बुधवार, 10 मई 2017

दर्शन के कुछ सवाल: तर्कशास्त्र और भाषा

-शाकिर

भारतीय दर्शन में एक उदाहरण बहुत लोकप्रिय है। वह इस प्रकार है:

क. पहाड़ी से धुआं उठ रहा है।
ख. जहां धुंआ होता है, वहां आग होती है।
ग. इसलिए पहाड़ी पर आग लगी हुई है।

        यह उदाहरण मूलतः न्याय का दर्शन का है। भारतीय दर्शनों में न्याय ही वह दर्शन है जो मुख्यतः ज्ञान और ज्ञान की प्रक्रिया को समर्पित है। उपरोक्त उदाहरण चीजों को प्रमाणित करने या निष्कर्ष निकालने से सम्बन्धित है। यह एक प्रत्यक्ष अनुभव से दूसरे अप्रत्यक्ष निष्कर्ष निकालने का उदाहरण है।
        मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से विभिन्न चीजों का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। यह इंद्रियग्राह्य संवेदनों के जरिये होता है। पर यदि मनुष्य का सारा ज्ञान केवल इंद्रियग्राह्य संवेदनों तक सीमित हो जाये तो स्वयं यह ज्ञान बहुत संकीर्ण व सीमित हो जायेगा। मनुष्य हर बार और केवल प्रत्यक्ष संवेदना के आधार पर ही चीजों के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर सकता है। लेकिन केवल इतने से इंसान का कारोबार नहीं चल सकता। वह इस दुनिया में जिंदा नहीं रह सकता। इसीलिए मनुष्य के मस्तिष्क में ज्ञान की अन्य प्रक्रिया भी विकसित हुई है। मनुष्य इंद्रिय संगत ज्ञान के साथ-साथ और उससे आगे बढ़कर तर्कसंगत ज्ञान का भी मालिक है। 

        यदि मनुष्य इंद्रियसंगत ज्ञान के साथ-साथ तर्कसंगत ज्ञान का भी मालिक है तो फिर इस तर्क की संरचना क्या है? मनुष्य या उसका मस्तिष्क कैसे तर्क-वितर्क करता है? जितने भांति-भांति के तर्क मनुष्य करता है क्या उसमें कोई सुसंबद्धता है? क्या सारे भांति-भांति के तर्कों को कुछ मूलभूत तर्कों तक सीमित किया जा सकता है? 

        दर्शन की जो शाखा इन सवालों से जूझती है उसे तर्कशास्त्र (लाजिक) कहा जाता है। यह मुख्यतः मनुष्य के दिमाग की चिंतन प्रक्रिया से सम्बन्धित है। उसकी संरचना से सम्बन्धित है।

        जैसा कि दर्शन के इतिहास में अन्य सवालों के मामले में हुआ, तर्कशास्त्र भी बहुत समय पहले सामने आ गया था। यूनानी दर्शन में अरस्तू ने इसका विस्तृत विश्लेषण किया। चीनी दर्शन में ईसा से पहले की पांचवी-तीसरी शताब्दियों में इस पर बहुत काम हुआ। स्वयं भारतीय दर्शन में भी ईसा के आगे पीछे तर्कशास्त्र दर्शन का एक प्रमुख विषय रहा। न्याय, पूर्व मीमांसा और बौद्ध-जैन दार्शनिकों ने इसका बारीकी से अध्ययन किया।

         पश्चिमी दर्शन में अरस्तू ने तर्कशास्त्र का बहुत विस्तार और बारीकी से अध्ययन किया। उनका अध्ययन इतना पूर्ण था कि पश्चिम में करीब दो हजार सालों तक इसमें कोई मूलभूत विकास नहीं हुआ। यहां तक कि तर्कबुद्धि की सीमा रेखांकित करने वाले इमैनुअल कांट ने भी कहा था कि अरस्तू ने इस विषय का इतना पूर्ण विश्लेषण कर डाला है कि इसमें कुछ भी जोड़ने की गुजांईश नहीं है। वास्तव में तर्कशास्त्र में कुछ मूलभूत विकास उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में ही हो पाया। आज के कम्प्यूटर की कार्यपद्धति इस नये तर्कशास्त्र (बूल तर्कशास्त्र) पर आधारित है।

