे। वे युवाओं के लिये एक उदाहरण थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन कठिनाईयों का सामना करते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और देशी शासकों के खिलाफ संघर्ष में गुजारा था। अपनी वृद्धावस्था में भी वे फिर से दुश्मन का सामना करने के लिये तैयार थे।’’ (‘ठंइं ठनरीं ैपदही ।द न्दजवसक ैजवतल,’ लेखक - अजमेर सिद्धू, अनुवाद - परचम, इस लेख के सभी तथ्य इसी पुस्तक पर आधारित हैं।)
बाबा बूझा सिंह ने नक्सलबाड़ी आन्दोलन के लिये जिस वक्त अपना घर छोड़ा उस समय उनकी आयु 79 वर्ष थी।
बाबा बूझा सिंह का जन्म अनुमान के अनुसार 1888 में हुआ था। यह वह जमाना था जब जन्म-मृत्यु के रिकार्ड का, खासकर देहाती इलाकों में, कोई बंदोबस्त नहीं होता था।
उनका जन्म पंजाब के शहीद भगत सिंह नगर जिले (पहले जालंधर का हिस्सा था) के, चक्क माईदास मंे कठिनाईयों से जूझते, एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम धरम सिंह और मां का नाम जय कौर था। उनके तीन भाई, एक बहन थीं। बूझा सिंह की पत्नी का नाम धंती (धन्न कौर) था। और उनके तीन बच्चे थे। उनके इकलौते बेटे की कम उम्र में ही मृत्यु हो गयी थी।
अर्जेण्टीना में गदर पार्टी के ठीक से सम्पर्क में आने के पहले का उनका जीवन धर्म साधना में लीन व्यक्ति का जीवन था। वे सारे वक्त धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन, साधना और संतों की सेवा में व्यस्त रहते थे। दुनियादारी में सक्रिय करने के लिये पिता ने उनका विवाह करा दिया। पर बूझा सिंह दूसरी ही मिट्टी के बने थे। वे अपनी ही दुनिया में मस्त थे। वे ध्यान और संतों की सेवा में लगे रहते। वे अच्छे धर्मोपदेशक बन गये थे। उनकी भाषण कला चर्चित थी। वे बेहद लोकप्रिय हो गये थे। इधर उनका परिवार कठिनाईयों में फंसा हुआ था। पिता ने सूदखोरों से ऋण लिया हुआ था। सूदखोर आये दिन उन्हें तंग करते। वे चाहते थे कि बूझा सिंह जिम्मेवारी उठाये।
यह वह समय था जिस समय दुनिया में मजदूरों का पहला देश सोवियत संघ तेजी से समाजवाद की ओर बढ़ रहा था। पूरी पूंजीवादी व्यवस्था इसके उलट आर्थिक संकट में फंस रही थी। हमारे देश में आजादी की लड़ाई आगे बढ़ रही थी। गदर आन्दोलन की एक लहर (1914-16) के बाद गदरी दुबारा से अपने आपको संगठित कर रहे थे। ऐसे समय में गदर आन्दोलन के एक कार्यकत्र्ता लाभ सिंह, बूझा सिंह के अच्छे वक्ता होने से प्रभावित होकर आये थे। वे सोचते थे बूझा सिंह गदर आन्दोलन के कार्यों के लिए बेहद कारगर साबित होंगे। बूझा सिंह अभी सोये हुये शेर थे। लाभ सिंह व परिवार के मित्रों के समझाने के बाद वे अमेरिका जाने को तैयार हुये ताकि वे परिवार को गरीबी व कठिनाईयों से निजात दिला सकें। लेकिन होना कुछ और ही था।
बाबा बूझा सिंह वर्ष 1929 में पैदल ही चीन चले गये। जहां से उनकी योजना अमेरिका जाने की थी। आसानी से समझा जा सकता है कि उस जमाने में पैदल चीन जाने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा। शंघाई में उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य, जापान व पनामा जाने का पासपोर्ट मिला। पर वे पनामा जा न सके और वे चिली, बोलीविया के रास्ते अर्जेण्टीना पहुंच गये।
अर्जेण्टीना में बूझा सिंह गदर पार्टी के एक नेता भगत सिंह बिल्गा के सम्पर्क में आये। अर्जेण्टीना में गदर पार्टी भारत को आजाद कराने के लिये तैयारियों में लगी हुयी थी। भारत को आजाद कराने की मुहिम का अर्जेण्टीना के लोग भी समर्थन करते थे।
