शनिवार, 6 मई 2017

पूंजीवाद नहीं मजदूर राज चाहिए

5 राज्यों में विधानसभा चुनाव
-कविता

        5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव का माहौल इन दिनों गरम है। पान-चाय की दुकानों से लेकर टीवी-अखबारों में किसके सर ताज-किसकी हार की बहस चल रही है। राजनीतिक दल अपनी-अपनी चुनावी बिसात बिछा कर विरोधियों को परास्त करने की योजनाओं में मशगूल हैं। चुनावी रैली-दौरे, दल-बदल, वायदे-जुमलों आदि का माहौल बना हुआ है। ऐसे समय में बेहद आवश्यक हो जाता है कि संजीदगी से यह सोचा जाय कि देश के मजदूरों, किसानों, शोषित, उत्पीड़ित, वंचितों को इस चुनाव से क्या मिलने वाला है। क्या फैक्टरियों में होने वाले शोषण से मजदूरों को मुक्ति मिलेगी? क्या बर्बाद होते किसानों, बेरोजगार घूमती जवानी के जीवन में कोई फर्क पड़ेगा? यदि नहीं तो फिर इन चुनावों का देश की मजदूर-मेहनतकश आबादी से क्या लेना-देना?

        इस पूंजीवादी समाज में चुनाव मजदूर-मेहनतकशों के जीवन में कोई बदलाव नहीं ला सकते। न ही यह इस चुनाव का लक्ष्य ही है। इनके जीवन में बदलाव हमेशा से ही इनकी एकता व संघर्ष से आया है। मजदूर-मेहनतकश के जीवन में बदलाव का एक ही रास्ता है वह है समाजवाद। किंतु जैसे ही समाजवाद की बात आती है वैसे ही पूंजीवादी विचारक पूंजीवादी जनतंत्र की तारीफों के पुलिन्दे बांधना शुरु कर देते हैं और समाजवादी शासन व्यवस्था की निंदा करने लगते हैं। आईये दोनों ही शासन व्यवस्था की समानान्तर तुलना करके देखते हैं।

        किसी भी समाज व्यवस्था की शासन व्यवस्था उस समाज की उत्पादन व्यवस्था व ढांचे पर निर्भर करती है। पूंजीवादी समाज एक शोषणकारी समाज है। जिसमें पूंजीपति वर्ग समाज के शीर्ष पर होता है और मजदूर वर्ग सबसे निचले पायदान पर होता है। पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकशों का शोषण करके अपना स्वर्ग बनाता है और मजदूर-मेहनतकशों के हिस्से नारकीय जीवन आता है। पूंजीवादी समाज, समाज में भयानक बेरोजगारी, बदहाली बनाकर रखता है। इस सब के बावजूद उसका शासन लोगों को स्वीकार्य होता है। क्योंकि वह समाज में तमाम तरह के भ्रम बनाकर रखता है। शासन सत्ता होने के कारण यह लोगों पर राज करता है। सिर्फ क्रांतिकारी संघर्ष ही इसकी सत्ता को चुनौेती देकर इसे बदल सकते हैं। 

        सामंती समाज व्यवस्था के विपरीत पूंजीवाद अपने शासन को कानून का राज कहता है। कई मामलों में यह बात सच भी है। सामंती समाज में राजा के मुख से निकली बात कानून होती थी, जो आज कुछ कल कुछ और हो सकती थी। किंतु पूंजीवाद अपने शासन के लिए कानून को निरपेक्ष शक्ति, सभी लोग कानून के मातहत हैं आदि कहकर प्रचारित करके अपने शासन को न्यायसंगत ठहराता है। यह बात निरपेक्ष तौर पर सत्य नहीं होती। पहली बात यह कि जो कानून बने हैं वे सभी पूंजीपति वर्ग ने अपने हित को ध्यान पर रखकर ही बनाये हैं। पूंजीपति वर्ग का कानून निजी संपत्ति रखने, शोषण करने की आजादी देेता है। फौज-पुलिस-कोर्ट इस आजादी की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। और पुराने पड़ चुके कानून को समय-समय पर बदलकर पूंजीपति की जरूरत के अनुरूप ढाल दिया जाता है। पहले विदेशों से सामान लाना-ले जाना अपराध हुआ करता था किंतु जब समग्र पूंजीपति वर्ग की जरूरत पैदा हुयी तो नयी आर्थिक नीतियां लागू कर धीरे-धीरे इसे कानूनी बना दिया गया। जमाखोरी से लेकर हथियारों की खरीद-फरोख्त तक सभी जगह हम ऐसे उदाहरणों को साफ देख सकते हैं।

