बुधवार, 10 मई 2017

यहां प्रेम करना इतना खतरनाक क्यों है?

-सूरज

        आये दिन हम अखबारों में खबरें पढ़ते हैं कि प्रेमी-प्रेमिका ने नदी में कूदकर जान दी, असफल प्रेम के चलते युवक/युवती ने आत्महत्या की, सम्मान की खातिर घरवालों ने लड़की को मौत के घाट उतारा, अंतरधार्मिक प्रेम विवाह पर साम्प्रदायिक संगठनों का बवाल, पति ने प्रेमिका के साथ मिलकर पत्नी को मौत के घाट उतारा, पत्नी के अवैध सम्बंधों के चलते पति ने आत्महत्या की, प्रेमी द्वारा ठुकराये जाने पर गर्भवती प्रेमिका ने की खुदकुशी आदि-आदि। हमारे देश में प्रेम के कारण मरने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है। उपरोक्त सभी खबरें प्रेम सम्बंधों से ही जुड़ी हैं। प्रेम के मामले में अवसादग्रस्त होने वालों की संख्या निश्चित ही कहीं अधिक होगी।

        प्रेम में जान गंवाने वालों की संख्या कितनी अधिक है इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि पिछले 15 वर्षों में प्रेम में जान गंवाने वालों की संख्या आतंकवादी हमलों में मारे गये लोगों की संख्या की लगभग 6 गुना है। 4 अप्रैल 2017 को टाइम्स आफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक 2001 से 2015 के 15 वर्षों में लगभग 20,000 लोग आतंकी घटनाओं में मारे गये। जबकि इसी दौरान 1 लाख 17 हजार सात सौ चैहत्तर(1,17,774) लोगों ने प्रेम से जुडे़ मामलों में जान गंवाई। इनमें से 79,189 लोगों ने आत्महत्या की तो 38,685 लोगों की हत्यायें की गयीं। आत्महत्या करने वाले अवैध सम्बंधों, प्रेम सम्बंधों, सम्मान की खातिर हत्या से जुड़े मामले थे। ये आकड़े भी महज 10 प्रमुख राज्यों के आंकडे़ हैं। कुल मिलाकर हमारे देश में प्रेम करना आतंकवाद से कहीं अधिक खतरनाक काम है। ये दीगर बात है कि मीडिया आतंकवाद पर रात-दिन हल्ला मचाता है पर प्रेम के चलते होने वाली मौतों पर खामोश रहता है।

        अगर प्रेम करना हर नवयुवक-नवयुवती का कानूनी अधिकार है तो फिर प्रेम करना हमारे देश में इतना खतरनाक क्यों है? क्यों हर दिन औसतन 14 लोग प्रेम सम्बंधों के चलते आत्महत्या को मजबूर हैं? क्यों हर रोज औसतन 7 लोग प्रेम के चलते मौत के घाट उतार दिये जाते हैं? क्या यह सबकुछ सामान्य है? क्या किसी भी स्वस्थ समाज में नई पीढ़ी की इतनी मौतें सामान्य हैं? इनके लिए दोषी कौन है?

        कोई भी जागरुक, संवदेशील इंसान यही कहेगा कि नहीं-नहीं यह सब सामान्य नहीं है कि इतनी मौतें किसी भी सभ्य समाज की निशानी नहीं हो सकती।

        जहां तक प्रेम की उत्पत्ति की बात है तो हम पुराने पौराणिक ग्रंथों में कृष्ण की रासलीला की भले ही किनती कहानियां सुनते हैं। पर वास्तविक यही है कि आज से कुछ सौ वर्षों पूर्व सामंती समाज तक दुनिया में प्रेम या प्रेम सम्बधों का नामोनिशान नहीं था। प्रेम करने के लिए जरूरी है कि प्रेम करने वाले दोनों पक्षों का स्वतंत्र व्यक्तित्व हो। सामंती जमाने तक यह स्वतंत्र व्यक्तित्व उत्पन्न नहीं हो सकता था। तब व्यक्ति का व्याक्तित्व दरअसल उसके परिवार, जाति से निर्धारित होता था। व्यक्ति इनसे परे कुछ सोच नहीं सकता था। तब परिवार, जाति के बड़े ही व्यक्ति के शादी-विवाह के निर्धारक होते थे। यह सब इतना आम व सामान्य था कि बिरले ही किसी व्यक्ति के दिमाग में बड़ों द्वारा रिश्ते तय करने को गलत मानने का ख्याल आता। बड़ों की इच्छा के विरूद्ध  लड़के-लड़की प्रेम कर सकते हैं यह ख्याल भी किसी लड़के-लड़की के दिमाग में नहीं आता था। यही स्थिति विवाह उपरांत पति-पत्नी सम्बंधों की भी थी। प्रचलित परम्परा के अनुसार पति शासक था और पत्नी उसकी गुलाम; वहां प्रेम की कोई जगह नहीं थी। यहां तक कि जो पुरूष परस्त्री या वेश्यागमन भी करते थे वे पे्रमवश नहीं बल्कि पुरुष होने के अपने अधिकार और परिवार व जाति की परंपरा का, उससे प्राप्त अधिकार की खातिर ऐसा करते थे।

