9 फरवरी की घटना के बाद संघ गिरोह द्वारा किये जा रहे हमलों के विरोध में तथा नजीब की वापसी की मांग को लेकर चले आंदोलन के बाद जेएनयू के छात्र-शिक्षक एक बार फिर से संघर्ष की राह पर हैं।
नया मामला जेएनयू की प्रवेश प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। दरअसल बीते 23 दिसंबर को एकेडमिक कांउसिल(ए.सी) की मीटिंग मेें वीसी द्वारा जेएनयू में रिसर्च कोर्सों में प्रवेश संबंधित एक प्रस्ताव रखा गया। जिसके तहत एम.फिल/पीएचडी में प्रवेश के लिए लिखित व मौखिक परीक्षा का भार क्रमशः 70 व 30 अंक होगा। इस मीटिंग में कई एजेण्डे पूरे न होने केे चलते मीटिंग को 26 दिसंबर के लिए आगे बढ़ा दिया गया। जैसे ही ये बात छात्रों को पता चली उन्होंने 26 दिसंबर की मीटिंग का विरोध करने का फैसला किया। 26 दिसंबर की ही मीटिंग में वीसी द्वारा तानाशाहीपूर्ण तरीके से एकेडमिक कांउसिल सदस्यों के विरोध के बावजूद उपरोक्त प्रस्ताव को पास कर दिया। जबकि छात्र निरंतर मीटिंग के बाहर अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखे हुए थे। इस प्रस्ताव को पास करने के पीछे जेएनयू प्रशासन द्वारा यूजीसी के मई 2016 के गजट नोटिफिकेशन का हवाला दिया गया। इस नोटिफिकेशन में यूजीसी कहती है कि ‘उच्च संस्थानों में एम.फिल/पीएचडी में प्रवेश दो स्तरों पर होगा। पहले स्तर में 50 प्रतिशत अंकों के लिए लिखित परीक्षा होगी, दूसरे स्तर में परीक्षा में पास होने वाले छात्रों को आगे मौखिक परीक्षा के लिए बुलाया जायेगा। इस प्रकार सफल छात्रों को ही प्रवेश दिया जायेगा।
उपरोक्त प्रस्ताव को पास करने के बाद जेएनयू प्रशासन ने प्रस्ताव का विरोध करने वाले छात्रों पर हमला बोल दिया। अगले दिन नेतृत्वकारी छात्रों को बिना कोई नोटिस दिये निष्कासित कर दिया गया। इन छात्रों पर 26 दिसंबर की मीटिंग को बाधित करने का झूठा आरोप लगाया गया। इससे पहले मौखिक परीक्षा के अंकों को 30 से 10 करने की मांग करते हुए विभिन्न छात्र संगठनों ने प्रस्ताव के विरोध में सामूहिक अभियान चला रखा था। इन संगठनों के साथ आइसा-एसएफआई गठबंधन वाला जेएनएसयू शामिल नहीं था। छात्रों के निष्कासन की कार्यवाही के बाद ही जेएनएसयू इस आंदोलन का हिस्सा बना।
प्रशासन का तानाशाहीपूर्ण कदम यहीं नहीं रुका बल्कि जेएनएसयू द्वारा छात्रों के निष्कासन के विरोध में 30 दिसंबर को एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लाक(फ्रीडम स्क्वायर) पर बुलायी गयी एक सभा को संबोधित करने के कारण प्रो0 निवेदिता मेनन को भी अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का नोटिस भेज दिया गया।