        ‘‘कानून की नजर में सभी समान हैं’’ यह बात कही और रटाई जाती है किंतु कोई भी व्यक्ति अपने निजी अनुभव से जानता है कि पूंजीवाद में न्याय पाना कितना महंगा है। पुलिस की रिश्वत से लेकर वकीलों की फीस, गैरकानूनी ढंग से पैसा खर्च करके ही न्याय मिल सकता है। इसीलिए भारतीय जेलों में बहुलांश गरीब आबादी सड़ रही होती है और पैसे वाले अपराधी बाहर घूम रहे होते हैं। कानूनी तौर पर सबको अधिकार है कि वह अच्छे स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाए, उसे अच्छी जगह अपना इलाज कराने की आजादी है, आदि-आदि। पर क्या देश के मजदूर-मेहनतकश ऐसा कर पाते हैं? नहीं। उनके सामने क्या मुसीबत आती है? निश्चित तौर पर पैसा। किताबों में दर्ज बराबरी-हकीकत में भारी गैरबराबरी पूंजीवाद की सच्चाई है। 

        अपने कानूनों की वैधता पूंजीपति वर्ग जनता से ही हासिल करता है। वह अपने शासन को जनतंत्र कहता है। जिसके तहत वह कहता है कि यह मेरा शासन नहीं बल्कि जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता द्वारा चुना गया शासन है। जनता वोट देकर सरकार चुनती है और सरकार कानून बनाकर देश चलाती है। बड़ी चालाकी से पूंजीपति वर्ग वोट देने वालों के बीच समानता को स्थापित कर देता है। यह अंबानी और अंबानी की फैक्टरी मेें काम करने वाले मजदूर को समान कर देता है। क्योंकि दोनों ही एक वोट देते हैं। किंतु क्या ये दोनों समान हैं?

        पूंजीपति वर्ग अपने इस आभासी, झूठे जनतंत्र की वाह-वाही कर बेहद खुश होता है। इसकी आड़ में वह अपने शासन के खूनी पंजों को छिपा देता है। वह इस हकीकत को छिपा देता है कि जिस शासन के हिस्से का जनता चुनाव कर रही है, वह बेहद छोटा हिस्सा है। और यह शासन करने का मात्र एक रूप है। पूंजीवादी शासन का एक बड़ा व महत्वपूर्ण हिस्सा तो कभी चुना ही नहीं जाता। नौकरशाही से लेकर पुलिस-फौज के अधिकारी, न्यायाधीश यह सब बिना चुने ही जनता पर शासन करते हैं। यह पूंजीवादी राज्यसत्ता का मजबूत स्तंभ हैं। इनकी परीक्षा, इन्टरव्यू, ट्रेनिंग में इन्हें पूंजीपति वर्ग व उसकी सत्ता का विश्वास पात्र बनाया जाता है। इनका जीवन सुख-सुविधाओं से भर दिया जाता है ताकि इनके जीवन के हित पूंजीवाद के साथ मिल जायें। राजसत्ता की इसी ताकत के दम पर ही सरकारें बदलती रहती हैं किंतु पूंजीपति वर्ग का शासन बदस्तूर जारी रहता है। सरकारें बदल जाने के बाद नई चुनी सरकार पिछली सरकार की नीतियों को ही आगे बढ़ाने का काम करती है। इससे अलग वह कुछ नहीं कर सकती या करना भी नहीं चाहती। इसी के आधार पर कहा जा सकता है कि चुनाव जीतकर यदि ईमानदार लोग लोकसभा, विधानसभा में पहुंच भी जाये तो वे पूंजीपति वर्ग की इच्छा के विपरीत कुछ नहीं कर सकते। यदि वे ईमानदार लोग कुछ करना भी चाहें तो पूंजीपति वर्ग की शेष राजसत्ता उसे होने नहीं देगी। वह पूरा जोर लगाकर उसके फैसलों को रोक देगी। 