        मनुष्य के तर्क-वितर्क का अध्ययन करके अरस्तू ने बताया कि इसकी मूल संरचना अत्यंत सरल है। इस सरल संरचना से ही हर तरह के जटिल तर्क-वितर्क का निर्माण होता है। यह सरल संरचना इस प्रकार है:

a. सभी क, ख हैं।
b. कुछ क, ख हैं।
c. कुछ क, ख नहीं हैं।
d. कोई भी क, ख नहीं हैं।

        एक दिये गये तथ्य से कोई दूसरा निष्कर्ष निकालने के लिए दिमाग इन्हीं सरल तर्कों का सहारा लेता है। उदाहरण के लिए पहले वाले को लें। इसके अनुसार सभी क, ख हैं। यदि सभी ख, ग हैं तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि सभी क, ग हैं। व्यवहारिक जीवन से एक उदाहरण लें तो सभी घोड़े जीव हैं। सभी जीव नश्वर हैं (मृत्यु का शिकार होने वाले)। इसलिए सभी घोड़े नश्वर हैं। शुरु में दिया गया धुंआ और आग का उदाहरण भी इसी का उदाहरण है। अंतिम या क का एक उदाहरण यह हो सकता है: सभी घोड़े जीव हैं। कोई भी जीव अमर नहीं हैै। इसलिए कोई भी घोड़ा अमर नहीं है।

          इन सरल तर्क-वितर्क के आधार पर कुछ आम नियम निकाले गये। मसलन किसी वक्तव्य में दो सकारात्मक हो सकते हैं। किसी वक्तव्य में एक सकारात्मक हो सकता है। किसी वक्तव्य में एक नकारात्मक हो सकता है। किसी वक्तव्य में दो नकारात्मक नहीं हो सकते क्योंकि तब वक्तव्य सकारात्मक हो जाता है। 

         प्रचलित तर्कशास्त्र में तीन बुनियादी नियमों का चलन है। वे इस प्रकार है:

a. क, क है।
b. क, नहीं-क नहीं है। 
c. क एक साथ क और नहीं-क नहीं हो सकता।

         पहले को तादात्मय का नियम, दूसरे को अंतर्विरोध का नियम (या अंतर्विरोध की अनुपस्थिति का नियम) तथा तीसरे को मध्यवर्ती स्थिति के अपवर्जन का नियम कहा जाता है।

        उपरोक्त अमूर्त नियमों को ठोस रूप में इस तरह समझा जा सकता है:

a. जीवित व्यक्ति जीवित है।
b. जीवित व्यक्ति मृत नहीं है (न-जीवित नहीं है)।
c. जीवित व्यक्ति एक ही साथ जीवित और मृत (न-जीवित) नहीं हो सकता।

        परम्परागत तर्कशास्त्र के अनुसार प्रकृति की सारी परिघटनाओं को तथा सारे विचारों को उपरोक्त तीन में समेटा जा सकता है। विचारों के उदाहरण की बात करें तो अक्सर ही कहा जाता है कि सच-सच है। सच झूठ नहीं हो सकता (न-सच नहीं हो सकता)। कोई विचार एक साथ सच और झूठ दोनों नहीं हो सकता। तीसरे के मामले में अरस्तू ने ही स्पष्टीकरण दिया था कि एक साथ का मतलब एक ही समय में, एक ही ढंग से है। 

        जैसा कि पहले कहा गया है अरस्तू द्वार तर्क-वितर्क का किया गया विश्लेषण अगले करीब दो हजार सालों तक पूर्ण माना जाता रहा। खासकर यह मध्य काल के ईसाई धर्म की तर्कपद्धति का आधार बना रहा। 

