मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

दर्शन के कुछ सवाल: द्वन्द्ववाद

-शाकिर


        प्राचीन यूनान में पांचवी सदी ईसा पूर्व में जेनो नामक एक दार्शनिक था। वह परमिनिडीज का शिष्य था। ईलिया द्वीप के परमिनिडीज ने जो दर्शन की शाखा चलाई थी उसे प्राचीन यूनानी दर्शन में इलीटिक स्कूल के नाम से जाना जाता है।
        परमिनिडीज का विचार था कि अंतिम सत्य एक (यूनिटी) है तथा बहुलता व गति और परिवर्तन भ्रम मात्र हैं। इसके शिष्य जेनो ने गति और परिवर्तन की भ्रामकता को स्थापित करने के लिए कुछ उदाहरण पेश किये जिन्हें बाद में जेनो के विरोधाभाष (जेनो पैराडाक्स) के नाम से जाना गया। इन विरोधाभाषों के तीन प्रमुख इस प्रकार हैं।

        यदि अखिलीस (ग्रीक पुराणों का सबसे महान योद्धा) और कछुआ दौड़ लगाना शुरू करें तथा शुरुआत में कछुआ कुछ आगे से प्रस्थान करे तो अखिलीस कछुए से कभी आगे नहीं निकल पायेगा। ऐसा इसलिए होगा कि जब तक अखिलीस दौड़कर उस जगह पहुंचेगा जहां से कछुए ने प्रस्थान किया था तब तक कछुआ कुछ और आगे निकल चुका होगा। अब अखिलीस कछुए की नयी स्थिति तक पहुंचने के लिए दौडे़गा लेकिन कछुआ फिर कुछ आगे निकल चुका होगा। यह हमेशा होता रहेगा इसलिए अखिलीस कछुए से आगे कभी नहीं निकल पायेगा।
        ऊपर प्रस्तुत विरोधाभाष अजीब है पर तार्किक तौर पर सुसंगत है। सभी जानते हैं कि व्यवहार में अखिलीस कछुए से आगे निकल जायेगा पर उपरोक्त तर्क इसके खिलाफ है।
        जेनो का दूसरा विरोधाभाष इससे मिलता-जुलता है। यदि होमर (प्राचीन यूनान का प्रसिद्ध कवि तथा अखिलीस की गाथा प्रस्तुत करने वाले इलियाड का रचियता) कहीं पहुंचने के लिए चलना शुरु करे तो उसे पहले आधी दूरी तय करनी होगी। लेकिन वह यह आधी दूरी तय कर सके इसके पहले उसकी भी आधी दूरी तय करनी होगी। यह क्रम चलता रहेगा। परिणाम यह निकलेगा कि होमर यात्रा शुरू ही नहीं कर पायेगा क्योंकि सबसे पहले उसे पहली आधी दूरी तय करनी होगी। जब यात्रा शुरू ही नहीं होगी तो यात्रा समाप्त भी नहीं होगी। यानि गति नहीं होगी।
        इस विरोधाभाष का दूसरा संस्करण अखिलीस व कछुए वाले विरोधाभाष से मिलता जुलता है। इसमें होमर पहली आधी दूरी तय कर लेता है पर आधी बची रहती है। फिर वह उसकी आधी दूरी तय करता है पर आधी बची रहती है। इस तरह आधी दूरी हमेशा बची रहती है। इसलिए होमर गंतव्य तक कभी नहीं पहुंच पायेगा। अतः गति असम्भव है। 
