शनिवार, 6 मई 2017

सांपनाथ-नागनाथ में से ही फिर किसी को चुनेगी जनता

विधानसभा चुनाव 2017 
-कैलाश

        फरवरी-मार्च माह में  पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा व मणिपुर) में विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनावी रण में जीत हासिल करने के लिए चुनावबाज पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों ने अभी से जोड़-तोड़ शुरु कर दी है। प्रत्येक पार्टी साम-दाम-दण्ड-भेद का इस्तेमाल कर अपनी चुनावी नैया पार लगाना चाहती है।



        

        अलग-अलग राज्यों में सत्ताधारी पार्टियों द्वारा पूंजीपति वर्ग के हित में नीतियां लागू करने के कारण आम जनता की बदहाल होती स्थिति व इन पार्टियों द्वारा सार्वजनिक संपत्ति की लूट व भ्रष्टाचार के चलते आम मेहनतकश जनता का आक्रोश इन पार्टियों-नेताओं के खिलाफ फूटेगा। जो भी पार्टी सत्ता में आयेगी वह आम जनता के हित में काम करने व विकास करने के नाम पर पूंजीपति वर्ग के हितों को ही आगे बढ़ायेगी तथा जनता अपने को ठगा-छला महसूस कर फिर से पांच साल बाद इनसे बदला लेने को चुनावों का इंतजार करेगी।

        चुनावबाज राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए लोकलुभावन नारों-वायदों-जुमलों से लेकर जनता में मौजूद जाति-धर्म-क्षेत्र आदि के पिछड़ेपन का इस्तेमाल कर अपनी चुनावी नैया पार लगाने में करते हैं। इन विधानसभा चुनावों के मद्देनजर चुनावी राज्यों में भी विभिन्न चुनावबाज राजनीतिक पार्टियों की यह घृणित कोशिशें जारी हैं। 

        चुनावी दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी आजकल खुद ही अपने आतंरिक संकट से गुजर रही है। पिछले चुनाव में लैपटाप बांटने तथा बेरोजगारी भत्ता देने के वायदे के साथ सत्ताशीन यह पार्टी आज फूट के कगार पर है। उ0 प्र0 में मुख्यतः पिछड़ों और मुस्लिमों में आधार वाली यह पार्टी पिछले पांच वर्षों में सत्ताशीन रहकर अपने घृणित चुनावी हितों के लिए मुजफ्फरनगर में दंगों को फैलने देने व दिल्ली-आगरा एक्सप्रेस वे के लिए किसानों की जमीनों के अधिग्रहण व संघर्षों के दमन, अपराधियों को शरण देने व भ्रष्टाचार के मामलों में बदनाम रही है। खुद सपा मुखिया मुलायम सिंह को अधिकारियों-मंत्रियों को लिमिट में रहकर भ्रष्टाचार करने की सलाह देनी पड़ी। वैसे भी यह पार्टी सत्ताशीन होने पर दबंगई-गुड़ई, भ्रष्टाचार व कानून व्यवस्था को लचर करने के लिए बदनाम है।

        अब चुनावी वेला मेें सपा के ‘युवा’ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने पुराने पापों से पिण्ड छुड़ा कर साफ-सुथरी छवि व विकास के नाम पर चुनावों में जाना चाहते हैं। इसके लिए वह गुण्डों-अपराधियों से भरी सपा में एक अन्य बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के विलय का विरोध करते हैं तो 17 पिछड़ी जातियों को एस.सी. में शामिल करने जैसे प्रस्ताव पास कर जातिगत समीकरणों को भी साधने का प्रयास करते हैं। इसके अतिरिक्त सत्ता में वापसी होने पर मोबाइल बांटने का लालच भी मतदाताओं को देते हैं। 

        सपा में जारी अंतर्कलह भी चुनावबाज राजनैतिक पार्टियों के बीच की आम परिघटना है। तथाकथित समाजवाद के नाम पर परिवारवाद को बढ़ाने वाली यह पार्टी आगामी चुनावी समीकरणों को साधने हेतु आपसी गुटबंदी का शिकार हो रही है। भारतीय चुनावी राजनीति में अवसरवादिता के लिए मशहूर मुलायम सिंह व शिवपाल धड़ा पार्टी के पुराने साथियों व संकट के समय उनका साथ देने वाले अमर सिंह को साथ लेकर चलना चाहते हैं। वहीं अखिलेश-रामगोपाल गुट इनसे पिंड छुड़ा टिकट बंटवारे में अपना वर्चस्व चाहता है। वैसे भी चुनावी मौसम में नेताओं की अवसरवादिता व दल बदलना आम परिघटना बन चुकी है। आज तक एक पार्टी का गुणगान करने वाले नेता दल बदलकर उसी को कोसने लगते हैं।

        केन्द्र में काबिज मोदी सरकार व संघ मंडली भी उ0 प्र0 में सत्ता पर काबिज होने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है। गुजरात में सांप्रदायिक दंगों के लिए कुख्यात मोदी-शाह की जोड़ी उ0 प्र0 में भी हर हथकंडा आजमा रही है। संसदीय चुनावों में जीत हासिल करने के लिए मतों के ध्रुवीकरण के लिए इन्होंने पश्चिमी उ0 प्र0 को दंगों की आग में झोंक दिया था। अब भी उसी आग की तपिस का इस्तेमाल कर व तथाकथित विकास के नाम पर यह अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना चाहती है। 