        महत्वपूर्ण बात यह थी कि अरस्तू ही वह दार्शनिक थे जिन्होंने अपने वक्त में द्वन्द्ववाद का भी सबसे बेहतर विश्लेषण किया था और अपनी सारी दार्शनिक रचनाओं में उसका इस्तेमाल किया था। यह बात इसलिए अजीब लगती है कि तर्कशास्त्र के उपरोक्त तीनों बुनियादी नियम तर्कशास्त्र में द्वन्द्ववाद की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते। उपरोक्त बुनियादी नियम चीजों को काले-सफेद में बांटकर देखते हैं और द्वन्द्ववाद इसके खिलाफ है। 

        असल में तर्कशास्त्र के बुनियादी नियम सही हैं पर अत्यंत संकीर्ण सीमाओं में। यदि चीजों को अपेक्षाकृत गतिहीनता (स्थिरता) और अपरिवर्तनीयता (स्थायित्व) की अवस्था में देखा जाये तो ये तीनों बुनियादी नियम सही हैं। पर चीजों को गति और परिवर्तन की अवस्था में देखने पर ये नियम कारगर नहीं रह जाते। मामले को समझने के लिए जीवन का उदाहरण लें। 

        किसी सामान्य स्वस्थ जीवित व्यक्ति को देखकर उसे जीवित कहने में किसी को दिक्कत नहीं होगी। कोई यह भी नहीं कहेगा कि वह मृत है या वह जीवित और मृत के बीच का है। पर जब कोई व्यक्ति किसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त होकर मृत्यु की ओर बढ़ रहा होता है तब क्या कहा जाये? आज चिकित्सा विज्ञान की उन्नत अवस्था में तो यह सवाल और जटिल हो गया है। ‘ब्रेन डेड’ को जीवित कहा जाये कि मृत? मरते हुए व्यक्ति को किस क्षण मृत घोषित कर दिया जाये? क्या हृदय गति बंद हो जाने पर? क्या दिमागी तरंगें बंद हो जाने पर? व्यक्ति को मृत घोषित कर दिये जाने पर भी क्या उसकी सारी कोशिकाएं मृत हो जाती हैं? इसके उलट क्या किसी जीवित व्यक्ति में लाखों-करोड़ों कोशिकाएं लगातार मृत नहीं होती रहती?

        स्पष्ट है कि गति और परिवर्तन को पकड़ने में तर्कशास्त्र के उपरोक्त बुनियादी नियम पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए इन नियमों से परे जाना होगा। पर साथ ही यह भी सच है कि एक संकीर्ण सीमित दायरे में ये नियम कारगर हैं और इनके बिना काम भी नहीं चल सकता। इस तरह देखा जाये तो इस मामले में भी द्वन्द्ववाद का बुनियादी नियम काम करता है। तर्कशास्त्र के तीन बुनियादी नियम कारगर हैं और नहीं भी हैं अपेक्षाकृत स्थिरता और स्थायित्व की अवस्था में वे कारगर हैं पर गति और परिवर्तन की अवस्था में वे कारगर नहीं हैं। चूंकि गति और परिवर्तन ही प्रधान हैं जबकि स्थिरता व स्थायित्व गौण, इसलिए तीन बुनियादी नियम भी गौण रूप में कारगर हैं। 

        सामंतवाद के पूरे दौर में, जब समाज अपेक्षाकृत स्थिर और स्थाई था तब तक तर्कशास्त्र के ये नियम पर्याप्त थे। लेकिन जब पूंजीवाद विकसित होना शुरु हुआ तो ये नियम अपर्याप्त पड़ने लगे। इस अपर्याप्तता ने हेगेल के तर्कशास्त्र तक और अंततः माक्र्सवाद तक मामले को पहुंचाया। 

