मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2016 का प्रारूप

अर्थात शिक्षा को बाजार के हवाले, साथ में संघीकरण अलग से
-चंदन

        राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2016 का प्रारूप मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत किया गया है। एक लंबी कवायद के बाद तैयार इस प्रारूप पर 30 सितंबर तक सुझाव आमंत्रित किये गये थे। जल्द ही यह प्रारूप नीति की शक्ल भी ले लेगा।

        राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप यह स्वीकार करता है कि एक नयी शिक्षा नीति, 1986 के नक्शे पर ही आगे बढ़ रही है। नयी शिक्षा नीति, 1986 ने शिक्षा को एक व्यवसायिक क्षेत्र घोषित कर देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लिए मुनाफा कमाने के रास्ते खोल दिये थे। उसके बाद की सभी नीतियां एवं प्रस्ताव आदि शिक्षा को और भी अधिक बाजार के हवाले करने की ही वकालत करते रहे और सरकार शिक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी से बचती रही। मौजूदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2016 का प्रारूप इस मायने में भिन्न है कि वह जहां एक तरफ निजी पूंजी देशी-विदेशी के लिए और भी चैड़े रास्ते खोलता है वहीं दूसरी तरफ मौजूदा भाजपा सरकार के फासीवादी कदमों की झलक भी इसमें मौजूद है। 
        1986 की नयी शिक्षा नीति के अनुरूप ही शिक्षा को बाजार के लिए अधिक से अधिक खोलने के कदम ये साबित करते हैं कि कांग्रेस (या संप्रग)- भाजपा (या राजग) पूंजीपति वर्ग के सच्चे सेवक हैं, मेहनतकश जनता के नहीं। 
        प्रारूप शिक्षा में संसाधनों, शिक्षकों, गुणवत्ता आदि की कमी को स्वीकार करता है। इसके हल के लिए पूर्व के आयोगों का बजट का 6 प्रतिशत तक खर्च करने के सुझाव पर यह भी मौन साध लेता है। सरकार के पास शिक्षा के लिए इतना बजट न होने का रोना रोता है। पूंजीपति वर्ग के सच्चे सेवकों द्वारा प्रस्तुत यह प्रारूप सुझाता है कि दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों को हम आमंत्रित करेंगे और उनके लिए भारत का शिक्षा बाजार खोलेंगे। साथ ही उन देशों से अपने शिक्षा बाजार भारतीय पूंजीपतियों के लिए खोलने की नीति भी अपनायेंगे। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों को अपना वित्त खुद भी जुटाने की नीति अपनायी जायेगी। विश्वविद्यालय अपने लिए यह वित्त भूतपूर्व छात्रों से प्राप्त करेंगे। इसके अलावा शुल्क(फीस) बढ़ाकर यह रकम जुटायी जायेगी। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि गरीब-वंचित-मेहनतकश छात्र शिक्षा से दूर हो जायेंगे। पूंजीवाद का यही सच है जो खरीद सकता है वह उपभोग करेगा बाकि जिएं-मरे, पढ़े-न पढ़े। इस प्रारूप का मजदूर-मेहनतकशों से लिए यही संदेश है। 
        माध्यमिक व प्राथमिक शिक्षा में भी निजीकरण को बढ़ाने के ठोस सुझाव इस प्रारूप में मौजूद हैं। प्रारूप सुझाव देता है कि पूर्व प्राथमिक आंगनबाड़ी स्कूलों को प्राथमिक स्कूलों के नजदीक या एक ही जगह खोला जायेगा। इनके मिलने से शिक्षकों की कमी को दूर करने का सुझाव है। इसी तरह प्राथमिक स्कूलों-माध्यमिक स्कूलों के विलय करने का भी सुझाव है। इस तरह अब खाली पड़े स्कूलों को निजी हाथों में दिया जायेगा। इसका मतलब ये है कि सरकार जनता के पैसे से खड़े इन संस्थानों को पूंजीपतियों को (पीपीपी) मुनाफा कमाने के लिए दे देगी। साफ है कि इससे पूंजी का प्रसार होगा, शिक्षा का नहीं।
        अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण के नाम पर पाठयक्रमों को बाजार की मौजूदा जरूरतों के अनुरूप ढाला जा रहा है। इसके लिए च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम (सीबीसीएस) को तेजी से पूरे देश में लागू करने की कवायद जोरों पर है। इस शिक्षा विरोधी सिस्टम का देश में कई विश्वविद्यालयों में छात्रों-शिक्षकों द्वारा विरोध किया गया। न सिर्फ भारत में बल्कि अमेरिका जैसे देशों में  ऐसे सतही पाठयक्रमों के खिलाफ प्रदर्शन हुए और जारी हैं। यानि धूर्तता का आलम यह है कि जिन देशों की नकल करके ऐसे पाठयक्रम चुने जा रहे हैं वहां इनका हश्र नजरअंदाज कर दिया गया।
        पाठयक्रमों के इस सतहीकरण के पीछे एक अन्य तर्क रोजगार सृजन का है। देश में ऋणात्मक रोजगार विकास दर, आत्महत्या कर रहे स्वरोजगारशुदा लोग (कुल आत्महत्याओं का 38 प्रतिशत) भी सरकार को ऐसी लफ्फाजी करने से रोक नहीं पा रहे हैं। जनता की तरफ पीठ करके तैयार की जा रही शिक्षा व रोजगार नीति पूंजीपतियों के लिए ही होगी। बल्कि जरूरत इस बात की है कि यदि सरकार रोजगार देने को अपनी प्रतिबद्धता समझती है तो रोजगार को मौलिक अधिकार घोषित करे। ठेका, संविदा, मानदेय कर्मी, 100 दिन का रोजगार जैसे धोखों के बीच कोई भी पाठयक्रम रोजगार नहीं सृजित कर सकता। ऊपर से श्रम कानूनों में संशोधन कर रोजगार को और कठिन बनाने और पूंजीपतियों के पक्ष में ढालकर सरकार किसका फायदा देख रही है, ये कोई भी समझ सकता है।        प्रारूप शिक्षा की गुणवत्ता गिरने के पीछे शिक्षकों की ‘कामचोरी’ को भी कारण गिनाता है। शिक्षकों की इस आदत को सुधारने के लिए बायोमैट्रिक व फोन में उपस्थिति और अन्य तरह के एप बनाने का सुझाव देता है। प्रारूप में यह दोगली बात है कि एक तरफ वह शिक्षकों की कमी चिन्हित करता है(जिसका साफ परिणाम अन्य शिक्षकों पर बोझ है) दूसरी तरफ शिक्षकों पर नकेल कसने की बात करता है। इसके अलावा शिक्षकों पर शिक्षणेत्तर कामों का भी बोझ डाला जाता है। जब सरकार, सरकारी नीति ही शिक्षा के प्रसार की जगह बाजार के प्रसार की होगी तो शिक्षकों के दम पर ही शिक्षा की गुणवत्ता नहीं सुधारी जा सकती। इसके लिए सर्वप्रथम मानकों के आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति होना आवश्यक है। 
        प्रारूप प्राचार्यों/प्रधानाचार्यों के लिए कहता है कि सांस्थानिक नेतृत्व का व्यवसायीकरण किया जायेगा। अब प्राचार्यों का कार्य संस्थान में शिक्षा नियोजन नहीं बल्कि व्यवसाय का नियोजन होगा। उनकी चिंता संस्थान के लिए वित्त जुटाना, निजी कंपनियों से संबंध(निजी संस्थानों की तरह प्लेसमेन्ट एवं आर्थिक सहयोग के लिए) रखना, भूतपूर्व छात्रों से वित्तीय सहयोग के लिए संपर्क रखना आदि होगा। प्राचार्य निजी कंपनियों के मैनेजर की तरह काम करेेंगे, एक शिक्षक या बौद्धिक की तरह नहीं। जब संस्थानों के नेतृत्व को ही व्यवसायिक की तरह तैयार किया जायेगा तो वह व्यवसाय तो अच्छा कर सकते हैं, शिक्षा बिल्कुल नहीं। अतः कहा जा सकता है कि यह शिक्षा नीति का प्रारूप नहीं बल्कि व्यवसाय नीति का प्रारूप है। 
        शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 के अंतर्गत ‘नो डिटेंशन नीति’(फेल न करने की नीति) को कक्षा 8 तक लागू करने की बात थी। जिसके पीछे आधार यह था कि चूंकि वंचित तबकों से आने वाले छात्रों को शिक्षा का समुचित माहौल नहीं मिल पाता है, अतः उन्हें न रोककर न्यूनतम कक्षा 8 तक पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। वर्तमान प्रारूप ‘नो डिटेंशन’ नीति को कक्षा 5 तक ही समेट देता है। ऐसा करने के पीछे कोई तर्क भी नहीं दिया जाता। इसका परिणाम अनिवार्य शिक्षा के तहत 6-14 