बुधवार, 10 मई 2017

13 को उम्र कैद सहित 31 मारूति मजदूरों को कठोर सजा: वर्ग विद्वेष से भरा एक पूर्व निश्चित फैसला

-कविता

        आखिरकार मारूति मामले में कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया। फैसला अंदेशे के अनुरूप न्यायिक मानदंडों पर नहीं बल्कि वर्ग विद्वेष पर आधारित एक राजनीतिक फैसला है। गुड़गांव (गुरूग्राम) के जिला न्यायालय ने 18 मार्च 2017 को मारूति के 31 मजदूरों को बहुचर्चित 18 जुलाई 2012 की दुर्घटना के लिए दोषी ठहराते हुए मारूति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के 13 मजदूरों (12 पूर्व प्रतिनिधियों एवं एक अन्य मजदूर जिया लाल) को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। चार मजदूरों को 5 वर्ष की सजा एवं अन्य को उनके जेल प्रवास को ही सजा मानते हुए रुपये 2500 के अर्थदण्ड की सजा। अदालत द्वारा 117 मजदूरों को बरी कर दिया गया। गौरतलब है कि ये 117 मजदूर पहले ही तीन से चार साल तक जेल में काट चुके हैं। इस तरह सम्मानीय न्यायालय ने पूंजीपति वर्ग की सामूहिक अंतःकरण की तुष्टि करते हुए यह ऐतिहासिक निर्णय दिया। 

        न्यायालय द्वारा दिया गया यह फैसला आश्चर्यजनक नहीं था। यह एक पूर्व निश्चित फैसला था और इसका सुराग तो तभी लग गया था जब मजदूरों को ढाई-तीन साल तक तो जमानत तक से वंचित रखा गया। यह अकारण नहीं था। यह प्रत्यक्ष वर्ग स्वार्थों से पे्ररित तथा निर्दिष्ट था। और जबकि मारूति के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आर. सी. भार्गव मारूति मजदूरों के संघर्ष को वर्ग संघर्ष की संज्ञा दे चुके हों व गृह मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक इस आंदोलन की अनुगूंज सुनाई दी हो, इससे भिन्न की उम्मीद नहीं की जा सकती थी ।

        मारूति के मजदूरों को दी गयी सजा वर्ग विद्वेष से पे्ररित कोई पहला फैसला नहीं है। विगत वर्ष कोयम्बटूर की एक अदालत द्वारा प्रिकोल के 8 मजदूरों, जो कि यूनियन पदाधिकारी थे, ऐसे ही एक मामले में दोहरे उम्रकैद की सजा सुनाई थी। मारूति की तरह प्रिकाल में भी संघर्ष यूनियन निर्माण को लेकर था। प्रिकोल के मामले में हालांकि उच्चतम न्यायालय ने 8 में से 6 मजदूरों को बरी कर दिया था। मारूति के मामले में अभियोजन पक्ष के सारे सुबूत व गवाह अदालत में कहीं टिक न पाने के बावजूद इन 13 मजदूरों को सजा दी गई। इनकी सजा का एकमात्र आधार इन मजदूरों का यूनियन पदाधिकारी होना था। और यह फैसला किस कदर पूंजीपति वर्ग एवं उनकी सरकारों द्वारा प्रभावित था, किस कदर यह न्याय का एक प्रहसन था, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मुकदमे के दौरान, बहस के दौरान अभियोजन पक्ष के झूठे गवाह, झूठे सुबूत एवं झूठे आरोपों केे बेनकाब होने के बावजूद एवं ‘सम्मानीय’ न्यायाधीश द्वारा खुद इनको संदिग्ध मानने के बावजूद मजदूरों को खुद को निर्दोष साबित नहीं कर पाने के आधार पर फैसला दिया गया। 

        अदालत की कार्यवाही के दौरान की कुछ महत्वपूर्ण बातों पर गौर करने पर कोई भी फैसले की तर्कसंगतता व न्यायपरकता का परीक्षण कर सकता है।