        परम्परागत तर्कशास्त्र निगमनात्मक (डिडक्टिव) तर्क पद्धति पर आधारित है। इसमें पूर्व निष्कर्षों से नये निष्कर्षों पर या प्रस्थापनाओं से निष्कर्षों तक पहुंचा जाता है। यह सामान्य से विशिष्ट की ओर बढ़ने की प्रक्रिया है। जैसे आग और धुएं वाले उदाहरण में आग और धुएं के सामान्य निष्कर्ष से किसी विशिष्ट पहाड़ी पर किसी विशिष्ट समय मे धुएं को देखकर वहां आग लगे होने के निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है।

        निगमनात्मक तर्क पद्धति की उल्टी है आगमनात्मक (इंडक्टिव) तर्क पद्धति। यह विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ने की पद्धति है। इसमें ठोस तथ्यों से प्रस्थान कर निष्कर्षों तक बढ़ा जाता है। 

        विज्ञान या वैज्ञानिक विश्लेषण में दोनों ही तर्क पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है। 

        भाषा का तर्क पद्धति से नजदीक का रिश्ता है। मानव जीवन में तर्क पद्धति भाषा में ही अभिव्यक्त होती है। पर इसका यह मतलब नहीं है कि दोनों एक ही हैं या मानव मष्तिष्क में दोनों एक ही जगह से संचालित होते हैं। 

        मानव मष्तिष्क में विचारों का भाषा से क्या सम्बन्ध है इसका कुछ अंदाजा एक व्यक्ति के उदाहरण से समझा जा सकता है। इस व्यक्ति का मष्तिष्क किसी दुर्घटना का शिकार हो गया था। यह व्यक्ति मुहावरों का शाब्दिक अर्थ तो बता देता था पर वास्तविक अर्थ नहीं बता पाता था। जैसे कि ‘हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती’ मुहावरे का अर्थ वह यह बताता था कि बाजार में सोना देखभाल कर खरीदना चाहिए।

        दर्शन में प्राचीन काल से ही भाषा एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। भाषा की संरचना और मष्तिष्क में भाषा की प्रक्रिया पर लगातार चिंतन-मनन होता रहा है। संत अगस्तीन ने कहा था कि भाषा में सबसे महत्वपूर्ण चीज शब्द और शब्दों के अर्थ होते हैं। शब्द किसी वस्तु को अभिव्यक्त करते हैं और शब्द के अर्थ का मतलब है वह वस्तु। हालांकि बाद में यह दावा किया गया कि यह सिद्धान्त भाषा को व्यक्ति केन्द्रित बना देता है जिससे हर व्यक्ति के लिए शब्दों के अर्थ अलग-अलग हो सकते हैं। 

        भाषा की संरचना शब्दों और वाक्यों से बनी होती है। शब्द मिलकर वाक्य बनाते हैं। इन वाक्यों का निर्माण जिन नियमों के तहत होता है उन्हें व्याकरण कहा जाता है। इन सबके समुच्चय से ही भाषा में विचारों की अभिव्यक्ति होती है। 

        इस समय भाषा शास्त्र में दो सिद्धान्तों का प्रमुखता से चलन है। एक है विटेंगस्टीन का सिद्धान्त व दूसरा नोम चोमस्की का सिद्धान्त। 

         विटेंगस्टीन का कहना है कि शब्दों और भाषा का अर्थ भाषा समुदाय से तय होता है। यानी किसी भाषा को बोलने वाला समुदाय किसी शब्द को जो अर्थ प्रदान करता है वही उसका अर्थ होता है। इस अर्थ से अलग शब्द किसी अन्य चीज को अभिव्यक्त नहीं करता। इस तरह भाषा व्यक्ति केन्द्रित नहीं बल्कि समुदाय केन्द्रित है। 