दरअसल जेएनयू समेत सभी विश्वविद्यालयों में जाति-धर्म-लिंग-भाईभतीजावाद के आधार पर प्रवेश प्रक्रिया, मौखिक परीक्षा, साक्षात्कारों आदि में भेदभाव होता रहा है। जेएनयू में इस भेदभाव की पुष्टी विश्वविद्यालय द्वारा गठित अब्दुल नाफे कमेटी ने भी की है। ऐेसे में समाज के पिछड़े आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक तबकों से आने वाले छात्रों को इसका खामियाजा सबसे अधिक भुगतना पड़ता है। दलित व पिछड़े तबके से आने वाले छात्र कई दफे परिसरों में फैली जातिवादी दीवार को मौखिक परीक्षा में भेद नहीं पाते और बाहर कर दिये जाते हैं। ऐसे मेें मौखिक परीक्षा को अधिक महत्व देकर समाज के पिछड़े तबके से आने वाले छात्रों की राह को और अधिक कठिन बनाया जा रहा है। जिसका विरोध होना जरूरी है।
जहां तक जेएनयू प्रशासन और वीसी का सवाल है, 9 फरवरी की घटना के बाद से उनके द्वारा उठाये गये कदमों में नागपुर आरएसएस कार्यालय के आदेशों की छाप मिलने लगी है। वो चाहे 9 फरवरी की घटना के बाद संघ के इशारों पर नाचना हो, या फिर नजीब की गुमशुदगी के मामले में एबीवीपी के गुण्डों को क्लीन चिट देना। इस आंदोलन के दौरान भी वीसी ने वि.वि. नियमों का हवाला देते हुए प्रशासनिक भवन से 20 मीटर दूरी पर विरोध-प्रदर्शन करने का आदेश पारित कर दिया। प्रशासनिक भवन के नीचे बने 2 कमरों जिनमें धरना आदि होते थे, को गेट लगाकर बंद कर दिया गया। एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लाक की सीढ़ियों पर जहां छात्र प्रदर्शनों के दौरान बैठा करते थे, पर गमले रखवा दिये गये। ये कदम दिखाते हैं कि जेएनयू छात्रों पर दोरतरफा हमला बोला जा रहा है। प्रवेश परीक्षा को जटिल बनाकर वंचित तबकों से आने वाले छात्रों को परिसर से बाहर रखने की कोशिश की जा रही है। वहीं दूसरी ओर विभिन्न तरीकों से छात्रों के विरोध करने का अधिकार भी छीना जा रहा है। मौजूदा आंदोलन को दोनों तरफ अपनी लड़ाई को केन्द्रित करने की जरूरत है।
आंदोलन में मौजूद कई संगठन इसे महज दलितों-पिछड़ों पर हुए हमलों के रूप में देखते हैं। वहीं निष्कासित छात्रों में से अधिकांश के इन तबकोें से आने के कारण वे दमन को एक जातिवादी दमन के रूप मेें घोषित कर पहचान की राजनीति को मजबूत कर रहे हैं। आज देश के विभिन्न वि. वि. में सरकार का विरोध करने वाली हर ताकत को कुचला जा रहा है। कैंपसों का गैरजनवादी माहौल हर एक आवाज को चाहे वो दलित, मुस्लिम अथवा किसी ब्राह्मण छात्र की ही क्यों न हो; को कुचल रहा है। इसीलिए मौजूदा आंदोलन में 11 छात्रों का निष्कासन जातिवादी हमला नहीं बल्कि कैंपसों के जनवादी माहौल का सिकुड़ता जाना है। और इसके खिलाफ लड़ाई पहचान की राजनीति के संकीर्ण दायरे में नहीं बल्कि क्रांतिकारी सामूहिकता की भावना के साथ ही लड़ी जा सकती है।
नजीब की तलाशी के लिए चलाए गए आंदोलन के बाद इस आंदोलन मेें आइसा-एसएफआई के गठबंधन वाले जेएनएसयू का अवसरवाद आम छात्रों के सामने और अधिक उजागर हुआ है। दोनों ही आंदोलनों में आगे बढ़कर कार्यवाहियां करने में जेएनएसयू हिचकता रहा। दोनों ही बार आम छात्रों व अन्य संगठनों के दबाव में वो आंदोलन को आगे बढ़ाने को मजबूर हुआ है। आज जरूरत बनती है कि पहचान की राजनीति व अवसरवाद करने वाले छात्र संगठनों की सीमाओं को आम छात्रों के बीच उजागर कर उन्हें क्रांतिकारी राजनीति से जोड़ा जाय।
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