-प्रेम प्रकाश
जनतंत्र का भावनात्मक आशय जनता के स्वशासन की सार्वजनिक सत्ता से है। लेकिन आदिम गोत्र समुदायों को अलग रख दें और वर्गीय समाजों को सामने रखें तो बहुसंख्य जनता राजनैतिक भागीदारी से पृथक रही है। सार्वजनिक सत्ता ‘‘राज्य’’ के रूप में हमेशा से प्रभुत्वशाली, संपत्तिशाली वर्ग की सेवा करती रही है। अगर प्राचीन गणतंत्रों को अपने सामने रखे- एथेंस, स्पार्टा जैसे यूनानी गणतंत्र बहुत चर्चित रहे हैं। यहां एथेंस जनतंत्र को ही देखें अपने समृद्धि के शिखर में एथेंस में 90000 स्वतंत्र नागरिक, स्त्री, पुरुष, बच्चे थे। यहां दासों की संख्या 365000 और आश्रितों की संख्या 45000 थी। इन दासोें व मुक्त आश्रितों को कोई अधिकार नहीं था। यहां ‘‘जनतंत्र’’ शब्द अलंकारिक भर रह जाता है।
वर्गीय समाजों में ‘‘सार्वजनिक सत्ता’’ से आम जनता अपनी कार्यकारी भूमिका खो देती है। अब जनता की ‘‘कार्यकारी सत्ता’’ का स्थान ‘‘राज्य’’ रूपी निकाय ले लेता है। उसके हथियारबंद लोग, जेलखानें, दमनकारी संस्थाएं, भौतिक संसाधन एवं धार्मिक संस्थाएं इस मशीन का अंग बन जाती हैं। हम देखते हैं कि प्राचीन काल का राज्य प्रभुत्वशाली दास स्वामियों की सेवा करता था और दासों को दबा कर रखता था। सामंती राज्य अभिजात वर्ग की सेवा करता था और किसानों, भूदासों, बंधुआ मजदूरों को दबा कर रखता था।
आधुनिक पूंजीवादी जनतंत्रों की स्थिति भी यही है। पूंजीवाद एक समाज व्यवस्था है, इसमें पूंजीपति वर्ग प्रभुत्वशाली वर्ग है। संवैधानिक राजतंत्र, एक व्यक्ति की तानाशाही, एक पार्टी की तानाशाही या पूंजीवादी जनतंत्र, ये सभी रूप पूंजीवादी समाज व्यवस्था के ही हैं। इन सभी की केन्द्रीय विशेषता राज्य है। जो सभी कार्यकलापों का नियमन-संचालन-नियंत्रण करता है। इसमें जनता की भागीदारी नहीं होती। इतिहास के सभी राज्यों की तरह यह पूंजीवादी राज्य प्रभुत्वशाली पूंजीपति वर्ग की सेवा करता है। मजदूरों मेहनतकशों पर नियंत्रण का शिकंजा कसे रखता है।
17 वीं शताब्दी की इंग्लिश क्रांतियां, 18 वीं शताब्दी की अमेरिकी क्रांति व फ्रांसीसी क्रांति ने सामंती निरंकुशता को समाप्त कर पूंजीवादी राज्यों की स्थापना आरंभ की । किंतु संपत्तिवान वर्ग को ही जनवाद मिल सका। व्यापक मेहनतकश मजदूर आबादी इससे वंचित रही। नागरिक अधिकार मजदूरों, स्त्रियों, गुलामों को हासिल नहीं हुए।
व्यापक मेहनतकश आबादी को अधिकार 1917 की महान रूसी समाजवादी क्रांति के बाद मिलने आरंभ हुए। उस समय तक तो पूंजीवादी जनवाद ने स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व का नारा पूरा त्याग दिया। राजाओं-सामंतों से साठ-गांठ कर पूंजीपति वर्ग ने समझौता कर लिया। पूंजीपति वर्ग आमतौर पर स्वयं शासन नहीं करता। पेशेवर राजनीतिज्ञ व नौकरशाह शासन चलाते हैं। पूंजीवादी जनतंत्र में ‘‘राज्य’’ जो ‘‘कार्यकारी सत्ता’’ होती है, जनता उससे परे होती है।
1.कार्यकारी सत्ता (कार्यपालिका/न्यायपालिका)
पेशेवर राजनीतिज्ञ व नौकरशाह शासन चलाते हैं। इनकी भर्ती गैर पूंजीवादी संपन्न वर्ग से मुख्यतः होती है। ज्यादातर देशों में इनकी भर्ती स्थाई तौर पर होती है। नौकरशाही, सेना, पुलिस, दमन के उपकरण, जेलें आदि का विशाल अमला होता है, जो हर कार्यकलाप पर नियमन-नियंत्रण करता है।
यह कार्यपालिका ही असली सरकार होती है। अक्सर ही जन-जीवन से जुड़े मामलों पर नौकरशाही का शिकंजा कसा रहता है। यह पूंजीपति वर्ग के हितों की बखूबी सेवा करती है। जनता के प्रति इसकी कोई जबावदेही नहीं होती है क्योंकि जनता न इनका चुनाव करती है, न इन्हें हटा सकती है। तरक्की, शोहरत, संपत्ति पाना इनका वर्गीय हित होता है जो पूंजीवादी व्यक्तिवादी हित है।
