बुधवार, 21 दिसंबर 2016

फ्रांसीसी क्रांति-विश्व की प्रथम निर्णायक पूंजीवादी क्रांति

-रौशन कुमार

        फ्रांसीसी  क्रांति के 227 वर्ष पूरे हो चुके हैं। यह क्रांति एक नये ऐतिहासिक युग का प्रथम कदम थी। इस क्रांति ने फ्रांस में सामंती अभिजातों के शासन को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया था। इसने सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में पूंजीवादी शासकों को स्थापित करने का रास्ता प्रशस्त किया था। क्रांति ने ऐसे बुनियादी परिवर्तन कर दिये थे कि उनको पीछे ले जाने की प्रतिक्रियावादियों द्वारा पुनस्र्थापना करने की तमाम कोशिशें उसके सामाजिक परिणामों को पीछे नहीं ले जा सकीं। इस महान क्रांति ने पूंजीपति वर्ग के एक छत्र शासन की शुरुआत कर दी थी।

        क्रांति पूर्व का फ्रांसीसी समाज लुई सोलहवें के निरंकुश राज्य के अंतर्गत था। यह समाज श्रेणियों में बंटा हुआ था। ये श्रेणियां पादरियों, सामंतों और साधारण लोगों में विभक्त थीं। पादरी लोग प्रथम इस्टेट के अन्तर्गत, सामन्त द्वितीय इस्टेट के अंतर्गत और पूंजीपति, व्यापारी, वकील, व अन्य मध्यमवर्गीय लोगों सहित साधारण लोग मजदूर और किसान तृतीय इस्टेट के अंतर्गत आते थे।

        पादरी लोग दो तरह के थे। इनका  ऊपरी हिस्सा भोग-विलास का जीवन व्यतीत करता था जबकि निचला हिस्सा गरीबी में रहता था। पादरियों के अधिकार क्षेत्र व्यापक थे। शिक्षा पर नियंत्रण इन्हीं का होता था। पादरियों की सभायें ही पुस्तकों एवं समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगाने, धर्मद्रोही और प्रोटेस्टेंटों (फ्रांस में कैथोलिक ईसाई धर्म था) के विरूद्ध नियम बनाने आदि का कार्य करती थीं। पादरियों की आमदनी चर्च की भूमि से आती थी और धार्मिक शुल्क के जरिए आती थी। पादरियों और धार्मिक सम्पत्ति पर राज्य कोई टैक्स नहीं लेता था।

        फ्रांस का दूसरा इस्टेट सामंतो का था। ये भी अलग-अलग हैसियत के हिसाब से तीन श्रेणियों में बंटे हुए थे। इनमें से सबसे ऊँचे पायदान पर वे सामंत आते थे जो राजा के निकट रहने का अवसर प्राप्त कर लेते थे। इनके दूसरे पायदान पर न्यायिक सामंत (नोबल्स आॅफ दा रोब) थे। ये न्यायाधीश, वकील व मजिस्ट्रेट होते थे। इसी पायदान पर ऐसे सामंत भी होते थे जो मंत्री या इंटेडेंट भी होते थे। सबसे निचले पायदान पर तलवारधारक सामंत (नोबल्स आॅफ द सोर्ड) होते थे। ये सबसे बड़ी तादाद में और निर्धन होते थे। दूसरे इस्टेट के ये सामंत विशेषाधिकार सम्पन्न थे और किसानों से मनमानी जागीरदारी शुल्क वसूलते थे।

        ये दोनों इस्टेट के लोग समाज के परजीवी वर्ग थे और भ्रष्टाचार, भोगविलास में आकंठ डूबे हुए थे। 

        क्रांति के समय तक फ्रांस मुख्यतया कृषि प्रधान देश था। किसान भी कई श्रेणियों में बंटे हुए थे। फ्रांसीसी किसान विभिन्न तरह के करों और जागीरदारी शुल्कों के बोझ के नीचे दबे हुए लट्टू जानवर की तरह जीवन जीने को अभिशप्त थे। बेगार की प्रथा जारी थी। किसान जागीरदारों से स्वाभाविक तौर पर बहुत घृणा करते थे।