        यदि जेनो के उपरोक्त दोनों विरोधाभाष दूरी या स्थान से सम्बन्धित थे तो तीसरा विरोधाभाष समय से सम्बन्धित था। यदि किसी तीर को धनुष से छोड़ा जाये तो वह हर क्षण कहीं न कहीं होगा। यदि वह कहीं है तो गति नहीं कर रहा होगा। पर किसी जगह पहुंचने के लिए उसे किसी अन्य जगह उसी क्षण नहीं होना होगा। ये दोनों विरोधाभाषी हैं इसलिए गति सम्भव नहीं है।
        जेनो के इन विरोधाभाषों ने प्राचीन व मध्यकाल के दार्शनिकों को बहुत चक्कर में डाला। उनमें से कईयों ने इन्हें गलत साबित करने के प्रयास किये। प्रयास करने वालों में प्लेटो और अरस्तु जैसे महान दार्शनिक भी थे। पर वे ज्यादा सफल नहीं हो पाये।
        जैसा कि समय ने दिखाया जेनो के इन विरोधाभाषों में दर्शन और विज्ञान के कुछ मूलभूत सवाल निहित थे। विज्ञान ने इन सवालों को अनंत की श्रंखला के रूप में(1=1/2+1/4+1/8+1/16+1/32........")हल किया तो दर्शन ने द्वन्द्ववाद के रूप में। लेकिन इन पर जरा बाद में।
        परमिनिडीज और जेनो की गति और परिवर्तन विरोध की धारणाएं उनके भी पहले के दार्शनिक हेराक्लिटस के विरोध में पैदा हुई थीं। हेराक्लिटस का कहना था कि इस दुनिया की सभी चीजें सतत परिवर्तनशील हैं। सभी चीजें विपरीतों की एकता के रूप में हैं यानि एक चीज है तो उसकी विरोधी चीज भी है। गति और परिवर्तन के बारे में उसका प्रसिद्ध कथन मशहूर है कि किसी नदी में केवल एक बार प्रवेश किया जा सकता है या किसी नदी को केवल एक बार पार किया जा सकता है। दूसरी बार नदी बदल चुकी होगी क्योंकि बहती धारा में पानी बदल चुका होगा। उसका शिष्य ट्राइलिप्स तो और भी आगे गया और उसने कहा कि किसी नदी को केवल एक बार भी पार नहीं किया जा सकता क्योंकि पार करते-करते ही नदी बदल चुकी होगी। हेराक्लिटस की बात ने जहाँ गति और परिवर्तन को रेखांकित किया वही उसने एक और दार्शनिक समस्या की ओर इंगित किया जिसने बाद में काफी प्रमुखता पाई। यह समस्या थी तादात्म्य और विभेद की। नदी यदि लगातार बदल रही है तो वह वही नदी कैसे है? क्यों उसे वही नदी कहा जायेगा जबकि उसका पानी लगातार बदल रहा है? भोलू जब पैदा हुआ और भोलानाथ जब सत्तर साल का बूढा़ होकर मरा तो दोनों एक ही कैसे थे? नये पैदा हुए भोलू और बूढ़े भोलानाथ मेें क्या तादात्म्य है? क्या चीज है जो दोनों को एक ही व्यक्ति करार देती है? 
