सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

भारत में बाल श्रम

        19 जुलाई 2016 को राज्य सभा में बाल श्रम और सुरक्षा अधिनियम में कुछ ऐसे संशोधनों को पास कर दिया गया जो लाखों बच्चों के लिए यह तय करेंगे कि इन बच्चों का बचपन स्कूल के गलियारों में बीतेगा या फिर बेहद बुरी परिस्थितियों में मजदूरी करते हुए। देखने में तो यह कानून बाल श्रम के विरुद्ध सख्त कदम उठाता दिखता है किंतु कैलाश सत्यार्थी जैसे एक विशुद्ध एनजीओ कर्मी की इन संशोधनों के प्रति जाहिर की गई आशंकाओं में भी यही दिखता है कि इन प्रस्तावित संशोधनों में कुछ बहुत बुरा है। इस लेख के माध्यम से हम भी इसी पर बात करेंगे कि किस तरह बाल श्रम पर रोक लगाने का दावा करता यह कानून भी मेक इन इंडिया जैसे कानूनों जैसा ही है जो भारत में मजदूरों के शोषण को और सघन करने का रास्ता सुगम बनाता है। 

        संशोधित कानून 14 से 18 साल तक के आयु वर्ग के बच्चों को जोखिम भरी परिस्थितियों में काम करने पर रोक लगाता है, जो अभी तक पूरी तरह से वैध था। 14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए यह संशोधन जोखिम भरे समेत सभी तरह की मजदूरी पर रोक लगाते हैं। किंतु जो कागजों में दर्ज है वह वास्तविकता से बिल्कुल अलग है। जोखिम भरे कामों पर रोक के साथ-साथ संविधान में दर्ज खतरनाक कामों की सूची को कम कर दिया गया है। जहां पहले इस सूची में लगभग 83 तरह के काम आते थे अब उन्हें कम करके मात्र 3 कामों तक सीमित कर दिया गया है। माइनिंग और विस्फोटक कामों के अलावा यह कानून केवल उन प्रक्रियाओं पर रोक लगाता है जो फैक्ट्री एक्ट 1948 के अनुसार खतरनाक माने गए हैं। संक्षेप में कहा जाए तो यह कानून अब केवल उन्हीं कार्यों को खतरनाक मानता है जो व्यस्क मजदूरों के लिए खतरनाक हैं। जिसका मतलब है कि बच्चों की नाजुक स्थिति को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है। 

        14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए बनाए गए प्रावधान तो और भी ज्यादा खतरनाक हैं। संशोधित कानून 14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए “पारिवारिक उद्यमों” में, जो खतरनाक की सूची में नहीं आते हैं, स्कूल के बाद और छुट्टियों के दौरान काम करने की छूट देता है। यह गौर करने वाली बात यह है कि परिवार में सिर्फ माता-पिता और भाई-बहन ही नहीं अपितु बच्चे के माता-पिता के भाई-बहन भी शामिल हैं। इस तरह यह कानून शब्दों की उचित व्याख्या न करके परिवार तथा परिवार द्वारा चलने वाले उद्यमों के नाम पर बाल-श्रम को पूरा मौका देता है। इस तरह अब कोई भी मालिक खुद को बच्चे का रिश्तेदार बता कर खुद को कानूनी दायरे से बचा सकता है। इसमें अभी यह बात तो की ही नहीं जा रही है कि बच्चों की ट्रैफिकिंग के जरिए शारीरिक तथा यौन शोषण में बहुधा करीबी रिश्तेदार ही शामिल पाए जाते हैं। कालीन बनाने, बीड़ी बनाने, चूड़ी बनाने, ईंट तथा कांच की भट्टियां, फेरी जैसे पारिवारिक उद्यमों को खतरनाक कामों की सूची से बाहर कर दिया गया है। इस तरह से कोई भी स्कूल जाने वाला बच्चा अब स्कूल के बाद अपने चाचा-मामा-ताऊ की बीड़ी बनाने की फैक्ट्री में काम कर सकता है वह भी बिना किसी कानूनी सुरक्षा के। वही बच्चा जो सिगरेट तथा अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम, 2003 के तहत 18 साल का न होने तक बीड़ी खरीद नहीं सकता है। इस तरह से बाल श्रम का एक बड़ा हिस्सा जो अभी तक गैर-कानूनी था अब इस संशोधित कानून की मेहरबानी से पूरी तरह से कानूनी हो चुका है। 