यहां बूझा सिंह गदर पार्टी के प्रमुख नेताओं भाई रतन सिंह, तेजा सिंह स्वत्रंतर और शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह के सम्पर्क में आये थे। शहीद भगत सिंह पर अपने चाचा अजीत सिंह और करतार सिंह सराभा का खासा प्रभाव था। करतार सिंह सराभा को उन्नीस वर्ष की आयु में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने फांसी में चढ़ा दिया था।
बाबा बूूझा सिंह की राजनैतिक चेतना का विकास गदर आन्दोलन के इन दिग्गजों के सानिध्य मंे हुआ। यहां से उन्हें 1932 में गदर पार्टी के एक निर्णय के तहत एक ग्रुप के साथ, मास्को, माक्र्सवाद के अध्ययन के लिये भेजा गया। मास्को, उस वक्त पूरी दुनिया के क्रांतिकारियों व आजादी की लड़ाई लड़ने वालों का केन्द्र था। वह मजदूरों, किसानों का देश था। वह बोल्शेविक पार्टी की भूमि थी। लेनिन, स्तालिन जैसे महान क्रांतिकारियों की यह जमीन सभी शोषितों, उत्पीड़ितों, गुलामों के लिये प्रेरणा की महान स्रोत थी।
सोवियत संघ की राजधानी मास्को में एक पूर्वीय विश्वविद्यालय (ईस्टर्न यूनिवर्सिटी) स्थापित किया गया था। जहां भारत, चीन, कोरिया आदि देशों के क्रांतिकारियों को माक्र्सवाद से लेकर सम्बन्धित देश के इतिहास आदि से परिचित कराया जाता। उन्हें हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता। क्रांति के सिद्धान्त से लेकर रणकौशल को सिखलाया जाता था। बाबा बूझा सिंह दो वर्ष तक इस विश्वविद्यालय में रहे। सभी के रहन-सहन का प्रबन्ध विश्वविद्यालय द्वारा किया जाता था। बाबा बूझा सिंह, शहीद भगत सिंह की तरह लेनिन के दिखाये रास्ते पर मजबूती से आगे बढ़ने लगे। एक क्रांतिकारी की तरह उन्होंने जीवन जिया और उन्हीं की तरह से मृत्यु को गले लगाया।
गदर पार्टी 1926 से ही भारत में एक कम्युनिस्ट पार्टी का गठन करने का प्रयास कर रही थी। वह किरती (मेहनतकश) नाम से एक पत्रिका निकालती थी। बाबा बूझा सिंह मास्को से माक्र्सवाद-लेनिनवाद से लैस होकर 1934 में भारत लौटे। 1934 में तेजा सिंह स्वत्रंतर, भगत सिंह बिल्गा आदि के साथ मिलकर किरती पार्टी का गठन किया। बूझा सिंह किरती पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के सदस्य बन गये। किरती पार्टी ने पंजाब के माल्वा, दोआबा व मांझा के इलाकों में बूझा सिंह के नेतृत्व में किसानों को सूदखोरों के चंगुल से छुड़ाने के लिये संघर्ष किये। ‘कर्ज कमेटियां’ बनायी। इसी तरह ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के अत्याचारों से त्रस्त लोगों के परिवारों की सहायता के लिये ‘देशभगत परिवार सहायक कमेटी’ बनायी।
बाबा बूझा सिंह शीघ्र ही पुलिस की निगाहों में चढ़ गये। वर्ष 1935 में उन्हें तीन बार गिरफ्तार किया गया। अंग्रेजों को खबर लग चुकी थी कि बूझा सिंह मास्को होकर आये थे। 27 अक्टूबर 1935 को उन्हें अमृतसर से गिरफ्तार कर लाहौर के बदनाम शाही किले में कैद कर, भयानक ढंग से उन पर अत्याचार किये गये। उन्हें रात-दिन नंगा रखा गया। 250 वाट के बल्ब के सामने लगातार खड़ा रखा गया ताकि सो न सकें। बर्फ की सिल्लियों में लिटाया गया। बिजली के झटके दिये गये। बुरी तरह से पीटा गया और यहां तक कि मानव मल उनके मुंह में डाला गया। सारे अत्याचारों के बावजूद एक क्रांतिकारी से जल्लाद अंग्रेज कोई राज नहीं उगलवा पाये। दो माह बाद उन्हें छोड़ा गया पर उन्हें युद्ध अपराधी घोषित कर दिया गया। बुरी तरह से घायल बूझा सिंह को उनके गांव चक्क माईदास में एक साल के लिये नजरबंद कर दिया गया।
