दो याचिकाएं जो हिंद और हिंदुत्व का अंतर बताती हैं
महान क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि उनके साथ राजनीतिक बंदी जैसा ही व्यवहार किया जाए और फांसी देने की जगह गोलियों से भून दिया जाए। जबकि हिंदू राष्ट्रवादी सावरकर ने अपील की कि उन्हें छोड़ दिया जाए तो आजीवन क्रांति से किनारा कर लेंगे।
86 वर्ष पहले, 23 मार्च, 1931 को शहीद भगत सिंह और उनके दो बेहद करीबी साथी शहीद राजगुरु और शहीद सुखदेव को ब्रिटिश उपनिवेशवादी सरकार ने फांसी पर लटका दिया था। अपनी शहादत के वक्त भगत सिंह महज 23 वर्ष के थे। इस तथ्य के बावजूद कि भगत सिंह के सामने उनकी पूरी जिंदगी पड़ी हुई थी, उन्होंने अंग्रेजों के सामने क्षमा-याचना करने से इन्कार कर दिया, जैसा कि उनके कुछ शुभ-चिंतक और उनके परिवार के सदस्य चाहते थे। अपनी आखिरी याचिका और वसीयतनामे में उन्होंने यह मांग की थी कि अंग्रेज उन पर लगाए गये इस आरोप से न मुकरें कि उन्होंने उपनिवेशवादी शासन के खिलाफ युद्ध छेड़ा। उनकी एक और मांग थी कि उन्हें फायरिंग स्क्वाॅयड द्वारा सजा-ए-मौत दी जाए, फांसी के द्वारा नहीं। यह दस्तावेज भारत के बारे में उनके सपने को भी उजागर करता है, जिसमें मेहनतकश जनता अंग्रेजों के ही नहीं, भारतीय ‘परजीवियों’ के अत्याचारों से भी आजाद हो।
एक ऐसे समय में जब भारतीय जनता पार्टी ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में राष्ट्रीयता को अपना सबसे प्रमुख एजेंडा बनाने की घोषणा की है, यह मुनासिब होगा कि हम भगत सिंह की देशभक्ति की भावना और उनके स्वप्न की तुलना संघ परिवार के आइकाॅन वी.डी. सावरकर से करें। उस सावरकर से जो हिंदुत्व के विचार के लेखक और जन्मदाता हैं, जिसकी सौगंध भाजपा बार-बार खाती है।
1911 में जब सावरकर को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए अंडमान के कुख्यात सेल्युलर जेल में भेजा गया था, तब सावरकर ने अपनी 50 वर्षों की सजा शुरू होने के कुछ महीनों के भीतर ही अंग्रेजों के सामने उन्हें जल्दी रिहा करने की याचिका लगायी थी। एक बार फिर 1913 में और 1921 में मुख्यभूमि में स्थानांतरित किये जाने और 1924 में अंततः कैदमुक्त किये जाने तक उन्होंने अंग्रेजों के सामने ऐसी अर्जी लगायी। उनकी याचिकाओं की मुख्य पंक्ति थी: मुझे छोड़ दें तो मैं भारत की आजादी की लड़ाई को छोड़ दूंगा और उपनिवेशवादी सरकार के प्रति वफादार रहूंगा।
सावरकर की तरफदारी करने वाले तर्क देते हैं कि यह एक रणनीतिक कदम था लेकिन उनके आलोचक ऐसा मानने से इन्कार करते हैं। वास्तव में अंडमान से बाहर निकलने के बाद, उन्होंने अंग्रेजों से किया गया अपना वादा निभाया और स्वतंत्रता संग्राम से दूर रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने वास्तव में फूट पैदा करने वाले ‘हिंदुत्व’ के सिद्धांत को जन्म देकर अंग्रेजों की मदद की, जो कि मुस्लिम लीग के ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत का ही दूसरा रूप था। नीचे हम शहीद भगत सिंह की आखिरी याचिका और 1913 में दाखिल की गयी वी.डी. सावरकर की याचिका को पुनर्प्रस्तुत कर रहे हैं:
भगत सिंह की अंतिम याचिका
लाहौर जेल, 1931
सेवा में, गवर्नर पंजाब, शिमला
महोदय,
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बातें आपकी सेवा में रख रहे हैं-
भारत की ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर षड्यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) स्थापित किया था, जिसने 7 अक्तूबर, 1930 को हमें फांसी का दण्ड सुनाया। हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया है कि हमने सम्राट जार्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया है।
न्यायालय के इस निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं -
पहली यह कि अंग्रेज जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है। दूसरी यह है कि हमने निश्चित रूप में इस युद्ध में भाग लिया है। अतः हम युद्धबंदी हैं।
यद्यपि इनकी व्याख्या में बहुत सीमा तक अतिशयोक्ति से काम लिया गया है, तथापि हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि ऐसा करके हमें सम्मानित किया गया है। पहली बात के सम्बन्ध में हम तनिक विस्तार से प्रकाश डालना चाहते हैं। हम नहीं समझते कि प्रत्यक्ष रूप में ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी हुई है। हम नहीं जानते कि युद्ध छिड़ने से न्यायालय का आशय क्या है? परन्तु हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हैं और साथ ही इसे इसके ठीक संदर्भ में समझाना चाहते हैं।
हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है - चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता।
यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाएं, कुछ सुविधाएं मिल जाएं, अथवा समझौते हो जाएं, इससे भी स्थिति नहीं बदल सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है। हमें इस बात की भी चिंता नहीं कि युवकों को एक बार फिर धोखा दिया गया है और इस बात का भी भय नहीं है कि हमारे राजनीतिक नेता पथ-भ्रष्ट हो गए हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध, बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गए हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता है।
हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु मानते हैं, क्योंकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं, हमारी वीरांगनाओं ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया है। उन्होंने अपने पतियों को बलिवेदी पर भेंट किया, भाई भेंट किए, और जो कुछ भी उनके पास था सब न्यौछावर कर दिया। उन्होंने अपने आप को भी न्यौछावर कर दिया परन्तु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती है। आपके एजेंट भले ही झूठी कहानियां बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धि को हानि पहुंचाने का प्रयास करें, परन्तु यह युद्ध चलता रहेगा।
हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे। किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाजी लग जाए। चाहे कोई भी परिस्थिति हो, इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा। यह आप की इच्छा है कि आप जिस परिस्थिति को चाहे चुन लें, परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी।
इसमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा। बहुत संभव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता।
निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा। हमारी सेवाएं इतिहास के उस अध्याय में लिखी जाएंगी जिसको यतीन्द्रनाथ दास और भगवतीचरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया है। इनके बलिदान महान हैं।
जहां तक हमारे भाग्य का संबंध है, हम जोरदार शब्दों में आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फांसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है। आप ऐसा करेंगे ही, आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार भी प्राप्त है। परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त ही अपना रहे हैं और आप उस पर कटिबद्ध हैं। हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हमने कभी कोई प्रार्थना नहीं की और अब भी हम आपसे किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नहीं करते।
हम आप से केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है। इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं, अतः इस आधार पर हम आपसे मांग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियों-जैसा ही व्यवहार किया जाए और हमें फांसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए।
अब यह सिद्ध करना आप का काम है कि आपको उस निर्णय में विश्वास है जो आपकी सरकार के न्यायालय ने किया है। आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिए। हम विनयपूर्वक आप से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना-विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाए।
आपका
भगत सिंह
(स्रोत: भगत सिंह और साथियों के संपूर्ण दस्तावेज, राहुल फाउंडेशन)
वी डी सावरकर की याचिका
सेल्युलर जेल, अंडमान, 1913
सेवा में, गृह सदस्य, भारत सरकार
मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदु प्रस्तुत करने की याचना करता हूं -
(1) 1911 के जून में जब मैं यहां आया, मुझे अपनी पार्टी के दूसरे दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के आॅफिस ले जाया गया। वहां मुझे ‘डी’ यानी डेंजरस (खतरनाक) श्रेणी के कैदी के तौर पर वर्गीकृत किया गया बाकि दोषियों को ‘डी’ श्रेणी में नहीं रखा गया। उसके बाद मुझे पूरे छह महीने एकांत कारावास में रखा गया। दूसरे कैदियों के साथ ऐसा नहीं किया गया। उस दौरान मुझे नारियल की धुनाई के काम में लगाया गया, जबकि मेरे हाथों से खून बह रहा था। उसके बाद मुझे तेल पेरने की चक्की पर लगाया गया जो कि जेल में कराया जाने वाला सबसे कठिन काम है। हालांकि, इस दौरान मेरा आचरण असाधारण रूप से अच्छा रहा, लेकिन फिर भी छह महीने के बाद मुझे जेल से रिहा नहीं किया गया, जबकि मेरे साथ आये दूसरे दोषियों को रिहा कर दिया गया। उस समय से अब तक मैंने अपना व्यवहार जितना संभव हो सकता है, अच्छा बनाए रखने की कोशिश की है।
(2) जब मैंने तरक्की के लिए याचिका लगाई, तब मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का कैदी हूं और इसलिए मुझे तरक्की नहीं दी जा सकती। जब हम में से किसी ने अच्छे भोजन या विशेष व्यवहार की मांग की, तब हमें कहा गया कि ‘तुम सिर्फ साधारण कैदी हो, इसलिए तुम्हें वही भोजन खाना होगा, जो दूसरे कैदी खाते हैं।’ इस तरह श्रीमान आप देख सकते हैं कि हमें विशेष कष्ट देने के लिए हमें विशेष श्रेणी के कैदी की श्रेणी में रखा गया है।