        1789 की क्रांति के ठीक पहले 1788 और 1789 में अकाल आये और भयावह शीत का प्रकोप हुआ था। इसने किसानों की और कमर तोड़ दी थी तथा उनकी सहनशीलता समाप्त हो गयी थी।

        1789 में फ्रांस की शहरी आबादी बहुत कम थी। पेरिस और लियो ही ऐसे दो शहर थे जिनमें आबादी लाखों में थी। इन शहरों में उद्योगपति, व्यापारी, व्यवसायी, दुकानदार, वकील, चिकित्सक, विश्वविद्यालय के अध्यापक, सरकारी अधिकारी, क्लर्क जैसे लोग रहते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न उद्योगों से जुड़े मजदूर, और हस्तकार रहते थे। ये मध्यम वर्ग के लोग समृद्ध तो हो गये थे, लेकिन इनको पादरियों और सांमतों की तरह सुविधा प्राप्त नहीं थी। इस मध्यम वर्ग की प्रासंगिकता बढ़ रही थी। अप्रासांगिक वर्गों को वे सभी सुविधाएं मिली हुई थीं जो प्रासंगिक वर्ग को नहीं मिल रही थीे। मध्यम वर्ग के बीच पादरी और सामन्त वर्ग के विरूद्ध गुस्सा बहुत बढ़ गया था।

        फ्रांस की पुरातन व्यवस्था यूरोप की सबसे शक्तिशाली और निरंकुश व्यवस्था थी। पढ़े-लिखे मध्य वर्ग के बीच इस सामंती व्यवस्था के विरूद्ध आक्रोश और इसकी अतार्किकता का प्रतिकार करने की भावना का संचार हो गया था। इसकी अभिव्यक्ति एक वैचारिक उथल-पुथल में पहले से हो रही थी। अठारहवीं सदी ने फ्रांस में वाल्तेयर, मोंतेंस्क्यू, और रूसो जैसे दार्शनिक व विचारक पैदा किये थे। जिन्होंने तत्कालीन फ्रांसीसी समाज की विद्रूपता और उसके सैद्धान्तिक खोखलेपन को उजागर किया था। उन्होंने इसके विकल्प के बतौर एक मानवतावादी और न्यायसंगत समाज की रूपरेखा प्रस्तुत की थी।

        वाल्तेयर विवेक और सहिष्णुता का प्रतीक बन गया था। उसने ईसाई धर्म की रूढ़ियों, संगठित धर्म के संस्कारों, धर्म दर्शन के रहस्यात्मक जटिलताओं तथा धार्मिक कट्ट्रता, दमन, रक्तपात, विवेकहीनता एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होने वाले हमलों का जमकर विरोध किया था। उसकी यह उक्ति अभी तक उद्धृत की जाती है, ‘‘ मैं तुम्हारे बोले गये एक शब्द से भी सहमत नहीं हूं परन्तु तुम्हारे बोलने के अधिकार का मैं जान देकर भी रक्षा करूंगा।’’

        वाल्तेयर ने मोंतेस्क्यू के बारे में कहा था, ‘‘ मानव समाज ने अपने अधिकारों को खो दिया था, मोंतेस्क्यू उसे पुनः पाने के लिए आया है।’’ मोंतेस्क्यू ने सर्वप्रथम सर्वशक्तिसम्पन्न राजा के स्थान पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे तीन अंगों की कल्पना की थी।मोंतेस्क्यू की इसी अवधारणा के आधार पर संयुक्त राज्य अमेरिेका और फ्रांस में गणतांत्रिक प्रणाली का जन्म हुआ था।

        ज्यां जाक रूसो ने ‘सामान्य इच्छा’ की अवधारणा को पेश किया था। उसकी इस धारणा के अनुसार, एक न्यायपूर्ण मानव समाज में मानव स्वयं को और अपने अधिकारों को एक ‘सामान्य इच्छा’ के समक्ष समर्पित कर चुका होगा। रूसो के अनुसार सभी मनुष्यों के कुछ प्राकृतिक अधिकार व स्वतंत्रताएं होती हैं। उसे ऐसे किसी शासन के प्रति निष्ठावान रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है जो उसके जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करने में  सफल न रहा हो। उसकी लोकप्रिय सर्वोच्चता का सिद्धांत ‘‘ स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे’’ के मूल्यों पर आधारित था। 