        प्रेम के शुरुआती तत्व सामंतवाद के अंतिम दौर में राजकुमार-राजकुमारियों में प्रकट होने शुरू हुए। समाज में इन्हीं को परम्पराओं को तोड़ स्वतंत्र व्यक्तित्व निर्मित करने का मौका मिला था। इसीलिए मुगले आजम फिल्म का वर्णन भले ही ऐतिहासिक तथ्यों के बहुत करीब न हो पर उस समाज की वास्तवकिता के करीब जरूर है। राजकुमार सलीम ही परम्पराओं को ठुकरा गरीब अनारकली का दामन थामने की बगावत कर सकता था।

        सामंतवाद के अंतिम काल में पैदा होने शुरू हुए व्यक्तित्व को पूंजीवादी समाज ने पूरे समाज के हर व्यक्ति के स्तर तक प्रसारित करने की प्रगतिशील भूमिका निभायी। पूंजीवादी समाज और पूंजी ने हर व्यक्ति के स्वतंत्र व्यक्तित्व को पैदा किया, निर्मित किया। इसी के साथ स्वतंत्र व्यक्तित्वों की मौजूदगी के चलते समाज में प्रेम सम्बंधों के बहुतायत कामय होने का आधार कायम हुआ। बात यहां तक आगे बढ़ी की कल तक जिन बड़ों की इच्छा के खिलाफ नौजवान कुछ करने की सोच भी नहीं सकते थे। अब प्रेम करना व विवाह करना नौजवानों का कानूनी हक बन गया। यूरोप-अमेरिका सरीखे विकसित पूंजीवादी समाजों में नौजवानों को अपने इस हक का भरपूर उपयोग करते देखा जा सकता है। यहां पुरानी बड़ों की मर्जी को निर्णायक शिकस्त दे दी गयी। समाज की जनवादी चेतना इतनी उन्नत हो गयी कि यह समाज की रग-रग में बस गयी।

        पर भारत में ऐसा नहीं हुआ। यहां पूंजीवाद सामंतों से समझौते करते हुए धीरे-धीरे स्थापित हुआ। इस पर कोड़ में खाज यह कि यह पूंजीवाद भी अपनी जमीन से पैदा होने के बजाय ब्रिटिश उपनिवेशवाद की छत्र छाया में पैदा हुआ। यहां क्रांति करके सामंती संस्थाओं, मूल्यों-परम्पराओं को धूल चटा पूंजीवाद नहीं आया। परिणाम यह हुआ कि ढेरों सामंती परम्पराएं प्रेम करने वालों की राह का कांटा बनकर खड़ी रही। कानून ने भले ही बालिग लोगों को प्रेम का, विवाह का अधिकार दे दिया। पर सामंती पितृसत्ता, जाति परम्परायें बड़ों का बच्चों का विवाह तय करने का पुश्तैनी हक हर रोज प्रेम करने वालों की कड़ी परीक्षा लेता रहा। हालात यहां तक पहुंचे हुए हैं कि कानून को धता बताती खाप पंचायतें खुलेआम प्रेमी जोड़ों को मौत की सजा सुनाती रहती हैं। समाज की जनवादी चेतना भी इतनी पिछड़ी है कि इस मामले में कोई खाप पंचायतों को चुनौती देने की हिम्मत नहीं करता।

        इसी सामंती मूल्यों, पितृसत्ता, जाति के भीतर विवाह की प्रथा का परिणाम यह हुआ कि बड़े पैमाने पर इनसे बगावत करने वाले लोग हारकर आत्महत्या करने या फिर जबरन मार डाले जाने को मजबूर होते रहे हैं। पर क्या पे्रम से जुड़ी सभी मौतों के लिए सामंती परम्परायें ही जिम्मेदार हैं? नहीं ऐसा नहीं है।