        उ0 प्र0 चुनावों में जीत हेतु भाजपा-संघ द्वारा एक तरफ राम मंदिर बनाने, भाजपा सांसद हुकुम सिंह द्वारा कैराना से हिन्दुओं के पलायन की झूठी लिस्ट को जारी करने व मुस्लिम विरोधी बयानों वतनावों को हवा देकर धु्रवीकरण को कोशिश जारी है। दूसरी तरफ विनाश पुरुष से विकास पुरुष बने मोदी के तथाकथित विकास के वायदे व अमित शाह द्वारा दलितों के घर भोजन व उज्जैन कुंभ में दलित संतो के संग नहाने के जरिये मध्यम वर्ग व दलितों को लुभाने की भी कोशिशें की जा रही हैं। 

        संघी प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी सभाओं में किराये की भीड़ जुटा अपने पक्ष में माहौल बनाने से लेकर दूसरी पार्टियों में तोड़-फोड़ कर व हर बागी-दागी को अपनी पार्टी में शामिल कर हर हथकंडे को यह पार्टी चुनावों में जीत के लिए आजमा रही है। 

        खुद को दलित की बेटी कहने वाली मायावती व उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी चुनावी मजबूरियों के चलते पहले ही सर्वजन की पार्टी में तब्दील हो चुकी है। 2007 के विधानसभा चुनावों में अपनी सोशल इंजीनियरिंग(ब्राह्मण-दलित-मुस्लिम गठजोड़) के चलते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली यह पार्टी पिछले आम चुनावों में एक भी सीट हासिल नहीं कर पायी। दलितों के बीच इसका आधार क्रमशः घटता गया है। इन चुनावों में यह पार्टी दलित-मुस्लिम वोटों के सहारे जीत हासिल करना चाहती है। साथ ही इस पार्टी ने अभी तक सबसे ज्यादा मुस्लिम और दलित उम्मीदवारों को टिकट दिये हैं। 

        आजादी के बाद काफी समय तक एकछत्र राज करने वाली पूंजीपतियों की भरोसेमंद पार्टी कांग्रेस भी इन चुनावों में अपनी जीत की कोशिशों में लगी है। जनता की तबाही-बर्बादी के लिए जिम्मेदार यह पार्टी किसानों की दुर्दशा पर आंसू बहा सत्ता में आने पर उनका कर्जा माफ करने व बिजली बिल आधा करने का वायदा कर यात्रा निकाल रही है। तो दलितों के घर खाना खाकर व दलित सम्मेलन आयोजित कर खुद को दलित हितैषी साबित करने की कोशिशों में लगे हैं। राजबब्बर को प्रदेश अध्यक्ष व शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर यह पार्टी मुस्लिम-ब्राह्मण-दलित मतों को हासिल कर सत्ता पाने की कोशिशों में लगी है।

        अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भी अपने-अपने आधार और हैसियत के अनुसार इन चुनावों में घृणित जोड़-तोड़, विभाजन तथा गठबंधन में लगी हुयी हैं। 

        अन्य चुनावी राज्यों में भी सत्ताशीन पार्टियां व विपक्षी पार्टियां चुनाव जीतने को हर जुगत भिड़ा रही हैं। इसके लिए चुनावी वायदों-जुमलों  से लेकर व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी व जनता के बीच मौजूद जातिगत-धार्मिक भेदभावों को भड़काकर अपने पक्ष में ध्रुवीकरण व मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों में हाजिरी लगाकर तथाकथित धर्माचार्यों से समर्थन जुटाने की कोशिशें जारी हैं। 

        आज पूरी ही चुनावी राजनीति पतित होकर वहां पहुंच गयी है कि उससे कुछ भी सकारात्मकता की उम्मीद नहीं की जा सकती है। मजदूर-महनतकशों के जीवन के कष्टों का खात्मा तो बहुत दूर यह जनता के बीच मौजूद विभिन्न जाति-धर्म-क्षेत्र के भेदों को खत्म करने का माद्दा भी खो चुकी हैं। इन भेदों को बनाये रखने व घृणित चुनावी हितों में इनका इस्तेमाल करने में ही आज इन पार्टियों का हित है। बल्कि कई पार्टियां तो इन भेदों को मजबूत कर व इनका इस्तेमाल कर ही अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रही हैं। यह पूंजीवादी व्यवस्था व उसकी राजनीतिक पार्टियां मजदूर-मेहनतकशों के जीवन को खुशहाल बनाने के बजाय कष्टों-तकलीफों की ओर धकेलेंगी। 

        भारत के मजदूर-मेहनतकशों की जरूरत आज इन चुनावबाज पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों का पिछलग्गू बनने व इनको बदल-बदल कर सत्ता सुख देने में नहीं बल्कि समग्र पूंजीवादी व्यवस्था व उसकी चुनावबाज पार्टियों के चरित्र को समझने व उसको बेनकाब करने की है। भारत के मजदूर-मेहनतकशों की जरूरत है कि वह महान रूसी समाजवादी क्रांति के शताब्दी वर्ष में इस क्रांति को आत्मसात कर व इससे प्रेरणा ग्रहण कर समाजवादी व्यवस्था कायम करने की ओर आगे बढ़े।

        समाजवादी समाज व्यवस्था ही वह व्यवस्था है जिसमें मजदूर-मेहनतकशों को व्यापक स्तर पर चुनने व चुने जाने की आजादी होगी। जिसमें हर स्तर पर जनप्रतिनिधि-अधिकारी-न्यायाधीशों तक का चुनाव होगा व व्यापक जनता के अनुरूप काम न करने पर उनको वापस बुलाने का अधिकार भी जनता को होगा। ऐसा समाजवादी समाज व उसकी चुनाव प्रणाली ही मजदूर-मेहनतकशों के हितों को केन्द्र में रखकर उन्हें आगे बढ़ा सकती है। 

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