-चंदन
कश्मीर सुलग रहा है। यह अशांति पिछले सालों में लगातार बढ़ती गयी है। 8 जुलाई, 2016 को बुरहान वानी की सुरक्षाबलों द्वारा ‘मुठभेड़’ में हत्या के बाद लाखों कश्मीरी उसके जनाजे में शामिल हुए। सेना की बन्दूकों के सामने पत्थरों से टक्कर ली जाने लगी। पत्थरबाज; पैलेट गन, शाॅट गन, आदि का; शिकार होने लगे। साल 2017 में, स्कूली यूनिफाॅर्म में छात्र-छात्राऐं प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं। सेना-पुलिस पर पत्थर फेंक रहे हैं। गोली खा रहे हैं, मर रहे हैं, हमारे (ही देश के) लोग। (पिछले साल एम्स, दिल्ली के डाॅक्टरों ने कश्मीर में पैलेट गन के शिकार लोगों को देखकर कहा था, ‘‘यहां युद्ध जैसे हालात हैं’’)।
सितम्बर माह में पीडीपी के सांसद तारिक हामिद कर्रा ने पार्टी पर ‘‘सत्ता पर बने रहने के लिए आदर्शों को छोड़ने’’ का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया। जिस सीट पर 9 अप्रैल को उपचुनाव हुआ। इस उपचुनाव के दौरान मेजर लीतुल गोगोई ने वोट देकर आए एक कश्मीरी को पकड़कर ‘ह्यूमन शील्ड’ की तरह इस्तेमाल किया। मेजर की यह हरकत युद्ध के नियमों के खिलाफ है लेकिन देशभर के अंधभक्तों ने मेजर की तारीफ की। सेना प्रमुख विपिन रावत ने भी मेजर को सम्मान दिया। हांलाकि बाद में सैनिक नियमों के तहत मेजर गोगोई पर आंतरिक जांच बैठाई गई। सेना के ‘उल्लेखनीय प्रयासों’ के बावजूद मात्र 7 प्रतिशत ही मतदान हुआ। इतना कम मतदान कश्मीरियों का भारतीय शासकों के प्रति उनके अविश्वास और आक्रोश को दिखाता है। भारतीय शासक और सेना कश्मीरियों को यदि शत्रु की तरह मानकर उनसे युद्ध कर रही है तो कश्मीरियों से भारतीय राजसत्ता पर विश्वास करने की मांग करना मूर्खता है।
अभी मेजर गोगोई के कारनामें को कश्मीरी आवाम भूली नहीं थी कि सेना ने पुलवामा के एक कालेज में छापा मारा और सैनिकों ने कालेज से बाहर आते-आते 50 छात्रों को घायल कर दिया। सेना की 26 अप्रैल की इस हरकत ने छात्रों को आक्रोशित कर दिया। कश्मीर एक बार फिर अशांत हो गया। अभी तक प्रदर्शनों में शामिल होने वाले नौजवानों के बाहर से आने या पैसे लेकर आने का मीडिया द्वारा प्रचार किया जा रहा था। पर अब तो स्कूल-कालेजों को बन्द कर उनसे बाहर निकल खुद छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं। पिछले साल के बड़े प्रदर्शनों से इस साल के प्रदर्शनों में एक अंतर यह भी है कि छात्र-छात्राऐं अपनी स्कूली यूनिफार्म में प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं। लेकिन भारतीय मीडिया ने बताया प्रदर्शनों और पत्थरबाजी से फिर ‘मुकाबला’ शुरू, सेना की बन्दूकों का।
कश्मीर के नेताओं को अक्सर ही अलगाववादी कहा जाता है। लेकिन समझने की बात ये है कि किसी अलगाववादी नेता के कहने पर वहां की हजारों-हजार जनता कैसे सड़कों पर उतर आती है। हकीकत यह है कि भले ही वे कश्मीरी नेता भारत सरकार या देश के अन्य हिस्सों के लिए अलगाववादी हो सकते हैं, जैसे की किसी भी राज्य के नेता होते हैं; पर कश्मीरी जनता के बीच स्थापित नेता वही हैं।
कश्मीर में बुरहान वानी की मौत को एक साल होने पर उसकी बरसी मनाना तय किया गया। यह कश्मीरियों के विरोध का दिवस बनने जा रहा था। तब ऐसे में अतिरिक्त सैन्य बल लगाया गया, इन्टरनेट सेवाऐं बन्द कर दी गयी, कफ्र्यू लागू कर दिया गया। ऐसी स्थिति से कश्मीरियों को कितना और कब तक रोका जा सकता है?