        जेनो ने जो विरोधाभाष प्रस्तुत किये थे उन्होेंने करीब बाईस शताब्दी बाद इमैनुएल काण्ट के विप्रतिषेधों के रूप में एक नया अवतार लिया। काण्ट ने चार विप्रतिषेध गिनाए। पहला यह था कि दिक् और काल (Space and Time) अनंत भी हैं और सान्त भी। यानि कुछ तर्क यह साबित करते हैं दिक् और काल का न आदि है और न अंत। इसके विपरीत कुछ तर्क यह साबित करते हैं कि द्कि और काल सीमित हैं, यानि उनकी शुरुआत और अन्त है। दूसरा विप्रतिषेध यह है कि दिक् और काल का अनंत विभाजन हो सकता है और कोई अंतिम अंश नहीं आयेगा जबकि विरोधी पक्ष यह है कि विभाजन एक बिन्दु पर जाकर अटक जायेगा यानि अंतिम कण और अंतिम क्षण निकल आयेगा। तीसरा विप्रतिषेध इस विश्व के हमेशा से विद्यमान होने या किसी क्षण अस्तित्व में आने से सम्बन्धि है यानि विश्व अनंत काल से विद्यमान है और हमेशा विद्यमान रहेगा अथवा यह किसी क्षण विशेष में पैदा हुआ है (और कभी खत्म हो जायेगा)। चैथा विप्रतिषेध इस विश्व में कारणता से सम्बन्धित है। क्या विश्व में कार्य-कारण की अनंत श्रंखला विद्यमान है या कोई पहला आदिकारक (मसलन ईश्वर या आज का ‘बिग बैंग’) था, जिसने विश्व में बाद की कार्य-कारण श्रंखला को जन्म दिया।
        काण्ट का कहना था कि इन विप्रतिषेधों की विशेषता है कि चारों में मौजूद दोनों परस्पर विरोधी विचारों को गलत या सही साबित किया जा सकता है। इनमें से हर किसी के पक्ष या विपक्ष में तर्क मौजूद हैं। स्वयं काण्ट ने इन तर्कों को विस्तार से प्रस्तुत किया। जहाँ तक काण्ट के अपने पक्ष का सवाल था उनका मानना था कि पहले दोनों विप्रतिषेधों के दोनों पक्ष गलत हैं जबकि बाद के दोनों विप्रतिषेधों के दोनों पक्ष सही। 
        काण्ट ने ये चारों विप्रतिषेध मानवता की तर्क बुद्धि की सीमा रेखांकित करने के लिए प्रस्तुत किये थे। उनका मानना था कि तर्कों से इनके बारे में किसी निश्चित नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सकता। तर्कों से दोनों ही पक्ष सही या गलत साबित होते हैं। इसी सन्दर्भ में काण्ट का प्रसिद्ध कथन था कि मैंने तर्क बुद्धि की सीमा इसलिए रेखांकित की है कि (आत्मा, परमात्मा और आत्मा की अमरता के बारे में) विश्वास का रास्ता प्रशस्त हो सके।
        काण्ट ने केवल चार विप्रतिषेधों को रेखांकित किया था। पर उनके कुछ समय बाद हेगेल ने बताया कि विप्रतिषेध केवल चार क्षेत्र में नहीं हैं। इसके विपरीत सारा जीवन ही विप्रतिषेधों से भरा पडा़ है। प्रकृति, समाज और विचार की हर चीज विप्रतिषेधों से ही बनी हुई है। इसे हेगेल ने अंतर्विरोध कहा। हर अंतर्विरोध के दो पक्ष होते हैं। ये दोनोें पक्ष एक दूसरे के विपरीत या विरोधी होते हैं पर वे हमेशा साथ रहते हैं। उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस तरह हेगेल ने हेराक्लिट्स के विपरीतों की एकता के सिद्धान्त को नये सिरे से प्रस्तुत किया।
        यह मजेदार है कि जहाँ काण्ट ने जेनो के विरोधाभाषों (अनन्तता व सान्तता के सम्बन्ध में) को अपने विप्रतिषेधों के नये रूप में प्रस्तुत किया वही हेगेल काण्ट की विप्रतिषेधों की बातों को आगे बढ़ाकर, उसे सामान्यीकृत  कर हेराक्लिट्स की स्थिति तक लौट आये। हेराक्लिटस और पेरामिनीडीज-जेनो सैद्धान्तिक और ऐतिहासिक तौर पर विपरीतो की एकता साबित हुई।
        विपरीतो की एकता द्वन्द्ववाद का मूल है। स्वयं द्वन्द्ववाद का यह इतिहास दिखाता है कि यह स्वयं द्वन्द्ववाद पर भी लागू होता है। जहाँ हेराक्लिटस और परमिनिडीज-जेनो विपरीतों की एकता साबित होते हैं। स्वयं दर्शन का विकास भी इसी रूप में होता है।
        पर द्वन्द्ववाद का इतिहास इतना सीधा नहीं रहा है। जहाँ हेराक्लिटस जैसे दार्शनिक सहज द्वन्द्ववादी थे वहीं एक लम्बे समय तक द्वन्द्ववाद केवल वाद-विवाद का एक तरीका बना रहा-विरोधी की बात गलत साबित करने के जरिए सत्य तक पहुँचने का तरीका। यानि यह महज ज्ञान शास्त्र का एक यन्त्र या औजार था। यूनान में सुकरात के पहले सोफीवादी इसका इस्तेमाल कुतर्क की हद तक करते थे। वे एक दिन लोगों के सामने एक बात साबित करते थे तो दूसरे दिन ठीक उल्टी बात। ऐसा करके वे यह साबित करते थे कि किसी भी चीज के बारे में निर्णय व्यक्ति सापेक्षिक होता है। ज्ञान की व्यक्ति सापेक्षता पर जोर देकर वे ज्ञान की किसी भी तरह की निरपेक्षता से इन्कार कर देते थे। उनकी तर्क प्रणाली यूनानी जनतंत्र में अभिजातों के बहुत काम की थी क्योंकि जन सभाओं में भाषण कला सबसे जरूरी चीज थी। सोफीवादी अभिजातों के व्यक्तिगत ट्यूटर का काम करते थे। 
        सुकरात और उनके शिष्य प्लेटो ने भी द्वन्द्ववाद की इस विधा का इस्तेमाल किया। सुकरात इसी के जरिये अपने विरोधी को उसकी धारणा के ठीक विपरीत नतीजों पर पहुंचा देता था। प्लेटो ने अपने गुरू की परम्परा का पालन किया। उसकी सारी रचनाएं वाद-विवाद के रूप में हैं, जिसमें एक पक्ष हमेशा सुकरात होता है। विरोधी पक्ष के रूप में या तो सुकरात का विरोधी होता है या सुकरात का कोई शिष्य जो विरोधी की बात प्रस्तुत कर रहा होता है। 
        बाद के समय में, खासकर मध्यकाल में द्वन्द्ववाद को इसी वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा। आज भी कुछ लोग द्वन्द्ववाद को इसी रूप में लेते हैं।
        द्वन्द्ववाद को वाद-विवाद की विधा के रूप में लेने से हटकर अरस्तू ने इसकी ज्यादा गहराई से छान-बीन करने की कोशिश की । खासकर जब उन्होंने गति और परिवर्तन की छान-बीन की अथवा तर्कशास्त्र का विश्लेषण किया तो द्वन्द्ववाद की कुछ मूलभूत विशेषताओं को चिन्हित किया।
        बाद में पाँचवी सदी में प्रोक्लस नाम के दार्शनिक ने, जो नव प्लेटोवादी था, वाद-विवाद-संवाद का त्रिक सूत्र विकसित किया जो अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के भाववादी जर्मन दार्शनिकों- फिख्ते, शेलिंग और हेगेल द्वारा अपनाया गया। प्रोक्लस ने कहा था कि चीजे होती हैं, विकसित होती हैं और वापस लौटती हैं।
        भारतीय दर्शन की बात करें तो बौद्ध दर्शन ने बहुत दृढ़तापूर्वक सतत् प्रवाह की बात की। इसके अनुसार हर चीज सतत् प्रवाह में है। स्वयं आत्मा भी सतत् प्रवाह में है। निर्वाण का मतलब है आत्मा की इस प्रवाह से मुक्ति। जहाँ चार्वाकवादियों की बात है वे अपने सहज भौतिकवाद में गति परिवर्तन मान कर चलते थे। वे हर चीज की व्याख्या इसी के हिसाब से करने का प्रयास करते थे।
        द्वन्द्ववाद को सबसे ज्यादा विकसित करने का काम जर्मन भाववादी दार्शनिक हेगेल ने किया। माक्र्सवाद ने इनके ही दर्शन को प्रमाणित कर उसे भाववादी खोल से मुक्त भौतिकवादी द्वन्द्ववाद के रूप में स्थापित किया। इस भौतिकवादी द्वन्द्ववाद को संक्षेप में इस रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है। 
        प्रकृति, मानव समाज और मानव चिन्तन (विचार) में हर चीज एक दूसरे से सम्बद्ध है और एक दूसरे से क्रिया-प्रतिक्रिया कर रही है। अपने अन्तिम रूप में ब्रह्माण्ड की हर चीज एक दूसरे के साथ अंतर्संबंधित है तथा एक दूसरे को प्रभावित कर रही है। केवल इतना ही नहीं ब्रह्माण्ड की हर चीज गतिमान और परिवर्तनशील है। हर चीज पैदा होती है, विकसित होती है और खत्म होती है। हर चीज अस्तित्व में आती है और अस्तित्व से बाहर जाती है। कोई भी चीज शास्वत नहीं है सिवाय गतिमान और परिवर्तनशील पदार्थ के। (पदार्थ में पदार्थ, ऊर्जा, दिक्-काल सभी शामिल हैं क्योंकि इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता)
        परंतु ब्रह्माण्ड या प्रकृति में विद्यमान हर चीज की अंतर्संबद्धता, अंतक्रिया तथा गति और परिवर्तन किस प्रकार सम्पन्न होता है? यह होता है विपरीतों की एकता से या अंतर्विरोध के जरिए।
        विपरीतों की एकता प्रकृति का निरपेक्ष नियम है यानि प्रकृति, मानव समाज तथा मानव चिन्तन में हर चीज विपरीतों की एकता के रूप में मौजूद है। हर चीज को गहराई से देखने पर उसमें विपरीतों की एकता नजर आती है। पर यह विपरीतों की एकता है क्या चीज?
        अपने सौर मण्डल की दो चीजों को लें: स्वयं सूरज को तथा सूरज के चारों ओर ग्रहों की परिक्रमा को। सूरज दो विरोधी बलों का परिणाम है। सूरज में मौजूद गैसों के अणुओं के बीच गुरूत्वाकर्षण बल भीतर की ओर दबाव पैदा करता है जबकि गैसों के परमाणुओं के बीच नाभिकीय संलयन बाहर की ओर दबाव पैदा करता है। जहाँ पहला आकर्षण है वही दूसरा प्रतिकर्षण। इन दोनों दबावों के बीच एक निश्चित सम्बन्ध होता है। जब तक कोई तारा दहकते गोले के रूप में मौजूद होता है तब तक उसमें ये दोनों विरोधी बल होते हैं। तारे का अस्तित्व इन दोनों विरोधी बलों के बिना सम्भव नहीं है। यही विपरीतों की एकता है: दो विरोधी बलों का एक साथ अस्तित्व।
        जब ग्रह सूरज का चक्कर लगाते हैं तो वहाँ भी दो विपरीत गतियां होती हैं। एक गति ग्रह को सूरज की ओर खींचती है जबकि दूसरी ग्रह को सीधी रेखा में चलाना चाहती है। इन दोनों का परिणाम यह होता है ग्रह सूरज के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है। सौर मंडल में ये विरोधी गतियां एक साथ विद्यमान रहती हैं। इनके बिना सौरमंडल सम्भव नहीं।
        अब समाज का एक उदाहरण लें। पूंजीवाद नामक वर्गीय समाज में दो विरोधी वर्ग एक साथ मौजूद रहते हैः ये पूंजीपति और मजदूर। ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। पूंजीपति शोषक है और मजदूर शोषित। पूंजीपति शासक है, मजदूर शासित। पूंजीपति श्रमशक्ति खरीदता है, जबकि मजदूर श्रमशक्ति बेचता है। मजदूर मुनाफा पैदा करता है जबकि पूंजीपति उसे हड़प लेता है, इत्यादि-इत्यादि। पर पूंजीवाद का अस्तित्व इन दोनों के बिना असंभव है। पूंजीवाद में केवल पूंजीपति या केवल मजदूर नहीं हो सकते। पूंजीवाद पूंजीपति और मजदूर की एकता है।
        मानव चिन्तन का एक उदाहरण लें। किसी भी इन्सान के दिमाग में ज्ञान और अज्ञान हमेशा एक साथ मौजूद रहते हैं। हर व्यक्ति कुछ चीजों के बारे में जानता है तो बाकी के बारे में नहीं जानता। मानव मस्तिष्क में ज्ञान को अज्ञान से अलग नहीं किया जा सकता।
        लेकिन विपरीतों की एकता में केवल इतनी बात नहीं है कि विरोधी चीजें एक साथ मौजूद होती हैं। बल्कि यह भी है कि इन विपरीतों के बीच लगातार संघर्ष चलता रहता है और दोनों का स्थान बदल जाता है। प्रधान गौण बन जाता है और गौण प्रधान बन जाता है। इससे चीज का स्वरूप भी बदल जाता है। क्या मतलब है इन बातों का? 
        पूंजीवादी समाज को लें। इसमें दो विपरीत हैं- पूंजीपति और मजदूर। ये एक अंतर्विरोध के दो पहलू हैं। इनमें से एक प्रधान और दूसरा गौण। प्रधान है पूंजीपति और गौण है मजदूर। पूंजीपति के प्रधान होने के चलते ही समाज का चरित्र पूंजीवादी होता है क्योंकि सभी चीजें पूंजीपति वर्ग के हिसाब से चलती रहती हैं। पूंजीवाद में इन वर्गों के बीच में संघर्ष चलता रहता है। जब यह संघर्ष चरम पर पहुंचता है तो मजदूर वर्ग हावी हो जाता है और समाज का प्रधान पहलू बन जाता है। इसके विपरीत अब पूंजीपति वर्ग प्रधान से गौण स्थिति में चला जाता है। अंतर्विरोध के दोनों पहलुओं में इस परिवर्तन से समाज का चरित्र भी बदल जाता है। अब समाज पूंजीवाद के बदले समाजवाद में बदल जाता हैैै।
        ऐसा ही हर चीज में होता है। चीज में मौजूद अंतर्विरोध के दोनों पहलुओं के बीच संघर्ष लगातार चलता रहता है तथा संघर्ष के चरम पर पहुँचने पर पहले का प्रधान पहलू गौण तथा गौण पहलू प्रधान बन जाता है। चीज में गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है।
        चीज में गुणात्मक परिवर्तन का मतलब है नयी चीज का पैदा होना। पर गुणात्मक परिवर्तन होने से पहले एक लम्बे समय तक मात्रात्मक परिवर्तन होता रहता है। विपरीतों की एकता के दोनों पहलुओं में मात्रात्मक परिवर्तन होता रहता है। पर अभी प्रधान पहलू प्रधान बना रहता है जबकि गौण पहलू गौण। क्रमशः होता मात्रात्मक परिवर्तन एक समय वहाँ पहुँचता है जब एक झटके से प्रधान पहलू गौण बन जाता है तथा गौण पहलू प्रधान। चीजें अपने विपरीत में बदल जाती हैं। क्रमशः होता मात्रात्मक परिवर्तन एक झटके से गुणात्मक परिवर्तन को जन्म दे देता है। मजदूर वर्ग की बढ़ती ताकत एक झटके से क्रांति के द्वारा समाज को समाजवाद में पहुँचा देती है।
        इसका विपरीत भी होता है। गुणात्मक परिवर्तन अपनी बारी में नये मात्रात्मक परिवर्तनों को जन्म देता है जो अंततः फिर गुणात्मक परिवर्तनों को ले जाते हैं।
        पर यह मामले को थोड़ा सरल रूप में प्रस्तुत करना है। असल में किसी चीज में एक नहीं कई अंतर्विरोध होते हैं तथा हर अंतर्विरोध के दो पहलू होते हैं- एक प्रधान तथा एक गौण। चीज का चरित्र प्रधान अंतर्विरोध के प्रधान पहलू से तय होता है। जैसे कि पूंजीवाद में पूंजीपति वर्ग व मजदूर वर्ग के अलावा मध्यम वर्ग भी होता है। इस कारण पूंजीवाद में पूंजीपति वर्ग और मध्यम वर्ग के बीच तथा मध्यम वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच भी अंतर्विरोध होते हैं। पर इनमें पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच का अंतर्विरोध ही प्रधान होता है। पूंजीवाद का चरित्र इसी प्रधान अंतर्विरोध के प्रधान पहलू यानि पूंजीपति वर्ग से तय होता है।
        किसी चीज के समग्र विकास में प्रधान अंतर्विरोध गौण में तथा गौण अंतर्विरोध प्रधान में बदल जाता है। इस विकास प्रक्रिया में कुछ अंतर्विरोध समाप्त भी हो सकते हैं और कुछ नये पैदा भी हो सकते हैं।
        विपरीतों की एकता और संघर्ष की इस गति के फलस्वरूप चीजों का विकासक्रम कुछ इस रूप में होता है कि कई बार यह विकास ‘वाद-विवाद-संवाद’ का रूप ले लेता हैं। यानि एक चीज अपने विपरीत में बदल जाती है। पर समय के साथ दूसरी चीज भी अपने विपरीत में बदल जाती है। इस तरह तीसरी चीज अस्तित्व में आती है। विपरीत का विपरीत होने के चलते तीसरी चीज किन्हीं मायनों में पहली जैसी नजर आती है, हालांकि यह पहले से गुणात्मक तौर पर भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए आदिम कबीलाई समाज वर्गहीन समाज था। इसमें कोई निजी सम्पत्ति नहीं थी। यह समाज अपने विपरीत में यानि निजी सम्पत्ति वाले वर्गीय समाज में बदल गया। समय के साथ निजी सम्पत्ति वाला वर्गीय समाज फिर अपने विपरीत में यानि वर्ग विहीन साम्यवादी समाज में बदल जायेगा जिसमें कोई निजी सम्पत्ति नहीं होगी। पर यह साम्यवादी समाज पुराने आदिम कबीलाई समाज से गुणात्मक तौर पर भिन्न होगा। यह स्थानीय नहीं बल्कि वैश्विक होगा। यह उत्पादक शक्तियों के निम्न स्तर पर नहीं बल्कि उच्च स्तर पर आधारित होगा। यह अभाव पर नहीं बल्कि प्रचुरता पर आधारित होगा। इसमें मानव प्रकृति के सामने असहाय नहीं बल्कि प्रकृति के नियमों को जानकर उनका इस्तेमाल करने वाला होगा। इत्यादि।
        गहराई से देखें तो समाज का उपरोक्त रूपान्तरण सामूहिक सम्पत्ति और निजी सम्पत्ति के अंतर्विरोधी पहलुओं की एकता और संघर्ष के जरिए होता है। आदिम कबीलाई समाज में सामूहिक सम्पत्ति प्रधान होती है जबकि निजी सम्पत्ति गौण। पर समय के साथ निजी सम्पत्ति प्रधान बन जाती है और समाज वर्गीय समाज में रूपान्तरित हो जाता है। पर एक बार फिर गौण बन चुकी सामूहिक सम्पत्ति लम्बे परिवर्तन से प्रधान बन जाती है और समाज वर्ग विहीन साम्यवादी समाज में बदल जाता है। पर साम्यवादी समाज की सामूहिक सम्पत्ति आदिम कबीलाई समाज की सामूहिक सम्पत्ति से गुणात्मक तौर पर भिन्न होती है। 