1. गुड़गांव जिला न्यायालय के सम्मानीय न्यायाधीश श्री आर. पी. गोयल ने यह स्वीकार किया कि पुलिस ने प्रबंधन व जापानी मालिक के साथ मिलकर सांठगांठ की एवं फर्जी सुबूत तैयार किये। 

2. न्यायाधीश महोदय ने यह भी स्वीकार किया कि अभियोजन पक्ष द्वारा आग लगाने व परिणामस्वरूप एच.आर. मैनेजर श्री अवनीश देव के दम घुटने से दुःखद मृत्यु हो जाने की घटना को कथित रूप से अंजाम देने वाली माचिस (सुबूत के तौर पर) के साथ 13 मजदूरों का संबंध जोड़े जाने के कोई प्रमाण नहीं हैं।

3. बयानों एवं गवाहों के साथ जिरह (क्राॅस एग्जामिनेशन) के दौरान पुलिस निरीक्षक ओम प्रकाश को यह बात स्वीकार करनी पड़ी कि माचिस की डिब्बी एवं 13 अभियुक्तों के बीच कोई संबंध नहीं है। 

4. श्रीमान जज महोदय ने कहा कि माचिस की डिब्बी की बरामदगी संदिग्ध है लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि अभियुक्तों ने आग नहीं लगाई।

5. माननीय जज महोदय ने सह-अभियुक्त व मारूति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के कार्यकारिणी सदस्य के इस दावे को कि कम्पनी के बाउंसरों ने यूनियन को तोड़ने व यूनियन नेतृत्व को फंसाने के  लिए  एक बहाने के बतौर प्रबंधन के इशारे पर आग लगाई, इस आधार पर खारिज कर दिया कि अमरजीत आग लगाने वाले बाउंसर को पहचानने में नाकाम रहा।

6. माननीय जज महोदय ने इस बात को स्वीकार किया कि पुलिस ने जाली मेडिको लीगल रिपोर्ट पेश की तथा हिंसा के दावों को बढ़ाचढ़ा कर बताया।

        माननीय न्यायाधीश महोदय ने फर्जी और झूठे सुबूतों, जाली रिपोर्ट पेश करने, झूठे गवाह तैयार करने तथा जापानी मालिक, पुलिस प्रशासन व सरकार की सांठ-गांठ साबित होने जैसी महत्वपूर्ण बातों को नाकाबिलेगौर मानते हुए उन्हें दरकिनार कर दिया और दोष सि़िद्ध की जिम्मेदारी को अभियोजन पक्ष एवं सरकार से हटाकर अभियुक्तों (मजदूरों) पर डाल दिया। यानी मजदूर स्वयंसिद्ध अपराधी मान लिए गये जिन्हें अपने निरापराध होने के साक्ष्य खुद जुटाने थे। यह विचित्र लगता है लेकिन जब मामला मजदूर बनाम पूंजीपति वर्ग का हो तो ऐसी बहुत सी मिसालें मिल जायेंगी। 

        स्पष्ट है कि यहां न्याय और अन्याय का तो कोई मामला ही नहीं था। न्याय व कानून की आड़ लेकर यह मजदूरों पर किया गया बर्बर हमला था। यह मजदूर आंदोलन को कुचलने के लिए और खासकर यूनियन गठन एवं श्रम अधिकारों के लिए मजदूरों के आगे बढ़ते संघर्षों को कुचलने के लिए रचा गया एक कुत्सित षड़यंत्र था, जिसे देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ एवं सत्ता तंत्र ने अंजाम दिया। 10 मार्च को भले ही अदालत ने अपना फैसला सुनाया लेकिन मारूति मजदूरों का फैसला तो पहले ही किया जा चुका था जब उन्हें जमानत न देकर, परिवार में हारी-बीमारी, जन्म-मृत्यु के समय भी पैरोल न देकर उन्हें चार साल से अधिक समय तक जेल के सींखचों में कैद रखा गया। उनकी जमानत को जिन आधारों पर रद्द किया गया उसमें एक बड़ा आधार विदेशी पूंजी निवेश प्रभावित होना बताया गया। विदेशी निवेश और हानि-लाभ की संभावनायें जब न्यायिक प्रक्रिया को तय कर रही हों तो न्याय-अन्याय की बात खुद बेमानी हो जाती है। दरअसल संपूर्ण सत्तातंत्र मारूति मजदूरों के प्रति अपनी तीखी नफरत का प्रदर्शन करते हुए मजदूरों की एक बड़ी संख्या को लंबे समय तक जेल में सड़ाना चाहता था। अपनी इस अधम इच्छा के लिए वह न्यायिक प्रक्रिया का इंतजार भी नहीं करना चाहता था। अपने ही नियम कानूनों को ताक पर रखकर व न्यायिक  प्रक्रिया को लंबित रखकर उसने एक हद तक इसकी पूर्ति भी कर ली ।    