        इन तीन दार्शनिकों के अलग अर्थशास्त्रियों में फिजियोक्रैट(प्रकृतितंत्रवादी) हुए थे, जो जमीन को समृद्धि का मूल स्रोत मानते थे। वे उत्पादन के स्वतंत्र वितरण के हिमायती थे। उनका कहना था कि मनुष्य संपत्ति का प्राकृतिक अधिकार तभी प्राप्त कर सकता है जब वह सरकारी नियंत्रणों एवं सामंती प्रतिबंधों को समाप्त कर दे। स्वत्रंत उत्पादन और स्वतंत्र वितरण ही उनका साध्य था। उनके अनुसार प्राकृतिक-आर्थिक शक्तियों के स्वत्रंत वितरण पर नियंत्रण लगाने का अधिकार सरकार के पास नहीं होना चाहिए। 

        इसके अलावा दिंदरो के नेतृत्व में तैयार किये गये विश्वकोश ने तरह-तरह के नये ज्ञान को एक सूत्र में पिरोने तथा व्यवस्थित रूप देने का काम किया था। प्रबोधन के उस युग में राजनीति, धर्म, नैतिकता, अध्यात्म तथा अर्थशास्त्र से संबंधित विवादास्पद विचारों को दिंदरो ने एक सूत्र में पिरोया था। 35 खंडों वाले इस विशालकाय विश्वकोश को तमाम प्रतिबंधों और विरोधों का सामना करना पड़ा था। अनेक स्थानों पर इसकी प्रतियों को सार्वजनिक रूप से जलाया गया था। लेकिन ज्ञान के इस महत्वपूर्ण कोश का प्रयोग करने से लोगों को रोका नहीं जा सकता था। 

        1789 की क्रांति की वैचारिक भूमि तैयार करने का काम उपरोक्त दार्शनिकों और विचारकों ने किया था। पेरिस में मध्यवर्ग के लोगों में इन पर चर्चा होती थी और फ्रांस के निरंकुश शासन से निकलने के रास्ते तलाशे जाते थे। 

        दशकों से कई क्षेत्रों में क्रांति की प्रक्रिया जारी थी। लगभग आधी शताब्दी से फ्रांस की वित्त व्यवस्था चरमरा रही थी। उसका बजट निरंतर घाटे का रहता था। देश की वित्तीय बीमारियां इतनी व्यापक और दीर्घकालिक थीं कि उन्हें पादरी वर्ग को मिली करों में छूटों को समाप्त किये बगैर दूर नहीं किया जा सकता था। 

        लेकिन इसी समय फ्रांसीसी जनता के ऊपर वैचारिक क्रांति का प्रभाव तो पड़ ही रहा था, इसी के साथ ही परिवर्तन में रुचि रखने वाला और उसमें सक्षम एक नया वर्ग ताकत से ताकतवर होता जा रहा था। यह पूंजीपति वर्ग था। यदि यह वर्ग नहीं होता तो वैचारिक क्ऱांति को सामाजिक उथल-पुथल में तब्दील करने की भौतिक परिस्थिति ही नहीं मिल पाती। 

        इसी कशमकश के बीच लुई सोलहवें ने तीनों इस्टेटों की सभा इस्टेट जनरल को गठन के लिए सभा बुलाई। यह सभा 1614 के बाद 4 मई 1789 को पहली बार बुलाई गयी थी। इस सभा के चुनाव से पहले समूचे फ्रांस में अलग-अलग वर्गों-तबकों की मांगों को इकट्ठा करने का काम तीसरे इस्टेट के लोगों ने किया। तीसरे इस्टेट के सदस्यों ने इस्टेट के आधार पर चुनाव कराने के बजाय व्यक्ति के आधार पर चुनाव कराने की राजा से मांग की। उनकी इस मांग का पादरी और सामंत वर्ग ने विरोध किया। तीसरे इस्टेट के लोग व्यक्ति के आधार पर चुनाव कराने पर दृढ़ थे। इस लड़ाई के दौरान तीसरे इस्टेट के लोग टेनिस कोर्ट चले गये और उन्होंने घोषणा कर दी कि वे तब तक सत्र में रहेंगे जब तक संविधान तैयार नहीं हो जाता। राजा ने ताकत के बल पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की। 

