रामजस कालेज
-प्रियंका
21 फरवरी को दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज के अंग्रेजी विभाग ने ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ विषय पर एक सेमिनार आयोजित किया था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने उमर खालिद के उस सेमिनार में वक्तव्य देने के लिए आने का विरोध किया। एबीवीपी के उग्र विरोध को देखते हुए आयोजकों ने अंतिम समय में उमर खालिद को मना कर दिया। लेकिन तब भी सेमिनार अन्य वक्ताओं के साथ चलता रहा। एबीवीपी यह बर्दाश्त नहीं कर सका। उसको जो शिक्षा संघ से मिली है, उसमें अन्य आवाजों को पूरी तरह से दबाना सिखाया गया है। आखिर केरल के बागान मजदूरों, बस्तर के आदिवासियों, बंगलुरु के गारमेण्ट मजदूरों, छात्रों के संघर्षो पर हो रहा सेमिनार, जनता के प्रतिरोध को एबीवीपी चुपचाप नहीं सुन-देख सका। उसने सेमिनार हाल के बाहर डीजे चलाया, हाॅल पर पत्थर फेंके। पुलिस आयी तो अपनी संवैधानिक ड्यूटी भूलकर इन उत्पातियोें के साथ हो ली। आखिर पुलिस सरकार और व्यवस्था से अलग तो है, नहीं। उन्हें सरकार की जी- हुजूरी की ट्रेनिंग दी जाती है। ड्यूटी करने वाला कोई सालों में एक-आध दिखता है।
एबीवीपी के लम्पटों की कारगुजारी की छात्रों के बीच खबर पहुंचने पर 22 फरवरी, 23 फरवरी को छात्रों ने मौरिस नगर पुलिस और आई.टी.ओ. पुलिस हेडक्वार्टर पर प्रदर्शन किये। इस दौरान भी इन लम्पटों ने पत्थरबाजी, अण्डे, टमाटर फेंके। इससे भी आगे बढ़कर प्रदर्शनों में शामिल छात्र-छात्राओं को खींचकर मारा गया। सड़कों का यह हाल, सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग (गाली-गलौज) के रूप में था। ‘भारत माता की जय’ बोलने वाले एबीवीपी के ‘देशभक्त’ सोशल मीडिया पर छात्राओं को बलात्कार की धमकी दे रहे थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने 28 फरवरी को परिसर में और 4 मार्च को मण्डी हाउस से संसद मार्ग तक बड़े प्रदर्शन आयोजित किये। छात्रों के इन संघर्षों को वामपंथी छात्र संगठन नेतृत्व दे रहे थे। वहीं एबीवीपी ने 27 फरवरी को तिरंगा मार्च और 2 मार्च को एक प्रदर्शन किया। दिल्ली में इस संघी उत्पात का आलम ये था कि एबीवीपी अपने प्रदर्शन में हरियाणा, यूपी से बसों में भरकर लोगों को लाया।
इन संघी लम्पटों का ऐसा ही उत्पात हरियाणा केन्द्रीय वि.वि., बनारस हिन्दू वि.वि., चण्डीगढ़ केन्द्रीय वि.वि.,बरेली कालेज आदि में भी देखा गया।
संस्थानों के अन्दर जनवादी माहौल की भारी कमी है। अलग-अलग मुद्दों, विचारों, विचारधाराओं पर चर्चा-विमर्श और भी सीमित हो रहा है। जब संघी फासीवादी सरकार सत्ता पर है तो यह और भयानक रूप ले रहा है। अब उत्पात-मारपीट से मसले को निपटाया जा रहा है और कोई तीखा विरोध नहीं उठ रहा है। न ही देशभर के शिक्षकों ने अपनी आवाज उठायी, न ही छात्रों की तरफ से कोई प्रतिरोध आया। ये हालात एक-दो दिन या सालों में नहीं बने बल्कि औपनिवेशिक भारत से आजाद भारत तक शिक्षा को ऐसे ढाला गया कि अधिकांश मुर्दाशान्ति से भरे लोग ही शिक्षा से तैयार हो रहे हैं। शिक्षक अपनी शांत नौकरी और प्रमोशन में उलझे हैं तो छात्र अपने कैरियर में। समाज के बाकी हिस्से इससे कोई सरोकार नहीं मानते, जैसे कि खुद छात्र-शिक्षक भी बाकी समाज से कोई सरोकार नहीं रखते। यह शांतिपूर्ण जीवन बुरी मौत की तरफ जा रहा है। कोई चिंगारी ही इस मौत को रोक सकती है। समाज को प्यार करने वालों, जनवादियों, वामपंथियों, कम्युनिस्टों के कन्धों पर यह जिम्मेदारी है कि इस चिंगारी को पैदा करें, बढ़ायें।
चुनौतियों को साफ-साफ समझने की जरूरत है। आज देश का पूंजीपति वर्ग आर्थिक संकट में फंसा हुआ है। ऐसे में उसकी व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था अपने सबसे बुरे रूप फासीवाद की ओर बढ़ जाती है। व्यवस्था के सारे अंग ज्यादा दमनकारी रुख अपनाये हुये हैं। सरकार, न्यायालय, अफसर सभी अधिक से अधिक जनवाद विरोधी होते जा रहे हैं। ऐसे ही हालातों में पूंजीपति वर्ग ने फासीवादी विचारों वाली भाजपा को अपनी पहली पसन्द बनाया और उसे ऐड़ी-चोटी का जोर लगाकर सत्ता की बागडोर सौंप दी। लगातार इन फासीवादियों की मीडिया द्वारा चरण वन्दना करवाई जा रही है। गांव-शहर, घर-परिवार में पसरे पड़े तमाम सामंती मूल्यों को खाद-पानी की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। धर्म-जाति-क्षेत्र-लिंग के भेदों का और भी खतरनाक ढंग से इस्तेमाल हो रहा है। हमारी शिक्षा भी इन सब बुराईयों से कहां मुक्त थी, बस अब उनका अधिक भयानक ढंग से इस्तेमाल हो रहा है। पूरी व्यवस्था मिलकर जनता को बांटने-मारने पर तुली हुयी है ताकि लूट का यह तंत्र जिन्दा रह सके।
ऐसे हालात में जरूरत है पूरे पूंजीवादी तंत्र को, उसके हर एक अंग पर निशाना साधने की। शिक्षा में मौजूद सामंती, गैरजनवादी, पूंजीपरस्त मूल्यों पर; धावा बोले जाने की। समाज से सीधे सरोकार बनाने की। दुनिया को बेहतर बनाने के क्रांतिकारी विज्ञान को समझने और समाज को समझाने की। शिक्षा के दायरे से अपना लक्ष्य ऊंचा रखकर ही हम शिक्षा और समाज को इस लूट, हमलों और ठण्डी मौतों से उबार सकते हैं। केवल समाजवादी क्रांति का लक्ष्य ही इसकी तार्किक परिणति है। हमें पक्ष चुनना है जीवन और मृत्यु के बीच, फासीवाद और क्रांति के बीच और यह अभी किये जाने की जरूरत है।
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