        नोम चोमस्की इससे बिल्कुल भिन्न बात करते हैं। उनके अनुसार भाषा इंसान के दिमाग की बनावट में निहित है। उनके अनुसार भाषा इंसान के दिमाग में ‘हार्डवायर्ड’ है यानी मष्तिष्क का आंतरिक विकास कुछ इस तरह होता है कि वह स्वतः ही भाषा को पैदा और ग्रहण करता है। नन्हें बच्चे के सामने किसी भी भाषा की थोड़ी सी उपस्थिति उसे वह भाषा समझने-बोलने में सक्षम बना देती है। चूंकि भाषा इंसान के दिमाग में ‘हार्डवायर्ड’ है इसलिए सारे ही इंसानों में इसकी क्षमता का सहज विकास होता है। इसका यह भी निष्कर्ष निकलता है दुनिया की सारी भाषाओं की संरचना मूलतः एक ही है। सभी भाषाएं अपने सारतत्व में एक ही हैं। वयस्क लोगों के अनुभव के विपरीत, जब कोई नयी भाषा सीखना इतना मुश्किल हो जाता है, दुनिया का हर बच्चा अपने परिवेश में मौजूद भाषा को सीख सकता है। यह सब कुल मिलाकर ऐसा है मानो इंसानी दिमाग में भाषा का कोई खांचा मौजूद हो जिसमें परिवेश में मौजूद भाषा घुसकर फिट हो जाती है। सारे दिमागों में मौजूद खांचा एक समान होता है, इसलिए उसमें फिट होने वाली भांति-भांति की भाषाएं भी मूलतः एक ही होती हैं। 

        नोम चोमस्की का यह सिद्धान्त भाषा को एक जेनेटिक आधार प्रदान करता है। हालांकि उनका कहना है कि इंसान में भाषा की इस क्षमता का विकास उस तरह ‘प्राकृतिक वरण’ के जरिये नहीं हुआ जैसा कि अन्य तरह का जैविक विकास होता है।

        देखा जाये तो भाषा वास्तव में इंसान नामक जीव की विशिष्ट चारित्रिकता है। अन्य बहुत सारे जीवों में आवाज निकालने की क्षमता तो है पर भाषा नहीं है। जैविक तौर पर इंसान में भाषा के लिए विशिष्ट अंगों का विकास हुआ है। इंसानी गले का स्वर यंत्र और उसकी अवस्थिति विशिष्ट है। इसी तरह इंसानी दिमाग में भाषा से सम्बन्धित कई विशिष्ट हिस्से हैं। ये विशेष इंसानी हिस्से यानी मष्तिष्क के बाहरी भाग ‘कोर्टेक्स’ मे अवस्थित हैं। यानी जैविक तौर पर इंसान में भाषा की क्षमता का विशिष्ट तरीके से विकास हुआ है। यह इस तरह हुआ है कि इंसान भाषा से लैस हो जायें, गूंगे-बहरे भी।

        पर इंसान में भाषा की इस क्षमता (भावों-विचारों को संप्रेषित और ग्रहण करने की क्षमता) से अलग स्वयं भाषाओं के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वे इस क्षमता के समय से ही विकसित और मूलतः एक ही हैं। इंसान के अस्तित्व के विकास के करीब एक लाख सालों में भाषाओं का विकास होता रहा है। आरंभ में भाषाएं केवल कुछ एक शब्दों तक सीमित थीं। उनका व्याकरण भी बेहद अविकसित था। भाषाओं का विकास इंसानी सभ्यता के विकास के साथ लम्बे समय में हुआ है। जटिल भावों-विचारों को अभिव्यक्त करने लायक भाषाएं वर्गीय समाज की उत्पत्ति के साथ ही हुई हैं। उसमें भी सारी नहीं। 

        वैसे चोमस्की का कोई समर्थक यह दावा कर सकता है कि उनके सिद्धान्तों में भाषाओं के तथा उसी के अनुसार मष्तिष्क में भाषा की क्षमता के विकास का विचार निहित है। यानी इंसानी दिमाग में भाषा की क्षमता पहले केवल अपनी संभावना में ही मौजूद थी, वास्तविकता में नहीं। यह क्षमता सभ्यता के विकास के साथ वास्तविकता में बदलती गई - स्वयं भाषा के विकास के साथ-साथ। इंसान के दिमाग के बाहर हो रहा विकास इंसान के दिमाग में ‘हार्डवायर्ड’ होता रहा। यदि ऐसा था तो यह डार्विन के बदले लामार्क के सिद्धान्त के अनुरूप होता रहा। या आज की भाषा में बात करें तो इंसान में भाषा की इस क्षमता का विकास जेनेटिक के बदले एपिजेनेटिक था यानी इसमें जीन से ऊपर और बाहरी तत्वों ने भी भूमिका निभाई। 