        पेरिस शहर विशेष तौर पर पूंजीपति वर्ग, इसके प्रतिरोध के लिए उठ खड़ा हो गया। कई दिनों तक संघर्ष के परिणाम के बतौर 14 जुलाई को वास्तीय का किला ढहा दिया गया। यह किला राजनीतिक बंदियों के लिए कुख्यात था। यह फ्रांस की निरंकुश सत्ता का प्रतीक बन गया था। 

        वास्तीय के किले पर कब्जे का प्रभाव बहुत व्यापक था। ऐसा लगता था कि मानवता की जेल गिरा दी गयी है। यह मानवाधिकार की सेवा में जनता की ताकत की घोषणा थी। वास्तीय के पतन के बाद क्रांतिकारी आवाम और ज्यादा हमलावर हो गयी। 14 जुलाई को शाही सत्ता का मुख्य आधार इतना कमजोर हो गया कि वह फिर से कभी भी पूरी तौर पर उबर नहीं पाया। 

        14 जुलाई को जनता को पहली बार अपनी ताकत और पेरिस की जनता की भूमिका की ताकत पता चला। 15 जुलाई को जब असेंबली ने अपने प्रतिनिधियों को राजधानी भेजा तो जनता ने उनका उत्साहपूर्वक खैरमकदम किया था। 14 जुलाई, 1789 को ही फ्रांस के कम्यूनों का संघ पैदा हुआ था। पेरिस का सर्वहारा पूंजीवादी क्रांति के नेतृत्व की घटनाओं की सीढियों पर बहादुरी के साथ चढ़ा था। या यू कहे कि वह पूंजीपति वर्ग  के साथ-साथ हिस्सेदारी कर रहा था। हालांकि अविश्वासी पूंजीपति वर्ग द्वारा उन्हें अगले ही दिन निशस्त्र कर दिया गया था। 

        वास्तीय पर कब्जे ने ग्रामीण क्षेत्रों पर अत्यधिक प्रभाव ड़ाला था। इस्टेट सभा की शुरुआत से ही किसान इंतजार कर रहे थे।  किसानों में भी वास्तीय के पतन का स्वागत करने वाले दो विपरीत तरह के लोग थे। संपन्न किसान सामंतवाद का खात्मा चाहते थे लेकिन वे अपनी जमीनों की सुरक्षा भी चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपनी मिलिशिया बना रखी थी। गरीब किसान जमीनों का बंटवारा चाहते थे। जिस प्रकार शहरों में पूंजीपति वर्ग ने मजदूरों को निशस्त्र कर दिया था और उन्हें वास्तीय के पतन के बाद से क्रांति के फलों से दूर कर दिया था। बाद में उनको अपने संगठन बनाने से प्रतिबंधित कर दिया था। उसी प्रकार किसानों में भी उन्होंने संपत्ति वालों की हिमायत की थी। 

        लुई सोलहवें द्वारा महल से जाने के बाद राजा और उनके समर्थक पेरिस के विरूद्ध, क्रांति के विरूद्ध विद्रोह भड़काने में लगे थे। खुद क्रांतिकारी समूहों के बीच दो विरोधी प्रवृतियां काम कर रही थीं। जिरांेदवादी सुविधाप्राप्त लोगों के लिए लड़ रहे थे। उनके लिए जनता की अवधारणा जैकोविनों से इतनी अलग थी कि जिरोंदवादी जिन संस्थाओं को पवित्र और आवश्यक समझते थे जैकोविन उन्हें अनावश्यक और जनता के सिर पर बोझ समझते थे। 

        वास्तीय के पतन के बाद एक तरफ तो लुई सोलहवें के समर्थक जगह-जगह विद्रोह भड़का रहे थे और दूसरी तरफ यूरोप के विभिन्न देशों ने क्रांतिकारी फ्रांस पर हमला बोल दिया था। इस तरह क्रांतिकारी फ्रांस को अंदरूनी और बाहरी दुश्मनों से लड़ना था। 

        इस लड़ाई को समझौतापरस्त जिरोंदवादी एक तरह से लड़ना चाहते थे। वे राजा को बचाना चाहते थे। वे किसी न किसी रूप में संवैधानिक राजतंत्र को कायम रखना चाहते थे। जैकोबिन इसे दूसरी तरह से लड़ना चाहते थे। वे पुरातन व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करना चाहते थे। वे निम्न पूंजीपति वर्ग और व्यापक मेहनतकश वर्ग की एकता के बल पर पूंजीपतियों की सभा को चुनौती देना चाहते थे। हालांकि निजी संपत्ति की व्यवस्था के दोनों हिमायती थे। 

        क्रांति के बाद जो सत्ता अस्तित्व में आयी थी उसमें जिरोंदवादी बहुमत में थे। वे राजा को सजा देने के पक्ष में नहीं थे। जिरोंदवादियों की आतंरिक नीति मध्यमार्गी थी, जबकि विदेश नीति में वे शुरू से ही आक्रामक थे। जिरोंदवादी लोगों को आबादी के सबसे क्रांतिकारी हिस्से, कम से कम पेरिस के गरीबों का कभी भी समर्थन नहीं मिला था। ‘जनता’ के बारे में आबादी के इस हिस्से का दृष्टिकोण और हित जिरोंदवादियों से बिल्कुल भिन्न था। 

        इन्हीं कारणों से जिरोंदवादियों का पतन हुआ और जैकोबिनों की विजय हुयी। नरम और उदार जिरोंद लोग फ्रांस को उस कठिन परिस्थिति से नहीं उबार सकते थे जिसमें वह 1793 में फंसा हुआ था। 

        फ्रांस की वह बाह्य परिस्थितियां थीं जिन्होंने जैकोबिनों की तानाशाही आवश्यक बना दिया था। जब एक बार तानाशाही आवश्यक हो जाती है तब स्वतंत्र, कानूनी और नरम गणतंत्र की बात महज मजाक बन जाती है। क्रांतिकारी तानाशाही को अवश्य ही उस समय दृढ़ और निर्मम होना होता है जब बाहरी दुश्मनों को देश के भीतर बुलाया जाता है, जब प्रतिक्रियावादी यूरोप का क्रांतिकारी फ्रांस पर हमला होता है। 

        जैकोबिनों द्वारा तानाशाही लागू करने के आतंरिक कारण भी थे। 1789 में मनुष्यों और नागरिकों के अधिकार की घोषणा की गयी थी। इसमें आबादी के सबसे नीचे के वर्ग के हितों के अनुरूप कई अधिकार शामिल थे। इसमें संपत्ति के अधिकार के बारे में विशिष्ट और अंतरविरोधी नजरिया मौजूद था।

        पेरिस के सांकुलोटे लोग सबसे गरीब आबादी का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके पास नाम मात्र की संपत्ति थी। वे इस अधिकार का उपयोग कैसे कर सकते थे? पूंजीपति वर्ग ने अभिजातों और चर्च की बहुत सारी संपत्ति ले ली थी, तो पूंजीवादी संपत्ति के साथ ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए था?

        यह सामाजिक संघर्ष स्पष्टतया राजनीतिक जीवन को भी प्रभावित कर रहा था। साधारण गरीब जिन्हें ‘भीड़’ कहा गया था, वे अपनी खुद की पार्टी के इर्द-गिर्द खड़े हो गये और जैकोबिनों को अपना समर्थन दिया। उस समय ‘भीड़’ यह जानती थी कि कैसे लड़ा जाये और जल्दी से कैसे नियंत्रण किया जाये। और तब उसने प्रत्यक्षतयः ऐसा कुछ नहीं छोड़ा बल्कि राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल उन सामाजिक संस्थाओं को बनाने में किया जिसमें सम्पत्ति का अधिकार भद्दे मजाक की तरह न लगे। उस समय के सर्वहारा के लिए और आज के सर्वहारा के लिए भी, यह सिर्फ एक शर्त पर ही सम्भव है और वह है उत्पादन के साधनों और उत्पादन के निजी सम्पत्ति के पूर्व उन्मूलन और उत्पादन के सामाजिक संगठन द्वारा।