        इस कानून का उल्लंघन करने की सूरत में पहली बार उल्लंघन करने वालों के लिए कम से कम 3 तीन महीने की कैद अथवा 10000 रु. का जुर्माना था, तथा दूसरी बार उल्लंघन करने वालों के लिए कम से कम 6 महीने की कैद थी। नए संशोधनों ने सजा को और ज्यादा कठोर कर दिया है। अब पहली बार उल्लंघन करने वालों के लिए सजा बढ़ा कर 6 महीने की कर दी गई है जो बढ़कर 2 साल तक हो सकती है और 20,000 रु. से कम का जुर्माना किंतु जो बढ़कर 50, 000 तक हो सकता है। दूसरी बार उल्लंघन करने वालों के लिए सजा बढ़ाकर 1 साल कर दी गई है जो आगे तीन साल तक जा सकती है। किंतु विडंबना यह है कि भारत के कई राज्यों में बाल श्रम कानून के तहत दोष सिद्धी की दर 1 प्रतिशत से भी कम है वह भी तब जब दुनिया भर में बाल श्रमिकों के आंकड़ों में भारत में 6.5 प्रतिशत बाल मजदूर हैं। 

        बाल श्रम अधिनियम में इन परिवर्तनों के जरिए सरकार कारपोरेट निवेश को सुगम बनाने के लिए श्रम सुरक्षा के आधार को कमजोर करने की तैयारी कर रही है। विदेशी निवेश को भारत में आकर्षित करने के लिए श्रम कानूनों में प्रस्तावित संशोधन पहले ही सरकार की कारपोरेट पक्षधरता को जनता के सामने साफ कर चुके हैं। यह सरकार उस विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की पसंदगी और सुविधापरस्ती के लिए हमारे लाखों मासूमों के बचपन की बलि देने की पूरी तैयारी कर चुकी है। यह कहना कतई गलत न होगा कि मेक इन इंडिया जैसी परियोजनाएं मेहनतकश आबादी के लाखों बच्चों के खून-पसीने के दम पर ही सफल होंगी। 1991 के बाद से ही संगठित व्यस्क मजदूरों के स्थान पर असंगठित, प्रवासी मजदूरों को लगाकर फैक्ट्री आधारित उत्पादन को खत्म करने की कोशिश की जा रही है। यह प्रक्रिया फैक्ट्री मालिकों को मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी, उचित कार्य परिस्थितियां तथा सामाजिक सुरक्षा देने के दायित्व से बचा लेती है। अर्थशास्त्री अर्चना प्रसाद ने घर से होने वाले कामों के आंकड़ों में 1999-2000 के बीच 23.3 मिलियन से 2011-2012 में 37.4 मिलियन इजाफे को दिखाया है। इसमें से घर से काम करने वाले मजदूरों में 16 मिलियन कामगार महिलाएं हैं। घर से काम करके देने वाली महिलाओं में से 73 प्रतिशत कपड़ों, तंबाकू तथा टैक्सटाइल के क्षेत्र में हैं। इन कामों को घरों की चारदीवारी में किया जाता है जहां पर बच्चे अपनी पढ़ाई छोड़कर अपने माता-पिता के पीस-रेट के काम को पूरा करने और बढ़ाने में मदद करते हैं।   

        बाल-श्रम के समर्थकों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि गरीब परिवारों के बच्चों को अपने परिवार की विशेष परिस्थितियों की वजह से अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए काम करना पड़ता है। इस बात को वह नजरअंदाज कर देते हैं कि मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करवाने जैसे कामों के जरिए इस परिस्थिति को उल्टा जा सकता है। यह गरीबी से निजात पाने का ज्यादा तार्किक तरीका होगा। परिवार आधारित कामों को बढ़ावा देने वाले इस कानून में यह भी गौर करने लायक है कि यह कानून जातिवाद को तोड़ सकने में एक बड़ी रुकावट है। यदि बीड़ी बनाने वाले का बच्चा सिर्फ बीड़ी बनाने वाला ही बनेगा, साहित्यकार, डाॅक्टर या दार्शनिक नहीं तो यह जातिवाद के विरुद्ध हुए सभी आंदोलनों को विफल कर देगा। 

        मौजूदा सरकार व्यापक तौर पर मजदूरों के हितों के खिलाफ काम कर रही है तथा यह लाखों मासूमों का बचपन पूंजीवाद की बलिवेदना पर कुर्बान करने के लिए तैयार है।

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