सितम्बर 1934 में किरती पार्टी पर अंग्रेज सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया। बाबा बूझा सिंह को जुलाई, 1936 में अपने गांव में कम्युनिस्ट सम्मेलन कराने के आरोप में फिर गिरफ्तार कर लिया गया। और कई महीने जेल में रहने के बाद उन्हें नवम्बर में रिहा किया गया।
किरती पार्टी को प्रतिबंधित किये जाने के बाद पार्टी की कार्यवाहियां खुले तौर पर संचालित नहीं हो सकती थीं इसलिए उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता लेकर आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहते हुये; किसानों को संगठित करने का काम किसान सभा के तहत जारी रखा। उस समय कांग्रेस पार्टी एक तरह से संयुक्त मोर्चे का रूप लिये हुये थी जिसमें तरह-तरह के विचारों के लोग काम करते थे। 1939 में, सुभाष चन्द्र बोस, जो देश की आजादी के संघर्ष के लिये गांधी-नेहरु से भिन्न विचार रखते थे, कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। उनकी जीत में किरती पार्टी और बूझा सिंह का भी एक हाथ था। उन्होंने 1941 में सुभाष चन्द्र बोस को रूस भेजने का भी प्रयास किया था।
1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरु हो गया था। इस युद्ध का हमारे देश में व्यापक प्रभाव पड़ा था। किरती पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी इस साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध कर रही थी। और इस कारण इन पार्टियों के नेताओं की गिरफ्तारी कर उन्हें जेलों में ठूंसा जाने लगा।
बाबा बूझा सिंह पहले एक मजदूर आन्दोलन के सिलसिले में टाटा नगर (जमशेदपुर) से गिरफ्तार कर लिये गये। वहां गदरी मजदूर नेता हजारा सिंह की हत्या हो गई थी। बाबा बूझा सिंह ऐसी परिस्थिति में मजदूरों को एकजुट करने वहां गये थे। बिहार में गिरफ्तार बाबा बूझा सिंह को पंजाब पुलिस के हवाले कर दिया गया। उसके बाद उन्हें राजस्थान के देओली कैम्प नामक जेल में डाल दिया गया।
देओली कैम्प में देश भर के क्रांतिकारी ठूंसे जा रहे थे। किरती पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा अन्य लोग भी थे। यह कैम्प किरती पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी की एकता का आधार बना। 28 मई 1942 को दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां एक हो गई। बाबा बूझा सिंह ने अन्य क्रांतिकारियों के साथ होेने वाले दुव्र्यवहार को लेकर काफी संघर्ष किया। 1943 में जाकर वह जेल से रिहा हुये।
किरती पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी की यह एकता मात्र पांच साल ही चली। किरती पार्टी ने भारत और पाकिस्तान के विभाजन का विरोध किया। वे उस समय देश के विभाजन के समय साम्प्रदायिक दंगों के शिकार लोगों की हर तरह से मद्द कर रहे थे। इस समय इन दोनों ही पार्टियों के बीच कई तरह के मतभेद खड़े हो गये। बाबा बूझा सिंह आदि मानते थे कि भाकपा का नेतृत्व संशोधनवादी हो गया। ऐसी स्थिति में पुराने गदरियों और किरती पार्टी के सदस्यों ने ‘लाल कम्युनिस्ट पार्टी हिन्द यूनियन’ का जनवरी, 1948 में गठन किया। बूझा सिंह इस पार्टी की केन्द्रीय कमेटी में 1952 तक रहे। 1952 में इस पार्टी का पुनः भाकपा में विलय हो गया। बाबा बूझा सिंह का इस पार्टी की नीतियों-तरीकों को लेकर विरोध बना रहा। बाबा बूझा सिंह का सहज क्रांतिकारी बोध उन चीजों को देख लेता था जो इस पार्टी में गलत प्रवृत्तियों के रूप में पनप रहा था।
‘लाल कम्युनिस्ट पार्टी हिन्द यूनियन’ ने पंजाब में ‘पेप्सू’ के एक बड़े आन्दोलन को संगठित किया व नेतृत्व दिया था। पेप्सू (च्म्च्ैन्-पटियाला एण्ड ईस्ट पंजाब स्टेट यूनियन) नाम से रियासतों का एक समूह था। इसमें पटियाला, कपूरथला, नालागढ़ आदि कई छोटी रियासतें थीं। बाबा बूझा सिंह ने पेप्सू के भूमिहीन किसानों को नेतृत्व देते हुये उनकी जमीन की मांग को एक जुझारु आन्दोलन के द्वारा पूरा करवाया था।
1952 से 1963 तक बाबा बूझा सिंह एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बनाये गये। वे पार्टी की नीति और दिशा के आलोचक थे। 1956 में उन्होंने ख्रुश्चेव के द्वारा स्तालिन युग की नीतियो की निंदा पर आक्रोश व्यक्त किया। सोवियत संघ में 1956 में ख्रुश्चेव ने समाजवाद का खात्मा कर पूंजीवाद की वापसी कर दी थी। भाकपा सोवियत संघ की पार्टी की पिछलग्गू बनकर गलत रास्ते पर चल पड़ी। बाबा बूझा सिंह 1958 में इंग्लैण्ड गये थे। उन्होंने रजनी पाम दत्त द्वारा ख्रुश्चेव की लाइन का समर्थन करने का विरोध किया। बाबा बूझा सिंह उस वक्त इंग्लैण्ड में धन संग्रह कर रहे थे ताकि जालंधर में एक ‘देशभगत यादगार हाॅल’ का निर्माण कर सकें। बाबा बूझा सिंह की मेहनत रंग लायी और जालंधर में निर्मित इस हाॅल में गदर आन्दोलन के शहीदों से लेकर अन्य शहीदों की यादों को आज भी जिन्दा रखा है। बाबा बूझा सिंह सिर्फ आन्दोलनकर्ता और संगठनकर्ता ही नहीं थे बल्कि उन्होंने कई लेख लिखे व कई पत्रिकाओं का सम्पादन किया। किरती पार्टी के समय वे किरती पत्रिका व आजाद प्रेस के जनरल मैनेजर थे। उन्होंने माकपा के पंजाबी मुखपत्र ‘लोक जम्हूरियत’ का सम्पादन किया।
1962 में भारत-चीन युद्ध का बाबा बूझा सिंह ने विरोध किया और उसका खामियाजा उन्हें जेल की सजा के रूप में मिला। यह इतिहास की एक सच्चाई है कि भारत ने अमेरिकी साम्राज्यवादियों के उकसावे में आकर चीन के साथ युद्ध छेड़ा था। यह भारत के नये शासकों का समाजवादी चीन के साथ छेड़ा गया ऐसा युद्ध था, जिसके जरिये ये अपनी सीमाओं का विस्तार कर सके।
1964 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में विभिन्न सवालों को लेकर विभाजन हो गया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) (जिसे माकपा भी कहते हैं) एक नयी पार्टी गठित हुयी। यह पार्टी यह कहकर बनी थी कि वह भारत में क्रांति को संगठित करने के कार्य को अपने हाथ में लेगी। भाकपा क्रांति की राह को त्याग चुकी थी। शीघ्र ही उन्होंने पाया कि यह पार्टी उसी राह पर चल रही है जिस पर भाकपा चल रही थी। बाबा बूझा सिंह की क्रांतिकारी आत्मा इस नयी पार्टी के चाल-चलन को देखकर बेचैन हो गयी।
मई 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में किसान विद्रोह फूट पड़ा। इस विद्रोह ने भारतीय समाज सहित कम्युनिस्ट आन्दोलन में क्रान्ति की आवाज को पुनः मुखर कर दिया। ऐसे समय में बाबा बूझा सिंह जिनकी आयु करीब अस्सी वर्ष होने जा रही थी अपने आपको कैसे अलग रख सकते थे। वे नये उत्साह और ऊर्जा के साथ पंजाब में आम जनता खासकर किसानों को एकजुट करने लगे। वे नयी गठित पार्टी सी.पी.आई.(एम.एल.) की स्टेट कमेटी के सदस्य बन गये।
एक सच्चा क्रांतिकारी शोषकों की आंखों में सदा चुभता है। बाबा बूझा सिंह से जितने आतंकित गोरे अंग्रेज थे उतने ही काले अंग्रेज भी थे। वे इस बुजुर्ग के खिलाफ षड़यंत्र रचने में उतर आये। उनके खिलाफ पुलिस ने ‘अच्छेरवाल षड़यंत्र केस’ में गिरफ्तारी का वारण्ट जारी कर दिया।