        लेकिन उस समय के सर्वहारा के पास ना तो पर्याप्त क्षमता थी और न ही उत्पादन के साधनों का इतना विकास हुआ था कि वे सामाजीकरण की आरम्भिक आवश्यकताओं को भी पूरा कर लेंती। इसलिए न तो उस समय का सर्वहारा वर्ग और न ही उसके आगे बढ़े हुए प्रतिनिधि ही उस समय इस विचार को ग्रहण कर सकते थे।

        ऐसी परिस्थितियों में, उस समय ‘‘भीड़’’ को क्या करना था? यदि उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण सोचा नहीं जा सकता था, तो निजी सम्पत्ति  को अवश्यम्भावी तौर पर रहना था और गुस्सेभरी आबादी को आकस्मिक व ताकत के बल पर इस क्षेत्र पर दखल देना था। और इस दखल के चलते सभी पूंजीवादी इतिहासकार आज तक इस ‘‘भीड़’’ को दोष देते हैं। निजी सम्पत्ति के क्षेत्र में बलात् दखल ने ‘‘कानूनी’’ गणतंत्र को असम्भव बना लिया था क्योंकि कानून को निजी सम्पत्ति की रक्षा के लिए ही बनाया गया था।

        उस समय के सर्वहारा वर्ग और सम्पत्तिशाली वर्गों के बीच संघर्ष को आतंककारी हथियारों से ही लड़ा जा सकता था।

        जैकोबिनों ने जो संविधान बनाया था वह फ्रांस का सबसे क्रांतिकारी व स्वतंत्र संविधान था। लेकिन फ्रांस के अंदरूनी व बाहरी हालात ऐसे नहीं थे कि उस संविधान को लागू किया जा सके।

        इस प्रकार, फ्रांस की क्रांति ने पहले राजा की सत्ता को उखाड़ फेंका, इसके बाद चर्च के विशेषाधिकारों का खात्मा किया, सामन्तवाद को समूल नष्ट किया। उपनिवेशों के बाशिन्दों को समान नागरिक अधिकार दिया गया। यहूदियों के साथ भेद-भाव खत्म करके उन्हें समान नागरिक बनाया। बादशाह को फांसी में चढा़ने के बाद जिरोंदवादी लोगों को समझौतापरस्ती और राजा व प्रतिक्रियावादियों के साथ सांठ-गांठ को बेनकाब करके उन्हें गिलोटीन पर चढा़या। जैकोबिनों की सत्ता आयी। रोबस्पियर सत्ता में आने के बाद तानाशाह बना। गिलोटीन में बहुत सारे लोगों को चढा़या जाने लगा। विदेशी हमलों को परास्त किया।

        सांकुलोटे ने रोबस्पियर का समर्थन किया था। सांकुलोटे उस समय के मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि थे। लेकिन अभी कम्युनिज्म के सिद्धान्त नहीं आये थे। बाबेक के सांकुलोटे के विद्रोह को कुचल दिया गया और उसके बाद फ्रांस में काल्पनिक समाजवादियों की पीढ़ी आयी जिसको आगे बढा़कर वैज्ञानिक समाजवाद के रूप में माक्र्स-एंगेल्स ने विकास किया।

        राबस्पियर के राज को, जिसे आतंक का राज भी कहा जाता है, का अंत उनको भी गिलोटीन पर चढ़ा कर हुआ। इसके बाद फिर से प्रतिक्रियावादी पूंजीपति वर्ग सत्ता में आ गया। इन सबने 1899 में नेपोलियन बोनापार्ट के सत्ता में आने का रास्ता प्रशस्त किया। 

        जैसा कि लेख के शुरू में कहा गया है कि फ्रांसीसी क्रांति ने समूचे यूरोप में पूंजीवादी क्रांतियों का रास्ता प्रशस्त किया था। इसको दबा देने के बाद भी इसकी सामाजिक उपलब्धियों को नहीं हटाया जा सका। 

        फ्रांसीसी क्रांति सही मायने में समग्र तौर पर पूंजीवादी क्रांति थी। इस क्रांति में ही आगे की समाजवादी क्रांति के बीज मौजूद थे। इस क्रांति के दौरान बाबेक मजदूर वर्ग के नेत्र के बतौर उभरे थे। उन्होंने ‘‘समान लोगों के षड़यंत्र’’ नामक संगठन बनाया था। वे सही अर्थों में शुरुआती कम्युनिस्ट थे।

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