(3) जब मेरे मुकदमे के अधिकतर लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया, तब मैंने भी रिहाई की दरख्वास्त की। हालांकि, मुझ पर अधिक से अधिक दो या तीन बार मुकदमा चला है, फिर भी मुझे रिहा नहीं किया गया, जबकि जिन्हें रिहा किया गया, उन पर तो दर्जन से भी ज्यादा बार मुकदमा चला है। मुझे उनके साथ इसलिए नहीं रिहा किया गया क्योंकि मेरा मुकदमा उनके साथ नहीं चल रहा था। लेकिन जब आखिरकार मेरी रिहाई का आदेश आया, तब संयोग से कुछ राजनीतिक कैदियों को जेल में लाया गया, और मुझे उनके साथ बंद कर दिया गया, क्योंकि मेरा मुकदमा उनके साथ चल रहा था।
(4) अगर मैं भारतीय जेल में रहता, तो इस समय तक मुझे काफी राहत मिल गई होती। मैं अपने घर ज्यादा पत्र भेज पाता; लोग मुझसे मिलने आते। अगर मैं साधारण और सरल कैदी होता, तो इस समय तक मैं इस जेल से रिहा कर दिया गया होता और मैं टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता। लेकिन, वर्तमान समय में मुझे न तो भारतीय जेलों की कोई सुविधा मिल रही है, न ही इस बंदी बस्ती के नियम मुझ पर लागू हो रहे हैं। जबकि मुझे दोनों की असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
(5) इसलिए हुजूर, क्या मुझे भारतीय जेल में भेजकर या मुझे दूसरे कैदियों की तरह साधारण कैदी घोषित करके, इस विषम परिस्थिति से बाहर निकालने की कृपा करेंगे? मैं किसी तरजीही व्यवहार की मांग नहीं कर रहा हूं, जबकि मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक बंदी होने के नाते मैं किसी भी स्वतंत्र देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी आशा रख सकता था। मैं तो बस ऐसी रियायतों और इनायतों की मांग कर रहा हूं, जिसके हकदार सबसे वंचित दोषी और आदतन अपराधी भी माने जाते हैं। मुझे स्थायी तौर पर जेल में बंद रखने की वर्तमान योजना को देखते हुए मैं जीवन और आशा बचाए रखने को लेकर पूरी तरह से नाउम्मीद होता जा रहा हूं। मियादी कैदियों की स्थिति अलग है। लेकिन श्रीमान मेरी आंखों के सामने 50 वर्ष नाच रहे हैं। मैं इतने लंबे समय को बंद कारावास में गुजारने के लिए नैतिक ऊर्जा कहां से जमा करूं, जबकि मैं उन रियायतों से भी वंचित हूं, जिसकी उम्मीद सबसे हिंसक कैदी भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए कर सकता है? या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए, क्योंकि मैं वहां (ए) सजा में छूट हासिल कर सकता हूं; (बी) वहां मैं हर चार महीने पर अपने लोगों से मिल सकूंगा। जो लोग दुर्भाग्य से जेल में हैं, वे ही यह जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों और नजदीकी लोगों से जब-तब मिलना कितना बड़ा सुख है; (सी) सबसे बढ़कर मेरे पास भले कानूनी नहीं, मगर 14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा। या अगर मुझे भारत नहीं भेजा जा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी अन्य कैदी की तरह जेल के बाहर आशा के साथ निकलने की इजाजत दी जाए, 5 वर्ष के बाद मुलाकातों की इजाजत दी जाए, मुझे टिकट लीव दी जाए, ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं। अगर मुझे ये रियायतें दी जाती हैं, तब मुझे सिर्फ एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ मेरी गलती का दोषी मान जाए, न कि दूसरों की गलती का। यह एक दयनीय स्थिति है कि मुझे इन सारी चीजों के लिए याचना करनी पड़ रही है, जो सभी इन्सानों का मौलिक अधिकार है। ऐसे समय में जब एक तरफ यहां करीब 20 राजनीतिक बंदी हैं, जो जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी तरफ बंदी बस्ती के नियम-कानून हैं, जो विचार और अभिव्यक्ति की आजादी को न्यूनतम संभव स्तर तक महदूर करने वाले हैं; यह अवश्यम्भावी है कि इनमें से कोई, जब-तब किसी न किसी कानून को तोड़ता हुआ पाया जाए। अगर ऐसे सारे कृत्यों के लिए सारे दोषियों को जिम्मेदार ठहराया जाए, तो बाहर निकलने की कोई भी उम्मीद मुझे नजर नहीं आती।
अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सजा माफी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फाॅरवर्ड करने की अनुशंसा करें।
भारतीय राजनीति के ताजा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है। अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था।
इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है।
जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारों वफादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि खून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग खुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सजा देने और बदला लेने से ज्यादा माफ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे।
इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे। मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा। मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है।
जो ताकतवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाजे के अलावा और कहां लौट सकता है। आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे।
वी डी सावरकर
(स्रोत: आरसी मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975)
(साभार ‘दि वायर’ से)
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