2. विधायी सत्ता
पूंजीवादी जनतंत्र का यह हिस्सा अलंकारिक होता है। जिसके बारे में कहा जाता है कि जनता के प्रतिनिधियों द्वारा बनाये गये कानूनों के अनुसार जनतंत्र चलता है। इनका जनता के रोजमर्रा की समस्याओं से कोई संबंध नहीं होता है। बल्कि चुनावी प्रक्रिया द्वारा पूंजीवादी हितों का प्रतिनिधित्व होता है। पेशेवर राजनीतिज्ञों का चुनाव पूंजीवादी व्यवस्था के अनुरूप प्रतियोगिता से होता है। अनेक लोग राजनीति को पेशे के तौर पर अपनाते हैं। पेशेवर राजनीतिज्ञ अपनी वर्गीय सोच में पूंजीवादी होते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में सफलता, शोहरत और संपत्ति हासिल करना इनका वर्गीय हित बनता है। ये चुनाव जीत कर वही करते हैं जो पूंजीपति वर्ग के हित में हो।
चुनावी मौसम में जनतंत्र की बातें, जनता की भावनाओं के हितों की बात करना। जीत कर जाने के बाद वह पूंजीपति वर्ग की सेवा करते हैं और अपने पूंजीवादी स्वार्थों की पूर्ति की जुुगत में तल्लीन रहते हैं।
संसद, विधानसभाएं जन प्रतिनिधित्व का मंच कही जाती हैं लेकिन वे गप्पबाजी का अड्डा बन जाती हैं। शासक पूंजीपति वर्ग अपनी कुटिल चाल से जन हस्तक्षेप क्षेत्र के मामले कार्यपालिका को सौंपता जाता है। पूंजीवादी जनतंत्र में जनता की भागीदारी केवल वोट डालने तक सिमट जाती है। शासन या कार्यकारी सत्ता से वह पूरी तरह बेदखल रहती है।
3.पूंजीवादी प्रचार माध्यम (चैथा स्तंभ)
पूंजीवादी प्रचार माध्यमों के घटाटोप में जनता की कार्यकारी भागीदारी का मामला दर किनार कर दिया जाता है। जन-मानस का फर्जी मुददों से उद्वेलन कर, जन हित के सवाल से ध्यान हटाने का उपक्रम चलता रहता है। प्रचार तंत्र भी पूरी तरह संपत्तिशाली-प्रभुत्वशाली वर्ग की सेवा में लगा रहता है। अधिकांशतः इन प्रचार माध्यमों का मालिकाना पूंजीपतियों के पास होता है और इसका भरपूर इस्तेमाल पूंजीवादी हितों में होता है।
पंचायत, नगर निकाय, आदि स्थानीय निकायों की गति इससे भिन्न नहीं होती। वे पूंजीवादी आधारों को विस्तारित करती हैं।
4.कार्यकारी सत्ता में भागीदारी नहीं बल्कि जनता की शक्तिहीनता
चुनाव से शोषण-उत्पीड़न का अंत नहीं होता। पूंजीपति वर्ग चुनावी विशात बिछाकर मजदूरों मेहनतकशों को सुनहरे सपने परोसता है। हर चुनाव बाद पूंजीवादी गुलामी-उजरती गुलामी मजबूत होती जाती है। चुनाव में समानता जीवन में विकराल असमानता को बढ़ाती जाती है। सारे साधन-स्रोत पूंजीपतियों की गिरफ्त में सिमट जाते हैं। उनको दूसरों के लिए मेहनत करने वाले पशु मेें ढालने का विशेषाधिकार मजबूत होता जाता है। अधिक से अधिक मेहनत कम से कम मजदूरी का चक्र तेज होता जाता है। यह निजी संपत्ति का राक्षसी रूप है जो पूरी मेहनतकश जनता को शहरी-ग्रामीण मेहनत करने वाले पशु बना देती है।
5.सामाजिक श्रम विभाजन
सारा ज्ञान, विज्ञान, तकनीक होने के बावजूद समाज में भारी आबादी पशुवत ‘‘रोटी-पानी’’ भर के लिए जीवन खपाने के लिए मजबूर बनायी गयी है। वह सार्वजनिक जीवन के कार्यकारी मामलोें में विचार करे, अपनी भागीदारी करे; यह असंभव बना दिया गया है।
पूंजीवादी जनतंत्र में जनता की भागीदारी और उसके हितों की पूर्ति में पूंजीवादी राज्य मशीनरी, पूंजीवादी शोषणकारी व्यक्तिगत संपत्ति और पशुवत काम करने का श्रम विभाजन बाधक है।
बीसवीं सदी की समाजवादी क्रांतियों ने इन्हें समाप्त कर समाजवादी राज्य बनाये। वही वास्तविक जनभागीदारी के जनतंत्र जनता ने हासिल किए।
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