‘‘उठो-उठो सो रहे हो नाहक, पयामे बांगे जरस तो सुन लो।
बढ़ो कि कोई बुला रहा है, निशाने मंजिल दिखा-दिखाकर।।’’
-दीपक
भारत की आजादी के आंदोलन में अशफाक उल्ला खां एक प्रमुख क्रांतिकारी थे। बहुचर्चित काकोरी काण्ड में हिस्सा लेने के चलते ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने उन्हें 19 दिसम्बर 1927 में फैजाबाद जेल में फांसी पर लटका दिया। अशफाक के साथ तीन अन्य क्रांतिकारियों रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी तथा रोशन सिंह को भी काकोरी काण्ड में फांसी की सजा दी गयी थी। भारतीय आजादी आंदोलन के इतिहास में अशफाक-बिस्मिल की जोड़ी हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक थी। ये दोनों मित्र साथ-साथ जिए, साथ-साथ लड़े और साथ-साथ ही इन्होंने फांसी के फंदे को चूमा। आज भी देश को हिन्दू-मुसलमान के नाम पर बांटने वाले फिरकापरस्तों के सामने अशफाक-बिस्मिल की साझा कुर्बानी का इतिहास सीना तान कर खड़ा है।
अशफाक उल्ला खां का जन्म उत्तरप्रदेश के शहीदगढ़ शाहजहांपुर में रेलवे स्टेशन के पास स्थित कदनखैल जलालनगर मुहल्ले में 22 अक्टूबर 1900 को हुआ था। उनके पिता का नाम शफीक उल्ला खां तथा मां का नाम मजहूरून्निशां बेगम था। अशफाक ने खुद अपनी डायरी में लिखा था कि जहां एक ओर उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट होने की तालीम न पा सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व सब जुडीशियल मजिस्ट्रेट के ओहदों पर मुलाजिम भी रह चुके थे। 1857 के गदर में उन लोगों (उनके ननिहाल वालों) ने जब हिन्दुस्तान का साथ न दिया तो जनता ने गुस्से में आकर उनकी आलीशान कोठी को आग लगा दी। बहरहाल अशफाक ने अपनी कुर्बानी देकर ननिहाल वालों के नाम पर लगे बदनुमा दाग को हमेशा-हमेशा के लिए धो डाला।
अशफाक के शुरुआती जीवन में उनकी मां का बहुत बड़ा योगदान रहा। खुद अशफाक के शब्दों में ‘‘मेरी वालिदा जो बाकायदा तालिम हासिल किये हुए थी, बराबर अखबार की मुस्तकिल खरीदार बन गई और मैं भी बराबर अखबार पढ़ने लगा। जब मैंने जाना कि मुसलमान और भी कहीं हैं, क्योंकि उस वक्त तक जुगराफिया से नावाकिफ था और महज हिंदुस्तान को ही मुकम्मल दुनिया ख्याल करता था। जैसे मेंढक कुंए को तसव्वुर (खयाल) करता है।’’
अशफाक की पढ़ाई के लिए मौलवी जी का प्रबंध किया गया था। मौलवी जी अपने विचारों में बहुत कट्टर थे तथा इसी कट्टरपन के चलते वे हर नई चीज के विरोधी थे। अपनी इसी सोच के चलते वे अंग्रेजी तथा अंग्रेजों से नफरत करते थे। जाहिर है कि मौलवी जी के इन विचारों का फर्क अशफाक पर भी पड़ा। अपने शुरुआती दिनों में अशफाक मानते थे कि ‘तुर्क, हिंदुस्तान को फतह कर लें और यहां बादशाह बन जायें तो हम खलिफाये वक्त की रियाया बन जायें।’ बाद के समय में क्रांतिकारी विचारधारा के सम्पर्क में आने के बाद ही अशफाक इस सोच से मुक्ति पा पाये। अपने पुराने विचारों की आलोचना करते हुए वो लिखते है ‘‘गरज की मेरा उस वक्त का खयाल आज मुझे बहुत जलील मालूम होता है कि एक का हलक-ए-गुलामी उतारकर दूसरे की गुलामी का जुआ अपने कंधों पर रखने मेें मुसर्रत सी महसूस करते थे। खैर वह मेरी नासमझी का जमाना था।’’
अशफाक के विचारों का यही परिवर्तन उन्हें विप्लवी पथ पर ले आया। बात उस समय कि है जब 1918 में वे शाहजहांपुर के मिशन स्कूल में सातवें दर्जे में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। मैनपुरी षड़यंत्र केस उसी समय चला था और उस सिलसिले में दसवें दर्जे में पढ़ रहे राजाराम भारतीय की विद्यालय से हुई गिरफ्तारी का अशफाक के मस्तिष्क पर गहरा असर पड़ा। मैनपुरी षड़यंत्र केस और राजाराम की गिरफ्तारी ने नौजवान अशफाक को तेजी से क्रांतिकर्म की ओर आकर्षित किया। उनके दिल में देशभक्त क्रांतिकारियों के प्रति इज्जत का भाव जाग चुका था। इसी बीच उन्हें अपने बड़े भाई रियासत उल्ला से बिस्मिल के बारे में पता चला, जो कि उनके भाई के सहपाठी थे। उन्हीं से अशफाक को यह भी पता चला कि बिस्मिल मैनपुरी कांड में गिरफ्तारी के बाद से शाहजहांपुर में नजर नहीं आ रहे हैं। वक्त गुजरा। 1920 में आम मुआफी के बाद बिस्मिल अपने शहर शाहजहांपुर आये और यहीं पर अशफाक ने बिस्मिल से मुलाकात कर उनका विश्वास जीतने की कोशिश की परंतु वे नाकाम रहे। चुनांचे एक रात खन्नौत नदी के किनारे एक गुप्त मीटिंग हो रही थी। अशफाक वहां जा पहुंचे। मीटिंग के दौरान अशफाक के शेर सुन बिस्मिल ने उन्हें आर्य समाज मंदिर में बुलाया। घर वालों के लाख मना करने के बाद भी अशफाक बिस्मिल से मिलने गये। और बिस्मिल से काफी देर गुफ्तगू करने के बाद उनकी पार्टी ‘मातृ देवी’ के एक्टिव मैम्बर भी बन गये। यहीं से उनकी जिंदगी का नया फलसफा शुरु हुआ। वे शायर के साथ-साथ कौम के खिदमतगार भी बन गए।
अशफाक का मानना था कि हमें क्रांतिकारी कामों के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी में पैठ बनानी चाहिए। इसी लक्ष्य के साथ अशफाक बिस्मिल और प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ 1921 में अहमदाबाद कांग्रेस में भी शामिल हुए। 1922 में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के सवाल पर गया कांग्रेस के बाद उन्होंने कांग्रेस का साथ हमेशा के लिए छोड़ दिया।
यही वो समय था जब बंगाल व उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारी योगेश चन्द्र चटर्जी व शचीन्द्रनाथ सान्याल में नयी पार्टी का गठन कर रहे थे। इस नयी पार्टी का नाम था एच.आर.ए.(हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ)। बिस्मिल व अशफाक भी इसी नयी पार्टी के कामों में जुट गए। सान्याल जी ने पार्टी का संविधान तैयार किया जो पतले और पीले कागज पर छपाए जाने के कारण ‘पीला कागज’ कहा गया। यहां यह बता देना उचित होगा कि इस संविधान का अंतिम ध्येय संसार की स्वतंत्र जातियों के संघ का निर्माण करना था। किंतु इसका तात्कालिक उद्देश्य सशस्त्र क्रांति द्वारा भारत को आजादी दिलाने का था। इस संविधान की विशेषता यह थी कि इसमें किसानों औा मजदूरों को संगठित करने की बात कही गयी थी। इस घोषणापत्र से स्पष्ट था कि अशफाक और उनके साथी कम्युनिस्ट नहीं थे बल्कि वे राष्ट्रीय मुक्ति के योद्धा थे। वे बहुत हद तक आयरलैंड के क्रांतिकारियों से प्रभावित थे। अपनी इन दिनों की सोच की व्याख्या काकोरी काण्ड के एक अन्य अभियुक्त मन्मथनाथ गुप्त इन शब्दों में करते हैं ‘‘थोड़े में यह वह वातावरण था जिसमें हम सन् 1923 से लेकर 1925 तक अर्थात् हमारी गिरफ्तारी के समय तक परिपालित हुए और ये वे विचार थे जिनसे हमने रस ग्रहण किया। पहले ही मैं बता चुका हूं कि हम उस युग में समाजवादी नहीं थे, साथ ही समाजवाद की ओर रुख भी बहुत स्पष्ट नहीं था। क्रांति के संबंध में हमारी धारणा ब्लांकीवादी थी। किस प्रकार की सरकार स्थापित होगी, इस संबंध में हमारी धारणा राष्ट्रीय लोकतांत्रिक थी, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को वोट का अधिकार रहेगा। हम जिस प्रकार का स्वप्न देखते थे वह स्वशासित राष्ट्रों का एक संघ होने वाला था।....... मैं यह नहीं जानता कि इस संबंध में मनोवैज्ञानिक क्या कहेंगे, किन्तु हम राष्ट्र के शासक तथा नेता बनने के बजाए फांसीघर का ही स्वप्न देखा करते थे।’’
1925 तक आते-आते एच.आर.ए. का काम उत्तर भारत के कई शहरों में फैल रहा था। कामों को और अधिक गति देने के उद्देश्य से पार्टी को पैसों की आवश्यकता आन पड़ी। उसी समय जर्मनी से माउजर पिस्तौलों की खरीद करनी थी और बड़ी संख्या में बम बनाए जाने थे। बिस्मिल की योजना यह भी थी कि विभिन्न जिलों में पुस्तकालय, क्लब और सेवा समितियां खोली जाएं ताकि दल का आधार बढ़ाया जा सके। पैसे की कमी को पूरा करने के लिए सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनायी गयी। तय किया गया कि सहारनपुर से छूटने वाली रेलगाड़ी को रास्ते में रोककर उसमें से सरकारी खजाने को लूटा जाएगा। अशफाक इस योजना के खिलाफ थे। उनका कहना था कि हमारा दल अभी मजबूत नहीं है। उसमें वह शक्ति नहीं है कि वह सरकार से सीधा युद्ध कर सके। अपने इस मतभेद के बावजूद जब पार्टी में ये योजना बहुमत से पास हो गयी तो अशफाक ने एक अनुशासित सिपाही की तरह योजना में भाग लिया।
9 अगस्त 1925 को तय योजना के अनुसार दस क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास काकोरी नामक जगह पर पैसेंजर ट्रेन से जाने वाले सरकारी खजाने को लूट लिया। इतिहास में ये घटना काकोरी काण्ड के नाम से मशहूर हुयी। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की सत्ता को इस घटना ने हिला कर रख दिया। जिस साम्राज्य का लोहा पूरी दुनिया में माना जाता था, उसे कुछ नौजवान देशभक्तों ने चुनौती देने की कोशिश की थी। चारों ओर इस घटना का जिक्र होने लगा। नौजवान इससे प्रभावित होकर क्रांतिकारी दलों से जुड़ने की योजना बनाने लगे। घटना का बदला लेने व आजादी की चिंगारी को बुझाने की बौखलाहट में ब्रिटिश सत्ता ने दमन का चक्र चलाया। 26 सितम्बर 1925 को पूरे देश में एक साथ गिरफ्तारियां हुयी। अशफाक पुलिस की आंख में धूल झोंककर फरार हो गए। पहले वह नेपाल गये, कुछ दिन वहां रहकर कानपुर आ गये। वहां से बनारस होतेे हुए बिहार के डाल्टनगंज में उन्होंने कुछ दिन नौकरी भी की। अन्ततः अपने एक पुराने मित्र की गद्दारी के चलते पुलिस ने उन्हें दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया।