बाबा बूझा सिंह के जीवन का एक हिस्सा भूमिगत कामों में ही बीता था वे पुलिस के हाथ नहीं चढ़े बल्कि वे किसानों को संगठित करते रहे। वर्ष 1968 व 1969 में वे पंजाब के भटिण्डा जिले में भूमिहीनों के भूमि पर कब्जे के संघर्ष को संगठित करते रहे।
पंजाब पुलिस ने बाबा बूझा सिंह को किसी भी कीमत पर खत्म करने का षड़यंत्र रच डाला। बाबा बूझा सिंह की तलाश में पुलिस ने रात-दिन एक कर दिया। वे जनता के सच्चे नेता थे। उनका साथ सैकड़ों ने दिया। वे रात भर जग-जग कर लोगों की मीटिंग लेते थे।
बाबा बूझा सिंह से शासक और उसकी पुलिस कितनी घृणा करते थे एक पुलिस अधिकारी के बयान से समझा जा सकता है, ‘‘यह बूढ़ा आदमी क्रांतिकारियों का जनक है। यह निर्दोष युवाओं को उकसाता है, उनके दिमाग में क्रांति भर देता है, फिर उसके साथी उन्हें हथियार चलाने में दीक्षित करते हैं। वह देश में लाल सेना बनाने में व्यस्त है। ये हरामी, राष्ट्र-विरोधी इस देश को नियंत्रित करना चाहते हैं।’’ (उसी किताब से)
सच तो ये है कि बूझा सिंह ऐसा भारत चाहते थे जहां हर मजदूर, हर किसान, हर स्त्री, हर दलित शोषण-उत्पीड़न से मुक्त अच्छा जीवन जियें। वे भारत को गोरे-काले अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे। वे भारत में क्रांति चाहते थे। वे भारत में समाजवाद चाहते थे। इसलिए बाबा बूझा सिंह गोरे अंग्रेजों की आंखों में खटकते थे इसीलिये वे काले अंग्रेजों की आंखों में भी खटकने लगे।
27 जुलाई 1970 की शाम चार बजे, बाबा जी एक मीटिंग के लिये अपनी साइकिल में सवार हो कर जा रहे थे। पुलिस को इसकी खबर लग गई। पुलिस की जीप ने 82 वर्षीय बाबा जी की साइकिल पर पीछे से टक्कर मारी। बाबा जी जमीन पर गिर पड़े। उनकी साइकिल एक ओर गिरी। किताबें जमीन पर फैल गयी। उन्हें समझ में आ गया कि वे पुलिस के जाल में फंस गये हैं। उन्होंने ‘‘इंकलाब जिन्दाबाद!’’ आदि नारे लगाये और राहगीरों को बताया कि वे कौन हैं।
पुलिस उन्हें फिब्लौर के किले ले गयी। पुलिस अधीक्षक साधु सिंह ने उनसे पूछा कि ‘‘तुम्हारे साथ हम क्या करें?’’ बाबा बूझा सिंह ने कहा ‘‘यदि तुम पुलिस अधीक्षक एक सिपाही से बने हो तो तुम अवश्य ही एक गरीब किसान के बेटे होगे, तुम मुझे छोड़ दो। यदि तुम एक जमींदार के बेटे हो तो तुम मुझे गोली मार दो, मैं तुम्हारा दुश्मन हूं।’’
पूरी शाम पुलिस द्वारा बूझा सिंह से राज जानने के लिए भयानक ढंग से यंत्रणाऐं दी गयीं। वे कामयाब नहीं हो पाये तो अंत में एक पुलिस वाले ने अति वृद्ध बाबा बूझा सिंह को अपनी पीठ में उठाकर ‘धोबी पछाड़’ दे दिया। बाबा जी की रीढ़ की हड्डी टूट गयी। और उनकी मौत 27 जुलाई की रात को हो गयी। उनकी लाश को नई माजरा के पुल में फेंक दिया। अगले दिन पुलिस ने झूठ फैलाया कि बाबा बूझा सिंह की एक एनकाउण्टर में पुलिस के साथ फायरिंग में मौत हो गयी और उनके साथी भागने में कामयाब रहे। पर शीघ्र ही पुलिस के झूठ का पर्दाफाश हो गया।
बाबा बूझा सिंह वैसे ही क्रांति के मार्ग में शहीद हो गये जैसे कभी भगत सिंह हुये थे।
जीवन भर उनका साथ देने वाली उनकी पत्नी धंती ने एक बार उनसे कहा था,‘‘तुम्हारा पेशा क्रांति को लाना है। तुम अपने काम को, अपने आपको समर्पित करो। परिवार के बारे में चिंता मत करो। तुम वही करो जो तुम्हारी आत्मा करने को कहती है। अब पीछे मुड़ कर मत देखो। तुम उस रास्ते पर बढ़ो जो तुमने चुना है। तुम तभी वापस लौटना जब तुम विजय को चूम लोगे।’’
बाबा बूझा सिंह क्रांति की विजय को नहीं चूम सके। अब देखते हैं कब और कैसे ये काम होता है।
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