        पूंजीवाद की यह आम विशेषता रही है कि उसके विकास के चलते पैदा होने वाले सकारात्मक तत्व एक हद के बाद नकारात्मक में तब्दील हो जाते रहे हैं। पूंजीवाद का लक्ष्य लोगों का स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित करना नहीं है। इसीलिए पूंजीवाद के भीतर विकसित हुआ व्यक्ति भी ‘स्वतंत्र’ कम पूंजी के बंधनों में बंधा हुआ अधिक था। पूंजी की आम प्रवृति हर चीज को विकाऊ माल में तब्दील करने की थी। स्त्री-पुरुष संबंध भी इसके अपवाद न थे। पहले उसने स्त्री शरीर को उपभोक्ता वस्तु बनाया फिर पुरुष को भी इसी रूप में बदलने लगा। यह सब करने के लिए उसने संयुक्त परिवार को तोड़ा फिर एकल परिवार को भी तोड़ डाला। और शेष बचा एकल पुरुष और एकल स्त्री। अपने मुनाफे के लिए उसने समस्त पुरानी नैतिकताओं को तोड़ डाला। स्त्री-पुरुष सम्बंधों में प्रेम की जगह उसने महज बाजारू सेक्स को स्थापित कर दिया।

        पूंजीवाद की इस गति का परिणाम यह हुआ कि अब नये विकसित होने वाले व्यक्तित्व एक व्यक्ति से सेक्स सम्बंधों से संतुष्ट नहीं था। वह हर रोज पार्टनर बदलने लगा। यूरोप-अमेरिका में यह आम होता गया। वहीं भारत जैसे देशों में यह प्रेम में धोखा, अनैतिक सम्बंधों, विवाहेत्तर अवैध सम्बंधों की बढ़ती के रूप में सामने आने लगा। इसी के साथ एक दूसरे से जुदा इंसान व्यक्तिवादी जीव में बदल गया जो बहुत शीघ्र ही छोटी सी बात पर अवसादग्रस्त हो आत्महत्या की ओर बढ़ने लगा। प्रेम सम्बंधों में बढ़ती आत्महत्याएं इसी चीज को दिखलाती हंै।

        पूंजी के जंजाल से बाधित पूंजीवादी प्रेम का यही हश्र होना था। यहां व्यक्ति का व्यक्तित्व स्वतंत्र नहीं उसके पास मौजूद पूंजी से तय होता है। यानि पूंजी व्यक्तित्व रखती है व इंसान व्यक्तित्वहीन हो जाता है।

        भारत में प्रेम सम्बंधी मौतों में सामंती व पूंजीवादी-साम्राज्यवादी तत्व आपस में घुल मिल गये हैं इनमें भी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी तत्व बढ़त पर व मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। दरअसल सामंती मूल्यों को बनाये रखने का दोष भी पूंजीवादी व्यवस्था के ही मत्थे आता है। अब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार एंटी रोमियो स्क्वायड बना दरअसल प्रेम पर एक और पहरा बैठा रही है। प्रकारान्तर से यह अंतर्जातीय, अंतर्धार्मिक विवाह रोकने का ही जरिया बनेगा।

        स्पष्ट है कि प्रेम के चलते होने वाली मौतें दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा लोगों को अपना शिकार बनाकर की जाने वाली हत्यायें हैं। व्यवस्था हर रोज नई पीढ़ी के नौजवानों को मार रही है। पर समाज खामोश है। युवा पीढ़ी खामोश है।

क्या इन मौतों को रोका जा सकता है?

        इन मौतों को एक ही तरीके से रोका जा सकता है वो है प्रेम को उच्च मानवीय गुण के बतौर स्थापित करके। उसको दो व्यक्तियों के निजी मामले के रूप में स्थापित करके। उसकी राह में अड़ंगे लगाये सामंती मूल्यों के वाहकी से लेकर पूंजी द्वारा खड़ी सभी बाधाओं को हटा देना। ऐसा इस पूंजीवादी व्यवस्था के रहते नहीं हो सकता। इसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था के नाश व समाजवादी व्यवस्था की स्थापना जरूरी है। निजी सम्पति के समूल नाश पर खड़ा समाज ही हर तरीके के बंधनों से मुक्त प्रेम को स्थापित करेगा। तभी प्रेम मानव जीवन का महत्वपूर्ण गुण के बतौर स्थापित होगा। तभी प्रेम को लेकर होने वाली मौतें समाप्त होगीं।

        तब तक जरूरी है कि प्रेम से हैरान परेशान लोगों की मद्द की जाए साथ ही उन्हें यह समझाया जाए की प्रेम जीवन का अहम हिस्सा है सम्पूर्ण जीवन का केन्द्र नहीं। जीवन में और भी ढेरों चीजें महत्वपूर्ण हो सकती है। व्यवस्था को बदलने की जंग ऐसी ही एक चीज है। एक ऐसी जंग जो प्रेम का सबसे बेहतर माहौल पैदा करने वाली समाजवादी व्यवस्था बनायेगी।

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