        वैसे यह सवाल इंसान की वैचारिक या तर्क-वितर्क की क्षमता के साथ सम्बद्ध है। उसे होना भी चाहिए क्योंकि तर्क-वितर्क और भाषा का नजदीकी सम्बन्ध है। सामान्य इंसान एक आंतरिक भाषा में ही तर्क-वितर्क करता है और फिर उसे भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। इंसान की तर्क-वितर्क की क्षमता भी शुरु में केवल अपनी संभावना में ही मौजूद थी। वास्तविकता में इसका विकास इंसानी सभ्यता के विकास के साथ ही हुआ है। बहुत ऊंचे स्तर के दार्शनिक तर्क-वितर्क आज से तीन हजार साल पहले किसी इंसानी समाज में नहीं मिलते। आज से लगभग ढाई हजार साल पहले लगभग एक साथ सभी विकसित सभ्यताओं में ऊंचे स्तर के दार्शनिक तर्क-वितर्क देखने को मिलते हैं - यूनान, चीन और भारत में।

        शायद इंसानी दिमाग के बारे में जीव विज्ञान का आगे का विकास भाषा के मामले मे उपरोक्त सवालों का बेहतर जवाब देगा। लेकिन अभी से इतना स्पष्ट है कि इंसानी दिमाग के बहुत सारे हिस्से मिलकर भाषा की क्षमता का निर्माण करते हैं। शब्द, वाक्य, व्याकरण, भाव, विचार इत्यादि के अलग-अलग हिस्से हैं और वे अपनी समग्रता में इस क्षमता को पैदा करते हैं। इंसानी बच्चे का विकास अपनी सामान्य अवस्था में मष्तिष्क में इस क्षमता को विकसित करता है। पर यह क्षमता वयं बच्चे के परिवेश में मौजूद भाषा पर निर्भर होती है - अपने विकास के लिए। बच्चा अपने परिवेश में मौजूद भाषा सीखता जाता है और उसी के समान्तर उसके मष्तिस्क में भाषा की क्षमता विकसित होती चली जाती है। बच्चे का भाषा के मामले में यह विकास इंसानी सभ्यता में भाषा के विकास को पुनरावृत्त करता है। यानी बच्चा कुछ सालों में वह यात्रा पूरी करता है जो इंसान ने अपने अस्तित्व के पिछले एक लाख साल में पूरी की है। यही बात भाषा के मामले में इंसानी दिमाग की क्षमता के बारे में भी सच है। 

        भाषा के बारे में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि इससे सम्बन्धित कुछ सबसे महत्वपूर्ण हिस्से इंसान के मष्तिष्क के बायें हिस्से में मौजूद हैं - सामने की ओर। इंसानी दिमाग शरीर के बायें अंगों का संचालन अपनी दाहिने हिस्से से करता है और दाहिने अंगों का बायें हिस्से से। इस तथ्य को यदि इस तथ्य से जोड़ दिया जाये कि ज्यादातर इंसान दायें हाथ वाले (यानी ज्यादातर काम दायें हाथ से करने वाले) होते हैं तो महत्वपूर्ण बात निकलती है। इंसान में भाषाई क्षमता का विकास हाथ के संकेतों से हुआ है। इसमें हाथ ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। आज भी यह देखने में आता है कि अपने भावों को ज्यादा गहनता से प्रस्तुत करने में लगा कोई व्यक्ति अक्सर अंजाने में हाथों का भी इस्तेमाल करने लगता है। शायद इसी मूल के कारण आज भी गूंगे-बहरे लोगों के लिए हाथ की सांकेतिक भाषा संभव है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें