मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

सांस्कृतिक क्रांति की 50 वीं वर्षगांठ की याद में

चीन की क्रांतियां
-प्रियंका

        चीन की नवजनवादी क्रांति एवं सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति विश्व इतिहास की युगांतरकारी क्रांतियां हैं। चीनी नवजनवादी क्रांति एक सामंतवाद विरोधी साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति थी जिसने दुनिया  की आबादी के पांचवे हिस्से को सामंतवाद, दलाल नौकरशाह पूंजीवाद व साम्राज्यवाद की जंजीरों से मुक्त किया था। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति समाजवादी समाज में पूंजीवादी पुनस्र्थापना रोकने का अभिनव प्रयोग थी।
        चीनी नवजनवादी क्रांति से महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति तक की यात्रा उतार चढ़ावों मोड़ों व घुमावों से भरी है।

        भारत की तरह चीन कभी पूरी तरह किसी एक साम्राज्यवादी शक्ति का उपनिवेश नहीं रहा बल्कि विभिन्न साम्राज्यवादी ताकतों ने चीन से साथ अपमानजनक, असमान संधियां कर उसे अपने लिए कच्चे मालों के स्रोत व तैयार मालों की मंडी में तब्दील कर रखा था। चीन में केन्द्रीकृत राजसत्ता बहुत कमजोर थी। चीन के विभिन्न हिस्सों पर विभिन्न युद्ध सरदारों की स्थानीय सत्ता थी जो विभिन्न साम्राज्यवादी गुटों के प्रभाव में रहते थे। चीन अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जापान, जर्मनी व फ्रांस आदि मुल्कों के मालों की मंडी था। इन विदेशी मुल्कों के ये ऐजेन्ट चीन के दलाल पूंजीपति वर्ग के प्रारंभिक प्रतिनिधि थे।
        चीन में सामंत जमींदार व दलाल पूंजीपति वर्ग के रूप में शोषक मौजूद थे तो शोषित वर्गों में किसान व प्रारंभिक उद्योगों में काम करनेे वाले मजदूर ही प्रमुख थे।
        विदेशी पूंजीवाद ने जहां चीन के स्वतंत्र पूंजीवादी विकास में बाधा पहुंचाई वहीं चीन के सामंती समाज में कुछ परिवर्तन किए तथा उसे अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक समाज में तब्दील कर दिया।
        चीनी जनता जहां एक तरफ अपने जमींदारों व दलाल पूंजीपतियों द्वारा बुरी तरह शोषित थी तो दूसरी तरफ साम्राज्यवादी मुल्कों ने उसे लूटने-खसोटने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। ऐसे में चीनी जनता अपनी मुक्ति के रास्तों की तलाश करती रही थी।
        1911 में चीन में एक प्रखर जनवादी डा. सुन यात सेन के नेतृत्व में जनवादी क्रांति हुई जिससे छिङ वंश के शासन का अंत हो गया लेकिन क्रांति के स्थायित्व ग्रहण करने से पहले ही एक युद्ध सरदार ने इसे हड़प लिया और क्रांति असफल हो गयी।
        1917 में रूस की अक्टूबर क्रांति की तोपों की गड़गड़ाहट के साथ मुक्ति का संदेश चीन भी पहुंचा। चीन का नौजवान इससे प्रभावित हुआ। उसकी जनवादी आकांक्षायें हिलोरे लेने लगीं।

4 मई का ऐतिहासिक आंदोलन-  4 मई का आंदोलन चीन के इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात था। प्रथम विश्वयुद्ध में चीन ने जर्मन व आस्ट्रिया के खिलाफ ब्रिटेन, फ्रांस व अमेरिका के गठबंधन का साथ दिया था। ब्रिटिश, अमेरिक व फ्रांस के गठबंधन की जीत के बाद 1918 में पेरिस कांफ्रेंस में इन साम्राज्यवादियों ने चीन में जर्मनी के विशेषाधिकार जापान को स्थांतरित कर दिये। वहीं 1915 में जापानी साम्राज्यवाद द्वारा चीन पर थोपी गये 21 मांगों वाली अन्यायपूर्ण संधि को रद्द करने के चीन के अनुरोध पर विचार तक नहीं किया। इस तरह साम्राज्यवादियों ने अपन नंगा लुटेरा चेहरा प्रदर्शित कर दिया।
        4 मई का आंदोलन साम्राज्यवादी ताकतों के लूट, छलकपट एवं चीनी शासकों के बेशर्मी भरे आत्मसमर्पण के खिलाफ चीनी नौजवान के आक्रोश का स्वतःस्फूर्त विस्फोट था।
        4 मई को पेकिंग के 3000 विद्यार्थियों ने भूतपूर्व शाही महल के प्रवेश द्वार थ्येन आन मन के सामने इकट्ठा होकर देशभक्तिपूर्ण  प्रदर्शन आयोजित किया तथा शर्मनाक आत्मसमर्पण के लिए दोषी तीन मंत्रियों को दंडित करने की मांग की। क्रूर दमन के बाद यह आंदोलन जारी रहा। 3 जून को यह आंदोलन पेकिङ से शंघाई स्थानांतरित हो गया। चीनी पूंजीपति वर्ग भी इस आंदोलन में शामिल हो गया लेकिन उसने शुरू में ही कमजोरी दिखाते हुए हंगामे का विरोध किया व ‘सभ्य तरीके से विरोध’ की वकालत की। इस आंदोलन के समर्थन में मजदूर वर्ग ने विशाल राजनीतिक हड़तालें कीं। इस तरह 4 मई का आंदोलन एक व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी जनआंदोलन बन गया जिसमें विद्यार्थी, मजदूर, व्यापारी व अन्य सामाजिक तबके शामिल हो गये। श्रमिक वर्ग ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया लेकिन उसे दिशा देने के लिए कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी। मजदूर वर्ग की पार्टी की आवश्यकता महसूस हो रही थी।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना, कम्युनिस्ट कोमिताङ सहयोग का दौर व उत्तरी अभियान- 1 जुलाई 1921 को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सहयोग से शंघाई में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। विभिन्न ग्रुपों के 57 सदस्यों के प्रतिनिधि के रूप में 12 प्रतिनिधियों ने कांग्रेस के हिस्सा लिया। इनमें माओ त्से तुङ, छन तू श्यू व हो शू हुङ शामिल थे। इस प्रकार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की विधिवत स्थापना हुई। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना घोषणा पत्र जारी किया  जिसमें जनता की एकता स्थापित करना व युद्ध सरदारों का तख्ता पलटना, अंतर्राष्टीय साम्राज्यवाद का जुआ उतार फेंकना तथा चीनी जनता के लिए पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना एवं चीन को एकताबद्ध कर सही मायने में एक जनवादी गणराज्य की स्थापना का लक्ष्य रखा गया।
        जून 1923 में कैंटन में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की तीसरी राष्ट्रीय कांग्रेस में डा. सुन यात सेन के नेतृत्व वाली क्वोमिताङ के साथ एक क्रांतिकारी संयुक्त मोर्चे का लक्ष्य रखा गया।
        मार्च 1923 में कम्युनिस्ट पार्टी की मदद से डा. सुन यात सेन ने क्वातुङ में क्रांतिकारी सरकार का गठन किया। अक्टूबर में उन्होंने क्वोमिताङ के पुनर्गठन के बारे में एक घोषणा पत्र जारी किया तथा पार्टी कार्यक्रम पेश किया। इस कार्यक्रम में उन्होंने अपनी तीन बुनियादी नीतियों 1. सोवियत संघ के साथ मैत्री 2. कम्युनिस्ट पार्टी से सहयोग तथा 3. श्रमिकों व किसानों की सहायता के तीन जन सिद्धांतों को नए ढंग से परिभाषित किया।
        कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग व मार्गदर्शन में क्वोमिताङ संयुक्त मोर्चे का एक संगठन बन गयी एक ऐसा संगठन जो चार वर्गों के संश्रय से  बना था। श्रमिक वर्ग, किसान समुदाय, निम्नपूंजीपति वर्ग व राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग।
        इस बीच ब्रिटिश व अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने उत्तरी चीन के आपस में संघर्षरत युद्ध सरदारों को कम्युनिस्टों से लड़ने के नाम पर एकजुट किया तथा इन युद्ध सरदारों ने तमाम प्रतिक्रियावादी ताकतों को इकट्ठा कर उस क्रांतिकारी क्षेत्र क्वाङ तुङ व क्वाङशी पर आक्रामण किया। क्रांतिकारी सरकार घेराबंदी का निशाना बनी हुई थी। इससे निपटने के लिए उत्तरी अभियान आरंभ करना था।
        जुलाई 1926 में क्रांतिकारी सेना ने उत्तर की ओर अभियान आरंभ किया। छः माह से भी कम समय में क्रांतिकारी सेना ने उत्तर में हुनान, हु पे, फूच्येन, चच्याङ व आन हवेई पर अधिकार कर लिया तथा उत्तरी युद्ध सरदार ऊ फेई फू की सेना के निशस्त्र कर दिया। इस तरह उत्तरी अभियान सफलता पूर्वक सफल हुआ। इस अभियान में कम्युनिस्ट अग्रणी भूमिका में थे। क्रांतिकारी सेनाओं को किसानों का भरपूर सहयोग मिला। हुनान में तो क्रांतिकारी किसान आंदोलन उठ खड़ा हुआ। जनवरी 1927 में माओ त्से तुङ हुनान गए तथा वहां जाकर उन्होंने ‘हुनान के किसान आंदोलन की जांच-पड़ताल की रिपोर्ट’ के नाम से प्रसिद्ध दस्तावेज तैयार किया। इस रिपोर्ट में उन्हांेने इस किसान आंदोलन की प्रसंशा करते हुए देहाती इलाकों में क्रांतिकारी सरकार व एक किसान सेना की जरूरत पर बल दिया। कृषि क्रांति को लेकर नवजनवादी क्रांति का यह एक साकार रूप था। माओ त्से तुङ के ये सुझाव उस समय छङ तू श्यू के समर्पणवादी नेतृत्व ने नहीं मानी। उन्हें लगता था कि किसान क्रांति आगे बढ़ाने से क्वोमिताङ का राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग डर जायेगा व क्रांति से विमुख हो जायेगा।
        इस बीच डा. सुन यात सेन की मृत्यु के बाद क्वोमिताङ का नेतृत्व घोर प्रतिक्रियावादी च्याङ काई शेक के हाथ आ गया उसने क्रांति से गद्दारी कर दी। च्याङ काई शेक व उसके बाद वाङ चिङ की गद्दारी के चलते कम्युनिस्ट क्वोमिताङ सहयोग के दौर का अंत हो गया।
        किसान प्रश्न को क्रांतिकारी तरीके से हल न करने अर्थात जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों में ना बांटने के चलते उत्तरी अभियान के दौरान क्रांति के फैलाव के बावजूद उसका आधार कमजोर था। इसी का फायदा उठाकर क्वोमिताङ प्रतिक्रियावादियों ने साम्राज्यवादियों की शह पर च्याङ काई शेक के नेतृत्व में क्रांति पर अचानक हमला बोल दिया। छन तू श्यू के नेतृत्व की समर्पणवादी नीति के कारण इस क्रांति का अंत असफलता में हुआ। क्रांति की असफलता के बाद श्रमिकों, किसानों व बुद्धिजीवियों पर श्वेत शासन ने नृशंश अत्याचार किये।
        क्रांति को हार से उबारने के लिए अगस्त 1927 में कामरेड चाओ एन लाई व चू तेह के नेतृत्व में च्याङ शी व नानछाङ में एक सशस्त्र विद्रोह किया गया। विद्रोह सफल रहा। लेकिन इस विद्रोह को किसानों के सहयोग से स्थायित्व देने के बजाय क्रांतिकारी सेना कैंटन व क्वातुङ पर कब्जा करने के लिए दक्षिण की ओर कूच कर गयी। लेकिन अत्यधिक शक्तिशाली दुश्मन से सामना होने के कारण ज्यादातर सैनिक टुकड़ियों को पराजय का सामना करना पड़ा।

क्रांतिकारी आधार क्षेत्रों की स्थापना-  क्रांति को बचाने के लिए 7 अगस्त 1927 को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति का आपातकालीन सम्मेलन बुलाया गया। सम्मेलन ने छन तू श्यू की आत्म समर्पणवादी नीति की आलोचना की तथा उसे नेतृत्व से हटा दिया। सम्मेलन ने क्रांतिकारी तरीके से भूमि समस्या हल करने के लिए किसानों का नेतृत्व करने का निर्णय लिया। सम्मेलन ने मजदूरों व किसानों की क्रांतिकारी सेना के निर्माण तथा उनमें बड़े पैमाने पर राजनीतिक कार्य करने का फैसला किया। पार्टी ने किसानों से शरद फसल कटाई के समय क्रांति को बचाने हेतु बगावतें खड़ी करने का आह्वान किया।
        कामरेड माओ त्से तुङ को शरद फसल विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए हुनान भेजा गया। इस विद्रोह में भाग लेने वालों ने कामरेड माओ त्से तुङ के नेतृत्व में अक्टूबर 1927 में चिङ काङ शान पहाड़ों की ओर ऐतिहासिक कूच कर वहां प्रथम आधार क्षेत्र का निमार्ण किया। कामरेड चू तेह के नेतृत्व में 1928 में नानछाङ विद्रोह में भाग लेने वाले विद्रोहियों  के साथ मिलकर चिङ कान शान के पहाडों पर चीन में एक नई तरह की सेना किसानों-मजदूरों की लाल सेना की चैथी सेना  का निर्माण हुआ। अगले तीन वर्षों में कई नए इलाकों में आधार क्षेत्र का निर्माण हुआ।
        इस दौरान चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर वाम दुस्साहसवादी लाईन पहले ली ली सान फिर वाङ मिङ के नेतृत्व में उभर कर सामने आयी। वामपंथी लाईन के इन प्रस्तोताओं ने मुहिम जोही व शहरों में बगावतें करने की दुस्साहसवादी लाईन को आगे बढ़ाया तथा इन मुहिमों में मुंह की खाने के बाद इन्हें शरण लेने पुनः आधार क्षेत्रों में आना पड़ा। वाम दुस्साहसवादियों की इन मुहिमों से पार्टी और शहरों में उसके सहयोगी मजदूरों व छात्रों-नौजवानों को अपार क्षति उठानी पड़ी। क्रांतिकारी अथवा लाल आधार क्षेत्रों में जमींदारों व सार्वजनिक जमीन को जब्त कर किसानों में बांट दिया गया। क्रांतिकारी किसान सभा व क्रांतिकारी किसान कमेटियां कायम की गयीं। इस तरह लाल आधार इलाके में लाल सत्ता को सुदृढ़ किया गया। 
        लाल इलाकों में क्रांतिकारी सत्ता को नष्ट करने के लिए लगातार घेराबंदी मुहिमें चलायी गयीं जिनमें लाखों सैनिकों को भेजा जाता था। इन घेराबंदी मुहिमों के खिलाफ क्रांतिकारी लाल  सेना ने छापामार युद्ध के तरीकों का बखूबी प्रयोग कर इन्हें नेस्तानाबूत कर दिया।
        1931 तक ऐसी तीन बड़ी घेराबंदी मुहिमों को असफल कर दिया गया।

जापानी आक्रमण व जापान विरोधी जनवादी आंदोलन का उदय- 18 सितम्बर 1932 को जापानी सेना द्वारा अमेरिकी, ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताकतों के संकट में फंसे होने तथा चीन में गृहयुद्ध की स्थिति का फायदा उठाते हुए चीन पर हमला कर दिया। उन्होंने पूर्वी चीन से कब्जे की शुरुआत की तथा इसे आधार बनाते हुए वे सारे चीन को अपना उपनिवेश बनाना चाहते थे। च्याङ काई शेक ने चीनी सेना को किसी तरह प्रतिरोध न करने का आदेश दिया। 
        20 जनवरी 1932 की रात को जापानी सेना ने शंघाई पर हमला कर दिया। सेना व शंघाई की जनता बहादुराना लड़ाई के लिए उठ खड़ी हुई। जापानी साम्राज्यवादियों की दहाड़ती तोपों-बंदूकों ने चीन के विशाल जन समुदाय को जगा दिया तथा उनकी देशभक्तिपूर्ण भावना को झकझोर दिया। लेकिन जापानी आक्रमण के सामने च्यांङ काई शेक ने बेशर्म समर्पण करते हुए जापानियों से संघर्षरत 19 वीं राह सेना को शंघाई से हटा दिया तथा जापान के साथ एक बेहद शर्मनाक समझौता किया, जिसकी शर्त यह थी कि चीन शंघाई में अपनी सेना तैनात नहीं करेगा और सारे देश में जापान विरोधी आंदोलन पर प्रतिबंध लगायेगा।
        ऐसे में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के आह्वान पर जनता जापानी साम्राज्यवादियों तथा च्यांङ काई शेक के विरुद्ध एक सशक्त मुहिम में कूद पड़ी। भारी संख्या में मजदूरों व छात्रों के बीच स्वयंसेवकों की भर्ती हुई जिन्होंने छापामार लड़ाई द्वारा जापानी हमलावरों का जबर्दस्त प्रतिरोध किया तथा तब तक लड़ते रहे जब तक जापानी सैन्यवादियों के औपनिवेशिक शासन का अंत नहीं हो गया।
        इस दौरान शंघाई में 8 लाख मजदूरों ने नानकिंग सरकार के पास एक प्रतिनिधिमंडल भेजा जिसमें जापान विरोधी युद्ध के खिलाफ प्रतिरोध की अपील की गयी। छात्रों ने 28 सितंबर 1931 को नानकिंङ में विदेश मंत्रालय के परिसर को ध्वस्त कर दिया तथा मंत्री पर हमला किया। 1931 के अंत में पेकिंङ, येनचिंङ, शंघाई, हानखओ व कैंटन से छात्रों के प्रतिनिधिमंडल नानकिंङ में प्रदर्शन करने गए तथा उन्होंने क्वोमिताङ के पार्टी मुख्यालय तथा विदेशी मंत्रालय के दफ्तरों को ध्वस्त कर दिया। शंघाई में छात्रों ने नगर निगम मुख्यालय को ध्वस्त कर दिया।
        18 सितम्बर की घटना के बाद देश की जनता ने जिसमें शहरी उद्योगपति तथा व्यापारी भी शामिल थे, जापानी माल के बहिष्कार व जापान के साथ आर्थिक संबंध तोड़ने की मुहिम छेड़ दी। 
        शंघाई संधि के बाद भी जापान का आगे बढ़ना जारी रहा तो चीन के युद्ध सरदारों में फूट पड़ गयी। नानकिङ सरकार का शासन लड़खड़ा रहा था। इन्हीं अंतर्विरोधों के कारण  1931 में नानकिङ कैंटन युद्ध भड़क उठा जिसकी परिणति च्याङ काई शेक द्वारा गद्दी छोड़ने में हुई।
        चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पास यह अच्छा अवसर था कि वह युद्ध सरदारों के अंतर्विरोधों का फायदा उठाते हुए तथा जापान विरोधी जनभावना का इस्तेमाल करते हुए एक देशभक्तिपूर्ण संयुक्त मोर्चा कायम करती। लेकिन 1931 में एक बार फिर वामपंथी लाईन हावी रही उसने राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग व मध्यवर्ग की अनदेखी की। मध्यम पूंजीपति वर्ग व निम्न पूंजीपति वर्ग को प्रतिक्रांति की पांतों का हिस्सा बताया। सभी गुटों को समान बताया तथा राष्ट्रीय प्रतिरक्षा सरकार एवं संयुक्त मोर्चे का विरोध किया। इस वामपंथी लाईन का प्रस्तोता वाङ मिङ था।
        इस बीच जापानी साम्राज्यवादियों के सहयोग से च्याङ काई शेक पुनः सत्तासीन हो गया।
अपनी गद्दारी और बेशर्मी को छिपाते हुए च्याङ काई शेक ने ऐलान किया कि बाहरी दुश्मनों से निपटने से पहले भीतरी दुश्मनों से निपटना जरूरी है। और उसने लाल सत्ता के खिलाफ चैथा घेराबंदी अभियान संगठित किया। एक बार फिर छापामार युद्ध का कुशल इस्तेमाल करते हुए 8 माह में इस अभियान को लाल सेना ने विफल कर दिया। इसी बीच च्याङ काई शेक को 19 वीं राह सेना के अफसरो ने बगावत करके नवंबर 1933 में ली च शन के नेतृत्व वाली क्वोमिताङ के सैन्य शक्तियों से सहयोग कर सार्वजनिक रूप से च्याङ काई शेक से संबंध विच्छेद की घोषणा की और फूच्येन में ‘चीनी लोकतंत्र’ की जन सरकार की स्थापना की। जापान का प्रतिरोध व च्याङ काई शेक का विरोध करने के लिए इसने लाल सेना से समझौता कर लिया।

पांचवीं घेराबंदी, लंबा अभियान और चुनई कांफ्रेंस- अक्टूबर 1933 में च्याङ काई शेक ने पांचवीं घेराबंदी मुहिम के लिए दस लाख सेना इकट्ठा की। यह अब तक की सबसे बड़ी मुहिम थी। लाल सेना ने जवाबी मुहिम द्वारा इसका जवाब दिया तथा कई मोर्चों पर दुश्मन को पीछे धकेल दिया। लेकिन वाम दुस्साहसवादी नेतृत्व द्वारा कई गंभीर गलतियां की गयीं मसलन एक से अधिक मोर्चों पर एक साथ लड़ना, फूच्येन की जनसरकार का सहयोग न करना, न लेना बिना, आराम किये मुहिम जारी रखना आदि। इन सबके चलते लाल सेना को गंभीर नुकसान उठाने पड़े। उसके सामने पूरी घेराबंदी द्वारा नष्ट किये जाने का खतरा पैदा हो गया। ऐसी स्थिति अक्टूबर 1934 में दुनिया को हिला देने वाला विशाल रणनीतिक स्थांतरण शुरू हुआ। जो लंबे अभियान (लांग मार्च) के नाम से प्रसिद्ध है। इस लंबे अभियान का उद्देश्य बिखरे तथा दुश्मन की घेराबंदी में फंसे विभिन्न आधार क्षेत्रों से लाल सेना को निकालकर सुदूर उत्तर के आधार क्षेत्र में अपनी शक्ति को एकजुट करना था। दुश्मन की विभिन्न घेराबंदी को तोड़ते हुए लाल सेना अलग-अलग रास्तों से आगे बढ़ी। 6 जनवरी 1935 को उसने चुनई पर अधिकार कर लिया यही पर पार्टी के राजनीतिक ब्यूरो की ऐतिहासिक चुनई कांफ्रेस हुई। 
चुनई सम्मेलन ने पार्टी की केन्द्रीय समिति में गलत ‘वामपंथी’ फौजी कार्यदिशा का खंडन किया तथा माओ की सही कार्यदिशा को मान्यता दी। वामपंथी अवसरवादियों को उनके पदों से हटा दिया गया तथा कामरेड माओ की रहनुमाई में नए नेतृत्व की स्थापना की।
चुनई सम्मेलन ने यह फैसला लिया कि उत्तर की ओर अभियान जारी रखा जाना चाहिए। च्याङ काई शेक की फौजों से टक्कर लेती हुई लाल सेना आगे बढ़ती रही। इस बीच उसने कई नदियों, बर्फीले पहाड़, घास के मैदान, दलदल पार किये। इन सबमें सबसे वीरता पूर्ण कारनामा 15 मई 1935 को दुश्मन की गोलीबारी के बीच खड़े पहाड़ों के बीच 300 मीटर चौड़ी तातू नदी के पुल को पार कर उस पर कब्जा करने की कार्यवाही थी। अंततः अक्टूबर 1934 से अक्टूबर 1935 के बीच 12 महीनों में 12500 किलोमीटर का सफर तय करके लाल सेना की तीनों टुकड़ियां उत्तरी शेङशी क्रांतिकारी आधार क्षेत्र में जाकर एकजुट हो गयी। चैथे घेराबंदी अभियान के बाद जिस लाल सेना की तादात 3 लाख हो गयी थी  वह अब 30,000 रह गयी। माओ के शब्दों में ‘‘लम्बा अभियान अपने ढंग की पहली घटना है जिसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती।’’

जापान विरोधी संयुक्त मोर्चा एवं प्रतिरोध युद्ध- 1937 में जापान ने उत्तरी चीन पर हमला कर दिया। जापानी हमलावरों ने नृशंश बमबारी, हत्या, बलात्कार को हथियार बनाकर आतंक के जरिये चीनी जनता का मनोबल तोड़ने की कोशिश की।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने जापानी हमले के खिलाफ च्याङ काई शेक द्वारा शासित शहरांे में मजदूरों, छात्रों, नौजवानों के बीच व्यापक प्रचार अभियान चलाया तथा देश की रक्षा के लिए व्यापक प्रतिरोध खड़ा करने तथा एक व्यापक संयुक्त मोर्चे के निर्माण की बात की। 
जापानी हमले के बाद चीन के वर्ग समीकरणों में परिवर्तन आ गया था। जापानी हमले के चलते चीन में ब्रिटिश-अमेरिकी पूंजी के हितों को चोट पहुंच रही थी। अतः ब्रिटिश अमेरिकी पूंजी के दलाल च्यांङ काई शेक के साथ संयुक्त मोर्चा बनाया जा सकता था। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने इसी कार्यनीति पर काम किया। मजदूरों, छात्रों-नौजवानों व व्यापक जनता के आग्रह के बावजूद च्याङ संयुक्त मोर्चा बनाने से बचता रहा। अंततः उसके दो अफसरों ने उसको बंधक बनाकर संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए बाध्य किया। 22 अगस्त 1937 को क्वोमिताङ सरकार ने उत्तर-पश्चिम में लाल सेना की मुख्य सैन्य शक्तियों के राष्ट्रीय क्रांतिकारी सेना की आठवीं राह सेना के रूप में पुनर्गठित करने की घोषणा की। जापान विरोधी राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा स्थापित हो गया। इसमें श्रमिक, किसान, निम्न पूंजीपति वर्ग, राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग और यहां तक कि ब्रिटिश अमेरिकीपरस्त बड़े-बड़े पूंजीपति शामिल थे।
        जापान के खिलाफ प्रतिरोध युद्ध में सोवियत संघ ने काफी मद्द की।
        जापान के खिलाफ लड़ाई एक बेहद जटिल लड़ाई थी, जिसमें छापामार से चलायमान युद्ध तथा आगे बढ़ने, पीछे हटने, पीछे से हमला करने से लेकर मोर्चाबद्ध युद्ध तक विभिन्न रूप अपनाये जाते थे। मजबूत शत्रु सेना को विशाल अन्जान क्षेत्रों में थकाने, फंसाने व हैरान करने से लेकर सफाया करने के रणनीतिक तरीके इसमें इस्तेमाल किये गये। जापानी आक्रमण का प्रतिरोध करने पूरा देश खड़ा हुआ और अंततः हमलावरों को क्रमशः पीछे हटना पड़ा। 
        1940 तक जनसेना ने जापानी कठपुतली सेना के 4,00,000 सैनिकों का सफाया कर दिया। 150 काउन्टियों को मुक्त करा दिया। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य संख्या 8 लाख तथा मुक्त क्षेत्र की जनसंख्या 10 करोड़ तक पहुंच गयी।
        इस दौर में जनवरी 1940 में माओ ने ‘नवजनवाद के बारे में’ नामक एक ऐतिहासिक रचना लिखी। इस लेख में अर्द्ध औपनिवेशिक-अर्द्ध सामंती चीनी समाज ने क्रांति के बुनियादी सिद्धांतों को सूत्रित किया। 8 अगस्त 1941 को जापान ने अमेरिका के पर्ल हार्बर पर बमबारी कर कई अमेरिकी जहाजों को डुबो दिया। उसने अमेरिकी कब्जे वाले फिलीपीन्स, ग्वाम व पेक द्वीप पर कब्जा कर लिया तथा ब्रिटिश आधिपत्य वाले शांङकांङ, मलामा व वर्मा पर कब्जा कर लिया तथा अपने हमले का रुख ब्रिटिश भारत व आस्ट्रेलिया की ओर मोड़ दिया। मजबूरन अमेरिका को जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनी पड़ी।
        जापान विरोधी युद्ध के इस नाजुक दौर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने शत्रु की पांतों के पीछे से जनसंघर्ष का नेतृत्व किया। युद्ध जीतने के लिए जनता की पहलकदमी पर भरोसा किया तथा आधार क्षेत्रों में जनवादी राजनीतिक सत्ता की स्थापना की जिसमें तीन वर्गों - मजदूर कम्युनिस्टों (मजदूर व गरीब किसान की प्रतिनिधि), प्रगतिशीलों (निम्न पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि) तथा मध्यमवर्तियों (राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग व जागृत शरीफजादों के प्रतिनिधि); के प्रतिनिधि शामिल थे। 
        1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध का रुख पलटने लगा। जर्मनी, जापान, इटली गठबंधन की हार होने लगी। सोवियत सेना ने नाजी जर्मनी को उसके किले में मात दे दी। ऐसे में सोवियत सेना जापान के विरुद्ध मोर्चा खोलने वाली थी कि अमेरिका ने 6 अगस्त व 9 अगस्त को जापान के दो शहरों में परमाणु बम गिरा दिये। अंततः 14 अगस्त 1945 को जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। चीन में भी जापानी सेनाओं के पैर उखड़ चुके थे। उन्हें भी आत्मसमर्पण के लिए मजबूर होना पड़ा। इस तरह जापान विरोधी देशभक्तिपूर्ण युद्ध में चीनी जनता की विजय हुई।

तीसरा गृहयुद्ध व जनमुक्ति सेना की पूर्ण विजय- जापान सरकार के 14 अगस्त 1945 को बिता शर्त आत्मसमर्पण की घोषणा के बाद से अपनी सेनाओं को आगे बढ़ने व सैनिक कार्यवाहियां तेज करने का आदेश दिया तथा जनमुक्ति सेना को अपनी जगह पर बने रहने का आदेश सुनाने की जुर्रत की। उसने नानकिङ़ छोड़ने वाली जापानी सेना को वहीं बने रहने व कानून व्यवस्था संभालने का आदेश दिया। भारी संख्या में कठपुतली सेना को उसने अपनी सेना में शामिल कर लिया। च्याङ काई शेक का इरादा साफ था जापानियों के हटते ही उनकी जगह काबिज होना, उनकी कठपुतली सेना को अपने साथ मिला कर जनमुक्ति सेना पर प्रहार करना तथा लाल सत्ता को खत्म कर पूरे चीन पर अपना तानाशाही शासन लागू करना। अमरीकी साम्राज्यवादियों की शह पर उसने नया गृहयुद्ध शुरु करने की मुकम्मिल योजना बना ली थी।
        चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने दृढ़ता से गृहयुद्ध का विरोध करने की सुस्पष्ट नीति अपनायी। सारे देश की जनता युद्ध के लंबे वर्षों में अथाह दुःख व कष्टों का सामना करने के बाद अब गृहयुद्ध नहीं चाहती थी। ऐसे में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने गृहयुद्ध विरोधी जोरदार प्रचार अभियान पूरे देश भर में खासकर बड़े शहरों में चलाया। पूरे देश में क्वोमिताङ की गृहयुद्ध की नीति का विरोध हुआ।
        1 नवंबर को छुङ किङ में गृहयुद्ध विरोधी सभा गठित हुई। जनता के व्यापक आक्रोश के चलते 10 जनवरी 1946 को च्याङ काई शेक युद्ध विराम को मजबूर हुआ। 
        इसी समय छुङकिङ में राजनीतिक सलाहकार सम्मेलन आहूत हुआ। सभी राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों ने इसमें हिस्सा लिया। इस सम्मेलन में दक्षिणपंथियों  का बहुमत था। सम्मेलन ने शांति, जनवाद, एकता व एकीकरण से संबंधित प्रस्ताव पास किये। कम्युनिस्ट पार्टी ने इन प्रस्तावों का समर्थन किया। 
        फौजी मामलों में क्वोमितांङ प्रतिनिधियों ने सशस्त्र सेनाओं के राष्ट्रीयकरण की बात की। वे किसी संवैधानिक सरकार के गठन से पहले इसे पूर्वशर्त के रूप में रख रहे थे। जिसका मकसद साफ था कम्युनिस्ट पार्टी को शस्त्रविहीन करना। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने फौजों के एकीकरण करने पर सहमति जताते हुए पहले  संवैधानिक सरकार के गठन की बात की। 
        मार्च 1946 में क्वोमिताङ की केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति ने संविधान के मसविदे से संबन्धित बुनियादी जनवादी सिद्धान्तों को नकार दिया। जिसमें संसदीय प्रणाली, मंत्रीमंडलीय प्रणाली व प्रांतीय स्वायत्ता की बात थी। क्वोमिताङ का जनवाद विरोधी चेहरा उजागर हो गया। 
        अंततः 10 जुलाई 1946 को अमेरिकी साम्राज्यवादियों की मद्द से गृहयुद्ध छेड़ दिया। च्याङ के पास जनमुक्ति सेना से तीन गुनी बड़ी सेना थी। अत्याधुनिक हथियार थे तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा उपलब्ध धन व साधन थे। जबकि कम्युनिस्ट पार्टी के पास कठोर संघर्षों में तपे योद्धा थे तथा सोवियत संघ जैसे समाजवादी मुल्क का हाथ था। जनमुक्ति सेना ने च्याङ सेना के पाश्व पर हमला किया तथा मुक्त क्षेत्रों में क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू करते हुए किसानों का विश्वास जीता तथा उन्हें अपने दुर्गों में तब्दील कर दिया। एक साल मंे जनमुक्ति सेना ने 11,20,000 शत्रु सैनिकों का सफाया कर दिया तथा खुद जनमुक्ति सेना 1200000 से बढ़कर 2000000 तक पहुंच गयी। 
        इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा शहरों में जबरदस्त प्रचार अभियान चलाया गया। यु़द्ध के तीसरे वर्ष में जनमुक्ति सेना द्वारा चलायी गयी तीन बड़ी मुहिमों से उसकी देशव्यापी विजय सुनिश्चित हो गयी। वर्ष 1948 की आखिर में तमाम ग्रामीण क्षेत्रों को मुक्त करते हुए जनमुक्ति सेना ने च्याङ काई शेक की सेनाओं को शहरों में घेर लिया। तीन बड़ी मुहिमों में क्वोमिताङ की 15 लाख सैनिकों का सफाया कर दिया गया। अंततः 21 जनवरी को च्याङ काई शेक अमेरिकी सेना की सलाह पर कुछ विशेष कारणों से सेवानिवृत्ति का बहाना बनाकर ताइवान भाग गया। 
        इस तरह तीसरे गृहयुद्ध की समाप्ति हुयी तथा चीन में दलाल च्याङ काई शेक के शासन का पतन हो गया। 
        1 अक्टूबर, 1949 को थ्वेन आन मन चैक से कामरेड माओ त्से तुङ ने चीनी लोक गणराज्य की घोषणा की। 

नये चीन का निर्माण- नवजनवादी क्रांति संपन्न होने के बाद केन्द्रीय जनसरकार ने 1951 में कृषि सुधार लागू किये। कृषि सुधारों के तहत सामंती प्रणाली को खत्म किया गया।  जमींदारों की संपत्ति व जमीन जब्त कर लिए गये। इलाके में अब औसत जमीन का 90 प्रतिशत गरीब किसान व खेत मजदूर के पास था। उद्योग व वाणिज्य का रूपांतरण हुआ। नवजनवादी राज्य, जो चार वर्गों के संश्रय पर आधारित था, में राष्ट्रीय पूंजीपति को भी सत्ता में हिस्सेदारी दी गयी थी। वर्ग के बतौर उसका उन्मूलन करने की नीति के बजाय उसे निश्चित नियमों के अंतर्गत जायज तरीके से अपना कारोबार करने की छूट दी गयी थी। सार्वजनिक व निजी हितों के बीच पुनर्समायोजन किया गया। इसका अर्थ था कि राजकीय अर्थव्यवस्था के मार्गदर्शन में निजी अर्थव्यवस्था को विकास करने का अवसर मिलना चाहिए। इस हिसाब से सरकार ने यह नीति अपनायी कि जो निजी फैक्टरी या उद्यम आत्मनिर्भर थे और जनता की आजीविका के लिए लाभप्रद थे, उन्हें संसाधन व निर्माण के आर्डर देकर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी वस्तुओं के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया गया। 
        सरकारी कर्मचारियों में भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची जैसी बीमारियों के उन्मूलन के लिए 1951 में सानफान आंदोलन चलाया गया। सानफान आंदोलन के समान्तर कम मजदूरी देने, श्रम कानूनों का पालन न करने आदि के खिलाफ उद्योगपतियों व व्यापारियों के बीच ऊ फान आंदोलन चलाया गया। 
        नवजनवादी राज्य के अंतर्गत देश के आधारभूत ढांचे के विकास, कृषि में आत्मनिर्भरता व उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया ताकि विकास के उस स्तर को प्राप्त किया जा सके जहां से समाजवाद में संक्रमण किया जा सके। 
        सन 1956 में चीनी लोक गणराज्य ने नवजनवादी राज्य से समाजवादी राज्य अथवा सर्वहारा अधिनायकत्व वाले राज्य में संक्रमण प्रारंभ किया। उद्योग, व्यापार व निजी पूंजी का राष्ट्रीयकरण किया गया। कृषि को सहकारिता से होते हुए सामूहिक फार्मों के अंतर्गत संगठित किया गया।
        चीन में 1958 से 1960 के बीच ‘महान अग्रगामी छलांग’ द्वारा समाजवाद की ओर द्रुत गति से प्रयाण किया गया। इसका उद्देश्य चीन को एक कृषि प्रधान से उद्योग प्रधान राज्य में तब्दील करना था। इस अभियान के दौरान उत्पादकता को बढ़ाने के लिए विशेषज्ञता से अधिक राजनीति को कमान में रखने की जरुरत पर बल दिया गया। इस दौरान चीनी जनता ने महान सर्जना के नए आयाम स्थापित किये। चीन में सामूहिक फार्माें से आगे बढ़कर जन कम्यून भी स्थापित किए जो अपनी जरूरत का लगभग सारा सामान खुद उत्पादित करते थे तथा आत्मनिर्भर इकाई थे। 

समाजवादी चीन की उपलब्धियां- चीन में समाजवाद का काल 1976 तक रहा। इस दौरान चीनी जनता ने अभूतपूर्व उपलब्धियां हासिल कीं। 
        1949 में जब नवजनवादी क्रांति संपन्न हुयी तो चीन के पास देश के विकास के लिए न तो आवश्यक शुरुआती पूंजी थी और न ही आधारभूत ढांचा। पूंजीवादी दुनिया ने चीन पर आर्थिक व व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए। ऐसे में चीनी जनता को केवल अपने बूते पर राष्ट्रनिर्माण करना था। समाजवादी सोवियत संघ और समाजवादी देशों का समूह ही उनका सहयोगी था। लेकिन खुद सोवियत संघ ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भयंकर मानवीय व भौतिक त्रासदी को झेला था। खुद वह अपने पुनर्निर्माण के दौर से गुजर रहा था। फिर भी सोवियत संघ द्वारा सर्वहारा अंतर्राष्ट्रवाद की भावना के तहत वित्तीय, तकनीकी मदद की गयी। लेकिन इसकी निश्चित तौर पर एक सीमा बनती थी। 1956 में सोवियत संघ में पूंजीवादी पुनस्र्थापना के बाद सोवियत संघ से मिलने वाली मदद बंद हो गयी। इस तरह चीनी जनता को खुद अपने दम पर आगे बढ़ना था और समाजवादी निर्माण करना था। चीनी जनता ने अपने महान नेता माओ त्से तुङ व महान चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में असाधारण उपलब्धियां हासिल करते हुए मानवीय क्षमताओं व सृजनशीलता के नए प्रतिमान गढे़। मानव सभ्यता के इतिहास में इस दौर में हासिल उपलब्धियां जहां आश्चर्यजनक थीं वहीं पूंजीवादी दुनिया के लिए असंभवप्राय थीं।
        चीन में 1949 से 1976 के बीच जीवन प्रत्याशा दुगने से अधिक बढ़ गयी। 1949 में चीन में औसत आयु जहां 32 वर्ष थी वहीं 1976 में यह 65 वर्ष पहुंच गयी। 1970 के दशक मेें चीन के सबसे बड़े शहर शंघाई में बाल मृत्यु दर अमेरिका के न्यूयार्क शहर से कम थी। साक्षरता दर जो 1949 में महज 15 प्रतिशत थी वह 1970 के दशक के मध्य तक 80 से 90 प्रतिशत तक पहुंच गयी। 
        क्रांति पूर्व चीन में व्याप्त सभी सामाजिक बुराईयों मसलन नशाखोरी(चीन में क्रांतिपूर्व 9 करोड़ के लगभग अफीमची थे), वेश्यावृति, जो कि चीन के सभी शहरों में व्यापक रूप से फैली थी एवं महिलाओं की अधिकारविहीन दासता की स्थिति थी। इन सभी सामाजिक बुराईयों को 1949 में क्रांति के बाद जड़ मूल से मिटा दिया गया। 
        1950 में चीन में लाये गये विवाह कानून ने परस्पर सहमति से विवाह को मान्यता दी। तलाक का अधिकार दिया। भ्रूण हत्या व बच्चों की खरीद-फरोख्त को प्रतिबंधित कर दिया। चीन में एक नया नारी आंदोलन उठ खड़ा हुआ जो कि ऐतिहासिक तौर पर अभूतपूर्व रूप से व्यापक व प्रभावी था। इसके अंतर्गत पुरुष और नारी में श्रम विभाजन में विभेद खत्म करने तथा घर की चारदीवारी के बंधन को तोड़कर व्यापक पैमाने पर सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी को आगे बढ़ाया गया। 
        आर्थिक मोर्चे पर अभूतपूर्व उपलब्धियां हासिल की गयीं। क्रांति पूर्व चीन दुनिया में सबसे पिछड़े औद्योगिक देशों में शुमार था, जहां मुद्रास्फीति(महंगाई) दुनिया में सबसे तीखी थी, जहां भुखमरी एक स्थाई समस्या थी और जिसे ‘एशिया का बीमार आदमी’ कहा जाता था। क्रांति के बाद एक नये चीन में तब्दील हो गया। 
        1949 से 1976 के बीच चीन की औद्योगिक विकास दर औसतन 10 प्रतिशत की दर से बढ़ी और सांस्कृतिक क्रांति के भारी उथल-पुथल के दौर में भी यह दर कायम रही। विकास की यह दर दुनिया के इतिहास में सबसे तेज विकास दरों में शुमार की जाती है। इसके चलते केवल एक चैथाई सदी में चीन ने अपने को प्रभुख औद्योगिक राष्ट्रों में शुमार कर लिया। यह विकास दर बिना किसी बाह्य सहायता व पूंजीवाद की चैतरफा घेराबंदी व व्यापारिक प्रतिबंधों के बावजूद हासिल की गयी थी। 
        कृषि विकास दर औसतन 3 प्रतिशत की दर से बढ़ी जो जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक थी। 1970 तक चीन में भुखमरी की समस्या का खात्मा कर दिया गया तथा पूर्ण खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल कर ली गयी। यह सब समाजवादी राज्य द्वारा समेकित आर्थिक नियोजन, बड़े पैमाने पर सामूहिक खेती, जमीनी स्तर पर उत्पादन बढ़ाने हेतु सामूहिक अभियान व जन भागीदारी, विनाशकारी बाढ़ों व अकालों पर नियंत्रण, मजबूत जन वितरण प्रणाली, भोजन, कपड़ा सहित जीवन निर्वाह के साधनों की राज्य द्वारा गारंटी आदि को लागू करके व जनता की सृजनशीलता को निर्बंध करके हासिल हुआ। 
        अपनी बाढ़ से भयंकर तबाही लाने वाली और सदियों से चीन का शोक कही जाने वाली ह्वांग हो नदी के तल को गहरा कर तथा उसके किनारों को मजबूत तटबंधों से बांधकर तथा उससे बड़े पैमाने पर सिंचाई के लिए नहरें निकालकर चीन के लिए अभिशाप से वरदान में रूपांतरित कर लिया गया। यह एक अकल्पनीय मानवीय उद्यम था जो लाखों जनता के सामूहिक श्रम, सृजनशीलता व सामूहिक भावना से साकार हुआ।                   समाजवादी चीन ने वे उपलब्धियां हासिल की जो पूंजीवादी दुनिया का अगुवा अमेरिका कभी हासिल नहीं कर पाया। चीन ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा की जो व्यवस्था कायम की वह अद्वितीय थी। हर किसी को निशुल्क या बेहद सस्ती स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध थी। सुदूर गांवों व दुर्गम स्थानों पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए भारी संख्या में प्राथमिक चिकित्सा प्रशिक्षण देकर स्वयंसेवक भेजे गए जो ‘नंगे पांव चलने वाले डाक्टर’ (बेअर फुट डाक्टर) के नाम से प्रसिद्ध हुए। लगभग 13 लाख बेअर फुट डाक्टर दुर्गम स्थानों में भेजे गए। यह दुनिया में एक अनोखा प्रयोग था।

महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति- चीन में नवजनवादी क्रांति के दौरान बहुत से राष्ट्रवादी-पूंजीवादी व निम्नपूंजीवादी तत्व क्रांति में खिंचे चले आये थे। ये पूंजीवादी व निम्नपूंजीवादी तत्व पार्टी और उसके नेतृत्व तक बैठ गये थे। जब तक चीनी जनता सामंतवाद व साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष कर रही थी अथवा जनवादी क्रांति की मंजिल में थी, इन तत्वों की भूमिका सकारात्मक थी। लेकिन 1956 के बाद जैसे ही समाजवाद की ओर संक्रमण शुरु हुआ ये सब समाजवाद के विकास में बाधा पैदा करने लगे। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में ऊपर से नीचे तक भारी संख्या में मौजूद ये तत्व माक्र्सवादी शब्दावली के आवरण में पूंजीवादी नीतियां लागू करते थे। इस तरह ये चीन में भी उसी तरह पूंजीवाद की पुनस्र्थापना करना चाहते थे जैसा कि खु्रश्चोव ने 1956 में सोवियत संघ में कर दी थी। 
        माओ ने ख्रुश्चोव के नेतृत्व में सोवियतसंघ में पूंजीवाद की पुनस्र्थापना के खिलाफ तीखा संघर्ष किया था। इसी दौरान चीन के भीतर पूंजीवादी पथगामियों, उनकी कारगुजारियों की तरफ उनका ध्यान गया। 
        चीन में पार्टी व सरकार में शामिल पूंजीवादी पथगामियों के खिलाफ संघर्ष का आह्वान करते हुए कामरेड माओ त्से तुङ द्वारा महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति का सूत्रपात किया गया। पूंजीवादी पथगामियों का प्रभाव पार्टी पर किस कदर था इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि केन्द्रीय कमेटी में महज एक वोट के अंतर से माओ का सांस्कृतिक क्रांति का प्रस्ताव पारित हुआ। 8 अगस्त को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी द्वारा जारी 16 सूत्रीय एक सर्कुलर के साथ सांस्कृतिक क्रांति शुरु करने का निर्णय हुआ। 
        सांस्कृतिक क्रांति पार्टी व सरकार में मौजूद पूंजीवादी तत्वों व पूंजीवादी नीतियों के खिलाफ लक्षित थी। जनता से सीधे पार्टी व सरकार में बैठे पूंजीवादी तत्वों व नीतियों की आलोचना का आह्वान किया गया। इसके अलावा शिक्षा, कला, साहित्य में भी पुराने प्रतिक्रियावादी विचारों व मूल्यों के खिलाफ यह लक्षित थी। केन्द्रीय कमेटी द्वारा जारी 16 सूत्रीय सर्कुलर सांस्कृतिक क्रांति को परिभाषित करते हुए कहता है- ‘‘हालांकि पूंजीपति वर्ग को उखाड़ फेंका गया है, फिर भी यह शोषक वर्गों के पुराने विचारों, पुराने रीति-रिवाजों, आदतों का इस्तेमाल जनता को भ्रष्ट करने तथा उसके मस्तिष्क को बांधकर पुनः सत्ता पर काबिज होने की कोशिश कर रहा है। सर्वहारा को इसके विपरीत व्यवहार करना होगा। इसे पूंजीपति वर्ग विचारधारात्मक चुनौती से सीधे टक्कर लेते हुए सर्वहारा वर्ग के नए विचारों, मूल्यों, परंपराओं व आदतों का प्रयोग पूरे समाज के मानसिक दृष्टिकोण को बदलने के लिए करना चाहिए।’’
        इस तरह सांस्कृतिक क्रांति पूरे समाज व देश में पूंजीवादी विश्वदृष्टिकोण की जगह सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण स्थापित करने का संघर्ष था। 
        सांस्कृतिक क्रांति के पूरे दौर में छात्रों नौजवानों की अग्रणी भूमिका रही। सांस्कृतिक क्रांति की शुरूआत पेकिंग विश्वविद्यालय में माओ के चित्राक्षरों वाले बड़े पोस्टर से हुई फिर यह आंदोलन विश्वविद्यालयों, कालेजों से होते हुए फैक्टरियों, खेतों, खदानों तक पहुंच गया। शंघाई के मजदूरों के इसमें शामिल होने से इसे आवेग मिला। सेना भी इससे अछूती नहीं रही। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान छात्रों नौजवानों द्वारा ‘रेड गार्ड’ के दस्ते कायम किये गये। सांस्कृतिक क्रांति का संदेश लेकर लाखों की संख्या में शहरों व दूर दराज के गांवों में ‘रेड गार्ड’ कूच कर गये।
        सांस्कृतिक क्रांति के दौरान हर उस चीज पर हमला किया गया जो प्रतिक्रियावादी थी जो शोषण, गैर बराबरी का पक्षपोषण करती थी शिक्षा कला व संस्कृति के क्षेत्र में जो कुछ परजीवी संस्कृति को बढ़ावा देता, जो कुछ श्रम व श्रमिक वर्ग की गरिमा को कमतर आंकता, जो कुछ पूंजीवादी श्रेष्ठता बोध को प्रश्रय देता, पितृसत्तात्मक मूल्यों-मान्यताओं का पोषण करता वह सीधे सांस्कृतिक क्रांति के निशाने पर था। 1966 से 1976 के दस वर्षों तक सांस्कृतिक क्रांति चलती रही। 
        सांस्कृतिक क्रांति के दौरान पार्टी व सत्ता के शीर्ष में बैठे कई पूंजीवादी पथगामियों को जनता ने निशाने पर लिया। उन्हें अपने पद छोड़ने के लिए मजबूर किया। इनमें कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ल्यू शाओ ची व उपाध्यक्ष देङ श्याओ पिङ व रक्षा मंत्री पेंग हुई जैसे लोग शामिल थे। देङ श्याओ पिङ कुछ समय बाद माफी मांगकर पुनः पार्टी में वापस आ गया लेकिन उसका यह व्यवहार महज छलावा था और वह उचित मौके की तलाश कर रहा था।
        सितम्बर 1976 में माओ त्से तुङ की मृत्यु के बाद मध्यमार्गी हुआ कुआ फेङ सत्तासीन हुआ। उसने सांस्कृतिक क्रांति को स्थगित कर दिया। उसके कुछ समय बाद कुख्यात डेंङ श्याओ पिङ सत्ताशीर्ष में पहुंचने में कामयाब हो गया। उसने सांस्कृतिक क्रांति को ‘महान विपदा’ घोषित कर दिया तथा सांस्कृतिक क्रांति के चार नेताओं जिसमें माओ की पत्नी किङ कियाङ भी शामिल थीं, को ‘गैंग आफ फोर’ कहकर बदनाम किया और जेल में डाल दिया। देङ श्याओ पिङ ने चीन में पूंजीवादी पुनस्र्थापना कर चीन को पूंजीवाद के रास्ते पर धकेल दिया। इस तरह चीन में समाजवादी युग का अंत हो गया।
        देङ श्याओ पिङ ने अपने पूंजीवादी मार्ग को ‘बाजार समाजवाद’ की लफ्फाजी में छिपाया। देङ के रास्ते पर चलकर चीन मजदूरों-किसानों के लिए नर्क बन चुका है और एक साम्राज्यवादी लुटेरी ताकत बनने की ओर अग्रसर है।
        निश्चत तौर पर चीन के समाजवाद का दौर अल्पकालिक रहा लेकिन इस छोटे से दौर में भी चीनी क्रांति, ने समाजवादी चीन की उपलब्धियों ने और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति ने पूरी दुनिया के मजदूरों को जो विरासत दी है वह आने वाली क्रांतियों व समाजवादी समाजों का रास्ता प्रशस्त व आलोकित करती रहेगी। 

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