        इससे भी आगे बढ़कर यदि पूंजीपति वर्ग के सामने चुनी हुयी संस्था कोई संकट खड़ा करती है या यह संस्था राज कायम करने में अक्षम साबित हो रही होती है तो पूंजीवाद अपने इस आभासी, झूठे जनतंत्र का भी नकाब उतार फेंक देता है और नंगे रूप में सामने आ जाता है। अपने क्रूर शासन के रूप को धारण कर लेता है। यह रूप कुछ भी हो सकता है। इतिहास में यह सैन्य तानाशाही, राष्ट्रपति शासन, व्यक्ति की तानाशाही, धार्मिक-नस्लीय-राष्ट्रीय फासीवादी शासन के रूप रहे हैं। भविष्य में भी पूंजीवाद इनमें से किसी या फिर किसी नये ही तानाशाही रूप को खुले तौर पर अपना सकता है। 

        आज की स्थिति में वह अपनी शोषणकारी व्यवस्था को छिपी तानाशाही(जनतंत्र) के रूप से चला रहा है। जो कि उसके लिए मुफीद भी है। क्योंकि इससे तमाम तरीके के भ्रम बने रहते हैं। पूंजीवादी तानाशाही के इस जनतांत्रिक रूप में भी जो जनवाद का पहलू है वह भी जनता के संघर्षों के दम पर ही है। देश-दुनिया के महत्व के क्रांतिकारी संघर्ष करके ही अपने लिए जनवाद हासिल किया है। पूंजीवाद ने यह जनवाद खैरात में नहीं दिया। इसके लिए मजदूरों-मेहनतकशों का लहू सड़कों पर बहा है। 

        तमाम देशों में तो पूंजीपति वर्ग ने सामंतों व राजाओं से सहयोग कर राजकीय गणतंत्र की स्थापना की। क्योंकि वह सामंतों से लड़ना नहीं चाहता था। इसके तहत राजशाही भी बनी रही और संसद भी अस्तित्व में आयी। संसद द्वारा राजा के अधिकार सूत्रित व सीमित किए गये। जैसा कि ब्रिटेन, जर्मनी इत्यादि में है। फ्रांस ही एकमात्र ऐसा देश था जहां सामंतों ने झुकने से मना कर दिया और चार क्रांतियां करने के बाद जाकर वहां पूंजीवादी राजसत्ता कायम हुई। इस क्रांति में सबसे ज्यादा क्रांतिकारी ढंग से नागरिक स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों के शासन की बात की गयी। किंतु इस क्रांति ने भी नागरिक सिर्फ पूंजीपति वर्ग व उसके हिस्से को ही माना; यह मजदूरों, किसानों, महिलाओं को वोट डालने का अधिकार नहीं दे सकी। यह क्रांति भी जनता को सार्विक मताधिकार का अधिकार नहीं दे सकी। मजदूर, किसान, महिलाओं ने अपने जनवादी अधिकारों के लिए भीषण संघर्ष किया और अपने लिए अधिकार हासिल किये। 

        मजदूरों, किसानों, महिलाओं के संघर्षों में निर्णायक भूमिका या चरम बिंदु रूसी अक्टूबर समाजवादी क्रांति रही। जिसने पहले ही दिन सार्विक मताधिकार सहित तमाम अधिकार मजदूरों, किसानों, महिलाओं को दिये। जिसकी देखा-देखी व दबाव में आकर धीरे-धीरे दुनिया के तमाम देशों ने अपने देश में सार्विक मताधिकार दिया। कहा जा सकता है कि जिस जनतंत्र पर पूंजीवादी व्यवस्था आज इतरा रही है वह व्यवस्था भी समाजवादी क्रांति की देन है।

        पूंजीवादी व्यवस्था के विपरीत समाजवादी समाज एक शोषणविहीन समाज है। यह एक क्रम में निजी संपत्ति को समाप्त करने की प्रक्रिया हैै। पूंजीवादी समाज द्वारा तमाम सामाजिक बुराईयों, संबंधों के हर रूप को क्रमशः खत्म करने की प्रक्रिया को समाजवादी समाज कहा जाता है। इस समाज के अंदर मजदूर वर्ग सत्ता के शीर्ष पर होता है। फैक्टरी, खदानों, जल, जंगल, संपत्ति के हर रूप पर अब मजदूर वर्ग का शासन होता है। मजदूर वर्ग का शोषण अब समाज की आत्मा नहीं रह जाती। 