        पूंजीवादी व्यवस्था पूंजीपति वर्ग की तानाशाही होती है। लोकतंत्र, जनवाद, निष्पक्ष न्याय जैसे शब्दों के पाखण्ड को आज मारूति और प्रिकोल के मजदूर बहुत अच्छे से समझते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूर होने का मतलब फैक्ट्री के भीतर सिर झुकाकर, खून-पसीना बहाकर व शरीर गलाकर काम करना है और छुट्टी का मतलब अगले दिन इसी उजरती गुलामी के लिए खुद को तैयार करना है। इसके खिलाफ सिर उठाना, अपने अधिकार की बात करना, पूंजी के चक्र व मुनाफे को बाधित करना ऐसा अपराध है जिसके लिए जमानत से भी वंचित होकर जेल में सालों-साल सड़ना है। उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के दौर में यही मजदूर वर्ग के लिए ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ में आजादी का मतलब है। होंडा, ग्रेजियानो, एलाइड, निप्पाॅन, मारुति, प्रिकोल आदि सभी आंदोलनों में बार-बार यही सच उद्घाटित हुआ। 

        मारूति मजदूरों का सबसे बड़ा गुनाह यह था कि उन्होंने अपने हक-अधिकारों की बात की। अपने संविधान प्रदत्त अधिकार के तहत यूनियन गठित करने की कोशिश की। लेकिन मारूति प्रबंधन इसके लिए कहां तैयार होता। कंपनी भले ही जापानी हो लेकिन सत्ता तंत्र उसके इशारों पर नाचता था। मारूति कम्पनी की यह हैसियत अकारण नहीं थी। 2010 में देश के कार उत्पादन में मारूति की हिस्सेदारी 44.9 प्रतिशत थी। 1 अप्रैल 2010 से 31 मार्च 2011 के बीच कम्पनी ने सेन्ट्रल एक्साइज ड्यूटी के बतौर 4290 करोड़ रुपये कर दिया था। इसी दौरान हरियाणा सरकार को भी मारूति से 820 करोड़ 11 लाख का कर प्राप्त हुआ था। कम्पनी ने इस सब के भुगतान के बाद भी इसी अवधि में 2288 करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ अर्जित किया था। 

        कम्पनी ने 2005-2006 के बीच 12 लाख 70 हजार कारें बनायी थीं। मारूति कम्पनी भारत में ही नहीं विदेशों में भी कार सप्लाई करती थी। कम्पनी की स्थिति यह थी कि 2011 में कम्पनी की स्विफ्ट माॅडल की कार की 50 हजार अग्रिम मांग (एडवांस बुकिंग) थी। कम्पनी के पांच रुपये के शेयर पर 2010 से 2011 के बीच 12 महीनों मे 79 रुपये 22 पैसे बने। मारूति कम्पनी के साम्राज्य की ताकत का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि लगभग 800 औद्योगिक इकाइयां मारूति की वेण्डर थीं। 