वर्ष के बच्चों को शिक्षित करने पर पड़ेगा। जब कक्षा 5 में ही बड़े पैमाने पर छात्रों की छंटनी हो जायेगी तो कक्षा 8 तक की अनिवार्य शिक्षा पर सरकार अपना बजट बचा सकेगी। इस बजट का उपयोग देश की जनता के लिए ‘अति आवश्यक’ मिसाइलों, ड्रोन, हथियार आदि के लिए या पूंजीपतियों को देने में किया जा सकेगा। बस प्रस्ताव में बस यही लिखा जाना रह गया कि- ‘पढ़-लिख कर क्या करोगे कुछ और काम देखो’। शिक्षा बीच में ही छोड़ चुके ऐसे छात्रों को मुक्त विद्यालयों के भरोसे छोड़ दिया जायेगा। मुक्त विद्यालयों का विस्तार किया जायेगा। यानी जिनकों शिक्षा लेनी हो तो और अधिक खर्च उठाकर मुक्त विद्यालयों से शिक्षा ले सकते हैं। 
        इसके अलावा प्रारूप कुछ ऐसे सुझाव भी पेश करता है जो मौजूदा फासीवादी सरकार के एजेण्डों के अनुरूप हैं। प्रारूप कहता है कि ‘आरटीई की धारा 12(1)(ग) के अंतर्गत सरकारी सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थाओं(धार्मिक व भाषायी) में विस्तार संबंधी मामले की आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के प्रति बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के मददेनजर जांच की जायेगी।’ इसका साफ मतलब है सरकारी सहायता प्राप्त धार्मिक व भाषायी अल्पसंख्यक स्कूलों को मिलने वाली सुविधाओं को कम किया जायेगा। 
        इसके साथ ही शिक्षा का पाठयक्रम तय करने वाली संस्था एनसीईआरटी के पुनर्विन्यास(रिअरेन्ज) की बात भी प्रारूप कहता है। सरकार की इस मंशा को पिछले दो-ढाई साल के कार्यकाल में किए गए शैक्षिक बदलावों(इतिहास अनुसंधान परिषद में संघी मानसिकता के व्यक्तियों को रखना, गजेन्द्र चैहान की एफटीआईआई में नियुक्ति आदि) से भी समझा जा सकता है। पूर्व में अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भी पाठयक्रमों में बड़े संशोधन कर उनमें कूपमंडूूकतापूर्ण बातों को भरा गया था। संघी कूपमंडूकता को पाठयक्रमों के माध्यम से शिक्षा में परोसने के लिए भी एनसीईआरटी में बदलाव का सुझाव है। 
        प्रारूप छात्रों, छात्र संकायों, छात्र संगठनों की राजनीतिक गतिविधि को रोकने के लिए सुझाव रखता है। पिछले वर्षों में सरकार की शिक्षा विरोधी नीतियों-फैसलों के खिलाफ छात्रों ने तीखा प्रतिरोध किया। इसे सीबीसीएस विरोध, ‘आक्यूपाई यूजीसी’, गजेन्द्र चैहान की नियुक्ति के खिलाफ लंबे आंदोलेन, रोहित वेमुला प्रकरण पर आंदोलन, जेएनयू प्रकरण आदि में छात्रों ने बढ़-चढ़कर सरकार का विरोध किया। इसके लिए छात्र राजनीति करनेवाले छात्रों को चिन्हित कर उन्हें प्रवेश न देने, हास्टल में न रहने देने या कैंपस से बाहर करने के सुझाव हैं। ऐसे छात्रों या छात्र संगठनों पर दण्दात्मक कार्यवाही के भी सुझाव प्रारूप् देता है। दरअसल भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर ये छात्र व छात्र संगठन ही हैं जो सरकार की छात्र विरोधी-शिक्षा विरोधी फैसलों-नीतियों को चुनौती देते हैं। छात्र संघों को अपने छात्र संगठनों और लिंगदोह कमेटी के सुझावों से दूषित कर चुकने के बाद अब हर छात्र पर नजर रखी जायेगी और उसे बाहर कर दिया जायेगा। 
        राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2016 का प्रारूप पूरी तरह देशी विदेशी पूंजीपतियों के हितों का प्रारूप है। इसमें शिक्षा की जिम्मेदारी से सरकार और दूर भागने के सुझाव लेकर आयी है। इस प्रारूप का व्यापक छात्र आबादी द्वारा विरोध किया जाना चाहिए। मांग उठनी चाहिए कि शिक्षा को बाजार के हवाले करने वाली नीति नहीं चाहिए।  

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