        प्रकृति, मानव समाज और मानव चिन्तन में सारी गति और परिवर्तन इसी तरह सम्पन्न होता है।
        विपरीतों की एकता के नजरिए से वे दो तो पहले गिनायी गयी समस्याएं एकदम सामान्य नजर आती हैं। जो विरोधाभाष जेनो ने प्रस्तुत किये या जो विप्रतिषेध काण्ट ने बताये असल में वे विपरीतों की एकता हैं। वे एक ही अंतर्विरोध के दो पहलू हैं। प्रकृति व समाज में चीजें होती ही इसी रूप में हैं। इसमें अनंत व साँत एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और अलग नहीं किये जा सकते। इसमें अनंत सान्त में बदल जाता है और सान्त अनंत में। कार्य-कारण सम्बन्ध के बारे में यही सच है। कार्य को कारण से व कारण को कार्य से अलग नहीं किया जा सकता। केवल कारण या केवल कार्य नहीं हो सकता।
        गति व परिवर्तन में भी यही बात होती है। गति करती कोई चीज किसी बिन्दु विशेष पर होती भी और नहीं भी होती है। किसी बिन्दु विशेष पर किसी क्षण विशेष में एक ही साथ होने और ना होने का ही दूसरा नाम गति है। परिवर्तन में भी यही होता है। कोई भी परिवर्तनशील वस्तु किसी क्षण विशेष पर वही वस्तु होती है, साथ ही नहीं भी होती है। यानि वस्तु में तादात्म्य भी होता है और विभेद भी। लगातार बहती नदी वही नदी होती है लेकिन साथ ही नहीं भी होती है। 
        तादात्म्य और विभेद कुछ इस रूप में होते हैं कि विकास की एक लम्बी प्रक्रिया में चीज गुणात्मक तौर पर बदलकर बिल्कुल भिन्न चीज भी बन सकती है (मसलन पुरानी किसी प्रजाति से नयी प्रजाति का जन्म) या फिर वह परिवर्तनों के साथ वही बनी रह सकती हैै(किसी प्रजाति में विविधता या फिर किसी प्रजाति के किसी जीव विशेष की विभिन्न अवस्थाएं-बचपन, युवावस्था और बुढ़ापा)।
        इसी तरह निरपेक्ष और सापेक्ष भी अंतर्विरोध के दो पहलू या विपरीतों की एकता हैं। ज्ञान सापेक्ष भी होता है निरपेक्ष भी। सापेक्ष में निरपेक्ष और निरपेक्ष में सापेक्ष छिपा होता है।
        द्वन्द्ववाद की इस मूल बात को समझ लेने पर हमारे लिए यह अचरज की बात नहीं रह जाती कि अच्छाई को बुराई से, सच को झूठ से, ईमानदारी को बेईमानी से, प्रगतिशीलता को प्रतिक्रिया से, नैतिकता को अनैतिकता से अलग नहीं किया जा सकता। विकास के साथ वे एक दूसर में रूपान्तरित हो जाती हैं: अच्छाई बुराई में बदल जाती है, सच झूठ में बदल जाता है इत्यादि। 
        यही द्वन्द्ववाद हमें यह भी बताता है कि समाज हमेशा परिवर्तनशील होता है तथा क्रमिक परिवर्तन अंततः गुणात्मक परिवर्तन को जन्म देता है। इसी कारण पूंजीवाद एक शाश्वत समाज व्यवस्था नहीं है। यह अंततः वर्गविहीन साम्यवादी समाज में बदल जायेगा। यह ठोस तौर पर कैसे होगा यह ठोस ऐतिहासिक-राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषण से ही बताया जा सकता है क्योंकि ठोस परिस्थिति का ठोस विश्लेषण द्वन्द्ववादी विश्लेषण पद्धति की मूलभूत विशेषता है।     

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