इस सब के बीच मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की उम्मीद केन्द्र पर टिकी हुई है कि वह माहौल शांत करे। केन्द्र सरकार; कश्मीरी नेताओं (अलगाववादी) से इस मसले पर बात करे। सेना को कश्मीर से कम किया जाये। केन्द्र सरकार किसी भी कीमत पर बात करने को तैयार नहीं है। हांलाकि जनवरी में एक दल के साथ कश्मीर गये पूर्व रक्षा मंत्री यशवंत सिन्हा ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल की याद दिलाते हुए कहा था कि ‘‘भारत सरकार को कश्मीरी नेताओं और पाकिस्तान से इस मसले पर बात करनी चाहिए।’’ लेकिन भाजपा में यशवंत सिन्हा सलाहकार परिषद में हैं, सलाहकार परिषद में वही लोग हैं जिनकी बात सरकार नहीं सुनती है। कश्मीरियों पर लगातार हमलावर मोदी सरकार अड़ियल रुख रखे हुए है।
इस तरह कभी लेखकों, पर्यटकों ने जिसे स्वर्ग कहा वह आज नरक बना हुआ है। नरक बनाने में स्वतंत्र भारत की सरकारों ने निरंतर अपनी भूमिका निभाई। ब्रिटिशों ने भारत की सभी रियासतों को आजाद कर दिया। भारत-पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र देश बनने के विकल्पों के साथ सभी रियासतें आजाद हो गयीं। अधिकांशतः तो भारत या पाकिस्तान का; बिना या कम विवाद के साथ; हिस्सा बन गईं। लेकिन जम्मू-कश्मीर में यह नहीं हुआ। पाकिस्तान की तरफ से 1948 में आये कबाइलियों को भगाने के लिए भेजी गई भारतीय सेना आज तक वहां डटी हुयी है। बाद के समय में पं. जवाहर लाल नेहरू जनमत संग्रह कराने के अपने वादे से मुकर गये। विभिन्न राष्ट्रीयताओं और विविधताओं से भरे भारत देश को संविधान में गणतंत्र कहा गया। ऐसे में संविधान के तहत धारा 370 का प्रावधान किया गया और कश्मीर को कुछ मामलों में राज्य के अधीन जबकि कुछ मामलों में केन्द्र के अधीन रखा गया। भारतीय शासकों ने इस औपचारिक फैसले के बावजूद लगातार जम्मू-कश्मीर पर पूर्ण नियंत्रण की ही मंशा रखी। यह वैसा ही था जैसे कोई बाज बिल्ली के बच्चे पर नियंत्रण चाहता है। आज तो भारतीय शासक औपचारिक तौर पर भी अपनी पुरानी बात से पीछे हट गये हैं। आज पाकिस्तान कश्मीरी जनता के संघर्ष का समर्थन करता है और अन्तर्राष्ट्रीय हलकों में इस प्रश्न को उठाकर भारतीय शासकों पर दबाव डालता है।
कश्मीर में संघर्षों के बीच संघ और भाजपा ने हल्ला मचाना शुरू किया कि हमारे नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी की मृत्यु स्थली कश्मीर है। कश्मीर तो पूरा हमारा ही होना चाहिए, पाकिस्तान के कब्जे वाला भी। भले ही संविधान का ही उल्लंघन करना पड़े (भारत जम्मू-कश्मीर विलयन समझौता और धारा 370)। कश्मीर के मौजूदा हालात में संघियों की भी काली करतूतें शामिल हैं।
शुरुआत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) की अवस्थिति जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र देश रहने देने की थी ताकि राजा हरि सिंह के नेतृत्व में एक हिन्दू राष्ट्र बना रहे। पाकिस्तान की तरफ से कबाइली हमले और भारतीय शासकों के हस्तक्षेप के बाद संघ ने अपनी अवस्थिति को बदला। तब संघ ने कश्मीर में अपने साम्प्रदायिक एजेण्डे को अलग तरह से आगे बढ़ाया। संघ ने अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा के अनुरूप जम्मू-कश्मीर का क्षेत्रीय आधार पर जनमत संग्रह कराने के लिए आंदोलन चलाया। जम्मू-कश्मीर का क्षेत्रीय विभाजन धार्मिक किस्म का है। जिसमें जम्मू हिन्दू बहुल, कश्मीर मुस्लिम बहुल व लद्दाख बौद्ध बहुुल क्षेत्र है। संघियों को उम्मीद थी की धार्मिक आधार पर जनमत संग्रह होने पर जम्मू और लद्दाख के हिस्से भारत में जुड़ जायेंगे। संघियों की यह मांग जहां एक तरफ अपनी साम्प्रदायिक सोच का नतीजा थी, वहीं इसमें कश्मीरियों के प्रति पूर्वाग्रहों की भी भूमिका थी जिसके तहत वे सोचते थे कि कश्मीरी पाकिस्तान में जाना चाहेंगे। धारा 370 के खात्मे की मांग भी संघी तभी से कर रहे हैं। 1952 में कानपुर में जनसंघ के पहले सम्मेलन में कश्मीर के मामले में प्रत्यक्ष तौर पर शामिल होने का तय किया गया। प्रजा परिषद के माध्यम से आन्दोलन की शुरुआत की गयी, जो कश्मीर में जनसंघ की शाखा थी। साम्प्रदायिक आधार वाला यह आन्दोलन कश्मीर के पुराने सामंती शासकों के आर्थिक और भौतिक समर्थन से चल रहा था, जो शासकों वाली अपनी पुरानी हैसियत को पाना चाह रहे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि कश्मीरियों में यह धारणा मजबूत होती गयी कि हमारी आजादी, पहचान और अस्मिता को नष्ट करने की कोशिशें की जा रही हैं।
संघ की उपरोक्त भूमिका ने जम्मू-कश्मीर में साम्प्रदायिकता के बीजों को बोया। 1990 के काल में कश्मीरी पंडितों में भारतीय शासकों के हितों के अनुरूप होने के चलते इन्हें यह छूट पूरे भारत में ही मिलती रही है। आज संघी अपनी पीठ थपथपाते हैं। हैरानी नहीं है। साम्प्रदायिकता की विषबेल के दम पर ही तो आज वो कश्मीर में सरकार का हिस्सा हैं।
कश्मीर की समस्या को ये संघी सरकार या हमारी मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था हल नहीं कर सकती। इस पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अपनी राजसत्ता का लोहा मनवाना ही सब कुछ है। जनता का शासन कहने के लिए ही होता है। जनता का असल शासन केवल इस पूंजीवादी लूट के तंत्र को समाप्त कर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना कर ही आ सकता है। कश्मीरियों को भी इसी राह से ही अंतिम मुक्ति मिल सकती है।
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