        पूंजीवाद का शासन एक अल्पसंख्यक का बहुसंख्यक पर शासन होता है। इसके बरक्स समाजवाद मेें बहुसंख्यक आबादी का अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग पर शासन होता है। इसीलिए समाजवाद को किसी छल-प्रपंच की जरूरत नहीं होती। वह पूंजीपति वर्ग के समान अपनी तानाशाही को जनतंत्र नहीं कहता। बल्कि वह स्पष्टतः ये कहता है कि पहले पूंजीपति वर्ग की तानाशाही थी अब मजदूर वर्ग की तानाशाही है। और मजदूर वर्ग की तानाशाही इसलिए ताकि पूंजीवाद के हर रूप को समाप्त किया जा सके। पूंजीवाद के हर षड़यंत्र का जवाब दिया जा सके। 

        समाजवादी शासन व्यवस्था पूंजीपति  वर्ग के लिए एक तानाशाहीपूर्ण व्यवस्था और मजदूर-मेहनतकश वर्ग के लिए इतना जनवादी है जितना कभी सोचा भी नहीं गया। अपना शासन कायम करते हुए मजदूर वर्ग पूंजीवाद द्वारा स्थापित राज्य मशीनरी का जस का तस इस्तेमाल नहीं करता। क्योंकि इसके रंध्र-रंध्र में पूंजीवाद बह रहा होता है। पूंजीवाद में पुलिस मजदूरों-मेहनतकशों पर लाठी-गोली चलाने के लिए और नौकरशाही मजदूरों पर हुक्म गांठने के लिए प्रशिक्षित की जाती है। मजदूर वर्ग इस दमनकारी मशीनरी को चकनाचूर कर मजदूर वर्ग के हितों से लैश व दृष्टिकोण वाली राज्य मशीनरी खड़ी करता है। जो कि मेहनतकशों से प्रेम और सम्मान करती हो। पूंजीवाद में औपचारिक अधिकार के बावजूद चूंकि समाज में मजदूर वर्ग की कोई हैसियत नहीं होती इसलिए उनकी शासन मंे कोई हैसियत नहीं होती। किंतु समाजवादी समाज में हैसियत बदल जाती है। अब मजदूर वर्ग का न सिर्फ शासन होता बल्कि वह देश की सारी संपत्ति (फैक्टरी, खदानों....) का मालिक होता है। पहली बार मजदूर वर्ग समाज का वास्तविक स्वामी बन जाता है। 

        समाजवादी शासन व्यवस्था का रूप जो भी हो उसका उद्देश्य शासन के हर स्तर पर मजदूर-मेहनतकशों की सक्रिय भागीदारी बनाने का होता है। इसीलिए उत्पादन से लेकर शासन के हर रूप, ऊपर से लेकर नीचे तक हर जगह चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। जिनके कामों का मूल्यांकन भी चुनने वाले व्यक्ति ही करते हैं। साथ ही मजदूर हितों के अनुरूप काम न करने पर वापस बुलाने का भी अधिकार मजदूरों के पास होता है। इस तरह समाजवाद मजदूर वर्ग को समाज का वास्तविक शासक बनाता है। यह शासक न सिर्फ समाजवाद का निर्माण करता है बल्कि सर उठा रहे षड़यंत्रकारी पूंजीवादी तत्वों को बार-बार परास्त करता है। इसी प्रक्रिया को अनवरत चलाकर वह अपने समाजवादी समाज की न सिर्फ रक्षा करता है बल्कि उसे विश्वविजयी बनाता है। यानी समाजवादी क्रांति मजदूर वर्ग की सत्ता की महज एक शुरुआत है। वह लगातार क्रांति करके समाजवादी समाज का निर्माण करता है और पूंजीवाद के हर रूप को समाप्त करता है। 

        इस वक्त पांच राज्यों में जो चुनाव होेने जा रहे हैं उस वक्त ये प्रश्न विचारणीय बन जाते हैं कि चुनावों से मजदूरों, मेहनतकशों, छात्रों-नौजवानों को क्या हासिल होगा? उनकी समस्याओं का क्या समाधान होगा? स्पष्ट है कि मजदूर, मेहनतकशों को पूंजीवाद नहीं समाजवाद चाहिए। 

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