बुधवार, 10 मई 2017

शिक्षा का भगवाकरण

-चंदन

        मार्च माह के अंतिम सप्ताह में ‘ज्ञान संगम’ नाम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से एक कार्यशाला आयोजित की गयी। यह कार्यशाला इस बात के लिए चर्चा का विषय रही कि इसमें 20 केन्द्रीय विश्वविद्यालय तथा 31 राज्य विश्वविद्यालय के कुलपति शामिल हुए थे। इसके अतिरिक्त लगभग 750 एकेडमिक (शिक्षा जगत से जुड़े लोग) इसमें शामिल हुए। कुलपतियों का आर.एस.एस. के किसी कार्यक्रम में जाने का क्या अर्थ है? आर.एस.एस. शिक्षा क्षेत्र की तो कोई संस्था नहीं है, ना ही वह विज्ञान क्षेत्र की कोई संस्था है, ना ही वह सरकार की कोई इकाई है। आर.एस.एस. केन्द्र में काबिज भाजपा सरकार की जननी, विचारक एवं मार्गदर्शक है। इस माने में वह खुद सरकार भी बन जाती है। ठीक यही कारण है कि विज्ञान, कला, इतिहास, से कोसों दूर आर.एस.एस. के कार्यक्रम में कुलपति शामिल होते हैं। शिक्षण संस्थाओं के विभिन्न लोगों में सरकार की जी हुजुरी एक विशेष गुण बन गया है। यदि कुलपति ऐसा करें तो इसके गम्भीर दूरगामी नुकसान होंगे।

        जब हमारे संस्थानों में गैर जनवादी माहौल का प्रश्न उठता है तो केवल छात्र ही पीड़ित माने जाते हैं। शिक्षकों, संस्थाओं के जनवाद की कम ही बातें होती हैं। यह गैर जनवादी माहौल औपनिवेशिक काल से भारतीय शासकों तक जारी है। औपनिवेशिक शिक्षा नीति (मैकाले की शिक्षा नीति) की आलोचना करते हुए आजाद भारत के शासकों ने उसे पूंजीपति वर्ग के अनुरूप ढाला। जहां छात्र पूंजीवादी विचारों और संस्कृति के वाहक हो परंतु उनका जीवन आम मजदूर व मेहनतकशों का हो। यदि छात्र इस तरह के चाहिए थे तो स्वाभाविक तौर पर संस्थानों को भी इसी अनुरूप बनाया जाना था। शिक्षकों आदि को भी इसी अनुरूप ढालना था। जैसे-जैसे भारतीय शासक वर्ग मजबूत होता गया संस्थानों का गैर जनवादीकरण बढ़ता गया। जहां छात्र-शिक्षक-प्राचार्य-कुलपति-सरकार का पदानुक्रम है। सभी को अपने से ऊपर वाले का अनुसरण करना है। ऐसे में शिक्षा जगत से बाहर सामाजिक समस्याओं पर मेहनतकश जनता के साथ खड़े होना तो दूर की कौड़ी हो गयी। हां, अपवादस्वरूप कुछ ऐसे छात्र-शिक्षक मिल जाते हैं, जिन्होंने जनविरोध के फैसलों के खिलाफ खड़े होने का साहस किया। निश्चित तौर पर सरकारें उनकी इस हिमाकत का उन्हें सबक सिखाने की कोशिश करती हैं। मेहनतकश जनता का पक्ष चुनते हुए उन्हें इसका मूल्य चुकाना होता है। 

        समाज के ऐसे ही हिस्से को सम्बोधित होकर मुक्तिबोध ने लिखा- ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।’

        मौजूदा समय में कुलपतियों का ‘राष्ट्र नाशी संघ’ के कार्यक्रम में जाने में नया कुछ नहीं है। सभी सरकारों के समय में वे ऐसा करते हैं। आज संघी सरकार है तो भी उन्हें वही करना है। समस्या ये है कि सत्ता में पहुंच चुका संघ इतिहास के सबसे बुरे रूप के साथ है। फासीवादी रूप में। आज वह खतरनाक रूप से आक्रामक है। उसके हिन्दू राष्ट्र के दुःस्वप्न में गाय के नाम पर हत्याऐं हो रही हैं। संस्थानों में छात्र-शिक्षक पीटे जा रहे हैं। छात्राओं को संस्कृति का पाठ पढ़ाते हुए बंदिशों में ढकेलने की कोशिशें हो रही हैं। उसकी इस आक्रामकता का संचार कुलपतियों; के किसी भी स्वार्थ के कारण; में होने से संस्थान भगवा आतंक की प्रयोगशालाएं बनती जाएंगी। हैदराबाद वि.वि. में रोहित वेमुला की मौत में कुलपति की भूमिका कुछ ऐसी ही थी। जे.एन.यू. के कुलपति का छात्रों के विरोध को प्रतिबंधित करने के लिए कार्यालय के बाहर गमले व सीमा रेखाएं खींचना जिसके अंदर विरोध या प्रदर्शन करने पर सजा का प्रावधान है। यह संस्थानों को मुर्दा शांति से भरने के प्रयास हैं। प्रतिक्रियावादी, जनवाद विरोधी संघ के कार्यक्रमों में जाना खुद इन कुलपतियों को खतरनाक समाज विरोधी बना देगा। ये संघी सरकार के फासीवाद की ओर बढ़ते कदम हैं।

        संघ की मानसिकता के लोगों को विभिन्न संस्थाओं में इसी मंशा से बैठाया जा रहा है। फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया (एफटीआईआई) में गजेन्द्र चैहान की नियुक्ति के खिलाफ तो छात्रों ने 139 दिन तक विरोध किया। तब भी सरकार अपने फैसले पर अड़ी रही। इसी तरह भारतीय इतिहास अनुसंधान आयोग (आई.सी.एच.आर.) के अध्यक्ष पद पर वाई.एस.राव को बैठाया गया। पूर्व में इस पद पर आसीन लोगों, तमाम इतिहासकारों तथा खुद भाजपा के लोगों ने वाई.एस.राव को इस पद के लिए अयोग्य बताते हुए, नियुक्ति का विरोध किया। ये विरोध इन व्यक्तियों की अयोग्यता के कारण थे। ऐसी नियुक्तियों के बारे में भाजपा सरकार कहती है कि नियुक्तियां संवैधानिक हैं। योग्यता का पैमाना यदि संघ के प्रति जवाबदेह बनाना हो जाये तब ही ये नियुक्तियां संवैधानिक होंगी। शिक्षा-कला-शोध आदि क्षेत्रों में संघी लोगों की नियुक्ति कानूनी और फासीवादी दोनों हैं। विरोध की हर आवाज को दबा-कुचलकर ये फासीवादी कदम अंजाम दिये गये।शिक्षा पर ये संघी हमले सिर्फ नियुक्तियों तक ही नहीं हैं। स्कूलों-कालेजों में सांस्कृतिक तौर पर तथा पाठ्यक्रमों में बदलाव के जरिये भी भगवाकरण का काम जारी है। 

        हमारे समाज में प्रकृति एवं उसके विकास के बारे में अवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विचार भरे हुये हैं। ये पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर मनुष्य के जन्म एवं जीवन तक हर जगह घर किये हुये हैं। कोई भी कहता मिल जायेगा की भगवान ने इतनी खूबसूरत दुनिया बनायी है या भगवान ने बचा लिया या भगवान की मर्जी, इत्यादि। वैज्ञानिक खोजों ने दुनिया के बारे में भौतिकवादी नजरिया दिया। नतीजतन आज तमाम अध्यात्मिक लोग ईश्वर आदि कथाओं को विज्ञान सम्मत साबित करने के प्रयास करते रहते हैं। कई बार यह कहते हुए कि इसे तो विज्ञान भी मानता है या विज्ञान भी तो यही कहता है या विदेश में वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके माना कि ईश्वर, आत्मा या अन्य की पुष्टि की है। विज्ञान की आड़ में अवैज्ञानिकता-अंधविश्वास परोसे जा रहे हैं। यह सब शिक्षा में शामिल करने से अंधविश्वास, अतार्किकता, अवैज्ञानिकता का ही प्रसार होता है। विज्ञान पढ़ते हुए भी अवैज्ञानिक मानसिकता तैयार होती है। 

        विद्यालयों में दिन की शुरुआत प्रार्थना से की जाती है। प्रार्थनाएं व्यक्ति अपने घर-परिवार-समाज में तो हमेशा होती देखता ही है। शिशुमंदिर-विद्यामंदिर से लेकर अलग-अलग मिशनरी स्कूलों व सरकारी स्कूलों में ये प्रार्थनाएं अनिवार्यतः होती हैं। यह ‘धर्मनिरपेक्ष शिक्षा’ ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति को वैज्ञानिक ढंग से जान लेने के बाद भी वह छात्र भाग्य भरोसे बैठे रहता है। 

        मध्यप्रदेश में तो संघी सरकार ने सूर्य नमस्कार को अनिवार्य कर दिया। गुजरात सरकार ने धार्मिक आधार पर अहमदाबाद के स्कूलों में हरी या गेरुआ यूनिफार्म तय की। गुजरात में ही माध्यमिक शिक्षा में ‘तेजोमय भारत’ को अनिवार्य किताब बनाया गया है। यह समस्त ज्ञान को वेदों में बताती है। विमान, स्टेम सेल, प्लास्टिक सर्जरी आदि आधुनिक विज्ञान को वेदों की देन बताकर छात्रों को झूठे राष्ट्र गौरव से भरा जा रहा है। धार्मिक पूर्वाग्रहों से भरा छात्र हमारे देश की सरकारों के राजनीतिक हितों को पूरा करने में कारगर ‘औजार’ साबित होते हैं। हिन्दू बहुसंख्यकों के तुष्टीकरण के बिना कोई पार्टी शासन करने की सोचती भी नहीं है। इसीलिए भले की पाठ्यक्रमों में जो भी परिवर्तन हो कोई भी पार्टी विरोध नहीं करती और ना ही अगली आने वाली सरकार उसे हटाती है। संघी भगवा सरकार बस इसमें गुणात्मक परिवर्तन कर देना चाहती है। पाठ्यक्रमों  में इस तरह बदलाव खतरनाक हैं। संघियों ने अपनी कड़ी नफरत से हिन्दू राष्ट्र रक्षक, गौ रक्षक, राष्ट्रवादी, मुस्लिम विरोधी हमलावरों की एक पूरी फौज को तैयार कर लिया है। अब इसे बड़े पैमाने पर करने का काम जोरों पर है। पाठ्यक्रम भी इसमें एक हथियार बन रहे हैं। 

        अभी उत्तराखण्ड में बनी नयी सरकार के शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत ने तो यही कह दिया कि ‘‘उत्तराखण्ड में रहना है तो वन्दे मातरम् कहना होगा’’। केन्द्र में दो वर्ष तक संघी कूपमण्डूकता की प्रचारक रही स्मृति ईरानी को हटाकर प्रकाश जावड़ेकर को मानव संसाधन विकास मंत्रालय सौंपा गया। प्रकाश जावड़ेकर अधिक चतुर-धूर्त हैं। उनकी इसी योग्यता को ध्यान में रखकर उन्हें यह मंत्रालय सौंपा गया। वे जामिया मिलिया में जाकर समझाते हैं कि सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए। पिछले तीन सालों में संस्थानों में माहौल खराब करने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (जिसे पिछले दिनों ‘आओ भाई विद्यार्थी पीटें’ संगठन के नाम से भी जाना गया) को ऐसी शिक्षा दिये जाने की जरूरत है, ना कि जामिया मिलिया के छात्रों को। जब वे जामिया के छात्रों को समझाते हैं तो इसका मतलब साफ है कि जो लम्पटाई हो रही है उसका सम्मान करो। स्मृति ईरानी की ऐसी योग्यता थी क्या भला! कदापि नहीं। 

        इसके अलावा प्रकाश जावड़ेकर का जोर है कि संस्थानों को वित्तीय रूप से स्वतंत्र कर निजीकरण की दिशा में भी आगे बढ़ा जाये। इसके लिये ‘संस्थानों के स्वायत्तीकरण’ (आॅटोनोमस कालेज) पर जोर दिया जा रहा है। पूंजीपति वर्ग और संघ का एजेण्डा एक साथ ही आगे बढ़ाया जा रहा है। 

        मौजूदा समय में पूंजी अपने असमाधेय संकट में फंसी हुयी है। इससे निकलने का केवल एक ही रास्ता बनता है कि पूंजी के राज को समाप्त कर श्रम का राज कायम हो। यानी समाजवादी क्रांति कर पूंजी को असमाधेय संकट से मुक्त कर दिया जाये। समाज में बढ़ते असंतोष को क्रांति की दिशा दी जाये। 

        पूंजीवादी व्यवस्था अपने संकट को हल नहीं कर सकती। क्रांति का समाधान तो उन्हें आतंकित ही कर देता है। यही कारण है कि घोर दक्षिणपंथी सरकारों को चुना जा रहा है। उन्हें फासीवादी एजेण्डे को आगे बढ़ाने दिया जा रहा हैै। क्रांति को टालने की अथक कोशिश में फिलहाल भारतीय फासीवादी कामयाब होते दिख रहे हैं। इन्हें सिर्फ विज्ञान, तर्क और समाजवादी क्रांति से ही रोका जा सकता है। सिर्फ क्रांति से ही तमाम फासीवादियों सहित उनके आका पूंजीपति वर्ग से निपटा जा सकता है।

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