        जहां कम्पनी का मुनाफा आसमान छू रहा था व पूंजी संचय लगातार बढ़ रहा था वहीं मजदूरों की हालत बद से बदतर होती जा रही थी। काम का बोझ लगातार बढ़ रहा था। छुट्टी की तो बात दूर सांस लेने की फुरसत नहीं थी। मारूति सुजुकी के मानेसर स्थित प्लांट में अपनी क्षमता से 35 प्रतिशत अधिक पर 42 सैकण्ड में एक कार की असेम्बलिंग हो रही थी। 8 घंटे की जगह 8 घंटे 45 मिनट तक मजदूरों को एक ही जगह खड़े होकर काम करना पड़ता था। कुल 9 घंटे की ड्यूटी में साढ़े सात मिनट के दो ब्रेक होते थे। इसी दौरान पेशाब से लेकर लाइन में खड़े होकर चाय-समोसा लेना होता था। लम्बे समय तक पेशाब न करने अथवा रोके रखने से मजदूरों में किडनी से संबंधित बीमारियों का जिक्र पी. यू. डी. आर. ने वर्ष 2000 में मारूति के गुडगांव स्थित प्लांट के मजदूरों की स्थिति पर आधारित रिपोर्ट में किया है। यह व्यवहार पुराने दिनों में जमींदारों अथवा भूस्वामियों द्वारा खेत मजदूरों के साथ किये जाने वाले व्यवहार के समान है। काॅरपोरेट तानाशाही व सामंती निरंकुशता में कितनी साम्यता है। 

        इतनी हाड़-तोड़ मेहनत के बाद मजदूरों के वेतन, सेवा शर्तों तथा कार्यस्थितियों की हालत तो और गजब थी। 2011 में मानेसर प्लांट में मजदूरों की तनख्वाह 16000 रुपये थी। लेकिन इस वेतन को प्रबंधन ने दो हिस्सों में बांट रखा था। एक हिस्सा (8000/-) स्थायी था तथा दूसरा हिस्सा (8000/-) परिवर्तनीय था। मजदूर के छुट्टी लेने पर परिवर्तनीय हिस्से के वेतन में कटौती की जाती थी। एक छुट्टी (आकस्मिक अवकाश) लेने पर 1750 रुपये तक की कटौती की जाती थी। पांच छुट्टियों के चलते महीने में आठ-नौ हजार तक की कटौती की जाती थी। किसी महीने 29 तारीख से अगले महीने की दो तारीख तक छुट्टी करने पर कम्पनी मजदूर के 8000 रूपये काट लेती थी। एक बार एक मजदूर के पिता की मृत्यु पर अंतिम संस्कार के लिए छुट्टी करने पर उसके वेतन से 8000 रुपये काटने से कम्पनी ने कोई रुपये रियायत नहीं की। 

        शोषण व उत्पीड़न की ये परिस्थितियां केवल मारूति मानेसर प्लांट की बात नहीं थी बल्कि सभी प्लांटों में कमोबेश एक जैसी थीं। मारूति पावर ट्रेन, मारूति बाइक व स्कूटर प्लांट में भी उत्पादन दुगुना-तिगुना कर दिया गया था। 

        भयंकर शोषण उत्पीड़न की इन परिस्थितियों से जूूझते हुए मजदूरों ने जाना कि इन परिस्थितियों का मुकाबला वे संगठित होकर ही कर सकते हैं। लेकिन कंपनी ने उनको गुड़गांव प्लांट की अपनी जेबी यूनियन से संबद्ध कर रखा था जो उनसे पूछे-जांचे बगैर कंपनी प्रबंधन के इच्छानुरूप उनके संबंध में सारे निर्णय लेती थी। मजदूरों को अपनी एक स्वतंत्र जुझारू यूनियन की जरूरत महसूस हुई। मजदूरों ने चुपके-चुपके एक स्वतंत्र यूनियन के लिए अपनी फाईल लगा दी । प्रबंधन को जब इसकी भनक लगी तो उसके होश फाख्ता हो गए। आनन-फानन में उसने यूनियन तोड़ने के लिए मजदूरों को डरा-धमका कर उनसे इस आशय के पत्र पर दस्तखत करवाने की कोशिश की जिसमें लिखा था कि उनका यूनियन  से कोई संबंध नहीं है। प्रबंधन के इस छल-कपट व धोैंस-धमकी से मजदूरों के सब्र का बांध टूट पड़ा। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए वे उठ खड़े हुए और उन्होंने हड़ताल का एलान कर दिया। अपै्रल 2011 से जुलाई 2012 के बीच कम्पनी में तीन बार हड़तालें हुईं व तीन बार समझौते हुए।