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि काकोरी काण्ड का फैसला 6 अप्रैल 1926 को सुना दिया गया था। अशफाक उल्ला खां और शचीन्द्रनाथ बख्शी को पुलिस बहुत बाद में गिरफ्तार कर पायी थी। अतः स्पेशल सेशन की अदालत में 7 दिसम्बर 1926 को एक पूरक मुकदमा दायर किया गया। मुकदमे के मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने अशफाक को सलाह दी की वे किसी मुस्लिम वकील को अपने केस के लिए नियुक्त करें किन्तु अशफाक ने जिद करके कृपाशंकर हजेला को अपना वकील चुना। अशफाक खुद को बचाने की शर्त पर भी हिन्दू-मुस्लिम एकता से डिगने वाले नहीं थे। वे जीवन पर्यन्त हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाने के सपने देखते रहे। अपने अंतिम समय में मुल्क के नाम लिखे गए अपने संदेश ‘बिरादराने-वतन के नाम’ में अशफाक लिखते हैं- ‘‘भाइयो! तुम्हारी खानाजंगी, तुम्हारी आपस की फूट, तुम दोनों में से किसी के भी सूदमंद साबित न होगी। यह गैरमुमकिन है कि 7 करोड़ मुसलमान शुद्ध हो जाएं वैसे ही यह भी महमल (निरर्थक) बात है कि 22 करोड़ हिंदू, मुसलमान बना लिये जाए। मगर हां यह आसान है कि यह सब मिलकर गुलामी का तौक (जंजीर) गले में डाल लें।’’
अशफाक एक मुस्लिम थे परन्तु वे धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते थे। जेल में उनके साथ लम्बा समय बिताने वाले शचीन्द्रनाथ बख्शी लिखते हैं, ‘‘इस विषय में अशफाक उल्ला खां का कहना था कि मैं किसी ताकत को बहुत ऊंचा मानता हूं यानि यह समझता हूं कि हमारे और दुनिया के ऊपर कोई और है। तुम इसे नहीं मानते, जिस दिन मेरा भी इस बात से विश्वास उठ जाएगा, उस दिन से मैं भी इस बात को मानना छोड़ दूंगा। यह तो एकदम व्यक्तिगत विश्वास की बात है।’’
इन क्रांतिकारियों का यह विश्वास ही इन्हें एक सूत्र में पिरोता था। यही विचार बिस्मिल जैसे आर्य समाजी और अशफाक जैसे मुस्लिम को प्रगाढ़ मित्र बना देते थे। अशफाक-बिस्मिल के चरित्र के सामने हमारे आज के नेता कितने बौने नजर आते हैं। यही नहीं आज उनके द्वारा खड़ी की गयी धार्मिक एकता की बेमिसाल इमारत को तोड़ने की कोशिश फासीवादी ताकतों द्वारा की जा रही है।
पूरक मुकदमे में अशफाक को फांसी और शचीन्द्रनाथ बख्शी को काला पानी की सजा हुयी। जब सजा सुनाई गई उसका आंखों देखा हाल बख्शी जी के शब्दों में उदधृत करने योग्य है- ‘‘अशफाक उल्ला उम्र में मुझसे डेढ़ साल बड़े ही थे, लेकिन पार्टी के संगठन का ज्यादा पुराना और तजुर्बेकार कार्यकर्ता होने के नाते वे मुझे ही बड़ा मानते थे। रोज-ब-रोज होने वाले क्रांतिकारी मामलों में वे मुझे ज्यादा प्रवीण भी समझते थे, इसलिए हमेशा मुझसे सलाह लेते थे और उसे मानते भी थे। लेकिन जिस वक्त मुझे और अशफाक को सजा सुनाई गई थी- मुझे उम्र कैद और अशफाक को फांसी की सजा सुनाई गई- तो मुझे ऐसा लगा मानो अशफाक एकाएक मुझसे बहुत ऊंचे हो गए हैं।.... मेरी आंखों में आंसू निकल आए। मैं बड़ी कठिनाई से बंग्ला में कह सका- ‘एक यात्रा में पृथक फल नहीं होना चाहिए, मुझे भी यही सजा मिलनी चाहिए।’ मुझसे और कुछ नहीं बोला गया। उस समय अशफाक उल्ला मुझे समझाने लगे थे। उनमें धैर्य धारण करने की अद्भुत शक्ति थी।’’
इसके बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा मुकदमे का लम्बा नाटक चलाया गया। अंततः 19 दिसम्बर 1927 की सुबह फैजाबाद जेल में उन्हें फांसी के तख्ते पर ले जाया गया। फांसी के तख्ते पर जाते हुए उन्होंने कहा- ‘‘मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगे। मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया, वह गलत है। खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा।’’ मरने से पहले उन्होंने एक शेर कहा था-
तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से,
चल दिए सूए-अदम जिंदाने-फैजाबाद से।
यह सच है कि अशफाक व उनके साथी कम्युनिस्ट नहीं थे परंतु वे 1925 में भारत में बनी कम्युनिस्ट पार्टी से प्रभावित जरूर थे। ‘बिरादराने वतन के नाम’ में तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी को सलाह देते हैं, और लिखते हैं कि ‘‘मैं तुमसे काफी तौर पर मुत्तफिक(सहमत) हूं और कहूंगा कि मेरा दिल गरीब किसानों के लिए और दुखिया मजदूरों के लिए हमेशा दुखी रहा। मैं अपने अय्याम फरारी (फरारी के दिन) में भी अक्सर इनकी हालत देखकर रोया किया हूं क्योंकि मुझे इनके साथ दिन गुजारने का मौका मिला है।’’
स्पष्ट है कि अशफाक का दिल भी मजदूरों-किसानों की लूट से जार-जार होता था परंतु वे अपनी चेतना में राष्ट्रीय क्रांतिकारी ही थे, एक समाजवादी वैज्ञानिक नहीं। उनकी इस कमी को उनके बाद के क्रांतिकारियों ने आगे बढ़ाया। जब भगत सिंह के नेतृत्व में एच.आर.ए. का नाम एच.एस.आर.एर. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी) कर दिया गया था। ये भारतीय क्रांतिकारियों की गति ही थी जो उन्हें समाजवाद के करीब ले गयी।
अशफाक एक सच्चे क्रांतिकारी के साथ-साथ एक शायर भी थे। कई दफा बिस्मिल और अशफाक के बीच शायरियों का दौर-दौरा चलता। ये दोनों लिखते भी ऐसा थे जिसे पहचानना मुश्किल हो कि ये शेर एक ही आदमी ने लिखा है या दो भिन्न लोगों ने। जैसे बिस्मिल लिखते हैं-
‘‘अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझते हैं।
मियां! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?’’
इस पर अशफाक का शेर पढ़िए-
‘‘मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है!
हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है?’’
ऐसे ही मिलते-जुलते अशफाक-बिस्मिल के कई शेर हैं। फिर भी अशफाक की कलम कभी पीछे नहीं रही। अशफाक की एक नज्म देखिए-
‘‘उरूजे-कामयाबी पर कभी हिन्दोस्तां होगा,
रिहा सैयाद (चिड़ीमार) के हाथों से अपना आशियां होगा।
चखाएंगे मजा बरबादी-ए-गुलशन का गुलचीं (फूल तोड़ने वाला) को
बहार आ जाएगी उस दिन जब अपना बागवां होगा।
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शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरनेवालों का यही बाकी निशां होगा।
कभी वो दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगी, जब अपना आसमां होगा।’’
जिस जमी और आसमां का ख्वाब लिए अशफाक शहीद हुए वह उनकी शहादत के 90 साल बाद भी आना बाकी है। आज तो इस जमीं में फासीवादी ताकतें साम्प्रदायिकता का बीज बोने की कोशिश कर रही हैं। आइए! हम नौजवान शासकों को बता दें कि इस माटी में अशफाक-बिस्मिल का खून शामिल है। आइए अशफाक के शब्दों ‘‘उठो-उठो सो रहे हो नाहक, पयामे बांगे जरस तो सुन लो। बढ़ो कि कोई बुला रहा है, निशाने मंजिल दिखा-दिखाकर’’ को आत्मसात करते हुए मानव मुक्ति के रास्ते पर बढ़े।
स्रोतः 1. अशफाक उल्ला खां और उनका युग- सुधीर विद्यार्थी
2. अशफाक उल्ला खां- विकीपीडिया
3. मुल्क के नाम संदेश- बिरादराने वतन के नाम
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