        इस दौरान हर बार जब प्रबंधन समझौते की शर्तों को तोड़ देता था। वह मजदूरों को प्रताड़ित करने के नए-नए तरीके निकालने व यूनियन तोड़ने की साजिशों में मशगूल रहा। मजदूरों ने हर बार एकजुट व जुझारू संघर्षों द्वारा इसका प्रतिकार किया। आंदोलन के विभिन्न चरणों के दौरान प्रबंधन ने मजदूरों के हौंसले तोड़ने के लिए निष्कासन, निलम्बन, पुलिस, बाउंसर आदि का इस्तेमाल किया तथा पुलिस हस्तक्षेप को  बढ़ाने हेतु हिंसा भड़काने के लिए कई उकसावे की कार्यवाइयां कीं, जैसे ठेकेदार द्वारा गाली-गलौच व पिस्तौल-तमन्चे का प्रदर्शन, स्थानीय गुण्डों एवं खाते-पीते भूस्वामी तबके को धन व प्रलोभन देकर उन्हें मजदूरों के आंदोलन के खिलाफ खड़ा करना आदि। लेकिन पांच हजार मजदूरों ने तीन चरणों में साल भर चले इस आंदोलन में कहीं भी किसी प्रकार की हिंसा व उकसावे के प्रत्युत्तर में प्रतिहिंसा नहीं की। उन्होंने अपने संघर्ष के दौरान धैर्य व अनुशासन की अद्भुत मिसाल पेश की। 

        इन्हीं जुझारू संघर्षों व आंदोलनों के दौर से गुजरते हुए मजदूरों ने अपनी यूनियन के पंजीकरण में भी कामयाबी पाई।

        मारूति आंदोलन की अनुगूंज पूरे देश व दुनिया में सुनाई दी। मारूति आंदोलन अपने आप में कई मामलों में महत्वपूर्ण सबक लिए हुए था। आंदोलन के दौरान मजदूरों ने स्थायी, प्रशिक्षु व ठेका मजदूरों की एकता की अनूठी मिसाल पेश की। संघर्ष के अलग-अलग रूपों का कुशलता पूर्वक इस्तेमाल किया, जिसमें हड़ताल से लेकर फैक्ट्री के अंदर बैठकी हड़ताल जैसे रूप प्रमुख थे। उन्होंने स्थापित ट्रेड यूनियनों की समझौता परस्ती व कानूनवाद को चुनौती दी। उन्होंने गुडगांव से लेकर मानेसर, धारूहेड़ा, बावल, नीमराना तक मजदूरों के संघर्षों को एक नयी गति दी। उन्होंने आर्थिक मुद्दों (बोनस, तनख्वाह) से आगे बढ़कर आज के साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के दौर में छिनते श्रम अधिकारों के खिलाफ श्रम अधिकारों खासकर यूनियन गठन के अधिकार को आंदोलन के केन्द्र में लाने का काम किया। 

        मारूति आंदोलन की धमक से पूंजीपति बेहद चिंतित थे। मारूति आंदोलन का असर केवल कारखाने के 5000 मजदूरों पर नहीं था बल्कि मारूति की तमाम वेण्डर कम्पनियों में मारूति आंदोलन के चलते काफी संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी। सैकड़ों कम्पनियों में छंटनी, तालाबंदी, ले-आॅफ व ओवर टाइम खत्म करने व वेतन कटौती जैसी कार्रवाइयां हुयीं। इससे बड़े पैमाने पर मजदूर उभार की संभावना पैदा हुई। विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण के इस दौर में व्यापक पैमाने पर उत्पादन की आउटसोर्सिंग के साथ-साथ पृथक-पृथक उत्पादक इकाइयों के एक सूत्र में जुड़ जाने से बड़े पैमाने के मजदूर आंदोलन की संभावनाओं को इस आंदोलन ने प्रकट किया। 

        पूंजीपति वर्ग के लिए मारूति आंदोलन एक फैक्ट्री विशेष का आंदोलन नहीं रह गया था। यह मजदूर वर्ग के बड़े हिस्से को प्रभावित कर रहा था। इसलिए मारूति के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सी. ई. ओ.) सी. आर. भार्गव ने मारूति आंदोलन को वर्ग संघर्ष की संज्ञा उचित ही दी थी। पूंजीपति वर्ग के लिए मारूति आंदोलन केवल मारूति प्रबंधन का सिर दर्द नहीं था। यह समूचे पूंजीपति वर्ग के लिए चुनौती बन सकता था। 

        जब कोई आंदोलन समग्र पूंजीपति वर्ग के हितों के लिए एक चुनौती बन जाता है अथवा बनने की ओर अग्रसर हो तो उसे हर तरह के छल-बल से कुचलना पूंजीपति वर्ग के लिए लाजिमी हो जाता है। इसके लिए बहाने या तो ढूंढ लिये जाते हैं या गढ़ लिए जाते हैं। फिर मजदूर नेताओं को फर्जी मुकदमों में फंसाकर न्याय का नाटक किया जाता है और अंततः रास्ते के कांटों (मजदूर नेतृत्व) को साफ कर दिया जाता है। देश दुनिया के आंदोलन में यह बार-बार हुआ है। 

        मई दिवस आंदोलन के महान नेताओं - एंजेल, फिशर, स्पाइश व हचिंसन को ऐसे ही (प्रसिद्ध हे मार्केट घटना) मजदूर सभा में बम फेंकने के झूठे आरोप में फंसा कर फांसी दे दी गई थी।  

        अमेरिका में ही मजदूर आंदोलन के दो नेताओं सैको व वैन्जेटी को डकैती के फर्जी आरोप में फंसाया गया था।  

        2009 में रिको आंदोलन के दौरान बाउंसरों की गोली से एक मजदूर अजीत यादव शहीद हो गया। प्रशासन व प्रबंधन की मिलीभगत द्वारा अजीत की मौत का इल्जाम यूनियन के नेतृत्व पर डालकर उसे 6 महीने तक बिना सुनवाई के जेल में रखा गया। मारूति की घटना इन्हीं घटनाओं की एक अगली कड़ी है।  

        गुड़गांव जिला अदालत का मारूति मजदूरों के खिलाफ यह फैसला दुःखद एवं कष्टप्रद है। लेकिन मारूति के संघर्षरत मजदूरों सहित समस्त मजदूर वर्ग इन्हीं दुःखद व कष्टप्रद स्थितियों से गुजरकर ही अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर होगा। इस तरह के फैसले पूंजीपति वर्ग के खिलाफ उनकी वर्ग चेतना, उनके संघर्ष व वर्गीय गोलबंदी को और मजबूत करेंगे। मारूति मजदूरों के समर्थन में 16 मार्च को गुड़गांव से लेकर मानेसर, धारूहेड़ा, बावल व नीमराना तक लगभग 1 लाख मजदूरों द्वारा भोजन के बहिष्कार एवं देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मारूति मजदूरों की सजा के खिलाफ प्रदर्शन व दंडित मजदूरों के प्रति प्रदर्शित एकजुटता इसी का एक संकेत है।

        सभी न्यायप्रिय, जनवादी व्यक्तियों-समूहों, बु़िद्धजीवियों, छात्रों-नौजवानों एवं मेहनतकश जनता के सभी तबकों को मारूति मजदूरों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए उनके खिलाफ घोषित उम्रकैद सहित सभी कठोर सजाओं का विरोध करना चाहिए क्योंकि एक पर हमला सब पर हमला है।

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